भारत भूषण श्रीवास्तव 

1980  में प्रदर्शित बी.आर. चोपड़ा निर्देशित फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ में सब से चुनौतीपूर्ण भूमिका डाक्टर श्रीराम लागू के हिस्से में आई थी. इस फिल्म में वे जीनत अमान और पद्मिनी कोल्हापुरे के बलात्कार के आरोपी राज बब्बर के वकील थे.

‘इंसाफ का तराजू’ 80 के दशक की सर्वाधिक चर्चित और हिट फिल्मों में से एक थी, क्योंकि बलात्कार पर इस से पहले कोई ऐसी फिल्म नहीं बनी थी, जो समाज में हलचल मचा कर उसे इस संवेदनशील मुद्दे पर नए सिरे और तरीके से सोचने मजबूर कर दे.

कारोबारी राज बब्बर 2 बहनों का बलात्कार करता है और उसे बचाने का जिम्मा लेते हैं क्रिमिनल लायर मिस्टर चंद्रा यानी श्रीराम लागू. इस फिल्म के अदालती दृश्य काफी वास्तविक और प्रभावी बन पड़े थे. जिरह में बचाव पक्ष का वकील कैसेकैसे घटिया और बेहूदे सवाल पीडि़ता से पूछता है, यह श्रीराम लागू ने परदे पर जितने प्रभावी ढंग से उकेरा था, वह शायद ही कोई दूसरा कलाकार कर पाता.

कटघरे में खड़ी जीनत अमान से यह पूछना कि बलात्कार के वक्त आरोपी के हाथ कहां थे, कंधों पर या जांघों पर और आप ने अपने बचाव में क्याक्या किया, जैसे दरजनों सवाल अदालतों का वीभत्स और कड़वा सच तब भी थे, आज भी हैं.

बचाव पक्ष के वकील अपने मुवक्किल को बचाने की हरमुमकिन कोशिश करते हैं. बलात्कार के मामलों में वकील की हरमुमकिन कोशिश होती है कि किसी भी तरह अदालत में यह साबित कर दें कि जो हुआ वह बलात्कार नहीं बल्कि सहमति से किया गया सहवास था. इस के बाद उस के नामी मुवक्किल को बदनाम और ब्लैकमेल करने की गरज से पीडि़ता हाय हाय करती अदालत आ पहुंची है.

फिल्म ‘इंसाफ का तराजू’ में जीनत अमान की दयनीयता पर श्रीराम लागू की क्रूरता भारी पड़ी थी. अलावा इस के इस फिल्म का यह डायलौग भी खूब चर्चित हुआ था कि अगर कोई चश्मदीद गवाह होता तो बलात्कार होता ही क्यों.

खैर, यह हिंदी फिल्म थी, इसलिए अंत सुखद ही हुआ. लेकिन श्रीराम लागू ने अपने किरदार को जिस तरह से अंजाम दिया, वही उन की वह खूबी थी जिस के लिए वे आज तक याद किए जाते हैं और अब पुणे में निधन के बाद तो खासतौर से किए जा रहे हैं.

80 से भी ज्यादा हिंदी फिल्मों में विभिन्न शेड्स में अभिनय करने बाले श्रीराम लागू पेशे से ईएनटी सर्जन थे और मराठी थिएटर का जानामाना नाम थे. मामूली शक्लसूरत वाले श्रीराम लागू की एक्टिंग की अपनी एक अलग स्टाइल थी, जिसे बदलने की कोशिश उन्होंने कभी नहीं की, ठीक वैसे ही जैसे उन सरीखे दूसरे कई चरित्र अभिनेताओं ने नहीं की. इन में खास नाम इफ्तिखार, जगदीश राज, ओम प्रकाश, असित सेन, केष्टो मुखर्जी, उत्पल दत्त और ए.के. हंगल के हैं. ये तमाम कलाकार चार दशकों तक एक से ही नजर आए और हर भूमिका में दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया भी.

सतारा से मुंबई

महाराष्ट्र के सतारा में जन्मे 92 वर्षीय श्रीराम लागू ने पढ़ाई पुणे और मुंबई से की. ईएनटी सर्जन बनने के बाद प्रैक्टिस करने लगे. कालेज के दिनों में उन्होंने स्टेज पर एक्टिंग की, जो सराही भी गई. थिएटर तो उन की सांस में था. कुछ साल बतौर डाक्टर वे दक्षिण अफ्रीका में भी रहे लेकिन जब भारत वापस आए तो बचपन से मन में दबीकुचली इस ख्वाहिश को और ज्यादा नहीं टरका पाए कि फिल्मों में काम किया जाए, जिस पर उन के मातापिता कभी राजी नहीं हुए थे.

उस वक्त श्रीराम लागू की उम्र 42 साल थी. जाहिर है इस अधेड़ावस्था में उन्हें कोई हीरो वाले रोल तो मिलते नहीं, लिहाजा वे खामोशी से चरित्र अभिनेता बन गए. गंभीरता और परिपक्वता उन के चेहरे पर हमेशा पसरी रहती थी, जिस के चलते वे दूसरे कलाकारों से अलग हट कर दिखते थे. शायद डाक्टरी के पेशे ने उन्हें ऐसा बना दिया था.

हालांकि फिल्मों में काम हासिल करने के लिए उन्हें कोई स्ट्रगल नहीं करना पड़ा, लेकिन बतौर चरित्र अभिनेता उन  की पहचान सन 1977 में प्रदर्शित फिल्म ‘घरौंदा’ से मिली. गुलजार की लिखी इस कहानी में बढ़ते शहरीकरण के साइड इफेक्ट और बिल्डर्स की ठगी और बेइमानियां दर्शाई गईं थीं.

अमोल पालेकर और जरीना वहाब प्यार करते हैं लेकिन मुंबई में उन के पास घर नहीं है. फिल्म ‘घरौंदा’ में उन की इस कशमकश को बेहद खूबसूरत तरीके से दिखाया था. एक घर हासिल करने के लिए जरीना वहाब अमोल पालेकर के कहने पर अपने बूढ़े लेकिन रईस बौस मिस्टर मोदी यानी श्रीराम लागू से शादी कर लेती है. लेकिन शादी के बाद उस के भारतीय संस्कार उसे पति को धोखा देने से रोकते हैं और वह उस से ही प्यार करने लगती है.

अमोल पालेकर बेचारा हाथ मलता रह जाता है. फिल्म का गाना,  ‘दो दीवाने शहर में रात में और दोपहर में आशियाना ढूंढते हैं…’ खूब बजा था और आज भी शिद्दत से सुना और गुनगुनाया जाता है.

इस फिल्म के आखिरी दृश्य में श्रीराम लागू को हार्ट अटैक आता है, जिसे उन्होंने इतने जीवंत तरीके से जिया था कि हाल में बैठे दर्शकों को वे सचमुच में मरते से लगे थे. फिल्म समीक्षकों ने इस दृश्य को जबरदस्त करार दिया था. मिस्टर मोदी के किरदार के बाबत श्रीराम लागू को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था.

घरौंदा की जबरदस्त कामयाबी के बाद भी उन्हें उल्लेखनीय रोल नहीं मिले, लेकिन कई भूमिकाओं को उन्होंने अपने अभिनय के दम पर उल्लेखनीय बना दिया.

इन में से एक है प्रकाश मेहरा निर्देशित और अमिताभ बच्चन अभिनीत 1981 में प्रदर्शित फिल्म ‘लावारिस’, जिस ने बौक्स औफिस पर हाहाकार मचा दिया था. लावारिस फिल्म में श्रीराम लागू की भूमिका दूसरे कलाकारों के मुकाबले काफी छोटी थी. वे लावारिस हीरो के पिता बने थे, जो दिनरात शराब के नशे में धुत अपने सौतेले बेटे को गलियां देता रहता है.

यादगार किरदार

गंगू गनपत का यह किरदार अनूठा था जिस में में वह बारबार एक खास अंदाज में हरामी, कुत्ता और नाली के कीड़े जैसी गालियां बकता है. तब अमिताभ बच्चन का कैरियर और शोहरत दोनों अपने चरम पर थे पर श्रीराम लागू गंगू गनपत को जीते उन के सामने बिलकुल नहीं लड़खड़ाए थे.

इस फिल्म के डायलौग कादर खान ने लिखे थे, जिन्होंने पहली बार नाजायज औलाद की जगह नाजायज बाप शब्द का प्रयोग किया था. इस छोटी सी भूमिका में श्रीराम लागू ने जान डाल दी थी और हैरत की बात यह है कि व्यक्तिगत जीवन में वे शराब और सिगरेट जैसे नशे से परहेज करते थे.

फिर 2 साल बाद आई निर्देशक सावन कुमार टांक की फिल्म ‘सौतन’ जिस के संवाद जानेमाने साहित्यकार कमलेश्वर ने लिखे थे. राजेश खन्ना, टीना मुनीम, पद्मिनी कोल्हापुरे, प्रेम चोपड़ा और प्राण सरीखे नामी सितारों के सामने श्रीराम लागू के पास करने को कुछ खास नहीं दिख रहा था. लेकिन फिल्म के प्रदर्शन के बाद दर्शकों और फिल्मी पंडितों ने एक सुर में माना था कि श्रीराम लागू ने गोपाल के किरदार में अपनी प्रतिभा से जान डाल दी है.

इस फिल्म में वे पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता बने थे. दरअसल, यह भूमिका ऐसे अधेड़ गरीब दलित की थी, जिस की परित्यक्ता बेटी पर रईसों ने चारित्रिक लांछन लगा रखा है. एक दयनीय दलित पिता के इस रोल को दर्शकों ने खूब सराहा था तो इसलिए कि यह पात्र और श्रीराम लागू का अभिनय दोनों वास्तविकता के काफी नजदीक थे.

दूसरी कई फिल्मों में वे छोटीमोटी भूमिकाओं में दिखे, लेकिन अधिकांश में उन्हें अभिनय प्रतिभा दिखाने का मौका नहीं मिला और इस का अफसोस भी उन्हें कभी नहीं रहा. 1982 में सुभाष घई की फिल्म ‘विधाता’ में वे खलनायक बने थे, पर दर्शकों ने उन्हें इस रूप में ज्यादा पसंद नहीं किया.

हालांकि हास्य को छोड़ कर उन्होंने बेहद सहज तरीके से तमाम भूमिकाएं निभाईं इसीलिए वे फिल्म इंडस्ट्री में एक सहज कलाकार माने जाते थे जो आमतौर पर पब्लिसिटी से दूर रहता था. 90 के दशक में वे हिंदी फिल्मों में न के बराबर दिखे और जिन में दिखे, वे सब की सब सी ग्रेड की फिल्में थीं.

हिंदी फिल्मों से ज्यादा पहचान उन्हें मराठी थिएटर और सिनेमा से मिली ‘पिंजरा’, ‘सिंहासन’ और ‘सामना’ उन की यादगार मराठी फिल्में हैं. नट सम्राट वह पहला नाटक है, जिस की भूमिका के लिए वे हमेशा याद किए जाते रहेंगे. इस के लेखक विष्णु वामन शिरवाडकर को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था.

इस नाटक में श्रीराम लागू ने गणपत बेलवलकर की भूमिका निभाई, जिसे मराठी थिएटर में मील का पत्थर माना जाता है. इस नाटक से ताल्लुक रखती दिलचस्प बात यह किंवदंती है कि गणपत बेलवलकर का रोल इतना कठिन है कि जिस किसी  कलाकार ने भी इसे निभाना चाहा, वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गया.

इस रोल को करने के बाद खुद श्रीराम लागू भी हार्ट अटैक की गिरफ्त में आ गए थे. शायद इसीलिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए नट सम्राट ही कहा.

लगता ऐसा है कि व्यावसायिक सिनेमा के फेर में पड़ कर वे थिएटर से दूर होते चले गए, हालांकि इस बात को उन्होंने एक इंटरव्यू में बेमन से नकारा था, लेकिन अपनी आत्मकथा ‘लमन’, जिस का मतलब माल ढोने वाला होता है, में उन का यह दर्द झलका था.

समाजसेवी अन्ना हजारे से वे खासे प्रभावित थे. उन की पत्नी दीपा भी नामी कलाकार रही हैं. हिंदी फिल्मों से श्रीराम लागू को नाम और पैसा तो खूब मिला, लेकिन वह पहचान नहीं मिल पाई, जिस के वह हकदार थे और जिंदगी भर उस के लिए बैचेन भी रहे. शायद ऐसे ही मौकों के लिए मशहूर शायर निदा फाजली ने यह गजल गढ़ी होगी, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता…’

सौजन्य: मनोहर कहानियां, जनवरी 2020

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