दोपहर का वक्त था. श्रीमती आइवी सिंह सोफे पर बैठी सोच में गुम थीं. जिंदगी में आए उतारचढ़ाव की कल्पना ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया था. सोच का यह सागर अकसर दस्तक दे ही देता था. वह जिस कमरे में बैठी थीं, वह अस्पतालनुमा था. वह बिस्तर पर बेसुध से लेटे अपने पति आनंद सिंह को एकटक निहारे जा रही थीं. उन के साथ बिताए खुशगवार पलों की यादें एक तरफ खुशी दे रही थीं तो दूसरी तरफ दर्द का एक ऐसा तूफान भी था, जिस के थमने की कोई उम्मीद नहीं थी.
वर्तमान में उन के पास यूं तो हर खुशी थी, लेकिन पति की बीमारी की टीस उन्हें पलपल ऐसा अहसास कराती थी, जैसे कोई नाव किनारों की तलाश में बारबार लहरों से टकरा रही हो. अच्छेबुरे अनुभवों से उन की आंखों के किनारों को आंसुओं ने अपनी जद में ले लिया.
इसी तरह कुछ समय बीता तो उन्हें अपने सिर पर किसी के हाथ की छुअन का अहसास हुआ. आइवी सिंह ने नजरें उठा कर देखा. उन की मां आर. हिगिंस पास खड़ी थीं. बेटी को देख कर उन की भी आंखें नम हो गईं. वह शांत लहजे में बोलीं, ‘‘यूं परेशान नहीं होते बेटा.’’
आइवी ने हथेलियों से आंसू पोंछ कर पलकें उठाईं और मां का हाथ थाम कर बोलीं, ‘‘समझ नहीं आता मां क्या करूं?’’
‘‘सभी दिन एक जैसे नहीं रहते बेटी. एक न एक दिन आनंद ठीक हो जाएंगे, सब्र रखो.’’
‘‘सब्र तो कर ही रही हूं मां, लेकिन डाक्टर तो ना कर चुके हैं.’’
‘‘ऐसा नहीं है. कोई न कोई इलाज जरूर निकलेगा, बस तुम हौसला रखो.’’
आइवी सिर्फ कहने को सुहागन थीं. पति आनंद जीवित तो थे, लेकिन न वह चल फिर सकते थे न बोल सकते थे और न ही कुछ खा सकते थे. किसी अबोध बच्चे की तरह उन की देखभाल करना रोजमर्रा की बात थी.
उन की यह हालत कुछ दिनों या महीनों से नहीं, बल्कि लगातार 25 सालों से बनी हुई थी. दुनिया कितने रंग बदल चुकी है, वक्त का चक्र कैसे घूम रहा है और जिंदगी ने जवानी से बुढ़ापे की राह कैसे पकड़ ली है, आनंद को इस का रत्ती भर भी अहसास नहीं था.
आइवी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसे हालात आ जाएंगे. जिंदगी इस तरह जवानी से बुढ़ापे की ओर बढ़ेगी. पति की ऐसी दशा में सुहागन हो कर भी बेगानी सी जिंदगी का दर्द क्या होता है, यह आइवी ने अनगिनत बार बहुत करीब से महसूस किया था.
विवाह के बाद पति के साथ बिताए गए चंद महीनों की खुशनुमा यादों का महज एक गुलिस्तां आइवी के दिलोदिमाग में था. उसी के सहारे पति को जिंदा रखने की जुगत में जिंदगी अपनी रफ्तार से बीत रही थी. लेकिन उन की जिंदगी का इम्तिहान खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था.
हर इंसान अपनी जिंदगी के खुशगवार होने की उम्मीदों के चिराग रोशन रखता है, लेकिन यह भी सच है कि वह वक्त का गुलाम होता है. दरअसल आइवी के पति पिछले 25 सालों से बिस्तर पर कोमारूपी बीमारी ‘ब्रेन स्टेम’ के शिकार थे. दुनिया में अभी तक कोई चिकित्सक ऐसा नहीं मिला था, जो उन के पति का इलाज कर सके.
आधुनिक दौर के बिखरते रिश्तों की कुछ कड़वी सच्चाइयों की तरह अगर उन्होंने भी पतिपत्नी के नाजुक रिश्तों को चटका दिया होता तो आनंद न जाने कब दुनिया को अलविदा कह चुके होते. वह हर मुसीबत का सामना कर के पति के लिए अकल्पनीय हालात से लगातार जूझ रही थीं.
इस के बावजूद आइवी ने हिम्मत न हारने की कसम खा ली थी. दुनिया में आइवी सिंह जैसी बहुत कम महिलाएं होती हैं, जो मुसीबत के दौर में उस शख्स से किनारा नहीं करतीं, जिस के साथ उन का दिल की गहराइयों से नाता हो. पतिपत्नी के नाजुक रिश्ते की डोर को अपने समर्पण से न सिर्फ उन्होंने मजबूत कर दिया था, बल्कि अपनी हिम्मत से वफा की एक ऐसी बुलंद इमारत खड़ी कर दी थी, जो किसी के भी दिल को छू जाए.
वफा की यह इमारत उन के लिए दुनिया के हर खजाने से ज्यादा अनमोल थी. वक्त ने आइवी की दुनिया कैसे बदली थी, इस के पीछे भी एक कहानी थी.
आइवी की जिंदगी कभी किसी महकते हुए चमन की तरह थी. वक्त का हर पल जैसे उन के लिए मोती की तरह था. उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के एक ईसाई परिवार में जन्मी आइवी बी. हिगिंस की एकलौती बेटी थीं. हिगिंस सरकारी मुलाजिम थे. आर्थिक रूप से संपन्न हिगिंस की पत्नी आर. हिगिंस अध्यापिका थीं.
परिवार की माली हालत अच्छी थी, लिहाजा आइवी की परवरिश अच्छे माहौल में हुई. हिगिंस दंपति ने बेटी को अच्छे संस्कार दिए. आइवी को उन्होंने नाजों से पाला था. प्यार, समर्पण व जिम्मेदारियों की पूंजी आइवी को मातापिता से बचपन से ही मिली थी. परिवार पढ़ालिखा था और सभी सदस्य मृदुभाषी थे, इसलिए समाज में उन्हें इज्जत की नजरों से देखा जाता था.
प्राथमिक शिक्षा के बाद आइवी ने उच्च शिक्षा हासिल की. आइवी जीवन के उस मुकाम पर थीं, जहां लड़कियां अकसर अपनी कल्पना के शहजादों को ख्वाबों में देखती हैं.
हर मातापिता की तरह हिगिंस दंपति भी चाहते थे कि वह बेटी को अलग दुनिया बसाने के लिए अपने घर से विदा कर दें. उन्होंने उस के लिए रिश्ते की तलाश शुरू की. जल्द ही उन्हें रिश्तेदारी के माध्यम से एक युवक का पता चला. युवक का नाम था आनंद सिंह.
आकर्षक व्यक्तित्व के आनंद भारतीय नौसेना के इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत थे. आनंद उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला के रहने वाले थे. उन के पिता निर्मल सिंह पादरी थे, जबकि मां पुष्पा सिंह कुशल गृहिणी थीं. आनंद सिंह अपने परिवार की होनहार संतान थे. बचपन से ही वह चाहते थे कि बड़े हो कर देश की सेवा करें, इसलिए उन की राह में बाधा नहीं आई और उन्होंने मेहनत से तैयारी कर के सन 1976 में मनचाही नौकरी पा ली.
आनंद सिंह देहरादून के नेवल हाइड्रोग्राफिक कार्यालय में तैनात थे. दोनों परिवारों के बीच बातचीत हुई तो आइवी का रिश्ता आनंद के साथ तय कर दिया गया. इस रिश्ते से दोनों परिवार भी खुश थे और आइवी व आनंद भी.
22 मई, 1986 को आइवी और आनंद परिणयसूत्र में बंध गए. एकदूसरे को पा कर पतिपत्नी खुश थे. इतने खुश कि उन्हें अपने सामने दुनिया की हर खुशी फीकी नजर आती थी. आनंद ठीक वैसे ही थे, जैसे जीवनसाथी की कल्पना आइवी ने की थी.
आनंद चूंकि नौसेना का हिस्सा थे, इसलिए अनुशासन वहां पहली शर्त थी. उन का जिंदगी जीने का अंदाज दूसरों से जुदा था. वह साफसफाई व नियमबद्ध जीवन के मुरीद थे. आइवी खुद भी ऐसी ही थीं. उन्होंने आनंद के अनुरूप खुद को ढाल लिया था.
दोनों की शादी को कुछ महीने ही बीते थे कि आइवी के पिता बी. हिगिंस का देहांत हो गया. उन की मृत्यु ने आर. हिगिंस को अकेला सा कर दिया. आइवी को भी पिता की मृत्यु से धक्का लगा था. वह मेरठ चली आईं और उन्होंने मां के गम को बांटने की पूरी कोशिश की. करीब 2 महीने बाद वह वापस ससुराल चली गईं. आनंद उन्हें अपने साथ देहरादून अपने तैनाती स्थल पर ले आए. अभी कुछ महीने ही बीते थे कि एक दिन आनंद को इंडियन पीस कीपिंग कोर्स की 6 महीने की ट्रेनिंग के लिए विशाखापट्टनम जाना पड़ा.
उन के ट्रेनिंग पर जाने के बाद आइवी मेरठ आ गईं और कानून की पढ़ाई करने लगीं. उन दिनों चूंकि मोबाइल फोन नहीं होते थे, इसलिए पत्र ही संदेश पहुंचाने का एक जरिया थे. आनंद पत्नी से बराबर पत्राचार करते रहे.
आनंद आईएनएस एंड्रो जहाज पर तैनात थे. श्रीलंका में उन दिनों ताकतवर गुरिल्ला लड़ाकों वाले प्रतिबंधित संगठन लिट्टे का आतंक था. नौसेना भी उन के खिलाफ रणनीति तैयार कर रही थी. आनंद को रहने के लिए अलग कमरा मिला हुआ था. ड्यूटी आनेजाने के लिए वह अपनी बुलेट मोटरसाइकिल का इस्तेमाल करते थे.
किस इंसान के साथ कब क्या हो जाए, कोई नहीं जानता. बुरा वक्त जब खुशियों को ग्रहण लगाता है तो भविष्य के सारे सपने एक झटके में टूट जाते हैं और सपनों के घरौंदे ताश के पत्तों की तरह बिखर जाते हैं. आनंद के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ.
देहरादून स्थित नौसेना के नेवल हाइड्रोग्राफिक कार्यालय में आए एक सिगनल ने सभी की चिंता बढ़ा दी. आनंद के धारचूला स्थित आवास पर नौसेनाकर्मी सुबहसुबह पहुंच गए. उन्होंने जो बताया उसे सुन कर आनंद सिंह के पिता निर्मल सिंह और मां पुष्पा का दिल बैठ गया.
दरअसल, आनंद एक दुर्घटना का शिकार हो गए थे. 12 अगस्त, 1989 की रात जब वह जहाज से वापस अपने कमरे पर जा रहे थे तो रास्ते में एक दुर्घटना का शिकार हो गए. दुर्घटना होते चूंकि किसी ने नहीं देखी थी, इसलिए अंदाजा यही लगाया गया कि बारिश की वजह से शायद उन की मोटरसाइकिल फिसल गई होगी.
आनंद अस्पताल में भरती थे. हताश परेशान निर्मल सिंह यह सूचना देने के लिए तुरंत मेरठ रवाना हो गए. उन्हें अचानक इस तरह आया देख कर आर. हिगिंस व आइवी का दिल धड़क उठा. निर्मल सिंह के चेहरे पर झलक रही परेशानी की लकीरें उन की धड़कनों की रफ्तार बढ़ा रही थीं. निर्मल सिंह ने उन्हें जो बताया उसे सुन कर आइवी के पैरों तले से जैसे जमीन खिसक गई.
हंसती मुसकराती जिंदगी में अचानक ऐसा झटका लगेगा, इस बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं था. नौसेना ने आनंद के परिवार को विशाखापट्टनम ले जाने के लिए निजी विमान की व्यवस्था कर दी थी. सभी लोग वहां के लिए रवाना हो गए. आनंद अस्पताल में बेसुध पड़े थे. दुर्घटना गंभीर थी. डाक्टर इसलिए चिंतित थे, क्योंकि उन्हें बाहरी चोटों के अलावा दिमाग में अंदरूनी चोटें भी आई थीं.
आनंद की दिमागी चोटों को जांचने के लिए कोई प्रमुख यंत्र नहीं था. सीटी स्कैन (कंप्यूटर टोमोग्राफी स्कैनर) मशीन वहां नहीं थी, जिस से यह पता लगाया जा सकता कि अंदर क्या चोटें हैं. मस्तिष्क का इलाज करने वाले न्यूरोलौजिस्ट भी वहां नहीं थे. नौसेना ने बाहर से डाक्टरों की टीम को बुलवा कर आनंद की जांच कराई. कई दिनों के बाद भी आनंद होश में नहीं आए और वह कोमा में चले गए.
ऐसी स्थिति में वहां उन का इलाज संभव नहीं था. इसलिए डाक्टरों की राय पर नौसेना ने उन्हें हवाई जहाज से कोलकाता स्थित कमांड अस्पताल भेज दिया. आनंद का वहां भी इलाज किया गया, लेकिन सब से ज्यादा परेशानी की बात यह थी कि वह डीप कोमा में चले गए थे.
यह अवस्था ऐसी होती है, जिस में इंसान की सभी तरह की गतिविधियों का संपर्क दिमाग से टूट जाता है. यानी वह काम करना बंद कर देता है. नौसेना ने उन्हें कोमा से उबारने के लिए 2 डाक्टरों को स्थाई रूप से लगा दिया, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ.
आनंद के कोमा में चले जाने से दोनों परिवार सदमे में थे. उन की खुशियों को जैसे किसी की नजर लग गई थी. आइवी इस बेबसी पर आंसू बहा कर रह जाती थीं. उन्हें आनंद की बातें, हंसमुख स्वभाव व यादें रहरह कर परेशान कर रही थीं. जिंदगी ने उन्हें गम के सागर किनारे खड़ा कर दिया था. वह ऐसी दुलहन थीं, जो पति के साथ खुशी के चंद महीने ही बिता पाई थीं.
यह ऐसा वक्त था, जब जिंदगी ने आइवी का इम्तिहान लेना शुरू कर दिया था. निर्मल सिंह व पुष्पा भी उम्मीद खो रहे थे. खूबसूरत आइवी का दुख उन्हें भी साल रहा था. उन्होंने एक दिन आर. हिगिंस से कहा, ‘‘बेटे के साथ ऐसा कुछ होना हमारी किस्मत का पन्ना हो सकता है, लेकिन आइवी के सामने पूरा जीवन पड़ा है. आप चाहें तो उसे दूसरे विवाह की इजाजत दे सकती हैं.’’
हिगिंस को यह बात बहुत नागवार गुजरी, वह बोलीं, ‘‘नहीं भाईसाहब, हम लोग ऐसे नहीं हैं. आनंद आखिर पति है उस का.’’
‘‘पता नहीं आनंद कब तक ठीक होगा…’’
‘‘आप इस की फिक्र मत कीजिए. फिर भी मैं आइवी से बात करूंगी.’’ पुष्पा बोलीं.
इस के बाद पुष्पा और हिगिंस ने आइवी को दूसरा विवाह करने की सलाह दी, लेकिन आइवी ने साफ कह दिया कि वह दूसरा विवाह करने की कभी सोच भी नहीं सकती. वह पति की सेवा कर के उन्हें ठीक करने की कोशिश करेगी.
आनंद की बीमारी कब ठीक होगी, कुछ कहा नहीं जा सकता था. उन की घर ले जाने लायक स्थिति नहीं थी. लेकिन अस्पताल में भी हमेशा नहीं रखा जा सकता था. आइवी उन्हें अपने घर में रखना चाहती थीं.
उन के कहने पर डाक्टरों ने उन्हें घर ले जाने की इजाजत तो दे दी, लेकिन वहां अस्पताल की तरह इंतजाम करने थे. आइवी का घर काफी बड़ा था. एक कमरे को डाक्टरों की मदद से अस्पताल के कमरे जैसा रूप दे दिया गया. वहां पर जरूरी मशीनें भी लगा दी गईं. औक्सीजन के अलावा मिनी वेंटीलेटर मशीन भी वहां लगा दी. इस के बाद वह आनंद को घर ले आईं.
घर पर एक नर्स की व्यवस्था भी कर दी गई. इस तरह उन की घर पर ही देखरेख होने लगी. कभी ज्यादा दिक्कत होती तो आइवी उन्हें अस्पताल ले जाती थीं. साल दर साल बीतते रहे. आदमनी कम होने लगी और खर्च बढ़ने से परिवार की आर्थिक स्थिति भी डगमगाने लगी.
आर. हिगिंस घर के ही एक हिस्से में स्कूल चलाती थीं. उस से उन की आजीविका चलती थी. नौसेना के अधिकारियों ने देशविदेश के कई चिकित्सकों से भी उन का इलाज कराया. लेकिन आनंद की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. आइवी चाहती थीं कि किसी भी तरह आनंद ठीक हो जाएं, इसलिए उन्होंने उन का आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक इलाज भी कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.
आइवी की बेटी भूमिका, जो सिर्फ पिता को देखती तो थी लेकिन उन से बात नहीं कर सकती थी. उधर नौसेना ने आनंद को पेंशन देनी शुरू कर दी. भारतीय नौसेना ने कई बार आइवी के सामने नौकरी की पेशकश की, लेकिन पति की देखभाल करने की वजह से उन्होंने उसे ठुकरा दिया.
इस बीच आइवी ने वकालत शुरू कर दी थी. हालांकि इस काम को वह ज्यादा समय नहीं दे पाती थीं. जीवन के इस सफर में उन्होंने बहुत लोगों को बदलते देखा. लेकिन संस्कारों और आत्मविश्वास की पूंजी के हौसलों ने उन के कदमों को कभी डगमगाने नहीं दिया. पति की सेवा करनी थी, इसलिए कई महीने उन्होंने नर्स का प्रशिक्षण हासिल किया.
आनंद की पूरी दुनिया कई सालों से एक कमरे में सिमटी हुई है. वह दिनरात वहां लेटे रहते हैं. लेकिन वह अपनी कोई इच्छा नहीं जता सकते. खुली आंखों से वह शून्य को निहारते रहते हैं. देख कर विश्वास नहीं होता कि कभी फिल्मी हीरो की मानिंद रहा एक नौजवान 25 साल से एक जैसे हालात में बुढ़ापे की तरफ बढ़ चुका है.
आनंद का पालनपोषण किसी बच्चे की तरह किया जाता है. खाने के नाम पर उन्हें उच्च प्रोटीन भोजन व फल तरल रूप में दिए जाते हैं. घर का एक बड़ा कमरा किसी मिनी अस्पताल से कम नहीं है. एक बेड पर आनंद सिंह लेटे रहते हैं.
आनंद की जिंदगी में न जाने कितने डाक्टर आए, लेकिन कोई डाक्टर ऐसा नहीं मिला जो उन के सफल इलाज का फार्मूला जानता हो. एक अलमारी आनंद के अब तक के हुए इलाज के कागजी दस्तावेजों से चुकी है. कमरे में एसी लगा है और अंदर जूतेचप्पल ले जाने की इजाजत नहीं है.
मरीज को बिजली के चले जाने पर कोई परेशानी न हो, इस के लिए जनरेटर भी लगा हुआ है. आनंद को नहलाया नहीं जा सकता. गीले कपड़े से उन के बदन को साफ किया जा सकता है. पति की शेविंग से ले कर सभी काम आइवी ही करती हैं.
भूमिका भी अपनी मां आइवी का हाथ बंटाती है और पिता से बहुत प्यार करती है. यह वक्त का क्रूर मजाक ही है कि भूमिका ने पिता को कभी चलतेफिरते या बोलते नहीं देखा. वह अपने पिता से किसी चीज की इच्छा भी नहीं जता सकती. एक प्रतिष्ठित स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ने वाली भूमिका बहुत होनहार है. बड़ी हो कर वह डाक्टर बनना चाहती है.
कई चिकित्सकों द्वारा अभी आनंद का इलाज किया जा रहा है. आइवी सिंह फिजिशियन डा. विनेश अग्रवाल, डा. ए.के. चौहान, डा. वी.के. बिंद्रा, डा. अनिल चौहान व न्यूरोलौजिस्ट डा. गिरीश त्यागी, संदीप सहगल आदि का विशेष सहयोग बताती हैं. व्यस्त दिनचर्या के बीच भी वह आनंद के लिए हर वक्त तैयार रहते हैं.
आनंद के इलाज पर इतना अधिक रुपए खर्च हो चुके हैं कि हिसाब से किसी बड़े रजिस्टर के सभी पन्ने भर जाएं. उन के लिए दौलत पति की सेवा और उन की जिंदगी से ज्यादा मायने नहीं रखती.
आइवी अपने स्कूल में खुद भी पढ़ाती हैं और वकालत के लिए कचहरी भी जाती हैं. प्रशिक्षित नर्स की तरह पति का खयाल भी रखती हैं. मन बहलता रहे, इसलिए उन्होंने अपने घर में पालतू परिंदों के अलावा इंसान का वफादार साथी कुत्ता भी पाल रखा है.
आइवी पति के चेहरे के भावों को किसी जौहरी की तरह पहचानते हैं. वह कुछ बोल नहीं पाते, लेकिन वह कब क्या चाहते हैं, वह चेहरा देख कर ही पलभर में जान जाती हैं.
आइवी सिंह कहती हैं कि किसी ऐसे शख्स को जो असहाय हो, बोल भी न सके, उसे छोड़ना आसान नहीं होता और फिर जीवन प्यार और पति का साथ छोड़ने के लिए नहीं होता.
पति की सेवा करते हुए आइवी ने 25 साल गुजार दिए. उन के अंदर गजब का आत्मविश्वास भरा है, जो उन्हें डगमगाने नहीं देता. उन्हें विश्वास है कि कभी तो वह पल आएगा, जब उन की जिंदगी का इम्तिहान खत्म होगा और उन के पति ठीक हो जाएंगे.
—कथा आइवी सिंह के साक्षात्कार पर आधारित