उस दिन शाम होतेहोते किले की दिन भर की चहलकदमी कुछ कम हो चुकी थी. दिन भर की यात्रा के बाद सूरज भी छिप चुका था, जिस की वजह से अंधेरा अपने पैर पसारने लगा था.

सूरज छिपने से हवा सर्द हो गई थी. इस तरह के खुशनुमा मौसम में जैबुन्निसा पलंग पर बैठी अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी. क्योंकि उस समय उस के कमरे में किसी के आने का खतरा नहीं था. अपने जज्बातों को कागज पर उतारते समय वह इस तरह खयालों में खो जाती कि उसे होश ही न रहता कि वह कहां है.

अभी उस ने 4 लाइनें ही लिखी थीं कि उसे लगा कि उस के कमरे की ओर कोई आ रहा है. पदचाप से तो यही लग रहा था कि आने वाला कोई उम्रदराज इंसान है. और वह उसी के कमरे की ओर बढ़ा चला आ रहा था. जैबुन्निसा को लगा कि कहीं अब्बा हुजूर तो नहीं आ रहे हैं. अब्बा हुजूर का खयाल आते ही वह सहम उठी. उस ने कलमदवात और कागज झट तकिए के नीचे छिपा दिए और पलंग पर आंखें मूंद कर इस तरह लेट गई, जैसे वह आराम कर रही हो.

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औरंगजेब की सब से बड़ी संतान जैबुन्निसा को वैसे तो अपने अब्बा हुजूर और अम्मी दिलरस बानो बेगम का खूब प्यार मिलता था. उस का जन्म 15 फरवरी, 1638 को दौलताबाद में हुआ था. तब औरंगजेब बादशाह नहीं था. वह अपनी इस बेटी से बेइंतहा प्यार करता था. अपनी इस बेटी की वजह से उस ने कई लोगों को माफी दे दी थी. वे ऐसे लोग थे, जिन्होंने औरंगजेब की मुखालफत की थी. इस से जैबुन्निसा के प्रभाव को समझा जा सकता है.

जैबुन्निसा हुस्न की मलिका ही नहीं थी, बल्कि बहुत कम उम्र में ही वह आलिमा और फाजिला भी हो गई थी. वह 7 साल की थी, तभी उसे कुरान याद हो गया था और वह हाफिजा बन गई थी. बेटी की इस उपलब्धि पर औरंगजेब ने खूब धूमधाम से जश्न तो मनाया ही था, उसे 30 हजार सोने के सिक्के इनाम में दिए थे.

यही नहीं, उस ने कुरान सिखाने वाली उस्ताद को भी 30 हजार सोने के सिक्के इनाम दिए थे. उस दिन सार्वजनिक अवकाश भी घोषित कर दिया गया था.

इस के बाद जैबुन्निसा ने फारस के विद्वान सईद अशरफ मंजधरानी से दर्शन, गणित, खगोलशास्त्र, इतिहास व साहित्य की पढ़ाई की थी. अशरफ एक फारसी कवि थे. काफी कम उम्र में ही जैबुन्निसा ने अपने महल की लाइब्रेरी को खंगाल डाला था.

औरंगजेब उसे 4 लाख अशर्फियां खर्च करने के लिए देता था. इन पैसों से उस ने ग्रंथों का आम भाषा में अनुवाद कराना शुरू कर दिया था. जैबुन्निसा काफी सादगी से रहती थी, इसलिए अपनी इस बुद्धिमान बेटी से औरंगजेब को काफी लगाव था. औरंगजेब उस की पढ़ाई में रुचि देख कर बाहर से किताबें मंगवाने लगा था.

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जैबुन्निसा 14 साल की थी, तभी शेरोशायरी लिखने लगी थी. कहा जाता है कि उस समय उस के पास बहुत बढिय़ा लाइब्रेरी थी. दरबार के पढ़ेलिखे लोगों से उस के संबंध थे, इस में कई कवि और साहित्यकार भी शामिल थे.

शेरोशायरी और कविताएं लिखने के अलावा जैबुन्निसा को संगीत में भी रुचि थी. उस समय उस की गिनती एक बेहतरीन गायिकाओं में होती थी. वह बहुत ही दयालु स्वभाव वाली थी, इसलिए वह दूसरों की मदद करने में विश्वास रखती थी.

वक्त के साथ जैबुन्निसा एक बेहतरीन शायरा हो कर उभरी. फिर तो उसे मुशायरों में भी बुलाया जाने लगा. सख्तमिजाज और कट्टर औरंगजेब को यह सब बिलकुल पसंद नहीं था. इसलिए जैबुन्निसा अब्बा हुजूर से छिप कर मुशायरों में जाने लगी थी. इस में उस का सहयोग करते थे औरंगजेब के दरबारी कवि.

जैबुन्निसा शेरोशायरी फारसी में लिखती थी. यह उस के अब्बा हुजूर को पसंद नहीं था, इसलिए वह अपने नाम से न लिख कर नाम बदल कर ‘मखफी’ नाम से लिखा करती थी.

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लंबे कद की हिरनी जैसी चाल वाली जैबुन्निसा को कविताओं के साथ फैशन की भी गहरी समझ थी. आमतौर पर वह बहुत सादगी से रहती थी, पर जब वह मुशायरों में जाती थी तो बिलकुल अलग ही ढंग से तैयार हो कर जाती थी.

तब वह एकदम सफेद कपड़े पहनती थी और उस पर सफेद मोतियों की माला डाला करती थी. मोतियों के अलावा वह कोई अन्य रत्न शरीर पर नहीं डालती थी. कहा जाता है कि जैबुन्निसा ने एक खास तरह की कुरती का डिजाइन खुद तैयार किया था, जो तुर्कमान में पहनी जाने वाली कुरती से काफी मिलतीजुलती थी. उसे ‘अन्याया कुरती’ कहा जाता था.

एक बार जैबुन्निसा किसी मुशायरे में बुंदेलखंड गई थी तो उस की नजर वहां के महाराजा छत्रसाल पर पड़ी. छत्रसाल की वीरता के बारे में उस ने पहले ही बहुत कुछ सुन रखा था.

4 मई, 1649 को पैदा हुए महाराजा छत्रसाल बुंदेला का एक महाप्रतापी राजपूत योद्धा था. उस ने मुगल बादशाह औरंगजेब को हरा कर बुंदेलखंड में अपने स्वतंत्र बुंदेला राज्य की स्थापना की थी. जैबुन्निसा की नजर मुशायरे में आए महाराजा छत्रसाल पर पड़ी तो वह उसे देखती ही रह गई. वह उसे देखती ही नहीं रह गई, बल्कि उस वीर योद्धा की कदकाठी और खूबसूरती पर उन का दिल आ गया.

वह अपने दिल की बात सीधे महाराजा से कह नहीं सकती थी, इसलिए उस ने उसे एक खत लिखा था. महाराजा का कोई जवाब आता, उस के पहले ही न जाने कैसे इस बात की जानकारी औरंगजेब को हो गई थी.

जो आदमी हिंदुओं से इतनी नफरत करता रहा हो और जो हिंदू होने के अलावा उस का दुश्मन रहा हो, उस से उस की बेटी प्यार करे, भला वह कैसे बरदाश्त करता. महाराजा छत्रसाल बुंदेला से औरंगजेब की कट्टर दुश्मनी थी. धर्म के मामले में भी वह बेहद कट्टर था. इसलिए उसे यह कतई मंजूर नहीं था कि उस के परिवार का कोई सदस्य किसी हिंदू राजा से संबंध रखे.

लिहाजा औरंगजेब ने बेटी को खूब फटकारा था और साफ शब्दों में कहा था कि अब वह उस का नाम लेने की कौन कहे, उस के बारे में सोचेगी भी नहीं.

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इस तरह जैबुन्निसा को अपने पहले प्यार को भुलाना पड़ा. उस के लिए यह आसान नहीं था. पर उस ने अपना ध्यान शेरोशायरी और कविताओं में लगाया. जैबुन्निसा का विवाह बचपन में ही उस के ताया के बेटे सुलेमान शिकोह से तय कर दिया गया था. लेकिन सुलेमान की हत्या हो जाने से उस का विवाह उस के साथ नहीं हो सका था.

बेटी का मन इधरउधर न भटके, इसलिए औरंगजेब उसे अपने साथ दरबार में बैठाने लगा था. बेटी की काबिलियत से वह वाकिफ तो था ही, इसलिए वह साम्राज्य के राजनीतिक मामलों में उस से सलाह लेता था. इतना ही नहीं, साम्राज्य के अहम मुद्दों पर वह उस से विचारविमर्श भी करता था. ऐसे में ही एक दिन जैबुन्निसा दरबार में बैठी थी. पूरा दरबार भरा हुआ था. औरंगजेब उस भरे दरबार में मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी का इंतजार कर रहा था.

थोड़ी देर में जयसिंह का बेटा रामसिंह शिवाजी को ले कर दरबार में पहुंचा तो दरबार में सन्नाटा पसर गया. सभी की नजरें शिवाजी पर टिक गई थीं, क्योंकि यह वह शख्स था, जिस ने मुगल साम्राज्य का विरोध किया था. मुगल बादशाह औरंगजेब को चुनौती दी थी.

इस मुलाकात में औरंगजेब ने शिवाजी को एक निश्चित दूरी तक ही आगे बढऩे का आदेश दिया. अपने तय स्थान पर पहुंच कर शिवाजी ने बादशाह को 30 हजार अशर्फियां नजराना देने के साथ 3 बार झुक कर सलाम किया. यह पहली बार हुआ था, जब शिवाजी ने किसी अन्य धर्म के बादशाह को सलाम किया था.

जयसिंह ने शिवाजी से कहा था कि दरबार में उन्हें पूरा सम्मान मिलेगा. उन्हें वहां ऊंचे ओहदे वालों के बीच बैठाया जाएगा. पर मुलाकात के बाद शिवाजी को निम्न ओहदे वालों के बीच बैठाया गया, जिस से शिवाजी ने खुद को अपमानित महसूस किया. वह जान गए कि उन के साथ यह व्यवहार जानबूझ कर किया गया है.

वह अपने इस अपमान को बरदाश्त नहीं कर सके और इस के लिए उन्होंने भरे दरबार में नाराजगी व्यक्त कर दी. शिवाजी के नाराजगी व्यक्त करते ही दरबार में हड़कंप मच गया. औरंगजेब ने रामसिंह से कहा कि वह शिवाजी को दरबार से बाहर ले जाएं.

यह सब दरबार में झीने परदे के पीछे बैठी शहजादी जैबुन्निसा भी देख रही थी. शहजादी को शिवाजी के आने की खबर पहले ही मिल चुकी थी. शिवाजी के बहादुरी के किस्से उस ने सुन रखे थे. इसलिए उसे देखने की लालसा उस के मन में थी. उस समय शिवाजी 39 साल के थे और शहजादी जैबुन्निसा 27 साल की थी.

दरबार में शिवाजी की निडरता और मर्दाना सुंदरता देख कर वह उन से प्रभावित तो हुई ही, उन की ओर आकर्षित भी हुई. यही वजह थी कि उस ने एक बार फिर अपने अब्बा हुजूर से शिवाजी को दरबार में बुलाने को कहा. बादशाह मान भी गया.

इस बार शिवाजी को दरबार में आने का संदेश जैबुन्निसा ने खुद भेजा. शिवाजी आए तो पर इस बार उन्होंने बादशाह को सलाम नहीं किया. उन्होंने कहा कि वह एक शहजादे के रूप में पैदा हुए हैं, इसलिए वह गुलामों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते. इतना कह कर शिवाजी ने बादशाह के सिंहासन की ओर पीठ कर ली.

यह बात औरंगजेब को बहुत ही नागवार गुजरी. वह कोई क्रूर आदेश देने ही वाला था कि शिवाजी ने कहा, ”मैं अपने आत्मसम्मान और मर्यादा के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता, भले ही मेरी जान क्यों न चली जाए.’’

औरंगजेब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा. उस ने अपने सिपहसालार फुलद खान को आदेश दिया, ”शिवाजी को कैद कर के नजरबंद कर दो. इन पर सख्त पहरा बैठा दो.’’

शिवाजी को नजरबंद कर दिया गया. उन की कोठरी के सामने सख्त पहरा था. इस के बावजूद वह औरंगजेब के सिपहसालारों को चकमा दे कर फरार हो गए. कहा जाता है कि शिवाजी को फरार होने में जैबुन्निसा ने मदद की थी.

औरंगजेब को भी जैबुन्निसा पर शक था. यह भी कहा जाता है कि शहजादी ने शिवाजी के सामने प्रेम प्रस्ताव भी रखा था, लेकिन शिवाजी ने साफ इनकार कर दिया था. इस तरह शहजादी का यह दूसरा प्यार भी असफल हो गया था.

प्यार में दूसरी बार असफल होने के बाद शहजादी जैबुन्निसा फिर से पूरी तरह शेरोशायरी में डूब गई. लेकिन कट्टर औरंगजेब को कतई पसंद नहीं था कि उस की बेटी शेरोशायरी करे और महफिलों में भाग ले. उस की लिखी शेरोशायरी मर्दों की नजरों के सामने पढ़ी जाए और वे जैबुन्निसा से प्रभावित हो कर उस की ओर खिंचे चले आएं. लिहाजा जैबुन्निसा पर शेरोशायरी लिखने पर सख्त पाबंदी लगा दी थी.

एक ओर अब्बा हुजूर का हुक्म और दूसरी ओर जैबुन्निसा का शेरोशायरी से लगाव. इस बात को ले कर दिल और दिमाग में जंग चलती रही. इन पाबंदियों से जैबुन्निसा का दम घुटने लगा था. लेकिन कलम उस का साथ दे रही थी, वह मन की घुटन वह कलम से कागज पर उतार देती थी. इसलिए उस की घुटन नासूर नहीं बन पाई.

वह नाम बदल कर लिखती रही और मुशायरों महफिलों में जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा. कलम अपनी गति से चलती रही और मन का गुबार कागज पर उतरता रहा.

महफिलों में किसी को पता नहीं चल पाता था कि यह नौजवान, खूबसूरत कमसिन सी दिखने वाली शायरा, जो इतनी खूबसूरती और सलीके से बुलंद आवाज में नज्में पढ़ रही है, वह दिल्ली के बादशाह मुहिउद्दीन औरंगजेब आलमगीर की बेटी है. उस के कोमल गले में पड़ी मोतियों की माला उस की खूबसूरती को और बढ़ा देती थी.

पहनने ओढऩे, नज्म पढऩे और बात करने का सलीका ऐसा था कि किसी को भी अपना दीवाना बना ले. हीरेजवाहरात जड़े सोने के पिंजरे में इस शहजादी का दम घुटता था. यही शेरोशायरी की महफिलें उस के लिए औक्सीजन का काम करती थीं.

उन दिनों ऐसी महफिलों में शामिल होने वाले मशहूर शायर थे गनी कश्मीरी, नामतुल्लाह खान और अकील खां रजी. उस दौर में इन की गिनती मशहूर शायरों में होती थी. अपनी दिलकश शायरी की वजह से जैबुन्निसा की भी मांग बढऩे लगी थी. महफिलों में आ कर उन्हें सोने के पिंजरे से रिहाई का अहसास होता था. क्योंकि यहां वह अपने जज्बातों को कह पाती थी. उसे शायरों, मलंगों और सूफियों की यह महफिल बहुत अच्छी लगने लगी थी. इस के लिए वह दारा शिकोह की शुक्रगुजार रही थी.

जैबुन्निसा धीरेधीरे शेरोशायरी में डूबती चली गई. एक कहावत है न कि ‘बैठता नहीं जब तक आदमी मलंगों के बीच, दिल्लगी तो आती है, पर आशिकी नहीं आती.’

शहजादी जैबुन्निसा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. ऐसी ही महफिलों में एक दिन उस का सामना उस समय के लाहौर के गवर्नर और प्रसिद्ध शायर अकील खां रजी से हुआ.

रजी की शायरी ने ही नहीं, उन की शख्सियत ने भी शहजादी जैबुन्निसा को प्रभावित किया. अकील खां जितने अच्छे शायर थे, उस से कहीं ज्यादा उन की मर्दानी खूबसूरती थी. यही वजह थी कि वह महफिलें लूट लिया करते थे. अकील खां से मिल कर जैबुन्निसा को लगा कि उन्हें जिस चेहरे की तलाश थी, अब वह मिल गया है.

धीरेधीरे जैबुन्निसा का झुकाव अकील खां की ओर होने लगा. उस के मन में अकील खां के लिए दीवानापन पनपने लगा. एक मधुर, लेकिन अनकहा संबंध आकार लेने लगा.

नतीजा यह निकला कि ये अदबी मुलाकातें धीरेधीरे निजी मुलाकातों में तब्दील होने लगीं. समय के साथ इन का इश्क परवान चढऩे लगा. सूफी मिजाज दोनों शायरों की नजदीकियां बढऩे लगीं.

शहजादी जैबुन्निसा उस रत्न जड़े सोने के पिंजरे और ऐशोआराम से रिहाई चाहती थी, जहां उस का दम घुट रहा था. अब वह अकील खां की मोहब्बत के पिंजरे में हमेशाह मेशा के लिए कैद होना चाहती थी.

वह जब भी अकेली होती, अकील खां के बारे में ही सोचती रहती. लेकिन जब अब्बा हुजूर का खयाल आता तो हकबका कर उठ बैठती. खुद को बेबस महसूस करते हुए उस की आंखें भीग जातीं.

मोहब्बत का यह जुनून एक ओर ही नहीं था. अकील खां रजी जो उस समय औरंगजेब की लाहौर रियायत के गवर्नर थे, उन्हें भी कब शहजादी जैबुन्निसा से इश्क हो गया, उन्हें पता ही नहीं चला. एक ओर उन का गवर्नर का ओहदा था तो दूसरी ओर जैबुन्निसा की मोहब्बत. एक तरह से वह अंगारों पर चल रहे थे.

किले में जैबुन्निसा की सेवा में लगी सेविकाएं जहां हंसती खिलखिलाती रहती थीं, वहीं शहजादी किसी अनहोनी से डरी सहमी गुमसुम रहती.

उस पर हमेशा इस बात की दहशत छाई रहती कि अगर उस के अब्बा हुजूर को उस की शेरोशायरी और मोहब्बत के बारे में पता चल गया तो कयामत ही आ जाएगी. वह न उसे बख्शेंगे और न अकील खां को. एक ओर उस पर यह दहशत छाई रहती तो दूसरी ओर वह महफिलों में भी जाती रही और अकील खां से मिलती भी रही.

जैसा कहा जाता है कि इश्क और मुश्क कभी छिपाए नहीं छिपते, वैसा ही कुछ शहजादी जैबुन्निसा के मामले में भी हुआ. आखिर जैबुन्निसा के इश्क की आग की आंच औरंगजेब तक पहुंच ही गई. जैसे ही बेटी के प्यार की खबर औरंगजेब को हुई, वह आगबबूला हो उठा. वह सीधे जैबुन्निसा के कमरे में पहुंच गया.

अब्बा हुजूर के कदमों की आहट सुन कर ही जैबुन्निसा ने कलमदवात और कागज छिपा दिए थे. जैसे ही औरंगजेब कमरे में पहुंचा, जैबुन्निसा पलंग से उठ कर खड़ी हो गई. औरंगजेब की आंखें गुस्से में अंगारे उगल रही थीं तो भौंहें तनी हुई थीं. उस ने बेटी से कुछ पूछने के बजाय सीधे अपना फैसला सुना दिया, ”मेरी नजरों के सामने से ले जाओ इस आजाद खयाल लड़की को. इसे ले जा कर सलीमगढ़ के उसी किले में कैद कर दो, जहां इस के महबूब ने दम तोड़ा था. जब तक मैं न कहूं, इसे बाहर न जाने देना. इसे वहीं कैद रखना.’’

इतना कह कर औरंगजेब गुस्साए सांप की तरह फुफकारता हुआ अपने कमरे की ओर बढ़ गया. औरंगजेब का हुक्म होते ही महल के अंदर सेविकाएं शहजादी का सामान संदूकों में रखने लगीं तो बाहर सेवक उसे सलीमगढ़ ले जाने की तैयारी करने लगे. जबकि शहजादी पर अब्बा हुजूर के इस हुक्म का कोई असर नहीं हुआ.

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वह कमरे की खिड़की के पास बैठी खुले आसमान में उड़ते परिंदों को निहार रही थी. वह उन्हें देखते हुए यही सोच रही थी कि उस से अच्छे तो ये परिंदे हैं, जो आजादी से जहां मन होता है आते जाते हैं, प्यार करते हैं. यह देख कर उस ने जो तोता पाल रखा था, उस का पिंजरा उठाया और उसे आजाद कर दिया. खुला आसमान पा कर वह पंख फडफ़ड़ाते हुए उडऩे लगा. शहजादी उसे तब तक देखती रही, जब तक वह उस की नजरों से ओझल नहीं हो गया.

वह उसी के बारे में सोचते हुए खिड़की के पास बैठी थी कि तभी पीछे से एक सेविका ने आवाज दी, ”शहजादी.’’

खयालों में डूबी शहजादी ने शायद उस की आवाज सुनी नहीं. कोई जवाब न पा कर सेविका ने दोबारा आवाज दी, ”शहजादी.’’

बिखरे बालों को समेटते हुए शहजादी जैबुन्निसा ने पलट कर सेविका की ओर देखा, ”क्या बात है?’’

”शहजादी बादशाह सलामत ने आप को सलीमगढ़ जाने का हुक्म दिया है,’’ सेविका ने कहा.

”लेकिन क्यों?’’ शहजादी ने पूछा.

सेविका इस बात का क्या जवाब देती. घबराई सेविका ने कहा, ”बस, बादशाह सलामत का हुक्म है.’’

सफर के सामान के साथ जरूरत का भी सामान घोड़ा गाडिय़ों पर लादा जाने लगा. इस के बाद सिपाही शहजादी को सलीमगढ़ के उस किले की ओर ले कर चल पड़े, जहां उस के प्रेमी अकील खां रजी को हाथियों से कुचलवा कर तड़पा तड़पा कर मौत की सजा दी गई थी.

एक उदास काफिला सलीमगढ़ की ओर चला जा रहा था. कहार उदासी से शहजादी की डोली लिए चल रहे थे. वह राह भी उदास थी, जिस राह से शहजादी का यह काफिला गुजर रहा था.

आखिर यह काफिला सलीमगढ़ पहुंच गया, जहां न तो आगरा जैसी चहलपहल थी और न रौनक. किला सुनसान था. वहां सिपाहियों के अलावा और कोई नहीं था. वहां न दरबार था और न दरबारी. चारों ओर सन्नाटा पसरा था. किला भूत बंगले जैसा लगता था.

जैबुन्निसा ने किले में प्रवेश किया और उस कमरे की ओर बढ़ गई, जो उस के रहने के लिए बताया गया था. साथ आए सेवकों ने शहजादी का सामान ला कर अंदर रखा तो सेविकाओं ने उसे करीने से रखना शुरू किया.

दिन गुजर गया. रात होते ही शहजादी जब अकेली पड़ी तो उसे लगा कि अब बाकी की जिंदगी यहीं बीतनी है. उस के अब्बा हुजूर ने उसे प्यार करने की यही सजा दी है. वह अतीत में खो गई. उसे वे बातें याद आने लगीं, जो उस ने अब तक बचपन से देखी थीं.

इतिहास गवाह है कि बादशाहत को पाने के लिए मुगल सम्राट कभी अपनों का भी खून बहाने में नहीं हिचके. इन में औरंगजेब तो सब से बदनाम माना जाता है.

अपनी बीमारी की वजह से शाहजहां विरासत की हिफाजत के लिए चिंतित था. एक दिन इसी खयाल में डूबे बादशाह के मन में आया कि क्यों न वह अपने बेटे दारा को ही दिल्ली की गद्दी सौंप दे, क्योंकि वह बुद्धिमान होने के साथसाथ सुलझा और अमनपसंद भी है.

शाहजहां को अपना यह विचार उचित लगा और उस ने दारा को बुला कर कहा, ”मैं चाहता हूं कि मेरे जिंदा रहते तक तुम दिल्ली की गद्दी को संभालो. जब तक मैं जिंदा हंू, तब तक तुम दिल्ली के बादशाह रहो.’’

दारा चुपचाप अब्बा हुजूर का आदेश सुनता रहा. उस के अब्बा हुजूर ने उस से जो कहा, इस बारे में उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. इतना कह कर शाहजहां ने आगे कहा, ”अब तुम दिल्ली को देखो. मैं आगरा जाना चाहता हूं. इस के लिए तैयारी करो.’’

शाहजहां ने तो दारा को दिल्ली संभालने का आदेश दे दिया, लेकिन उस के मन में अनेक सवाल उठ रहे थे. आगरा जाने की तैयारी कर रहे शाहजहां से दारा ने उलझन में कहा, ”अब्बा हुजूर, मैं इस तरह के फैसले को कैसे मान लूं, जिस में पूरे परिवार की सहमति न हो.’’

बूढ़े हो चुके शाहजहां ने दारा की ओर देखा तो उस ने आगे कहा, ”इस तरह का कोई भी फैसला लेने से पहले आप को हमारे भाइयों से राय लेनी चाहिए थी. क्योंकि हो सकता है आप का यह फैसला हमारे भाइयों को मंजूर न हो. क्या आप ने इस बारे में शुजा, औरंगजेब और मुराद से कोई बात की है?’’

”मैं ने इस की कोई जरूरत नहीं समझी.’’ शाहजहां ने स्पष्ट शब्दों में कहा, ”अभी तो मैं ही बादशाह हंू. जो फैसला लेना होगा, मैं ही लूंगा और उसे सभी को मानना होगा.’’

”अब्बा हुजूर, आप का यह फैसला हमारे भाइयों में फूट की वजह बन सकता है. इस से किले में बगावत हो सकती है.’’ दारा ने शंका व्यक्त की.

बेटे की बात बादशाह शाहजहां चुपचाप सुनता रहा. दारा का सोचना गलत नहीं था. जैसा बादशाह का सोचना था कि दारा समझदार और बुद्धिमान है तो यह बात सच थी. वह समझदार और बुद्धिमान था, तभी उस ने अपने अब्बा हुजूर से यह बात कही थी. बेटे की बात सुन कर बादशाह सोच में पड़ गया.

क्योंकि दूसरी ओर जैसे ही यह बात लोगों के कानों तक पहुंची, सचमुच दारा का खयाल सच होता नजर आने लगा. जल्दी ही हकीकत सामने नजर आती लगी, जिस का दारा को अंदेशा था. जब इस बात की जानकारी औरंगजेब को हुई तो उसे यह बिलकुल अच्छा नहीं लगा. शुजा और मुराद भी इस बात से नाराज थे, लेकिन अब तो जो होना था, वह हो गया था. शाहजहां बाकायदा दिल्ली में ऐलान कर चुका था.

शुजा और मुराद तो कुछ नहीं बोले, पर औरंगजेब चुप नहीं रह सका. उस ने बादशाह शाहजहां से गुस्से में आ कर कहा, ”दारा बादशाह बनने लायक नहीं है. वह काफिर है. वह हिंदू धर्मग्रंथों की कुरान से बराबरी करता है. उस का कहना है कि कुरान और गीता एक जैसे हैं. वह गीता का अनुवाद कर रहा है. जनता उसे कभी माफ नहीं करेगी. मुसलमान तो उसे काफिर कहते हैं.’’

औरंगजेब ने अपनी बात इस तरह कही थी, जैसे वह उसे उसी समय हटा देगा. बहन जहांआरा ने उसे बहुत समझाया, पर वह कुछ समझने को तैयार नहीं था. वह अपनी जिद पर अड़ा था. क्योंकि उस के मन में जो शक था, वह दूर नहीं हो रहा था. जिस का एक ही अंत था खूनखराबा.

आखिर उस का शक सच साबित हुआ. गद्दी के लिए लड़ाइयां शुरू हो गईं. कल तक जो साथ देने वाले थे, आज वे दुश्मन के साथ खड़े थे. आखिर औरंगजेब ने अपने 2 भाइयों शुजा और मुराद को ठिकाने लगवा दिया. अब वह दारा के खून का प्यासा था. वह उसे तड़पा तड़पा कर मारना चाहता था.

दरअसल, औरंगजेब दिल्ली की जनता को यह जताना चाहता था कि दिल्ली का बादशाह दारा जैसा काफिर नहीं, एक सच्चा और कट्टर मुसलमान है, जो अपने भाइयों और बाप का नहीं तो किसी और का क्या हो सकता है.

उस ने क्रूरता से दारा की हत्या कराने का पूरा इंतजाम कर लिया. उस के बाद उस ने शाहजहां से स्पष्ट कह दिया था कि वह उस की ताजपोशी का दोबारा ऐलान कराएं. उस ने अपने सैनिकों से कह दिया कि दारा का सिर धड़ से अलग कर दो और दिल्ली में घोषणा कर दो कि अब दिल्ली का बादशाह औरंगजेब है.

फिर तो एक थाली में दारा का सिर सजा कर दरबार में औरंगजेब के सामने पेश किया गया. औरंगजेब ने उस की ओर नफरत से देखते हुए कहा, ”इसे हटाओ मेरी नजरों के सामने से. इसे ले जा कर दफन कर दो.’’

इस तरह मुगल खानदान के एक सूफी मिजाज बादशाह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. भाई का कटा सिर देख कर औरंगजेब ने राहत की सांस ली.

भाई को मौत के घाट उतरवा कर उस ने एक किला और फतह कर लिया. लेकिन अभी उस के कलेजे की आग ठंडी नहीं हुई थी. उस की लड़ाई चलती रही, जिस में उस की बड़ी बेटी जैबुन्निसा से जिस सुलेमान शिकोह से उस की शादी होने वाली थी, वह भी मारा गया. सुलेमान की मौत का दुख जैबुन्निसा को भी बहुत हुआ था. सुलेमान उस का होने वाला पति ही नहीं, तायाजाद भाई और एक सरपरस्त बेटा भी था.

बाप बेटे को मौत के घाट उतारने के बाद आगरा तो सूना हो ही गया था, इस की दहशत दिल्ली तक पहुंच गई थी. वसीयत की इस जंग में जैबुन्निसा को तबाही साफ दिखाई दे रही थी. उस ने देखा कि गुस्सा किस तरह आदमी की सोचने समझने की शक्ति को खत्म कर देता है.

उस के अब्बा हुजूर ने गद्दी के लिए अपनों का खून करा दिया था. कितने बेरहम हैं वह. यह सोच कर उस ने अंधेरे में भी आंखें भींच लीं. उसे किसी अनहोनी का डर बारबार सता रहा था. उस का शरीर कांप उठा कि न जाने अब किस की बारी है.

वह अपने आशिक की जिंदगी की खैर मांगने लगी थी. अचानक औरंगजेब दीवानखाने में दाखिल हुआ. उस ने अपने खास सिपहसालारों को हुक्म दिया कि वे लाहौर जाने की तैयारी करें.

जैसा बादशाह औरंगजेब का हुक्म हुआ, सिपहसालारों ने वैसा ही किया. बादशाह का फरमान ले कर लाहौर के लिए रवाना हो गए. लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी को सलीमगढ़ बुलाया गया था.

एक तरह का डर तो अकील खां के मन में भी था. क्योंकि औरंगजेब के मिजाज से वह अच्छी तरह वाकिफ था. बादशाह के हुक्म का पालन करते हुए वह सलीमगढ़ पहुंच गया. उस की गवर्नरी तो बादशाह के उसी फरमान से ही चली गई थी. अब वह यह जानने के लिए बेचैन था कि आगे उस के साथ क्या होने वाला है?

दूसरी ओर जैबुन्निसा को उस की अपनी एक खास सेविका से पता चल गया था कि लाहौर के गवर्नर अकील खां रजी की गवर्नरी छीन कर उसे भी सलीमगढ़ के किले में बुलाया गया है. यह सुन कर शहजादी जैबुन्निसा का दिल धड़क उठा कि अब न जाने क्या होने वाला है. वह बेचैन हो उठी.

इस बेचैनी में कभी जैबुन्निसा कमरे से बाहर बरामदे में आती तो कभी फिर कमरे में घुस जाती. उस की आंखों से झरझर आंसू बह रहे थे.

वक्त गुजरता रहा, पर शहजादी की बेचैनी जरा भी कम नहीं हुई. लगभग घंटे भर बाद खबर आई कि अकील खां अब इस दुनिया में नहीं रहा. उसे बादशाह ने सलीमगढ़ के किले में हाथी से कुचलवा कर मरवा दिया है.

यह खबर सुन कर जैबुन्निसा चीख पड़ी. वह कहीं जा नहीं सकती थी, क्योंकि औरंगजेब ने उस पर सख्त पहरा बैठा रखा था. वह अपने कमरे में रोरो कर हलकान हुई जा रही थी. वह हार गई थी, उस की मोहब्बत हार गई थी. उस के अब्बा हुजूर की जिद जीत गई थी.

औरंगजेब ने अकील खां को उस की बेटी से मोहब्बत करने की सजा दे दी थी. उसे मरवा कर उस के कलेजे को ठंडक मिल गई थी. शायद बेटी को तड़पता देख उसे खुशी मिली थी.

अकील खां को याद कर के शहजादी के मुंह से चीख निकल गई. उस की चीख सुन कर सेविका दौड़ी आई, ”क्या हुआ शहजादी, कोई बुरा सपना देखा क्या?’’

”मुझे यहां से ले चलो शाहीन. मेरा यहां दम घुट रहा है.’’ बड़ी उम्मीद से जैबुन्निसा ने सेविका शाहीन की ओर देखा.

”शहजादी, अब आप को कहीं नहीं जाना. बादशाह सलामत के अगले हुक्म तक आप को यहीं रहना है,’’ शाहीन ने कहा.

वक्त गुजरता गया और इसी के साथ शहजादी जैबुन्निसा की बेचैनी कम होती गई. अकेले और अंधेरे में रहने की उस ने आदत सी डाल ली.

इसी कैदखाने को उस ने अपना आशियाना मान लिया. जिस तरह किसी परिंदे को जब पिंजरे में डाला जाता है तो शुरूशुरू में वह बाहर जाने के लिए फडफ़ड़ाता है. जब नहीं निकल पाता तो धीरेधीरे पिंजरे में रहने की आदत डाल लेता है. वैसा ही कुछ जैबुन्निसा के साथ भी था.

वक्त की गर्दिशों से जूझते हुए जैबुन्निसा ने धीरेधीरे सलीमगढ़ को अपना लिया था. इन तन्हाई के दिनों में उस ने अपना समय बिताने के लिए खूब शेरोशायरी लिखी.

तमाम परेशानियों से जूझते हुए उस ने इस कातिल सलीमगढ़ के किले में एक बहुत बड़ी लाइब्रेरी बनवाई, जिस में कुरान, बाइबिल, हिंदू, बौद्ध, जैन धर्म ग्रंथ अनेक पौराणिक ग्रंथ, कहानियों की किताबें, फारसी, अरबी, अलबैरूनी ग्रंथ के अलावा तमाम किताबें मंगा कर इकट्ठा कराईं.

सलीमगढ़ के किले में बंदी जीवन जीते हुए शहजादी अपनी हकीकत की दुनिया से बहुत आगे निकल चुकी थी.

सलीमगढ़ किले में कैद शहजादी जैबुन्निसा ने 20 बरस गुजारे. उस की पूरी जवानी इसी कैदखाने में गुजर गई. यहीं उस की शायरी को सही राह मिली. यहां रह कर उस ने 5 हजार से भी ज्यादा गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखीं. यहां वह कृष्णभक्ति में डूब गई और खुद को मीरा बना लिया. वह मीरा की ही तरह कृष्णभक्ति में ऐसी डूबी कि उसे खुद का ही होश न रहा.

धीरेधीरे वह बिखरती गई. दिल का दर्द कलम के जरिए कागज पर उतरता गया. लेकिन कट्टर और क्रूर औरंगजेब को बेटी पर कभी रहम नहीं आया. एक रोशनखयाल शहजादी का जीवन कैदखाने में गुजर गया.

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कभी अब्बा हुजूर की आंखों का तारा रही जैबुन्निसा का विवाह न हो सका. उसी कैदखाने में ऐसे ही 26 मई, 1702 को शहजादी जैबुन्निसा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. मौत के बाद उसे काबुली गेट के बाहर तीस हजारा बाग में दफना दिया गया. उस की मौत के बाद उस ने जो गजलें, नज्में और रूबाइयां लिखी थीं, उन का संकलन छपा, जिसे दीवानेमखफी के नाम से जाना जाता है.

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