अंगरेजों से देश को मुक्त कराने के लिए न जाने कितने लोग हंसतेहंसते फांसी के फंदे पर झूल गए तो न जाने कितने लोगों ने अपनी पूरी जवानी जेल में काट दी. इन में कुछ ही लोगों के बारे में देश को पता चल पाया. लेकिन इन में ऐसे तमाम लोगों के बारे में हम आज भी नहीं जान पाए हैं. उन्हीं में उत्तर प्रदेश के जिला संतकबीर नगर की तहसील मेहदावल के रक्शा कला गांव के रहने वाले 4 लोग हैं, जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अंगरेजों के जुल्म सहे. ये चारों सगे भाई थे.

रक्शा कला गांव के रहने वाले पं. पटेश्वरी प्रसाद मिश्र के बेटे लालताप्रसाद मिश्र, वंशराज मिश्र, द्विजेंद्र मिश्र और श्यामलाल मिश्र पढ़ाई के दौरान ही जंगएआजादी में कूद गए थे. स्वतंत्रता सेनानी श्यामलाल मिश्र के बुलाने पर पं. जवाहरलाल नेहरू और चंद्रशेखर आजाद उन के गांव आए थे.

लालताप्रसाद मिश्र जब बस्ती के सक्सेरिया इंटर कालेज में पढ़ रहे थे, तभी उन पर देश को आजाद कराने की धुन सवार हो गई थी. सन 1933 में उन्होंने अंगरेजों के खासमखास बांसी के राजा चंगेरा के खिलाफ विद्रोह कर दिया.

सैकड़ों लोगों को साथ ले कर लालताप्रसाद ने राजा चंगेरा के महल को घेर लिया और भारत माता की जय के नारे लगाने लगे. फलस्वरूप उन्हें पकड़ कर जेल भेज दिया गया. जेल से बाहर आने के बाद उन्होंने साथियों के साथ गोरखपुर जनपद के सहजनवां के डोहरिया में ट्रेन से जा रहा सरकारी खजाना लूट लिया.

इस मामले में उन्हें 6 महीने जेल में रहना पड़ा, साथ ही 100 रुपए जुरमाना भी भरना पड़ा था. भाई के जेल में जाने के बाद छोटे भाई श्यामलाल मिश्र भी आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे.

सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने की वजह से लालताप्रसाद ही नहीं, उन के तीनों भाइयों वंशराज मिश्र, द्विजेंद्र मिश्र और श्यामलाल मिश्र को भी जेल भेज दिया गया था. सन 1942 में जब लालताप्रसाद इलाहाबाद की नैनी जेल में बंद थे, तब उन की मुलाकात जवाहरलाल नेहरू से हुई थी.

इस के बाद गाजीपुर की जेल में लालबहादुर शास्त्री के साथ चारों भाई बंद रहे. उसी बीच लालताप्रसाद मिश्र के एकलौते बेटे की मौत हो गई थी. बहुत कहने पर भी अंगरेजों ने उन्हें बेटे के अंतिम संस्कार के लिए नहीं छोड़ा था.

8 अगस्त, 1942 की शाम मुंबई में महात्मा गांधी ने ‘अंगरेजों भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ का नारा दिया तो पूर्वांचल की धरती ने बड़े उत्साह से इस का स्वागत किया. अगले दिन पूरे देश के लोग अंगरेजों के खिलाफ उतर आए. सहजनवां तहसील के डोहरिया कला में भी लोग सड़कों पर उतर आए थे.

अंगरेजों ने उन पर गोलियां चलवा दीं, जिस से 9 लोग शहीद हो गए. इस में 23 लोग गंभीर रूप से घायल भी थे. यही नहीं पुलिस ने डोहरिया गांव में आग भी लगा दी थी, जिस से कई घर जल गए थे. देश आजाद होने के बाद उन लोगों की याद में गांव में बना शहीद स्मारक उन की याद दिलाता है.

जनवरी, 1922 में पूरे देश और संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में भी देश की आजादी से जुड़ी तमाम घटनाएं घटीं. उन्हीं में चौरीचौरा की भी घटना थी. चौरीचौरा विद्रोह अकस्मात नहीं हुआ था. गोरखपुर देश की आजादी से जुड़े आंदोलनों में काफी सक्रिय था. जलियांवाला बाग नरसंहार के खिलाफ यहां 15 हजार लोगों ने विरोध जताया था. अवध किसान आंदोलन के नेता बाबा राघवदास को दोषी करार दिए जाने पर 50 हजार लोगों ने अदालत में इकट्ठा हो कर विरोध जताया था. इस के बाद चौरीचौरा कांड हुआ.

चौरीचौरा के पास 2 गांव हैं डुमरी खुर्द और डुमरी कलां. ये दोनों गांव एकदूसरे से 8 किलोमीटर की दूरी पर हैं. डुमरी खुर्द में जमींदार और सवर्ण रहते थे तो डुमरी कलां में गरीब दलित रहते थे. इन्हीं के साथ मुसलमान भी रहते थे. चौरी और चौरा अगलबगल के 2 गांव थे, उन्हीं के नाम पर रेलवे स्टेशन का नाम चौरीचौरा पड़ा.

डुमरी खुर्द एक बड़ा गांव था, जिस की जनसंख्या ढाई हजार के करीब थी. 4 फरवरी को यहां एक सभा हुई, जिस में आसपास के गांवों के भी तमाम लोग शामिल हुए. सभा के बाद लोगों ने थाना चौरीचौरा की ओर मार्च किया. नजर अली और लाल मोहम्मद इस आंदोलन के प्रमुख थे. उन की मदद कर रहे थे भगवान अहीर, अब्दुल्ला, इंद्रजीत कोइरी, श्यामसुंदर और एक अज्ञात संन्यासी. शिकारी ने भी शुरुआत में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन बाद में सुनवाई के दौरान वह सरकारी गवाह बन गया था.

चौरा के लाल मोहम्मद की उम्र 40 साल थी, डुमरी खुर्द के नजर अली की 30 साल तो चौरा के भगवान अहीर की 24 साल. अब्दुल्ला 40 साल का था. ये सभी स्थानीय कांग्रेस समिति के पदाधिकारी थे. शांतिपूर्ण आंदोलन चल रहा था. इस के बावजूद थानाप्रभारी ने भगवान अहीर की पिटाई कर दी. इस से इलाके में तनाव फैल गया. स्थानीय जमींदार और उन के एजेंट पुलिस के साथ थे.

पिटाई के विरोध में दोपहर 3 बजे तक लगभग 5 हजार लोग एकत्र हो गए. थाना पुलिस को पहले से ही जिला मुख्यालय से सशस्त्र पुलिस बल मिला हुआ था. उस दिन कई चौकीदार भी वेतन लेने थाने आए हुए थे. थानाप्रभारी गुप्तेश्वर सिंह और आंदोलनकारियों में हुई बहस से माहौल गरम हुआ तो पुलिस ने आंदोलनकारियों पर हमला कर दिया.

इस से 2 आंदोलनकारियों की मौत हो गई. इस से नाराज आंदोलनकारियों ने थाने पर हमला कर दिया. थाना पुलिस वाले थाने में घुस गए तो बाजार से मिट्टी का तेल ला कर आग लगा दी गई. इस आगजनी में आंदोलनकारियों ने पुलिस वालों की पत्नियों और बच्चों को छोड़ दिया था.

इस मामले में पुलिस ने 273 लोगों को गिरफ्तार किया, जबकि 54 फरार थे. इन में से एक की मौत हो गई. 272 में से 228 पर मुकदमा चला. मुकदमे के दौरान 3 लोगों की मौत हो गई, जिस से 225 लोगों के खिलाफ ही फैसला आया. इन में से 4 लोगों को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया. 172 लोगों को मौत की सजा दी गई.

मामला हाईकोर्ट में पहुंचा तो हाईकोर्ट ने 30 अप्रैल, 1923 को सुनाए अपने फैसले में 19 लोगों को मौत की सजा सुनाई, जबकि 38 को बरी कर दिया गया. बाकी लोगों को कैद की सजा दी गई. फांसी की सजा पाए लोगों को उत्तर प्रदेश की विभिन्न जेलों में जुलाई, 1923 में फांसी दे दी गई.

जिन लोगों को आजीवन कारावास की सजा मिली थी, उन के घर वालों की दशा काफी दयनीय थी. सरकार ने चौरीचौरा विद्रोह में मारे गए पुलिसकर्मियों के परिवारों की तो हर तरह से सहायता की थी, लेकिन चौरीचौरा के विद्रोहियों के बारे में किसी ने नहीं सोचा. इन में जो 2 लोग सवर्ण थे, उन्हें ही सम्मान मिल पाया.

द्वारका पांडे सन 1952 से 1957 तक विधायक रहे. द्वारका गोसाईं को सन 1949 में पेंशन मिल गई थी. लेकिन बाकी लोगों को गुंडा और लुटेरे जैसे इलजाम से मुक्त होने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा 1993 में मिल पाया. इस के बाद ही उन के घर वालों को पेंशन मिल सकी. वह भी झारखंडे राय की बदौलत, जो कम्युनिस्ट नेता थे.

पुलिस वालों का स्मारक तो थाना परिसर में सन 1924 में ही बन गया था, जबकि विद्रोहियों का स्मारक 1993 में बन सका. चौरीचौरा शहीद स्मारक पर लगे शिलालेख में उन उच्च जातियों के बलिदान की झूठी कहानी लिख दी गई, जिन्होंने विद्रोह में भाग ही नहीं लिया था. मारे गए पुलिसकर्मियों के स्मारक पर सलामी स्वरूप ‘जयहिंद’ लिखा गया, लेकिन फांसी की सजा पाए 19 किसानों के स्मारक पर नहीं.

बाबू बंधु सिंह अंगरेजी अत्याचारों और उन की लूटखसोट से बहुत दुखी थे. उन का जन्म डुमरी रियासत के जागीरदार बाबू शिवप्रसाद सिंह के घर 1 मई, 1863 को हुआ था. उन के हम्मन सिंह, तेज सिंह, फतेह सिंह, जनक सिंह और करिया सिंह नाम के 5 भाई थे.

बाबू बंधु सिंह

यह 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले की बात है. उन के इलाके में घना जंगल था. जंगल के बीच से गुर्रा नदी गुजरती थी. बाबू बंधु सिंह जंगल के अंदर ही रहा करते थे. वह बड़े हुए तो उन के दिल में भी अंगरेजों के खिलाफ आग जल उठी.

उन की सोच थी कि भारत उन की धरती है. कोई उन की धरती पर राज करे, यह अच्छी बात नहीं है. अंगरेजों का बिहार और देवरिया जाने का मार्ग जंगल के बीच से ही हो कर जाता था. उस रास्ते से कोई भी अंगरेजों या अंगरेजों की सेना जाती, वे सभी की हत्या कर देते थे.

अंगरेज सिपाही रहस्यमय तरीके से जंगल में गायब होने लगे तो अधिकारियों का ध्यान इस ओर गया. उन्होंने पता किया तो जानकारी मिली कि बंधु सिंह सिपाहियों की हत्या कर रहा है. उस की तलाश में जंगल का कोनाकोना छान मारा गया, लेकिन उस का कुछ पता नहीं चला.

उन्होंने जिला कलेक्टर की भी हत्या कर दी. इस से नाराज सरकार ने डुमरी खुर्द स्थित उन की हवेली को जला दिया. इस लड़ाई में बंधु सिंह के पांचों भाई शहीद हुए. अंगरेजों ने मुखबिर की मदद से बंधु सिंह को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें भी फांसी दे दी.

आजादी की लड़ाई में हिंदुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. इस एसोसिएशन की स्थापना भगत सिंह, चंद्रशेखर, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, बटुकेश्वर दत्त, राजेंद्र लाहिड़ी ने की थी. इस संगठन के क्रांतिकारियों में से एक अशरफी लाल भी थे. उन्होंने अपने अदम्य साहस से अंगरेजों को पानी पिला दिया था. अशरफीलाल श्रीवास्तव संतकबीर नगर के इस्माइलपुर गांव के रहने वाले थे.

 क्रांतिकारी अशरफीलाल

अंगरेजों के अत्याचारों का मुंहतोड़ जवाब देने में अशरफीलाल माहिर थे. उन्होंने साथियों की मदद से रेल की पटरी उखाड़ दी, जिस से अंगरेज बौखला गए. पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने जब उन के घर पहुंची तो वह घर के सामने बने कुएं के चबूतरे पर खड़े दातून कर रहे थे. सिपाहियों के पास अशरफीलाल की कोई तसवीर नहीं थी. वे उन्हें पहचानते भी नहीं थे.

अशरफीलाल का घर

सिपाहियों ने उन्हीं से अशरफीलाल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वह यहां नहीं रहते. इतना कह कर वह चले गए. सिपाही भी लौट गए. बाद में सिपाहियों को पता चला कि जिस व्यक्ति से उन्होंने अशरफीलाल के बारे में पूछा था, वही अशरफीलाल थे. उन पर अंगरेजों पर हमला करने का आरोप था. उन्हें गिरफ्तार कर के 3 सालों तक जेल में तनहाई में रखा गया.

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