ज्ञानेंद्र पुरोहित और मोनिका पुरोहित बौर्डर पार कर के पाकिस्तान पहुंची गीता, विदेश मंत्रालय के प्रयासों से 13 साल बाद भारत लौट तो आई लेकिन रहस्यमय पहेली बन कर. न तो यहां उस के मांबाप मिले और न स्वयंवर के बावजूद वर मिला. आखिर रहस्य क्या है गीता का?

गीता एक ऐसी गुत्थी का नाम है, जो सुलझाने की कोशिशों में इतनी उलझती जा रही है कि कभीकभी
तो लगता है, कहीं इंसानियत के नाम पर हम उस पर जुल्म तो नहीं ढा रहे हैं. हालांकि इस बात से इत्तफाक रखने वालों की तादाद न के बराबर ही होगी क्योंकि हर किसी की आदत किसी भी घटना या व्यक्ति को मीडिया और सरकारी नजरिए से देखने की पड़ती जा रही है. गीता इसी नजरिए की कैद में छटपटाती आज भी अपनी पहचान की मोहताज है. इस की जिम्मेदारी लेने के लिए किसी न किसी को आज नहीं तो कल सामने आना ही होगा.

कौन है गीता, क्या है उस की कहानी और क्यों रचा गया था उस के स्वयंवर का ड्रामा, यह सब जानने से पहले गीता की कहानी को जानना जरूरी है. गीता के अतीत को 2 भागों में बांट कर देखा जाना सहूलियत वाली बात होगी. उस की जिंदगी का दूसरा अतीत जो ज्ञात है, वह साल 2003-04 से शुरू होता है, जिस की ठीकठाक तारीख किसी को नहीं मालूम. इस के पहले गीता क्या थी, यह वह खुद भी नहीं जानती. चूंकि उस का पहला अतीत अज्ञात है, इसलिए स्वाभाविक रूप से वह रहस्यरोमांच से भरा है. जिस के चक्रव्यूह में खुद गीता अभिमन्यु की तरह फंसी हुई है.

ईधी फाउंडेशन ने बेटी की तरह पाला गीता को भारत और पाकिस्तान के संबंध विभाजन के बाद से बारूद के ढेर पर सुलगते रहे हैं, जिन में से कभी दोस्ती की महक नहीं आई. दोनों देशों के लोग एकदूसरे को कट्टर दुश्मन मानते हैं. इस धर्मांधता और कट्टरवाद से इतर इत्तफाक से यहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो वाकई मानवता के लिए जीतेमरते हैं. ऐसे ही एक पाकिस्तानी शख्स थे अब्दुल सत्तार ईधी, जिन का नाम न केवल पाकिस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में इज्जत से लिया जाता है. पाकिस्तान में उन्हें लोग गौडफादर, फरिश्ता और गांधी तक कहते हैं तो इस की कई वजहें और प्रमाण भी हैं.

ईधी फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष अब्दुल सत्तार के नाम के पहले अब्बा संबोधन भी लगाया जाता है. मानवतावादी अब्दुल सत्तार का जन्म गुजरात के ऐतिहासिक शहर जूनागढ़ में हुआ था. भारतपाक बंटवारा हुआ तो वह पाकिस्तान चले गए. अब्दुल सत्तार की जिंदगी कई संघर्षों से भरी है, जिन्होंने उन्हें मानवतावादी बना दिया. मानवता के क्षेत्र में उन के और ईधी फाउंडेशन के नाम ढेरों उपलब्धियां और काम दर्ज हैं. अब्दुल सत्तार को साल 1996 में रेमन मैगसेसे पुरस्कार से नवाजा गया था. लेनिन शांति पुरस्कार भी उन्हें प्रदान किया गया था.

दुनिया की सब से बड़ी एंबुलेंस उन के ईधी फाउंडेशन के पास है. यह बात गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी दर्ज है. जुलाई, 2016 में उन की मौत के बाद से ईधी फाउंडेशन की जिम्मेदारी उन की बेगम बिल्कीस संभाल रही हैं. सन 2003-04 में कभी गीता नाम की एक भारतीय लड़की बेहद फिल्मी अंदाज में पाकिस्तान पहुंच गई थी. गीता न तो बोल सकती है और न ही सुन सकती है, यानी मूकबधिर है. लावारिस हालत में गीता समझौता एक्सप्रैस के द्वारा पाकिस्तान पहुंची थी.

पाकिस्तानी बौर्डर अथौरिटी ने गीता पर दया खा कर उसे ईधी फाउंडेशन पहुंचा दिया था. सत्तार दंपति ने एक तरह से गीता को गोद ले लिया और सगी बेटी की तरह उस की परवरिश और देखभाल की. गीता के पास तब कोई सामान नहीं था, बस एक फोटो थी जिस में वह अपने परिवारजनों के साथ दिख रही थी. गीता का तब कोई नाम नहीं था और जो था उसे वह बता नहीं सकती थी. चूंकि वह समझौता एक्सप्रैस में मिली थी, इसलिए उसे अंदाजे के आधार पर भारतीय हिंदू मानते हुए सत्तार दंपति ने गीता नाम दे दिया, जो हिंदुओं का धर्मग्रंथ है. अब्दुल सत्तार ने अपने यतीमखाने में गीता के लिए एक मंदिर भी बनवा दिया था, जिस में तरहतरह के हिंदू देवीदेवताओं की तसवीरें लगा दी गई थीं. गीता इस मंदिर में रोज पूजापाठ करती थी.

गीता चाहती थी भारत आना एक लावारिस भारतीय लड़की के यूं मिलने की पाकिस्तानी मीडिया में तब खासी चर्चा रही थी. पाकिस्तान सरकार ने औपचारिक रूप से भारत सरकार और भारतीय दूतावास को गीता के मिलने की सूचना दी थी पर भारत की ओर से कोई पहल नहीं हुई तो गीता पाकिस्तान और ईधी फाउंडेशन की हो कर रह गई. गीता एक महफूज जगह पर इंसानियत के पुजारियों की सरपरस्ती में थी, इसलिए उसे कोई परेशानी पेश नहीं आई. नहीं तो हर कोई जानता है कि जानेअनजाने में नाजायज तरीके से पाकिस्तान में दाखिल हो गए ऐसे भारतीयों के साथ पाकिस्तानी सेना और पुलिस क्या सलूक करती है.
वक्त गुजरते गीता बच्ची से युवती हो गई लेकिन जिंदगी के इस अहम और नाजुक सफर में सत्तार दंपति ने उसे मांबाप की और किसी दूसरे किस्म की कमी महसूस नहीं होने दी और पूरी ईमानदारी से इंसानियत का जज्बा निभाया.

दुबलीपतली, सांवली रंगत और आकर्षक नैननक्श वाली गीता ईधी फाउंडेशन में रह रहे मुसलिम बच्चों में जल्द ही घुलमिल गई लेकिन अपने घर और देश की याद उसे अकसर सताती रहती थी. बिलकीस बेगम से भी उसे खासा लगाव हो गया था, जो चाहती थीं कि गीता अपने देश और घर पहुंच जाए, जिस की इच्छा वह अकसर जताती रहती थी. देश लौटने की आस में गिनगिन कर दिन काट रही गीता के साथ एक और अच्छी बात यह हुई कि उस पर भारतीय जासूस होने का शक नहीं किया गया, क्योंकि इस की कोई मुकम्मल वजह भी नहीं थी. एकदो साल पाकिस्तानी मीडिया में गीता की चर्चा रही लेकिन जब किसी स्तर पर भी वापसी की कोई पहल नहीं हुई तो लोग उसे भूलने लगे.

जब अपनों को याद कर गीता उदास होती थी तो सत्तार परिवार उस का जी बहलाता था. बिलकीस बेगम अकसर उसे खरीदारी कराने ले जाती थीं. यानी गीता को कैद कर के नहीं रखा गया था. वह भले ही सुन, बोल नहीं सकती थी लेकिन सारे हालात तो समझती थी. वतनवापसी की भूमिका उस वक्त गीता की दिमागी हालत क्या रही होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह एक ऐसी लड़की
थी जिस की कोई पहचान नहीं थी. ईधी फाउंडेशन में उसे किसी बात की कमी नहीं थी और जो थी, उसे वक्त ही पूरा कर सकता था जिस का दूरदूर तक कोई अतापता नहीं था.

फिर रिलीज हुई अभिनेता सलमान खान की बहुचर्चित सुपरडुपर हिट फिल्म ‘बजरंगी भाईजान’, जिस के चलते गीता की कहानी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की जानकारी में आई. सुषमा स्वराज को लगा कि गीता की भारत वापसी की कोशिश की जाए. उसे अगर उस के घर वालों से मिलवा दिया गया तो यह वाकई एक नेक काम होगा. गीता से संबंधित तमाम जानकारियां जुटाई गईं तो शुरुआती दौर में परिणाम उत्साहजनक रहे और लोगों ने उन की इस अनूठी पहल की जम कर तारीफ की.

गीता के घरवालों की तलाश हालांकि यह कोई आसान काम नहीं था क्योंकि गीता के परिवारजनों का कोई अतापता नहीं था. इस के लिए गीता की एकलौती जायदाद उस के पास मौजूद फोटो का सहारा लिया गया. कूटनीतिक लिहाज से पाकिस्तान उस वक्त तक गीता को भारत को सौंपने के लिए बाध्य नहीं था, जब तक उस के परिवारजनों का पता नहीं चल जाता. और बिना पहचान मिले उसे भारत भेज भी दिया जाता तो होता इतना भर कि वह एक यतीमखाने से निकल कर दूसरे यतीमखाने में आ जाती,जो कहने को अपने देश का होता.

बहरहाल, इस अंजाम की परवाह किए बगैर सुषमा स्वराज और विदेश मंत्रालय ने गीता का फोटो मीडिया औरसोशल मीडिया के जरिए वायरल किया तो परिणाम उत्साहजनक रहे. इस फोटो को देख कर देश भर के विभिन्न राज्यों के कोई दरजन भर अभिभावकों ने गीता को अपनी बेटी बताया. दोनों देशों के बीच गीता को ले कर खूब खतोकिताबत हुई तो देश भर का ध्यान गीता पर गया. हर किसी को उस से सहानुभूति हुई और हर कोई यह दुआ मांगने लगा कि इस मूकबधिर और अनाथ युवती को उस के मांबाप और घर वाले मिल जाएं. यह दीगर बात है कि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी की दुआ कबूल नहीं हुई थी.

अब तक गीता को पाकिस्तान में रहते हुए तकरीबन 13 साल हो गए थे. रेगिस्तान में पानी की उम्मीद उस वक्त नजर आई, जब यह बात लगभग तय हो गई कि गीता के मांबाप मिल गए हैं और उसे भारत भेजने के लिए दोनों देशों के बीच सहमति बन चुकी है. हुआ इतना भर था कि भारतीय उच्चायोग ने पाकिस्तान को उन कुछ लोगों की तसवीरें भेजी थीं, जिन्होंने गीता पर अपना हक जताया था. इन में से एक को गीता ने पहचान लिया तो सभी की बांछें खिल उठीं.

लेकिन गीता की कहानी शायद इतने सहज ढंग से खत्म होने के लिए नहीं थी. जिस परिवार को उसनेअपना होने की संभावना व्यक्त की थी, उस के मुखिया बिहार के सहरसा जिले के एक गांव के जनार्दन महतो हैं. उन की बेटी लगभग उसी वक्त गुम हुई थी, जिन दिनों गीता पाकिस्तान जा पहुंची थी. जनार्दन महतो को गीता की तसवीर हूबहू अपनी लापता बेटी जैसी लगी थी और गीता भी एकदम इस बात से इनकार नहीं कर रही थी कि जनार्दन महतो उस के पिता नहीं हैं.

यह एक अच्छी खबर थी, जिस के चलते तय हुआ कि गीता 26 अक्तूबर, 2015 को पाकिस्तान से भारत भेज दी जाएगी. उस की वापसी की खासी तैयारियां भी की गईं. अब्दुल सत्तार ईधी के बेटे फैजल ईधी के दिल में न जाने क्यों गीता को ले कर यह खटका था कि वह महज भारत जाने के लिए जनार्दन महतो को पिता मान रही है. रहस्य बनने लगी गीता के मांबाप की कहानी बात इस मुकाम तक आ पहुंची थी कि अगर फैजल ऐतराज जताते तो और हल्ला मचता. खामोश तो वह नहीं रहे

और इशारों में उन्होंने यह कह ही डाला कि जिस गीता की बात जनार्दन महतो के गांव वाले कर रहे हैं, उन के मुताबिक गीता की शादी बहुत कम उम्र में उमेश महतो नाम के शख्स से हो चुकी थी. उमेश से गीता को एक बेटा भी है, जिस की उम्र अब लगभग 12 साल है. फैजल ने माना था कि अब मामला जटिल हो गया है, क्योंकि गीता इस बात से मना कर रही है कि वह शादीशुदा है. बकौल फैजल उन्होंने इस बात का पता करने की कोशिश की थी कि कहीं गीता उन्हें गुमराह तो नहीं कर रही है या फिर कुछ छिपा तो नहीं रही है. इधर भारत में गीता की वापसी का इतना हल्ला मचने लगा था कि फैजल की बात उस शोरशराबे में दब कर रह गई.

गीता की घर वापसी सन 2015 की खास घटनाओं में से एक थी. ‘बजरंगी भाईजान’ फिल्म का हवाला देते हुए किसी ने गीता को भाईचारे और भारतपाक की एकता की मिसाल बताया तो किसी ने उस की अनूठी कहानी को चमत्कार से कम नहीं माना. भारतीय मीडिया और सरकार ने गीता के स्वागत में पलकपांवड़े बिछा दिए, जिस के चलते वह रातोंरात सेलिब्रिटी बन गई या बना दी गई, बात एक ही है. एयरपोर्ट पर उस का स्वागत करने के लिए अधिकारियों की फौज खड़ी कर दीगई.

गीता के साथ बिलकीस बेगम और फैजल ईधी भी थे. यह फैजल की ही जिद या शर्त थी कि गीता की वतनवापसी हर्ज की बात नहीं है, लेकिन किसी भी दावेदार मांबाप को उसे सौंपने से पहले उन का डीएनए मैच करा लेना चाहिए. भारत सरकार ने भी इस पर हामी भरी थी. विख्यात हो गई गीता भारत आ कर गीता को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलवाया गया. इस देश में सेलिब्रिटी होना इतना ही काफी होता है. सुषमा स्वराज तो साए की तरह
गीता के साथ ही रहीं.

इन हस्तियों से मिलते वक्त गीता के चेहरे पर कोई डर या संकोच नहीं था. यह शायद इसलिए भी नहीं होगा कि वह तब जानतीसमझती ही नहीं थी कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री क्या बला होते हैं. वह तो विदेश मंत्रालय के अधिकारियों के इशारों पर नाच रही गुडि़या थी. तब इस सवाल ने सिर उठाया कि अगर कहीं खुदा न खास्ता गीता का डीएनए जनार्दन महतो से नहीं मिला तो क्या होगा. इस सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय की तरफ से कहा गया कि ऐसी सूरत में गीता को किसी सुरक्षित जगह भेजे जाने का फैसला लिया जा चुका है. जब तक उस के मांबाप नहीं मिल जाते, तब तक गीता वहीं रहेगी.

दिल्ली में कई नामचीन राजनैतिक हस्तियों से मिल कर गीता इंदौर के स्कीम नंबर 71 स्थित मूक बधिर संस्थान भेज दी गई, जिस की कर्ताधर्ता शहर की मशहूर समाजसेवी मोनिका पंजाबी हैं. इस संस्थान में रह रहे दिव्यांगों ने गीता के आने पर दीवाली सा त्यौहार मनाया. हैरत और दिलचस्पी की बात गीता का उन से इतने आत्मीय ढंग से मिलना रहा, जैसे वह उन्हें बरसों से जानती हो. देश आ कर खुद को बेहद खुश और जज्बाती बता रही गीता के पांव वाकई ऐसा स्वागतसत्कार देख कर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. उसे अपनी अहमियत का अहसास हो चला था कि वह वाकई कुछ खास है.

जनार्दन महतो और गीता का डीएनए नहीं मिला तो सुषमा स्वराज की नेक कोशिशों को झटका लगा. साथ ही विदेश मंत्रालय के उन होनहार और अतिउत्साही अधिकारियों के चेहरे धुल गए, जिन्होंने एक मामूली सी यह बात सोचने की भी जहमत नहीं उठाई थी कि जिस गीता की बात सहरसा के गांव के लोग कर रहे हैं, उस का पति अगर पंजाब में रहता है, जिस ने गीता के मामले में कोई पहल नहीं की थी. फिर एक के बाद एक गीता के कई कथित मांबाप आए और उन्होंने उसे अपनी बिछड़ी बेटी बताया पर किसी का डीएनए गीता से मैच नहीं हुआ और न ही किसी को गीता ने बतौर मांबाप पहचाना.

धीरेधीरे गीता के असल मांबाप के मिलने की उम्मीदें धूमिल होती गईं. अब तक गीता का इतना प्रचारप्रसार हो चुका था कि अगर उस के मांबाप किसी घने जंगल में भी रह रहे होते तो उन्हें खबर लग जाती कि गीता करांची से इंदौर वापस आ चुकी है, लिहाजा उसे घर ले आना चाहिए. अपने मांबाप की बाट जोह रही गीता को इंदौर में रहते भी लंबा वक्त बीत गया था. इंदौर स्थानीय मीडिया में अकसर वह सुर्खियों में रही. उस का खानापीना और उठनाबैठना तक खबर बनने लगा था तो इस की वजह प्रशासन की सतर्कता थी जो पूरी तरह विदेश मंत्रालय के दिशानिर्देशों पर काम कर रहा था और आज भी कर रहा है.

पेचीदा हुई गीता की रहस्यमय कहानी जब दरजनों मांबाप दावेदारी ले कर आए और मुंह लटका कर लौट गए तो इंदौर प्रशासन से ले कर विदेश मंत्रालय के गलियारों तक में गीता को ले कर घबराहट फैलने लगी. सुषमा स्वराज कब गीता की खैरियत पूछ बैठें, इस खयाल से ही अधिकारी कांपने लगे थे. जल्दबाजी में गीता के मांबाप को ढूंढने वाले को एक लाख रुपए का इनाम देने की घोषणा कर दी गई. लेकिन उस से कोई फायदा नहीं हुआ.

अब तक यह बात भी साबित हो चुकी थी कि गीता के मांबाप अगर मिल जाएं तो उन की चांदी हो जाना तय है. क्योंकि सरकार उस पर मेहरबान है. यह मामला ऐसा था कि इस में कोई कुछ नहीं कर सकता था. सुषमा स्वराज भी अकसर गीता को ले कर ट्वीट करती रहीं कि वह देश आ कर खुश है और उस के मांबाप को ढूंढने की पूरी कोशिशें की जा रही हैं.

पर गीता खुश नहीं थी. पिछले साल जुलाई के पहले सप्ताह में अचानक वह मूकबधिर केंद्र से लापता हो गई. इस के बाद तो इंदौर से ले कर दिल्ली और करांची तक हड़कंप मच गया. गीता की गुमशुदगी की खबर कुछ देर के लिए ही सही, आग की तरह फैली और उसे ले कर तरहतरह की वे बातें हुईं जो नहीं होनी चाहिए थीं. इंदौर के 3 थानों की पुलिस गीता की खोज में जुट गई और कुछ देर बाद रात होने से पहले उसे रणजीत हनुमान मंदिर से पकड़ लिया गया. चंदननगर थाने की पुलिस जब गीता को सहीसलामत मूकबधिर केंद्र छोड़ गई, तब कहीं जा कर प्रशासन और केंद्र की संचालिका मोनिका पंजाबी की जान में जान आई.

गीता मूकबधिर केंद्र से गायब क्यों और कैसे हुई थी, इन 2 सवालों का जवाब आज तक किसी ने नहीं दिया, खासतौर से यह जवाबदेही केंद्र की संचालिका मोनिका पंजाबी की बनती थी. इन सवालों का जवाब मांगने के लिए जब कुछ मीडियाकर्मी मूकबधिर केंद्र पहुंचे तो वहां की एक महिला कर्मचारी ने उन से बदतमीजी करते हुए उन्हें कैमरे बंद कर दरवाजे के बाहर चले जाने का फरमान सुना दिया. पुलिस की तरफ से भी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला था. एडीशनल एसपी रूपेश द्विवेदी ने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि मूकबधिर केंद्र के संचालन पर बात करना पुलिस के कार्यक्षेत्र से बाहर है.

बात आईगई हो गई लेकिन समझदारों को यह इशारा जरूर कर गई कि गीता बोझ नहीं तो सरकार के गले का ढोल जरूर बनती जा रही है, जिसे खुद जोशजोश में सरकार ने अपने गले में बांधा था. मूकबधिर संस्थान को गीता के खर्चे के लिए 30 हजार रुपए दिए जा रहे थे. बात पहुंच गई शादी तक यहां पर एक बात यह उठी कि गीता को संस्थान में पर्याप्त सुविधाएं मिल भी रही थीं या नहीं, जिस से उसे वहां घुटन महसूस होने लगी थी. ऐसे सवाल जब सुषमा की जानकारी में आए तो उन्हें चिंता हुई. उन्होंने अपने भोपाल प्रवास के दौरान गीता की शादी के संकेत दिए. चूंकि बात सुषमा स्वराज की थी, इसलिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी भागेभागे इंदौर पहुंच गए और गीता से मिल कर बोले कि मांबाप नहीं मिले तो क्या हुआ,

मामा तो है. गौरतलब है कि शिवराज सिंह को खुद को मामा कहलवाना अच्छा लगता है. एकाएक ही इसी साल फरवरी के महीने में गीता को लगा कि अब उसे शादी कर घर बसा लेना चाहिए. उस ने सुषमा स्वराज को अपनी यह इच्छा बताई तो गीता के मामले में एक बार फिर उबाल आ गया. सरकार ने उस के स्वयंवर की तैयारियां शुरू कर दीं. स्वयंवर का यह ड्रामा कैसे परवान चढ़ा और फिर कैसे औंधे मुंह लुढ़का, यह जानने से पहले ज्ञानेंद्र पुरोहित नाम के शख्स से रूबरू होना जरूरी है, जो गीता की जिंदगी में सत्तार परिवार और सुषमा स्वराज के बाद आए तीसरे अहम किरदार हैं.

ज्ञानेंद्र की दास्तां भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं है. वह उस वक्त महज 21 साल के थे, जब 1997 में उन के बड़े भाई 26 वर्षीय आनंद पुरोहित की भोपाल के नजदीक एक रेल हादसे में मौत हो गई थी. ज्ञानेंद्र आनंद के काफी चहेते थे. उम्र में छोटे होते हुए भी वह बड़े भाई की सेवा करते थे क्योंकि आनंद मूकबधिर थे. जाहिर है मूकबधिरों की परेशानियों और दुख का अंदाजा उन्हें बचपन से ही था.

बड़े भाई की एक्सीडेंट में दर्दनाक मौत ज्ञानेंद्र के लिए एक बहुत बड़ा सदमा थी. तब ज्ञानेंद्र सीए कर रहे थे लेकिन उन्होंने पढ़ाई छोड़ कर मूकबधिरों की सेवा करने की ठान ली. परिवारजनों और दोस्तों ने हर तरह से समझाया लेकिन बेचैन ज्ञानेंद्र के मन की छटपटाहट ने किसी की एक नहीं सुनी. मूकबधिरों के मसीहा ज्ञानेंद्र मूकबधिरों पर ज्ञानेंद्र ने जितना काम किया, उतना शायद ही देश में किसी और ने किया होगा. सन 1997 से ले कर 1999 तक वह देशविदेश घूमे. इस दौरान ज्ञानेंद्र ने शिद्दत से महसूस किया कि देश में मूकबधिर बेहद दयनीय हालत में रह रहे हैं. उन की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती और उन से सरकारी या सामाजिक हमदर्दी एक दिखावा और छलावा भर है.

सांकेतिक भाषा यानी साइन लैंग्वेज तो वह पहले से ही जानते थे लिहाजा दुनिया घूमने के दौरान उन्हें कई करुण अनुभव हुए. आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में हुई वर्ल्ड डैफ कौन्फ्रैंस में ज्ञानेंद्र का प्रस्तुतीकरण इतना प्रभावी था कि उन्हें वहीं की एक संस्था वेस्टर्न डैफ सोसायटी ने अच्छे पैकेज पर नौकरी की पेशकश कर डाली. लेकिन सिर्फ पैसे कमाना या विदेश में रहने की शान बघारना ज्ञानेंद्र की जिंदगी का मकसद नहीं था. अपना मकसद पूरा करने के लिए उन्होंने बड़े भाई के नाम पर आनंद सर्विस सोसायटी बना ली थी.

सन 2001 में ज्ञानेंद्र ने मोनिका पुरोहित से शादी कर ली, जो खुद मूकबधिरों के लिए काम करती थीं. पुरोहित दंपति ने मूकबधिरों के लिए अपनी जिंदगी झोंक दी जो एक असामान्य काम था. इसी दौरान ज्ञानेंद्र ने अपनी अधूरी पढ़ाई शुरू की और एक खास मकसद से एलएलबी के बाद एलएलएम भी किया. ज्ञानेंद्र मूकबधिरों के मुकदमे मुफ्त में लड़ने लगे तो उन की चर्चा इंदौर के बाहर भी शुरू हो गई. ज्ञानेंद्र की पहल पर ही इंदौर के तुकोगंज इलाके में पहला मूकबधिर थाना खोला गया. बड़े पैमाने पर चर्चा में वह तब आए जब उन्होंने राष्ट्रगान का सांकेतिक भाषा में न केवल अनुवाद किया बल्कि राष्ट्रगान को सांकेतिक भाषा में
मान्यता दिलवाने का काम भी किया. लंबी कानूनी अड़चनों को लांघते हुए उन्होंने मूकबधिरों के लिए राष्ट्रगान की सरकारी मान्यता हासिल की. सन 2001 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने ज्ञानेंद्र के इस जज्बे की कद्र भी की थी.

आज सरकारी नौकरियों में मूकबधिरों के लिए जो आरक्षण मिला हुआ है, वह भी ज्ञानेंद्र की ही एक अहम उपलब्धि है जिस के बाबत उन्होंने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ते हुए आंदोलन भी छेड़ा था. अब ज्ञानेंद्र की नई कोशिश या लड़ाई इस बात की है कि सांकेतिक भाषा को संवैधानिक भाषा का दरजा मिले. वह ज्ञानेंद्र पुरोहित ही थे, जिन्होंने न केवल गीता की खोज में अहम रोल निभाया बल्कि उस की हर मुश्किल आसान
करने में उस की पूरी मदद भी की. जब गीता के भारत आने की बात चली तो ज्ञानेंद्र ने औनलाइन उस से सांकेतिक भाषा में बात की और बताया था कि गीता भारत आ कर सलमान खान से मिलना चाहती है और सहरसा के जनार्दन महतो को अपना पिता होना बता रही है.

गीता जब इंदौर आई तो ज्ञानेंद्र ने उसे सांकेतिक भाषा सिखाई. गीता और बाकी दुनिया के बीच उन्होंने दुभाषिए और मध्यस्थ का काम किया. ईधी फाउंडेशन भी चाहता था कि भारत जा कर गीता ज्ञानेंद्र के संरक्षण में रहे ताकि उस की बातें लोगों को ठीक तरह से समझ आ सकें और उस का सच सामने आए.
ज्ञानेंद्र के मुताबिक पाकिस्तान में रहते गीता ठीक से सांकेतिक भाषा नहीं जानती थी. गीता ने खुद ही अपने इशारे बना रखे थे, जिन में बाद में ज्ञानेंद्र ने सुधार किया और देखते ही देखते गीता सांकेतिक भाषा सीख गई.

आगे बढ़ी शादी की बात गीता ने जब शादी की इच्छा व्यक्त की तो एक बार फिर मीडिया उस के रंग में रंग गया. विदेश मंत्रालय ने गीता के लिए उपयुक्त वर ढूंढने की कोई कसर नहीं छोड़ी. फेसबुक पर खासतौर से एक पेज बनाया गया, जिस के जरिए गीता से शादी करने के इच्छुक युवकों से विवाह प्रस्ताव कुछ शर्तों पर मांगे गए. मीडिया और सोशल मीडिया पर भी गीता के स्वयंवर की जम कर चर्चा हुई. सरकार ने घोषणा कर डाली कि जिसे गीता जीवनसाथी के रूप में चुनेगी, उसे सरकारी नौकरी, मकान और दूसरी सहूलियतें दी जाएंगी. पर्याप्त प्रचारप्रसार के बाद भी गीता के स्वयंवर में युवक मधुमक्खियों की तरह नहीं टूटे.

सरकारी दहेज का तगड़ा लालच भी जातपात, नाथअनाथ और धर्म की दीवार नहीं भेद पाया. फिर भी गीता के लिए कुछ प्रस्ताव आए. इस में भी ज्ञानेंद्र ने पूरी सहायता की. आखिर में विदेश मंत्रालय की सहमति के बाद 14 युवकों के प्रस्ताव गीता के पास भेजे गए. यह कोई त्रेता या द्वापर युग का स्वयंवर नहीं था, जिस में उम्मीदवार को धनुष तोड़ना हो या फिर घूमती मछली की आंख पर निशाना साधना हो. यह लोकतांत्रिक कागजी स्वयंवर था, जिस में अंतिम फैसला गीता को लेना था. गीता से शादी करने के लिए कर्मकांडी पंडित से ले कर लेखक तक आगे आए तो एक बार लगा कि बात बन जाएगी. मांबाप भले ही न मिले हों लेकिन उपयुक्त जीवनसाथी चुन कर गीता पति के साथ बाकी जिंदगी चैन, सुकून और आराम से गुजारेगी.

7 जून को जिन 6 उम्मीदवारों को इंदौर बुलाया गया था, उन में से केवल 4 ही पहुंचे. चुनिंदा लोगों की मौजूदगी में स्वयंवर की प्रक्रिया शुरू हुई, जिस में गीता को इन युवाओं से सवालजवाब करने की आजादी मिली हुई थी. यह छूट उम्मीदवारों को भी दी गई थी ताकि वे गीता से सवाल कर सकें. इंदौर शहर का माहौल तो गीता के इस अनूठे स्वयंवर को ले कर गर्म था ही लेकिन देश भर के लोग दिलचस्पी से टीवी स्क्रीन के सामने टकटकी लगाए देख रहे थे कि कब गीता के स्वयंवर वाली खबर दिखाई जाती है. स्वयंवर में गीता की शर्तें उस दिन दोपहर ठीक साढ़े 12 बजे गीता नीले रंग के सलवारसूट में मूकबधिर संस्थान के हौल में आई तो खूब फब रही थी. यह मालवांचल की आबोहवा का ही असर था कि कल तक दुबलीपतली और हमेशा घबराई सी दिखने वाली गीता भरीपूरी और आत्मविश्वास से लबरेज दिख रही थी. उस ने भरपूर नजरों से उम्मीदवारों की तरफ देखा और इशारे से स्वयंवर के पहले चरण को शुरू करने का इशारा कर दिया.

प्रथम ग्रासे मच्छिका वाली कहावत उस समय लागू हुई, जब इंदौर के ही एक उम्मीदवार 21 वर्षीय सचिन पाल नेगीता की इस शर्त को मानने से इनकार कर दिया कि उस के भावी पति को सांकेतिक भाषा आनी चाहिए और नहीं आती है तो सीखनी होगी.अलबत्ता पेशे से मोल्डिंग मशीन औपरेटर सचिन ने गीता को हर हाल में खुश रखने की शर्त मानी लेकिन गीता की दूसरी इस अहम शर्त से वह मुकर गया कि वह गीता के मांबाप को ढूंढने में मदद करेगा. उस का यह कहना व्यवहारिक बात थी कि अब गीता के मांबाप को ढूंढना वक्त और पैसे की बरबादी है.

भोपाल से गए राजकुमार स्वर्णकार और उन के साथ गए मांबाप को गीता की हर शर्त मंजूर थी. राजकुमार भोपाल में ई-रजिस्ट्री कराने और स्टांप पेपर बेचने का काम करता है. यह परिवार किसी भी कीमत पर गीता को अपनी बहू बनाने के लिए तैयार दिखा. राजकुमार के पिता प्रेमनारायण स्वर्णकार ने बताया कि गीता की खुशी के लिए उन का पूरा परिवार ही सांकेतिक भाषा सीखने को तैयार है. अहमदाबाद से आया 26 वर्षीय रितेश पटेल तो गीता को ले कर काफी उत्साहित नजर आया. रट्टू तोते की तरह उस ने भी गीता को खुश रखने का वचन दोहराया. टीकमगढ़ से आया 30 वर्षीय अरुण नामदेव आबकारी विभाग में नौकरी करता था.

अरुण का नजरिया यह था कि गीता एक फेमस और सेलिब्रिटी है, जिसे जीवनसाथी बना कर उसे अच्छा
लगेगा. अरुण ने गीता के मांबाप को ढूंढने का वादा भी किया. जब गीता के पूछने की बारी आई तो उस ने इधरउधर के बजाय मुद्दे की यह बात उम्मीदवारों से पूछी कि उन की आर्थिक और पारिवारिक हैसियत क्या है. इस के बाद स्वयंवर में दरबारियों की हैसियत से बैठे लोगों के चेहरे पर निराशा के भाव नजर आने लगे. क्योंकि गीता ने वह रिस्पौंस नहीं दिया, जिस की उन्हें उम्मीद थी. मूकबधिर संस्था की कर्ताधर्ता मोनिका और ऊषा पंजाबी के अलावा ज्ञानेंद्र पुरोहित और उन की पत्नी मोनिका पुरोहित भी स्वयंवर में
मौजूद थे.

फजीहत बना स्वयंवर स्वयंवर के दूसरे दिन 8 जून को आमंत्रित 7 में से मात्र 2 ही उम्मीदवार पहुंचे तो साफ लगने लगा था कि शायद ही बात बने. इस दिन पिछले दिन के मुकाबले गीता काफी आक्रामक मूड में नजर आई और उस ने मथुरा और जयपुर से आए युवकों पर सवालों की बौछार लगा दी तो दोनों घबरा गए.
गीता ने एक परिपक्व और दुनियादारी देख चुकी लड़की की तरह इन दोनों से पूछा कि वे जहां रहते हैं, वह शहर है या गांव. वे खुद के मकान में रहते हैं या किराए के मकान में? कार है या नहीं और शादी के बाद क्या वह इंदौर में रहेंगे? गीता ने यह भी जोर दे कर पूछा कि आप मांबाप को ढूंढने में मेरी मदद करोगे या नहीं. युवकों की पढ़ाईलिखाई की जानकारी भी उस ने ली.

ये युवक दुम दबा कर चले गए तो स्वयंवर का यह ड्रामा भी खत्म हो गया. गीता ने इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई नाम फाइनल नहीं किया था, उलटे वह और उम्मीदवारों से मिलने की बात कर रही थी. इधर स्वयंवर के आयोजक पहले से ही अपना सिर धुन रहे थे कि जैसेतैसे बायोडाटा छांटछांट कर 14 लोगों को बुलाया था, उन में से भी केवल 6 ही आए और वे भी गीता की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. इस के बाद यह खबर आई कि गीता ने अपने हमदर्द और मददगार ज्ञानेंद्र पुरोहित की यह कहते हुए जम कर क्लास लगाई कि वह उस की तसवीरें और जानकारी मीडिया में लीक कर रहे हैं. और तो और एक बार तो उस ने ज्ञानेंद्र को पहचानने तक से इनकार कर दिया.

अब यह किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि गीता आखिरकार चाहती क्या है. एक कयास यह भी लगाया गया कि वह सरकारी इमदाद और मूकबधिर संस्था छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है तो दूसरा अंदाजा यह लगाया कि कहीं सचमुच में गीता शादी कर घर बसाना चाहती है या फिर उस ने सरकारी दबाव में आ कर स्वयंवर रचाने की सहमति दे दी थी. अब आगे जो भी हो, लेकिन गीता को ले कर कई सवाल और शक स्वाभाविक रूप से उठ रहे हैं. इन में पहला यह है कि क्या वह सचमुच भारतीय ही है. सवाल नाजुक है लेकिन है अहम, वजह गीता को भारत वापस आते तो सभी ने देखा लेकिन मांबाप से बिछुड़ते किसी ने नहीं देखा था.

सवालों के चक्रव्यूह में गीता उच्चायोग और विदेश मंत्रालय ने ईधी फाउंडेशन के कहने भर से कैसे मान लिया कि वह अब से कोई 14 साल पहले समझौता एक्सप्रैस में मिली थी. मुमकिन तो यह भी है कि वह पाकिस्तान की ही हो. ईधी फाउंडेशन को क्या जरूरत थी कि गीता द्वारा हिंदू देवीदेवताओं की पूजापाठ करती तसवीरें वायरल करे. दरजन भर लोगों की डीएनए जांच हुई लेकिन इन में से कोई गीता का मांबाप नहीं निकला तो महज इस उम्मीद व दाजे की बिना पर गीता को भारत क्यों लाया गया कि आज नहीं तो कल उस के मांबाप मिल ही जाएंगे. सवाल यह भी है कि गीता संस्थान से भागी क्यों थी? और आखिर में उस ने स्वयंवर में आए उम्मीदवारों को रिजेक्ट क्यों कर दिया? जब उसे शादी नहीं करनी थी तो इस ड्रामे की क्या जरूरत थी?

सरकार के गले की हड्डी बन चुकी गीता की कहानी एक नाजुक मसला है, जिसे हलके में लेने की चूक सरकार कर चुकी है. उस की शादी कर पल्ला झाड़ने या छुटकारा पाने की आखिरी कोशिश भी बेकार गई तो लगता है गीता या तो किसी मनोविकार जैसे अवसाद की शिकार हो गई है और उस ने जानबूझ कर ज्ञानेंद्र पुरोहित को लताड़ लगाई. लाख टके का सवाल यह भी है कि अगर उस के मांबाप नहीं मिले और अब शादी के लिए कोई आगे नहीं आया तो सरकार क्या करेगी? गीता की देखरेख और शाही आवभगत में करीब 6 लाख रुपए प्रतिवर्ष से भी ज्यादा का खर्च आ रहा है. सरकार कब तक यह खर्च उठाएगी और क्यों उठाएगी, जबकि गीता के भारतीय होने की पुष्टि अभी तक नहीं हुई है?

मान भी लिया जाए कि गीता भारतीय है और सच बोल रही है तो उस का भविष्य क्या है? सरकार कैसे उस का पुनर्वास करेगी और भविष्य में कभी गीता फिर भागने की कोशिश नहीं करेगी, इस बात की गारंटी कौन ले रहा है? मनोहर कहानियां से खास बातचीत में ज्ञानेंद्र पुरोहित ने यह आशंका जताई कि गीता इन दिनों अवसाद में है और इसी के चलते कोई आत्मघाती कदम भी उठा सकती है. लिहाजा उस पर विशेष ध्यान दिया जाना जरूरी है.

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