बड़ौदा के 11वें शासक मल्हारराव गायकवाड़ के शासन में गुंडागर्दी और अराजकता चरम पर पहुंच गई थी. तब अंगरेज शासकों ने राबर्ट फेयर को रेजीडेंट के रूप में नियुक्त किया. लेकिन मल्हारराव ने जिस तरह राबर्ट फेयर को मारने की कोशिश की, वह उन्हीं के गले की ऐसी फांस बन गई कि…
यह कहानी जिन के इर्दगिर्द घूमती है, उन का नाम है मल्हारराव गायकवाड़. मल्हारराव गायकवाड़ बड़ौदा राज्य के 11वें महाराजा थे, जिन्होंने साल 1870 से 1875 तक शासन किया था. वह सयाजीराव गायकवाड़ के 6वें पुत्र थे और अपने बड़े भाई खंडेराव द्वितीय की मौत के बाद बड़ौदा के महाराजा बने थे. मल्हारराव के पहले उन के बड़े भाई खंडेराव सत्ता संभाल रहे थे. यही बात मल्हारराव की आंखों में कांटे की तरह चुभ रही थी. उन की आंखों में सत्ता की लालसा टपक रही थी, इसलिए उन्होंने खंडेराव नाम के कांटे को निकाल फेंकने का प्रयास किया था.
खंडेराव की हत्या करने के लिए मल्हारराव ने एक यूरोपियन सैनिक को सुपारी दी थी. जबकि रेजिडेंट को इस सैनिक की गवाही पर विश्वास नहीं हुआ, इसलिए मल्हारराव को निर्दोष घोषित किया गया था. सत्ता की आपसी खींचतान 2 भाइयों के बीच एकदूसरे की जान लेने तक पहुंच गई थी. मल्हारराव ने भी खंडेराव पर जहर देने का आरोप लगाया था. काफी कोशिशों के बाद भी मल्हारराव खंडेराव को हटा नहीं पाए थे. खंडेराव बच गए थे, पर खंडेराव ने मल्हारराव को जेल में कैद करा दिया था. मल्हारराव के जेल चले जाने के बाद खंडेराव ने मल्हारराव के 4 नजदीकी लोगों को इस तरह की बर्बर मौत दी, जिसे सुन कर मल्हारराव का कलेजा कांप उठे.
खंडेराव ने एक दोस्त को हाथी के पैरों तले कुचलवा कर मारा था तो दूसरे को फांसी से लटका कर मारा गया था, तीसरे को तोप की नाल में बांध कर गोले से उड़वा दिया था और चौथे का सिर कटवा कर मरवा दिया गया. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महाराजा खंडेराव गायकवाड़ अंगरेजों के वफादार रहे थे, इसलिए अंगरेज भी उन के प्रति मेहरबान थे. उन के राजकाज में अंगरेजों की दखलअंदाजी कम रही. महाराजा खंडेराव को सोनेचांदी के जेवरों का बहुत शौक था. महाराजा ने शुद्ध चांदी की तोपें भी बनवाई थीं. साल 1870 में खंडेराव की मौत के बाद मल्हारराव कैद से मुक्त हो गए थे.
खंडेराव को कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन की मौत के बाद मल्हारराव बड़ौदा की गद्दी के उत्तराधिकारी बने. पर मल्हारराव के लिए मुंह तक आया सत्तारूपी कौर कुछ समय के लिए छिन जाने जैसी एक घटना घट गई. खंडेराव की मौत के बाद मल्हारराव गद्दी पर बैठने की तैयारी कर रहे थे कि तभी खंडेराव की पत्नी जमनाबाई ने खुद के गर्भवती होने की घोषणा कर दी. मल्हारराव सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, यह सोचते हुए जमनाबाई को डर था कि मल्हारराव जहर दे कर उन की हत्या करा सकता है, इसलिए वह महल में बना कोई भी भोजन खाने से कतराती थीं.
महारानी जमनाबाई अपने एक वफादार नौकर का बनाया खाना ही खाती थीं. गर्भावस्था के दौरान उन्होंने ब्रिटिश रेजीडेंसी में रहने की भी मांग की थी. लेकिन जमनाबाई को बेटा नहीं, बेटी पैदा हुई थी. इस से मल्हारराव के तो भाग्य ही खुल गए थे. अब मल्हारराव के सामने कोई अवरोध नहीं था, जो उन्हें गद्दी पर बैठने से रोक सकता. मल्हारराव गायकवाड़ ने बड़ौदा के 11वें राजा के रूप में गद्दी संभाली. और फिर इसी के साथ बड़ौदा में गुंडाराज और बेहुक्मी का एक काला अध्याय लिखा गया.
मल्हारराव के शासन काल में क्यों बढ़ गई अराजकता
गद्दी मिलते ही मल्हारराव ने सब से पहला काम खंडेराव के दीवान भाऊ सिंधिया को जेल में डालने का किया. इस के बाद भाऊ सिंधिया को जहर दे कर मारने की कोशिश की गई. जेल में उन्हें भयानक शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी गईं. परिणामस्वरूप जेल में ही उन की मौत हो गई. इतिहास में मल्हारराव की गिनती खर्चीले शासक के रूप में की गई है. उन दिनों बड़ौदा राज्य की आय 94 लाख रुपए थी, पर मल्हारराव ने गलत तरीके से राज्य की आय से दोगुना खर्च कर डाला था. राज्य में पैसा न होने से सैनिकों को वेतन नहीं मिल रहा था, जिस से सेना विद्रोह करने के बारे में सोचने लगी थी. राज्य में गुंडाराज चरम पर था. मल्हारराव के मिलनेजुलने वालों ने स्टेट की शांति और अनुशासन की धज्जियां उड़ा रखी थीं.
मल्हारराव के राज्य में बहनबेटियां भी सुरक्षित नहीं थीं. कहा जाता है कि स्टेट के आदमियों द्वारा सुंदर युवतियों और महिलाओं का अपहरण कर के महल में लाया जाता था. उन दिनों तमाम महिलाओं ने डर के मारे खुद को मंदिरों में कैद कर लिया था. क्योंकि मल्हारराव के आदमी मंदिर में जाने से घबराते थे. राजा के इस राक्षसी प्रवृत्ति से प्रजा त्राहिमाम कर उठी थी. बड़ौदा स्टेट की अमानुषिक स्थिति देख कर अंगरेज शासकों ने राबर्ट फेयर को रेजीडेंट के रूप नियुक्त कर दिया था. रेजीडेंट का काम राजामहाराजा को शासन के प्रति सलाह देना होता था. ये रेजीडेंट सैन्य सलाहकार की भी भूमिका अदा करते थे. स्टेट के शासक पर इन की बारीक नजर रहती थी.
प्रथम अफगान युद्ध में भाग ले चुके राबर्ट फेयर युद्ध के तमाम जख्म ले कर आए थे. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने बम आर्मी में उच्च ओहदे पर फर्ज निभाया था. महारानी विक्टोरिया के एडीसी के रूप में भी उन्होंने काम किया था. अभी बड़ौदा आए 4 दिन भी नहीं हुए थे कि राबर्ट फेयर को सूचना मिली कि बड़ौदा के जानेमाने मोहल्ले में खुलेआम राजा के आदमी 8 लोगों को कोड़े मार रहे हैं. उन पर आरोप है कि उन लोगों ने राजा मल्हारराव के एक वफादार नौकर को जहर दे कर मारने की कोशिश की थी.
मल्हारराव स्टेट को जिस तरह चला रहे थे, उसे देखते हुए एक दिन राजा और राबर्ट फेयर का आमनेसामने आना तय था. शुरुआत में मल्हारराव और राबर्ट फेयर के बीच संबंध अच्छे रहे, पर बाद में दोनों आमनेसामने आ गए. दोनों के बीच तलवारें खिंच गईं. दरअसल, बड़ौदा स्टेट में जो कुछ भी हो रहा था, राबर्ट फेयर ने उस की रिपोर्ट ऊपर भेज दी थी. तब कर्नल मीड के नेतृत्व में मल्हारराव के मनमानी और गैरवाजिबी रवैए की जांच के लिए एक आयोग गठित कर दिया गया था.
1873 में यह आयोग बड़ौदा आया. आयोग ने महाराजा के खिलाफ दाखिल 92 शिकायतों की जांच की तो तमाम मामलों में अतिशयोक्ति सामने आई, पर ज्यादातर मामलों में सच्चाई थी. 200 लोगों की गवाही के आधार पर आयोग ने पुष्टि कर दी कि विवाहित और अविवाहित महिलाओं का सचमुच अपहरण किया गया था. स्टेट के लेनदारों का पैसा अदा नहीं किया गया था. बैंकरों और धनसंपदा से सुखी लोगों को बल प्रयोग कर के परेशान किया जा रहा था. उस समय निकलने वाले देशी अखबार भी महाराजा मल्हारराव को हटाने की मांग कर रहे थे.
क्यों नहीं सुधरना चाहते थे मल्हारराव
मल्हारराव के खिलाफ एक तरह से आक्रोश की आंधी चल पड़ी थी. सत्ता डगमगा रही थी. कहा जाता है कि अपनी सत्ता बचाने के लिए मल्हारराव राबर्ट फेयर के पैरों पर गिर कर सिसकसिसक कर रोने लगे थे. आयोग ने मल्हारराव पर दया दिखाई और उन्हें सुधरने के लिए 17 महीने का समय दिया. कहने का मतलब यह था कि इस समय के दौरान मल्हारराव को बिगड़ी शासन व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना था. अपनी तमाम बुरी आदतों को छोड़ कर खुद भी सुधरना था. डेढ़ साल के थोड़े समय में मल्हारराव को एक मजबूत और एक परिपक्व शासक के रूप में अपनी छवि बनानी थी.
मल्हारराव ने राज्य की बिगड़ी छवि को सुधारने के लिए अपने दीवान के रूप में दादाभाई नौरोजी को नियुक्त किया. जबकि कुछ ही समय में दादाभाई नौरोजी ने राज्य की बदतर होती परिस्थिति को देखते हुए इस्तीफा देना ही मुनासिब समझा था. इस बात से मल्हारराव और राबर्ट फेयर के बीच बहुत बड़ी दुश्मनी हो गई थी. इस में आग में घी डालने का काम किया मल्हारराव के साथ पत्नी के रूप में रहने वाली लक्ष्मीबाई को अंगरेजों ने मान्यता देने से इनकार कर दिया. क्योंकि लक्ष्मीबाई पहले से ही विवाहित थीं. राबर्ट फेयर ने इस का विरोध किया था.
2 नवंबर, 1874 को राबर्ट फेयर ने बौंबे गवर्नमेंट को एक खास रिपोर्ट भेजी. दूसरी ओर मल्हारराव ने भी राबर्ट फेयर उन के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं, इस का शिकायती पत्र भेजा था. बौंबे के तत्कालीन गवर्नर लार्ड नौर्थ बुक भी राबर्ट फेयर और मल्हारराव की आपसी लड़ाई के बीच में आ गए. उसी समय पुलिस जांच में बाहर आई जानकारी के अनुसार राबर्ट फेयर से तंग आ गए मल्हारराव ने आखिर एक खतरनाक षडयंत्र रच डाला. 9 नवंबर को फेयर के शरबत में जहर मिला दिया गया. सौभाग्य से वह बच गए. थोड़ी ही देर में यह बात बड़ौदा स्टेट में हवा की तरह फैल गई.
महाराजा मल्हारराव फेयर से मिलने आए तो राबर्ट फेयर ने अपने चेहरे पर कुछ झलकने नहीं दिया. महाराजा ने राबर्ट का हालचाल पूछा और इस भयावह षडयंत्र के मुख्य सूत्रधारों को पकडऩे में अगर स्टेट की कोई मदद चाहिए तो उसे देने का विश्वास दिलाया. राबर्ट के दिमाग में शक का कीड़ा कुलबुला रहा था कि जहर देने वाला और कोई नहीं, महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ खुद हैं. अलबत्ता इस षडयंत्र के मुख्य सूत्रधार महाराजा ही थे, राबर्ट फेयर को पक्का शक था. सवाल यह था कि मोहरा कौन था? किस ने शरबत में जहर मिलाया था?
यह एक अतिगंभीर और संवेदनशील घटना थी. अंगरेज सरकार के एक प्रतिनिधि को मारने की कोशिश की गई थी. आरोप भी किसी ऐसेवैसे आदमी पर नहीं था. एक रजवाड़े के राजा पर लगा था. एक तरह से हाईप्रोफाइल मामला था. इसलिए इस केस की जांच बौंबे पुलिस को सौंपी गई थी. बौंबे पुलिस के सुपरिटेंडेंट फैं्रक राउटर और बौंबे शहर डिटेक्टिव विंग के हेड खान बहादुर अकबर अली अपनी टीम के साथ बड़ौदा आए और उन्होंने जांच शुरू कर दी.
पुलिस ने पहले तो रेजीडेंसी के तमाम नौकरों से पूछताछ की. इस पूछताछ में जो जानकारी बाहर आई, वह मल्हारराव की ओर इशारा कर रही थी. सबूत मिला कि फेयर के घर के नौकरों ने ही उन्हें जहर दे कर मारने की कोशिश की थी. इस के लिए उन्हें मोटी रकम दी गई थी.
पैरवी के लिए क्यों बुलाया लंदन से वकील
राबर्ट फेयर को जहर देने में महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ की भूमिका होने के मजबूत सबूत मिलते ही 14 जनवरी, 1875 को अंगरेजों ने मल्हारराव को नजर कैद कर लिया. इस के बाद अंगरेजों ने बड़ौदा स्टेट की कामचलाऊ बागडोर अपने हाथों में ले ली. कर्नल लेविस पेली ने बड़ौदा की सेना को विश्वास में ले कर बड़ौदा के आगेवानों की एक बैठक बुलाई, जिस में उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार उन का राज्य हड़पना नहीं चाहती. इस समय महाराजा मल्हारराव के खिलाफ मुकदमा चल रहा है, इसलिए तब तक राज्य का कामकाज ब्रिटिश सरकार देखेगी.
वायसराय लार्ड नौर्थ बुक ने मुकदमा चलाने के लिए 3 अंगरेजों और 3 हिंदुस्तानियों की बराबर पदों पर एक न्याय पंच की स्थापना की. उन के सामने मल्हारराव पर मुकदमा चला. ग्वालियर के महाराजा और जयपुर के महाराजा को भी उस न्याय पंच में शामिल किया गया था. इन के अलावा सर दिनकर राव भी भारतीय सदस्य के रूप में शामिल किए गए थे. महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ ने अपना मुकदमा लडऩे के लिए इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध वकील हेनरी हौकिंग्स को करना चाहा था.
हौकिंग्स किसी अन्य मुकदमे में फंसे थे. उन्होंने वेलेंटाइन को मुकदमा देने की सलाह दी. उस समय 72 साल के वेलेंटाइन लंदन में क्रिमिनल केसों के जानेमाने वकील थे. कहा जाता है कि मल्हारराव ने इस केस के लिए एक लाख रुपए पहले ही चुका दिए थे. वकील वेलेंटाइन पहली बार बड़ौदा आए. 23 फरवरी, 1875 से 31 मार्च, 1875 तक यह मुकदमा चला. खान बहादुर अकबर अली ने कोर्ट को बताया कि राबर्ट फेयर के यहां काम करने वाले अमीना, नुरसु और राऊजी को फेयर को जहर देने के लिए मोटी रकम का लालच दे कर इस की जिम्मेदारी दी गई थी.
राऊजी की बेल्ट से जहर की पुडिय़ा मिली थी. गायकवाड़ के सेक्रेटरी दामोदर पंत ने भी कोर्ट में गवाही देते हुए कहा था कि राज्य की तिजोरी के पैसे से आर्सेनिक जहर खरीदा गया था, जिस के बारे में राज्य की अकाउंट बुक में लिखा नहीं गया था. वकील वेलेंटाइन ने कोर्ट में मजबूत दलीलें दीं कि महाराजा मल्हारराव के विरोधियों ने उन्हें फंसाने का लिए यह पूरा षडयंत्र रचा था. अंत में महाराजा के खिलाफ जो सबूत और गवाह थे, उन से यह साबित नहीं हो सका कि महाराजा की इस मामले में सीधी भूमिका थी.
गोपालराव को चुना गद्दी का वारिस
इस बात को ले कर न्याय पंच में मतभेद थे. भारतीय सदस्यों को लगता था कि महाराजा के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, जबकि अंगरेज सदस्य महाराजा को दोषी मान रहे थे. वैसे भी मल्हारराव के शासन में बड़ौदा राज्य की स्थिति बहुत खराब थी, इसलिए राबर्ट फेयर की हत्या के प्रयास और बड़ौदा स्टेट में चल रहे अंधेर के लिए मल्हारराव को पद से हटा दिया गया. महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ को मद्रास भेज दिया गया, जहां उन्हें नजर कैद कर के रखा गया. यह मुकदमा पूरा होने के बाद वकील वेलेंटाइन की प्रशस्ति में एक दिन गरबा का आयोजन किया गया. बड़ौदा और मुंबई में विदाई के समय उन्हें सलामी दी गई. इस के 13 साल बाद 19 जनवरी, 1887 को वकील वेलेंटाइन का जीवनदीप बुझ गया. 1882 में मद्रास में ही मल्हारराव की भी मौत हो गई थी.
मल्हारराव की मौत की सूचना से उन के समर्थकों में गहरे शोक की लहर दौड़ गई थी. तमाम दुकानें बंद रहीं. असिस्टेंट रेजीडेंट कैप्टन जैक्सन पर जानलेवा हमला हुआ. सौभाग्य से वह भागने में सफल रहे, जिस से उन की जान बच गई. बड़ौदा राज्य के आर्मी जनरल पर उन की हत्या के प्रयास का मामला दर्ज हुआ. पद से हटाए गए महाराजा मल्हारराव गायकवाड़ का कोई बेटा नहीं था, इसलिए अंगरेज सरकार ने मर चुके महाराजा खंडेराव की पत्नी महारानी जमनाबाई के दत्तक पुत्र और गद्दी के लिए वारिस चुनने की परवानगी दी.
बड़ौदा राज्य की अराजकता वाले और मुश्किलों से भरे तंत्र को सुधार कर व्यवस्थित करने और नए शासक को योग्य राजा बनाने के लिए काबिल और मुस्तैद सर टी. माधवराव को बड़ौदा का दीवान नियुक्त किया गया. जमनाबाई को दत्तक पुत्र पसंद करने में टी. माधवराव ने मदद की. अंत में गायकवाड़ परिवार के दूर के पूर्वज दामाजीराव के भाई प्रतापराव के वंशज और कलवाना शाखा (नासिक जिला) के काशीराव के 3 पुत्रों में 13 साल के दूसरे पुत्र गोपालराव को दत्तक पुत्र और गद्दी के वारिस के रूप में चुना गया.
बड़ौदा ला कर उन्हें सयाजीराव तृतीय के रूप में बड़ौदा स्टेट की गद्दी पर बैठाया गया. उन के शासन काल में बड़ौदा राज्य ने किस तरह स्वर्ण अध्याय लिखा, यह कहने की जरूरत नहीं है.