वास्तविक घटनाओं पर आधारित वेब सीरीज का हाल के दिनों में दर्शकों ने अकसर स्वागत किया है. ‘द रेलवे मेन’ (The Railway Man) उसी श्रेणी में आती है. मशहूर प्रोडक्शन कंपनी यशराज फिल्म्स ने भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy) के हालातों को उजागर करने की कोशिश की है. यह इन की पहली वेब सीरीज है.

संगीत: सैम स्लेटर

छायांकन: रुबैस

संपादन: यश जयदेव रामचंदानी

कार्यकारी निर्माता: आदित्य चोपड़ा, उदय चोपड़ा

निर्देशक: शिव रवैल

ओटीटी: नेटफ्लिक्स

कलाकार: केके मेनन, आर. माधवन, दिव्येंदु शर्मा, बाबिल खान, सनी हिंदुजा, दिव्येंदु भट्टाचार्य,  जूही चावला, मंदिरा बेदी आदि.

वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ की कहानी भोपाल रेलवे स्टेशन के इंचार्ज हैं इफ्तखार सिद्दीकी (केके मेनन) जो हर दिन की तरह ड्यूटी पर निकलने को हैं. अपने क्वार्टर से उन का बेरोजगार बेटा नवाज टीवी के आगे बैठ कर राजीव गांधी का भाषण देख रहा है, 1984 का साल है. दंगे हो चुके हैं. नफरत और कत्ल अब भी जारी है. टीवी पर राजीव गांधी चेहरे पर कोई शिकन लाए बिना कहते हैं, ”जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है.’’

वह कोसते हुए कहता है, ”क्या हाल हो गया है सिखों का और इन्हें देखो.’’

नाश्ता लगाती मां कहती है कि उन की भी तो अम्मी है बच्चे. ऐसे हादसे के बाद क्या सही क्या गलत, समझ में नहीं आता. सुन कर नवाज मां से उलझता है तो इफ्तखार साइलेंट सी चिढ़ के साथ पूछते हैं कि नौकरी का क्या हुआ नवाज? ब्यूरो गए थे? हम ने बोला था न, रेलवेज में पोस्टिंग है. मौका है, मुनासिब काम है, तनख्वाह भी ठीकठाक है. तभी नवाज कहता है कि हजार बार कहा है अब्बू आप से, जिंदगी भर काले कपड़े पहन कर मैं सरकार की जी हुजूरी नहीं करूंगा.

इफ्तखार आगे कुछ नहीं कहते. अपने काम पर जाने को होते हैं कि नवाज पीठ किए उन से कहता है कि कल इंटरव्यू  है हमारा. यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड में. जैसे ही उस के मुंह से यह निकलता है, इफ्तखार तुरंत पलटते हैं. जैसे कोई अनिष्ट, बदनाम नाम सुन लिया हो.

वह पूछते हैं, ”यूनियन कार्बाइड! अब तुम ऐसी जगह काम करोगे, जहां न कोई उसूल, न काम करने का कोई तौर तरीका. बस, पैसे कमाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. ऐसी जगह पर काम करोगे? तुम्हें कोई मानसम्मान भी कमाना है या सिर्फ पैसे?’’

और इसे सुन कर नवाज पुष्ट तौर पर कुछ कह नहीं पाता. यहां पर पता चलता है कि इफ्तखार बहुत भले इंसान हैं. दूसरी बात यह पता चलती है कि कार्बाइड सन्निकट हादसे के बाद से नहीं, उस के पहले से पूरे भोपाल में बदनाम है.

4 एपिसोड में बनी नेटफ्लिक्स और यशराज एंटरटेनमेंट की यह सीरीज 2-3 दिसंबर, 1984 की रात की कहानी है. भोपाल की घनी आबादी के पास बने अमेरिकी पेस्टिसाइड कंपनी यूनियन कार्बाइड के संयंत्र में से विषैली गैस लीक हो जाती है (जिसे सीरीज में मुश्ताक खान का पात्र उबली गोभी जैसी बास कहता है) और हजारों लोग मारे जाते हैं.

सीरीज खुलती है और यूनियन कार्बाइड के दोषी चेयरमैन एंडरसन को भारत से बच कर भागने दिया जाता है. सिनेमा पर बहुत उम्दा लिखने वाले पत्रकार राजकुमार केसवानी ने, भोपाल गैस त्रासदी को करीब से कवर किया था. सीरीज में उन का, यानी पत्रकार जगमोहन कुमावत का किरदार जिसे (सनी हिंदुजा) ने निभाया. वह पहले एपिसोड के शुरू में ही कहता है कि ऐसा देश, जो न जान लेने वाले को सजा देता है और न जानें बचाने वाले को शाबाशी.

यहीं पर स्पष्ट होने लगता है कि जहां पहले की फिल्में इस बारे में थीं कि ट्रैजेडी हुई और दोषियों को सजा नहीं मिली. वहीं यह सीरीज उन लोगों के बारे में होगी, जिन्होंने जानें बचाईं.

सीरीज में रेलवे स्टेशन और रेलगाडिय़ों का पूरा सेट प्रोडक्शन टीम ने बनाया है, जिसे देख कर लगता है कि कोई असली स्टेशन है, जहां शूटिंग की गई है. ‘द रेलवे मेन’ का वायुमंडल कन्विंसिंग है. लेकिन बहुत अच्छा नहीं है. आयुष गुप्ता, शिव रवैल का स्क्रीनप्ले और डायलौग्स भी खास दमदार नहीं हैं. सैम स्लेटर का ओरिजिनल स्कोर उस गैस को सुन पाने में मदद करता है, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता.

रिसर्च वर्क में रह गईं खामियां

सीरीज में एक बात जो बहुत ज्यादा खटकती है, वह यह कि इस गैस कांड का कहानी के पात्रों पर कैसे, कितना, किस लौजिक से असर होता है, यह बता पाने में संवाद स्मार्ट नहीं रहते. दर्शकों को स्वयं अपनी बुद्धि से समझना होता है. सीरीज में जब गैस वायुमंडल में फैल चुकी होती है तो बचने का कोई तरीका नहीं होता. बताया जाता है कि मुंह पर गीला कपड़ा बांध लो या किसी कमरे में बैठो तो शायद बचा जा सकता है.

अब यह दर्शकों को दी गई सीमित जानकारी के चलते जरा अस्पष्ट है. कमरे में भी बैठेंगे तो जहां से औक्सीजन आ रही है, वहां से गैस भी तो आएगी. सीरीज में कुछ लोग गैस पी कर बच जाते हैं, कुछ मर जाते हैं. इस का भी लौजिक नहीं मिलता. कुछ कई घंटों के एक्सपोजर से मरते नहीं, कुछ चंद सेकेंड के एक्सपोजर से मर जाते हैं. एक व्यक्ति स्टेशन के कमरे से बाहर भागता है और चंद कदम के बाद गिर कर मर जाता है. इतनी तेजी से तो न्यूक्लियर रेडिएशन का एक्सपोजर पाया इंसान भी नहीं मरता.

कहने को कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति का इम्यून सिस्टम अलग होता है, जैसे कि कोविड के समय देखने को मिला, लेकिन यह दायित्व सीरीज की पटकथा का है कि वह स्पष्ट नहीं दिखा. ‘द रेलवे मेन’ में कई प्रमुख किरदार हैं, जो कहानी के स्तंभ हैं. अपनी जड़ों में भरोसेमंद भी. जैसे, आर. माधवन का रति पांडे का पात्र जो सेंट्रल रेलवे में जीएम है, उस की एंट्री सीरीज में काफी लेट होती है, लेकिन वहीं कुछ हद तक इस की ताकत भी होती है कि जब आप सारे किरदारों को देख चुके हों और कैरेक्टर सरप्राइज अब कुछ बचा नहीं है, तब माधवन आता है.

चूंकि यह किरदार स्ट्रगल नहीं कर रहा है, गैस से जूझ नहीं रहा है, बल्कि डेंजर एरिया के बाहर मौजूद है और वहां से प्रवेश करने जा रहा है. इफ्तखार सिद्दीकी के रोल में केके मेनन हैं. एक सभ्य इंसान हैं. ड्यूटी ही जिन का धर्म है. वह राजनीति से परे रहते हैं, ठीक इसी तरह गोरखपुर एक्सप्रैस के बहादुर गार्ड (रघुबीर यादव) होते हैं, जो सिखों की हत्याओं को सही गलत ठहराने वाले बहस करते करते यात्रियों से कहते हैं कि आप लोग आवाज कम और माहौल थोड़ा शांत रखिए, नहीं तो अगले स्टेशन पर उतार दिए जाओगे. और मेरी मानें तो राजनीति से बचिए. इस से बीपी बढ़ेगा और कुछ नहीं.’’

इफ्तखार और इस गार्ड की तरह जितने भी नायकीय पात्र हैं, अंत में जब इफ्तखार के किरदार को ले कर सब खत्म सा हो जाता है, तब भी वह दर्शकों को चौंकाता है और कहानी रियलिज्म से फैंटेसी में परिवर्तित सी हो जाती है. यह एक सुख देने वाली चीज होती है.

असल हीरो खो गया गुमनामी में

सन 1999 में महेश मथाई की फिल्म ‘भोपाल एक्सप्रैस’ आई थी, इस में एक अनूठा दृश्य होता है. एक बस्ती में खुले में ‘अमर अकबर एंथनी’ दिखाई जा रही है. प्रोजैक्टर की रोशनी परदे की ओर बह रही है. गीत चल रहा है, ‘शिरडी वाले साईंबाबा, आया है तेरे दर पे सवाली…’ साईंबाबा की मूर्ति में से नेत्र ज्योति निकलती है और नेत्रहीन निरूपा राय की आंखों में प्रवेश कर जाती है. उस की आंखों की रोशनी आ जाती है.

तभी इस आस्था भरने वाले प्रोजेक्टर के प्रकाश के कणों के साथ विषैली गैस का धुआं भी दर्शकों की तरफ बहता है. खौफनाक, क्रेग मेजिन (एचबीओ) की सीरीज ‘चर्नोबिल’ में भी एक ऐसा ही खौफनाक दृश्य होता है, जहां चर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट में हादसा होता है. उस का कोर रिएक्टर फट जाता है, रेडिएशन फैल जाता है. पास में फ्लैट्स बने होते हैं. रात को लोग, युवा, बच्चे, दंपति खाना खा कर घूमने निकले हैं, वे आसमान छू चुकी इस आग और काले धुएं को मौजमस्ती से पर्यटकों की तरह निहार रहे होते हैं और हंसीमजाक कर रहे होते हैं, सत्य से बिलकुल अंजान. एक युवती देखते हुए कहती है कि यह कितना सुंदर है न.

और उसी क्षण यूरेनियम रेडिएशन के हत्यारे कण हवा से उड़ कर उन के ऊपर गिर रहे होते हैं, उन की सांसों में अंदर जा रहे होते हैं, ऐसा ही ‘द रेलवे मेन’ में भी होता है, जहां अन्य यात्रियों के साथ वे 2 अनाथ बच्चे भी भोपाल स्टेशन पर बैठे हैं, जो पूर्व में यश चोपड़ा की फिल्मों के गीत गा कर हमारा मनोरंजन कर चुके होते हैं (इक रास्ता है जिंदगी, जो थम गए तो कुछ नहीं… कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है…) और जहरीली हवा उन की जान लेने को बढ़ रही होती है.

भोपाल एक्सप्रैस के अंत में नसीर के किरदार बशीर के शव पर क्रोध में भर कर रोने वाला केके का विस्फोटक दृश्य है, जिस में विजयराज भी फूटफूट कर रोता है. विचित्र संयोग कि केके उसी कहानी, उसी रेलवे स्टेशन, उसी कब्रिस्तान में फिल्म में होता है और इन्हीं जगहों पर ‘द रेलवे मेन’ में भी वापस पहुंचता है. इस फिल्म और ‘द रेलवे मेन’ दोनों में एक कौमन शौट भी है, जहां एक महिला विषैली गैस से मर चुकी है और उस का जीवित बच्चा स्तन से दूध पी रहा है. बौलीवुड अभिनेता दिवंगत इरफान खान के बेटे बाबिल खान के करिअर का यह पहला सच्चा काम है. ‘कला’ उस का कमजोर परफारमेंस थी, जिसे ‘इरफान बायस’ के चलते सराहा गया.

‘द रेलवे मेन’ पहला प्रोजेक्ट है, जिस में बाबिल अपने पिता इरफान खान की वजह से नहीं, अपने फैशन और फोटो आप्स के लिए नहीं, बल्कि यंग लोको पायलट ईमाद रियाज के अपने किरदार की निष्ठा की वजह से अलग पहचान बनाता है. दिव्येंदु के करिअर को इस पहले अपराधी के किरदार से अंत में थोड़ी गुडविल से दिल जीत जाता है. ‘द रेलवे मेन’ के किरदार इस तरह लिखे गए हैं और उन मूल्यों के लिए खड़े होते हैं कि उन्हें निभाने वाले ऐक्टर्स की ऐक्टिंग को फीता ले कर मापने आप नहीं बैठ सकते. कहानी अपने ही स्तर पर आप को अपनी गिरह में ले लेती है, लेकिन फिर भी इस में डीसेंट ऐक्टिंग जरूरी है.

मेरे लिए यह कोई जबरदस्त सीरीज नहीं है (जो होने की जरूरत भी नहीं है) लेकिन यह एक आलटाइम एंटरटेनिंग मिनी सीरीज है. ऐसी सीरीज जिस में कुछ सत्यता है, बाकी सब कुछ काल्पनिक सा है. हां, देखने में सीरीज जरूर ठीकठाक है. ऐसी धांसू भी नहीं कि जब दर्शक सीरीज देख कर उठेगा तो संतुष्ट महसूस करेगा. वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ भले ही भोपाल गैस त्रासदी के गुमनाम नायकों की कहानी बताई जा रही हो, लेकिन अपनी जान पर खेल कर हजारों रेल यात्रियों की जिंदगी बचाने वाला असल हीरो तो गुमनाम ही रह गया.

1984 की त्रासदी के नायक के योगदान का दुनिया जहान ने कोई खास जिक्र नहीं किया. अब 39 साल बाद किया भी तो असली नाम देने से ही कन्नी काट ली. यह कहते कहते शादाब थम से जाते हैं. सच तो यह है कि हम न जान लेने वालों को सजा दिला पाए और न जान बचाने वालों को शाबाशी…

ओटीटी प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई ‘द रेलवे मेन’ के डायलौग से भोपाल के कोफेहिजा में रहने वाले शादाब दस्तगीर काफी इत्तफाक रखते हैं. लेकिन वेब सीरीज की कहानी और किरदारों को ले कर वह पूरी तरह सहमत नहीं हैं.

करीब 50 साल के शादाब दस्तगीर 1984 में भोपाल रेलवे स्टेशन के डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट रहे दिवंगत गुलाम दस्तगीर के सब से छोटे बेटे हैं. शादाब का दावा है कि ‘द रेलवे मेन: द अनटोल्ड स्टोरी औफ भोपाल 1984’ में केके मेनन का किरदार पूरी तरह उन के पिता गुलाम दस्तगीर पर ही आधारित है.

क्या थी काली रात की हकीकत

1984 की उस काली रात (2-3 दिसंबर) की दास्तां सुनाते हुए शादाब बताते हैं कि उस साल मैं करीब 14 साल का था. पुराने भोपाल के एक घर में हमारा 5 सदस्यीय परिवार रहता था. 2 दिसंबर, 1984 की रात मां के साथ हम घर में 3 भाई थे. करीब 11 बजे पिता गुलाम दस्तगीर भोपाल रेलवे स्टेशन के लिए निकल गए थे. तभी आधी रात को हमारे मोहल्ले में चीखपुकार मचने लगी.

बाहर जा कर देखा तो लोग इधरउधर भाग रहे थे और एक अजीब सी गंध नथुनों में घुसी जा रही थी. ऐसा लग रहा था कि मानो किसी ने मिर्ची के गोदाम में आग लगा दी हो या फिर गोभी को बड़े पैमाने पर उबाला जा रहा हो. गंध खतरनाक होती जा रही थी. कुछ समझ में नहीं आ रहा था. किसी ने बताया कि ऊंचाई वाले स्थान पर जा कर ही जान बचाई जा सकती है. भागतेभागते हांफते मां और तीनों भाई तमाम लोगों की तरह जेल पहाड़ी पर पहुंचे, लेकिन रात भर पिता की चिंता सताती रही.

भोपाल की हवा में जहरीली गंध थमने के बाद सुबह मां के साथ हम तीनों भाई घर लौटे तो देखा कि पिता अपनी ड्यूटी से नहीं लौटे थे. अमूमन नाइट ड्यूटी खत्म करने के बाद पिता सुबह करीब साढ़े 8 बजे तक लौट आते थे. किसी अनहोनी की आशंका के चलते मैं अपने पिता को ढूंढने साइकिल से निकल पड़ा, लेकिन रास्ते का मंजर देख ठिठक गया. भोपाल की सड़कों पर बेतरतीब बिखरा हुआ सामान, जगहजगह इंसानों और जानवरों की लाशें ही लाशें पड़ी हुई थीं. दिसंबर में शादियों का सीजन शुरू हो जाता है तो टुल बाराती और बैंडबाजे वाले तक सड़कों पर मृत पड़े हुए थे.

जैसेतैसे वापस हिम्मत कर के मैं स्टेशन परिसर में दाखिल हुआ तो वहां भी कुछ ऐसा ही मंजर दिखा. यात्रियों के बैग, मुंह से झाग उगलते शव और चारों तरफ सन्नाटा. मतलब श्मशान घाट में तब्दील एक स्टेशन और लाशों में तब्दील लोग.

मैं जब अपने पिता की केबिन में घुसा तो एक अंकल जो शायद रेलवे कर्मचारी थे, वहां बैठे दिखे. मैं ने पता किया तो उन्होंने बताया कि आप के पिता (डिप्टी सुपरिटेंडेंट) की हालत ज्यादा खराब थी और वह बेहोश पड़े हुए थे तो रिलीफ टीम ने उन को एंबुलेंस से हमीदिया अस्पताल रेफर कर दिया. इस के बाद साइकिल उठा कर मैं हमीदिया पहुंचा तो वहां भी लाशों और जिंदगी मौत के बीच जंग लड़ रहे लोगों को देख कर सिहर उठा. डाक्टरों पर जैसा बन पड़ रहा था, वैसा इलाज कर रहे थे, क्योंकि किसी को मालूम नहीं था कि हवा में उड़े जहर का सही इलाज क्या है?

अस्पताल परिसर में अपने लोगों को गंवाने वालों की हालत देख मैं हताश निराश घर लौट आया. घर में हम सभी लोग बेहद चिंतित थे, लेकिन देखा कि एकाएक पिताजी करीब सुबह साढ़े 11 बजे दरवाजे पर लडख़ड़ाते हुए आ गए. अस्पताल से उन को प्राथमिक उपचार दे कर घर के लिए रवाना कर दिया गया था. लेकिन जब हम ने देखा कि पिता की आंखों का एरिया फूल के कुप्पा और लाल हो चुका था और शरीर भी लगभग पूरी तरह जवाब दे चुका था. गले से आवाज नहीं निकल पा रही थी.

बस, घर में घुसते ही वह सिर्फ इतना ही कह पाए ‘स्टेशन सुपरिटेंडेंट धुर्वे साहब भी नहीं रहे…’ दोपहर होतेहोते पूरे शहर को पता लग चुका था कि इस भयावह मंजर के पीछे कोई मिर्ची या गोभी की गंध नहीं, बल्कि कीटनाशक बनाने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से निकली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस थी. इस के कुछ दिन बाद थोड़ीबहुत सेहत ठीक होने पर खुद डिप्टी एसएस गुलाम दस्तगीर ने अपने परिवार में उस काली रात की खौफनाक दास्तां बयां की थी.

बेटे शादाब के मुताबिक, बेहद अनुशासनप्रिय और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित मेरे पिता 2 दिसंबर, 1984 की रात 12 बजे से पहले रेलवे स्टेशन भोपाल पहुंच चुके थे. और रोजाना की तरह ही अपने केबिन में डायरी मेंटेन करने लगे. इसी दौरान, प्लेटफार्म पर भगदड़ जैसी आवाज सुनाई पड़ी. बाहर आ कर देखा तो चौतरफा हाहाकार मचा हुआ था. लोग एकदूसरे को रौंदते हुए आगे बढ़े जा रहे थे तो तमाम लोग मौके पर ढहे जा रहे थे. एक अजीब किस्म की गंध फैली हुई थी. लोग सांस नहीं ले पा रहे थे. देखतेदेखते भागते दौड़ते लोग लाशों में तब्दील होने लगे. कइयों के मुंह से झाग निकलने लगा और आंखें लाल हो गईं.

स्वयं के विवेक से फैसला नहीं लिया गया होता तो…

उधर, स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर-1 पर मुंबई गोरखपुर एक्सप्रेस हजारों यात्रियों से लदी हुई खड़ी थी. ट्रेन का करीब 32 मिनट का हाल्ट था. गाड़ी में बैठे यात्रियों के बीच भी चीखपुकार मची हुई थी. यह देख पिता ने अपने कर्मचारी से ट्रेन का सिग्नल देने को कहा. लेकिन देखा कि सिग्नलमैन खुद मृत पड़ा हुआ था.

यही नहीं, तत्कालीन स्टेशन सुपरिटेंडेंट हरीश धुर्वे समेत तमाम रेलवे अधिकारी और कर्मचारियों की कुछ ही घंटों में मौत हो गई थी. वहीं, कुछ जान बचा कर स्टेशन से भाग निकले थे. ऐसे में गुलाम दस्तगीर खुद ही लोको पायलट के पास पहुंचे, लेकिन पायलट ने बिना किसी आधिकारिक आदेश के ट्रेन को आगे बढ़ाने से मना कर दिया. यह देख खांसतेछींकते और हांफते डिप्टी एसएस गुलाम दस्तगीर ने दौड़दौड़ कर इंजन में बैठे लोको पायलट और ट्रेन के आखिरी छोर पर गार्ड को अपनी जवाबदारी पर हाथ से इंडेंट लिख कर दिया. लोको पायलट और गार्ड ने आशंका जताई कि तय समय से पहले ट्रेन को आगे बढ़ाने पर कोई दुर्घटना भी हो सकती है, लेकिन डिप्टी एसएस गुलाम ने कहा कि स्टेशन पर रहोगे तो हजारों यात्रियों की जान चली जाएगी.

आखिरकार, गुलाम दस्तगीर ने अपने जोखिम पर ट्रेन को रवाना करवाया. दस्तगीर ने भोपाल के दोनों ओर निकटतम बड़े रेलवे स्टेशनों इटारसी और विदिशा पर अपने सहयोगियों को संदेश भेजा और भोपाल की सीमा में दाखिल होने वाली ट्रेनों को रोकने के लिए कहा. आधिकारिक बाधाओं के बावजूद दस्तगीर अधिकारियों को ऐसा करने के लिए मनाने में कामयाब रहे. बेटे शादाब बताते हैं, अकसर रेलवे कर्मचारी अपनी जेब में रुमाल रखते ही थे. उस रात मिथाइल आइसोसाइनेट रिसी तो किसी को कुछ पता नहीं था, लेकिन उस खतरनाक गंध से बचने के लिए लोगों ने अपनी मुंह और नाक को गीले कपड़े से ढंक लिया था.

यही नहीं, ट्रेन को अपने जोखिम पर स्टेशन से रवाना करने के बाद भी पिता नहीं रुके. उन्होंने पूरी रात गीले रुमाल की मदद से थोड़ीथोड़ी सांस ली और हांफते खांसते स्टेशन पर भागदौड़ कर के हजारों यात्रियों की जान बचाई. लेकिन हवा में घुले जहर ने आंखों को डैमेज करना शुरू कर दिया था. दिवंगत गुलाम दस्तगीर कमोबेश एक गुमनाम नायक बने रहे. हालांकि, अब यानी 39 साल बाद त्रासदी की दास्तां बड़े रूप में चित्रित की गई है तो दस्तगीर परिवार इस बात से चिंतित और परेशान है कि उन के घर के दिवंगत मुखिया की भूमिका के साथ इस चित्रण में न्याय नहीं किया गया.

बातचीत में शादाब दस्तगीर कहते हैं, जिस तरह सर्वविदित है कि गैस त्रासदी का नाम लेने पर भोपाल का नाम ही लिया जाता है तो उस रात स्टेशन पर हजारों लोगों की जान बचाने वालों में हमारे पिता और रेलवे अधिकारी गुलाम दस्तगीर का ही नाम लिया जाएगा. लेकिन वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ के निर्माताओं ने इस गुमनाम हीरो का नाम बदल कर ‘इफ्तखार सिद्दीकी’ कर दिया.

2 दिसंबर, 2021 में ‘द रेलवे मेन’ का टीजर रिलीज होने पर भोपाल में रहने वाले दस्तगीर परिवार ने प्रोडक्शन हाउस यशराज फिल्म्स (वाईआरएफ) को कानूनी नोटिस भेजा. कहा कि सीरीज का मुख्य किरदार इफ्तखार सिद्दीकी (केके मेनन) का असल नाम ‘गुलाम दस्तगीर’ किया जाए. किसी फिल्म में फिक्शन चलता है, मगर फैक्ट से छेड़छाड़ नहीं, आप किसी की कुरबानी को इस तरह नजरअंदाज नहीं कर सकते.

यशराज फिल्म्स को जारी किए गए लीगल नोटिस में दस्तगीर परिवार ने कहा था कि यह कहानी उन के पिता गुलाम दस्तगीर की कहानी है, इस पर फिल्म बनाने का अधिकार उन्होंने पहले ही स्माल बौक्स प्रोडक्शन कंपनी को दे दिया था. शादाब दस्तगीर ने कहा, ”आधेअधूरे फैक्ट्स के साथ सीरीज ‘द रेलवे मेन’ के 4 एपिसोड बना दिए. आखिरी एपिसोड में बताया गया कि स्टेशन मास्टर श्मशान तक पहुंच जाते हैं, जबकि ऐसा बिलकुल नहीं है, हमारे पिता तो खुद चल कर घर तक आए थे.

”वाईआरएफ ने हमारे परिवार से मिलना तक उचित नहीं समझा. अगर निर्माता और निर्देशक हमारे परिवार से मिलते तो हम उन्हें बेहद दिलचस्प और करीबी तथ्यों से अवगत करवा देते. इसलिए यह वेब सीरीज उन के पिता की छवि को दर्शकों के सामने सही ढंग से पेश नहीं करती.’’

नोटिस के जवाब में यशराज फिल्म्स की ओर से दस्तगीर परिवार को कहा गया कि पब्लिक डोमेन से मिली जानकारी का इस्तेमाल कर के यह फिल्म बनाई गई है. 50 सेकेंड के टीजर के आधार पर यह कैसे कह सकते हैं कि इस से आप के पिता या परिवार की छवि को गलत तरीके से पेश किया जा रहा है?

साथ ही यह तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट गुलाम दस्तगीर की बायोपिक नहीं है. वहीं, जुलाई 2021 में राइट्स किसी अन्य प्रोडक्शन हाउस को दिए जाने पर जवाब मिला कि यह सीरीज उस से पहले ही बन कर तैयार हो गई थी. इसलिए यशराज फिल्म्स और नेटफ्लिक्स ने किसी भी तरह का कोई उल्लंघन नहीं किया.

हालांकि, अब पूरी सीरीज रिलीज होने पर दस्तगीर परिवार ने निर्माता यशराज फिल्म्स पर मुकदमा करने और अदालत का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया है.

तत्कालीन डिप्टी स्टेशन सुपरिटेंडेंट गुलाम दस्तगीर के बेटे शादाब ने तथ्यहीन करार दिया, शादाब दस्तगीर ने कहा कि ‘द रेलवे मेन’ वेब सीरीज में अहम किरदार उन के पिता (गुलाम दस्तगीर) की है. भूमिका को दबाने के लिए कल्पनातीत किरदारों को खड़ा किया गया.

मसलन, इमाद (बाबिल खान) नाम का किरदार हकीकत में कभी नहीं था. आखिर रेलवे में जौइनिंग के पहले बिना ट्रेनिंग के किस को सिग्नल ठीक करने भेजा जाएगा और इंजन चलाने दिया जाएगा? वहीं स्टेशन पर एक्सप्रैस बैंडिट (दिव्येंदु शर्मा) जैसा कोई चोर शख्स नहीं था. जहरीली गैस की वजह से गुलाम दस्तगीर बीमार रहने लगे थे. हादसे के 4 साल बाद यानी 1988 में गुलाम दस्तगीर ने रिटायरमेंट ले लिया था. उन का ज्यादातर समय अस्पतालों के चक्कर काटते ही बीता. बता दें कि साल 2003 में परिवार के मुखिया और भोपाल गैस त्रासदी के हीरो गुलाम दस्तगीर की मौत हो गई थी. गैस त्रासदी से हवा में फैले जहर ने ऐसा तांडव मचाया कि आज तक उस के घाव भर नहीं सके हैं. गैस पीडि़तों की आने वाली पीढिय़ां तक तमाम बीमारियों से जूझ रही हैं.

भोपाल गैस हादसे के जिम्मेदार आरोपियों को कभी सजा नहीं हुई. उस वक्त यूसीसी के अध्यक्ष वारेन एंडरसन मामले का मुख्य आरोपी था. लेकिन मुकदमे के लिए पेश नहीं हुआ. पहली फरवरी, 1992 को भोपाल की कोर्ट ने एंडरसन को फरार घोषित कर दिया. सितंबर 2014 में एंडरसन की अमेरिका में मौत हो गई. वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ का संगीत सेम स्लाटर का कोई दम नहीं रखता. छायांकन भी रुबैस का कुछ खास नहीं है, गैस त्रासदी के असली हीरो रेलवे कर्मियों की कहानी सत्यता से बहुत दूर दिखती है. बेहतर होता असली हीरो गुलाम दस्तगीर जैसे पात्रों पर वेब सीरीज बनाते.

आर. माधवन

‘थ्री इडियट’ फिल्म में फोटोग्राफी का शौक रखने वाले आर. माधवन को शायद ही कोई भूल सकता है. उस का पूरा नाम रंगनाथन माधवन है, लेकिन उसे आर. माधवन के नाम से जाना जाता है. वह सिर्फ अभिनेता ही नहीं, बल्कि लेखक, निर्देशक और निर्माता भी है. माधवन के द्वारा बनाई गई हाल में एक फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है. यह कहें कि अपने करिअर के दौरान माधवन को एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार, 4 दक्षिण फिल्मफेयर पुरस्कार और एक तमिलनाडु राज्य फिल्म पुरस्कार सहित कई पुरस्कार हासिल हुए हैं.

माधवन ने मणिरत्नम की रोमांटिक ड्रामा फिल्म ‘अलाई पेयुथे’ में अभिनय कर के तमिल सिनेमा में पहचान बनाई थी. 2001 की 2 सब से ज्यादा कमाई करने वाली तमिल फिल्मों ‘मिन्नाले’ और ‘दम दम दम’ में यादगार भूमिकाओं के साथ एक रोमांटिक हीरो के रूप में अपनी छवि बना ली थी. इस के बाद उस ने ‘कन्नथिल मुथामित्तल’ (2002), ‘रन’ (2002), ‘जेजे’ (2003) और ‘एथिर्री’ (2004) जैसी फिल्मों से और अधिक महत्त्वपूर्ण और व्यावसायिक सफलता हासिल की.

2000 के दशक के मध्य में माधवन की हिंदी में यादगार फिल्मों में राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’ (2006), मणिरत्नम की बायोपिक ‘गुरु’ (2007) और कौमेडी ड्रामा ‘3 इडियट्स’ (2009) थीं. बौक्स औफिस पर हिट ‘तनु वेड्स मनु’ (2011) और ‘वेट्टई’ (2012) में दिखाई देने के बाद माधवन ने अभिनय से ब्रेक ले लिया. हालांकि उस की वापसी वाली फिल्में, रोमांटिक कौमेडी-ड्रामा ‘तनु वेड्स मनु रिटन्र्स’ (2015), द्विभाषी स्पोट्र्स ड्रामा ‘इरुधि सुत्रु’ (2016) और क्राइम फिल्म ‘विक्रम वेधा’ (2017) थी.

केके मेनन

‘द रेलवे मेन’ में रेलवे स्टेशन के इंचार्ज की भूमिका में केके मेनन है. उस का किरदार इफ्तखार सिद्दीकी का है. वह भारतीय सिनेमा का एक जानापहचाना अभिनेता है.

मेनन ने छोटीछोटी भूमिकाएं निभा कर काफी लोकप्रियता हासिल की है.  विज्ञापनों से करिअर शुरू करने वाले मेनन ने 2007 में ‘लाइफ इन ए… मेट्रो’, ‘एनिमी’ (2013), और ‘रहस्य’ (2015) खास तरह के अय्याश और व्यभिचारी पति का किरदार निभा कर अलग पहचान बना ली थी. 2008 में, वह ‘ए फ्यू गुड मेन’ पर आधारित शौर्य में दिखाई दिया. उस में उस ने एक क्रूर सेना ब्रिगेडियर की भूमिका निभाई थी. 2009 में उस ने ‘द स्टोनमैन मर्डर्स’ में अभिनय किया, जहां उस ने स्टोनमैन सीरियल किलर की तलाश में एक पुलिस अधिकारी की भूमिका निभाई.

उस की चर्चित फिल्मों में ‘शाहिद’, ‘चालीस चौरासी’, ‘भिंडी बाजार’, ‘भेजा फ्राई 2’, ‘हुक या क्रुक’, ‘गुलाल’, ‘मुंबई मेरी जान’ आदि रही हैं.

बाबिल खान

इरफान खान के बेटे बाबिल खान ने कम उम्र में ही अपनी पहचान बना ली है. उस ने ‘कला’ (2022) के साथ बौलीवुड में अभिनय की शुरुआत की थी. इस फिल्म में उस के साथ तृप्ति डिमरी थी, जो बाद में ‘एनिमल’ से लोकप्रिय हो गई. अपने करिअर की शुरुआत एक कैमरा सहायक के रूप में की. ‘द रेलवे मेन’ (2023) में उस के अभिनय को भी काफी पसंद किया गया. पिता इरफान की गिनती अगर बेहतर अभिनेता के रूप में होती है तो मां सुतापा सिकंदर एक चर्चित लेखिका हैं.

2023 में उसे नेटफ्लिक्स ओरिजिनल फिल्म ‘फ्राइडे नाइट प्लान’ में जूही चावला के बेटे सिद्धार्थ मेनन की भूमिका निभाते हुए देखा गया था. उस के बाद उसे यशराज फिल्म्स की वेब शृंखला ‘द रेलवे मेन’ में अभिनय का मौका मिला, जो भोपाल गैस त्रासदी की एक कहानी है. उस की भूमिका दिव्येंदु शर्मा, केके मेनन और आर. माधवन के साथ है. वह शुजीत सरकार की ‘द उमेश क्रौनिकल्स’ में अमिताभ बच्चन के साथ भी अभिनय करने वाला है.

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