Raja Ki Kahani :  मनचाहा शिकार तो मिल गया, लेकिन शिकारी थक कर चूर हो चुका था. एक तो थकान, दूसरे ढलती सांझ और तीसरे 10 मील  का सफर. उस में भी 3 मील पहाड़ी चढ़ाई, फिर उतनी ही ढलान. समर सिंह ने पहाड़ी के पीछे डूबते सूरज पर निगाह डाल कर घोड़े की गरदन पर हाथ फेरा. फिर घोड़े की लगाम थामे खड़े सरदार जुझार सिंह की ओर देखा. उन की निगाह डूबते सूरज पर जमी थी.

समर सिंह उन्हें टोकते हुए थके से स्वर में बोले, ‘‘अंगअंग दुख रहा है, सरदार. ऊपर से सूरज भी पीठ दिखा गया. धुंधलका घिरने वाला है. अंधेरे में कैसे पार करेंगे इस पहाड़ी को?’’

जुझार सिंह थके योद्धा की तरह सामने सीना ताने खड़ी पहाड़ी पर नजर डालते हुए बोले, ‘‘थक तो हम सभी गए हैं हुकुम. सफर जारी रखा तो और भी बुरा हाल हो जाएगा. अंधेरे में रास्ता भटक गए तो अलग मुसीबत. मेरे खयाल से तो…’’ जुझार सिंह सरदार की बात का आशय समझते हुए बोले, ‘‘लेकिन इस बियाबान जंगल में कैसे रात कटेगी? हम लोगों के पास तो कोई साधन भी नहीं है. ऊपर से जंगली जानवरों का अलग भय.’’

पीछे खड़े सैनिक समर सिंह और जुझार सिंह की बातें सुन रहे थे. उन दोनों को चिंतित देख एक सैनिक अपने घोड़े से उतर कर सरदार के पास खड़ा हो गया. सरदार समझ गए, सैनिक कुछ कहना चाहता है. उन्होंने पूछा तो सैनिक उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘सरदार, अगर रात इधर ही गुजारनी है तो सारा बंदोबस्त हो सकता है. आप हुक्म करें.’’

‘‘क्या बंदोबस्त हो सकता है, मोहकम सिंह?’’ जुझार सिंह ने सवाल किया तो सैनिक दाईं ओर इशारा करते हुए बोला, ‘‘ये छोटी सी पहाड़ी है. इस के पार मेरा गांव है. बड़ी खूबसूरत और रमणीक जगह है उस पार. इस पहाड़ी को पार करने के लिए हमें सिर्फ एक 2 मील चलना पड़ेगा. 1 मील की चढ़ाई और 1 मील उस ओर की ढलान. रास्ता बिलकुल साफ है. अंधेरा घिरने से पहले हम गांव पहुंच जाएंगे. मेरे गांव में हुकुम को कोई तकलीफ नहीं होगी.’’

जुझार सिंह ने प्रश्नसूचक नजरों से समर सिंह की ओर देखा. वह शांत भाव से घोड़े की पीठ पर बैठे थे. उन्हें चुप देख सरदार ने कहा, ‘‘सैनिक की सलाह बुरी नहीं है हुकुम. रात भी चैन से बीत जाएगी और इस बहाने आप अपनी प्रजा से भी मिल लेंगे. जो लोग आप के दर्शन को तरसते हैं, आप को सामने देख पलकें बिछा देंगे.’’

और ऐसा ही हुआ भी. मोहकम सिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर के जब समर सिंह अपने साथियों के साथ उस के गांव पहुंचे तो गांव वालों ने उन के आगे सचमुच पलकें बिछा दीं. छोटा सा पहाड़ी गांव था राखावास. साधन विहीन. फिर भी वहां के लोगों ने अपने राजा के लिए ऐसे ऐसे इंतजाम किए, जिन की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. हुकुम के आने से मोहकम सिंह को तो जैसे पर लग गए थे. उस ने गांव के युवकों को एकत्र कर के सूखी मुलायम घास का आरामदेह आसन लगवाया. उस पर सफेद चादर बिछवाई. सरदार के लिए अलग आसन का प्रबंध किया और सैनिकों के लिए अलग. चांदनी रात थी, फिर भी लकडि़यां जला कर रोशनी की गई.

आननफानन सारा इंतजाम कराने के बाद गांव के कुछ जिम्मेदार लोगों को शिकार भूनने और बनाने की जिम्मेदारी सौंप कर मोहकम सिंह घोड़ा दौड़ाता हुआ 3 मील दूर समालखा गांव गया और वहां से वीरन देवल से 4 बोतल संतूरी ले आया. 36 साल बाद पाकिस्तान से घर लौटा पतिकी बेहतरीन शराब जो केवल राजामहाराजाओं के लिए बनाई जाती थी. अदना सा एक Raja Ki Kahani सिपाही कितने काम का साबित हो सकता है, यह बात समर सिंह को तब पता चली, जब अपने हाथों मारे गए शिकार के जायकेदार गोश्त और संतूरी का लुत्फ लेते हुए उन की नजर घुंघरू छनका कर मस्त अदाओं के साथ नाचती मौली पर पड़ी.

ऐसा रूपलावण्य, ऐसा अछूता सौंदर्य, ऐसा मदमाता यौवन और अंगअंग में ऐसी लोच समर सिंह ने पहली बार देखा था. उन के महल तक में नहीं थी ऐसी अनिंद्य सुंदरी. ऊपर से फिजाओं में रंग बिखेरती मौली का सधा हुआ स्वर और एक ही लय में बजते घुंघरुओं की रुनझुन. रहीसही कसर मानू की ढोलक की थाप पूरी कर रही थी. घुंघरुओं की रुनझुन और ढोलक की थाप को सुन लगता था, जैसे दोनों एकदूसरे के पूरक हों. पूरक थे भी. मौली का सधा स्वर, घुंघरुओं की रुनझुन और मानू की ढोलक की थाप ही नहीं, बल्कि वे दोनों भी. यह अलग बात थी कि इस बात को गांव वाले जानते थे, पर समर सिंह और उस के साथी नहीं.

मौली और मानू खूब खुश थे. उन्हें यह सोच कर खुशी हो रही थी कि अपने राजा का मनोरंजन कर रहे हैं. इस के लिए उन दोनों ने अपनी ओर से भरपूर कोशिश भी की. लेकिन उन की सोच, उन के उत्साह, उन के समर्पण भाव और कला पर पहली बिजली तब गिरी, जब शराब के नशे में झूमते राजा समर सिंह ने मौली को पास बुला कर उस का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘आज हम ने अपने जीवन में सब से बड़ा शिकार किया है. हमारी शिकार यात्रा सफल रही. ये रात कभी नहीं भूलेगी.’’

इस तरह मौली का हाथ कभी किसी ने नहीं पकड़ा था. मानू ने भी नहीं. मानू के हाथों का स्पर्श उसे अच्छा लगता था. लेकिन उस ने उस के पैरों के अलावा कभी किसी अंग को नहीं छुआ था. मौली के पैरों में भी उस के हाथों का स्पर्श तब होता था, जब वह अपने हाथों से उस के पैरों में घुंघरू बांधता था. मौली को राजा द्वारा यूं हाथ पकड़ना अच्छा नहीं लगा. उस ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की तो समर सिंह उस की कलाई पर दबाव बढ़ाते हुए बोले, ‘‘आज के बाद तुम सिर्फ हमारे लिए नाचोगी, हमारे महल में. हम मालामाल कर देंगे तुम्हें. तुम्हें और तुम्हारे घर वालों को ही नहीं, इस गांव को भी.’’

घुंघरुओं की रुनझुन भी थम चुकी थी और ढोलक की थाप भी. सब लोग विस्मय से राजा की ओर देख रहे थे. कुछ कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी. मानू भी अवाक बैठा था. मौली राजा से हाथ छुड़ाने की कोशिश करते हुए बोली, ‘‘मौली रास्ते की धूल है हुकुम…और धूल उन्हीं रास्तों पर अच्छी लगती है, जो उस की गगनचुंबी उड़ानों के बाद भी उसे अपने सीने में समेट लेते हैं. इस खयाल को मन से निकाल दीजिए हुकुम. मैं इस काबिल नहीं हूं.’’

समर सिंह Raja Ki Kahani ने लोकलाज की वजह से मौली का हाथ तो छोड़ दिया, लेकिन उन्हें मौली की यह बात अच्छी नहीं लगी. रात बड़े ऐशोआराम से गुजरी. मोहकम सिंह और गांव वालों ने हुकुम तथा उन के साथियों की खातिरतवज्जो में कोई कसर न उठा रखी थी. सुबह जब सूरज की किरणों ने पहाड़ से उतर कर राखावास की मिट्टी को छुआ तो वहां का कणकण निखर गया. राजा समर सिंह ने उस गांव का प्राकृतिक सौंदर्य देखा तो लगा जैसे स्वर्ग के मुहाने पर बैठे हों. मौली की तरह ही खूबसूरत था उस का गांव. चारों ओर खूबसूरत पहाडि़यों से घिरा, नीलमणि से जलवाली आधा मील लंबी झील के किनारे स्थित. पहाड़ों से उतर कर आने वाले बरसाती पानी का करिश्मा थी वह झील.

रवाना होने से पहले समर सिंह ने मौली के मांबाप को तलब किया. दोनों हाथ जोड़े आ खड़े हुए तो समर सिंह बोले, ‘‘तुम्हारी बेटी महल की शोभा बनेगी. उसे ले कर महल आ जाना. हम तुम्हें मालामाल कर देंगे.’’

‘‘मौली को हम महल ले आएंगे हुकुम,’’ मौली के मांबाप डरते सहमते बोले, ‘‘नाचनागाना हमारा पेशा है, पर मौली के साथ मानू को भी आप को अपनी शरण में लेना पड़ेगा. उस के बिना तो मौली का पैर तक नहीं उठ सकता.’’

‘‘हम समझे नहीं.’’ समर सिंह ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा तो मौली के पिता बोले, ‘‘मौली और मानू बचपन के साथी हैं. नाचगाना भी दोनों ने साथसाथ सीखा. बहुत प्यार है दोनों में. मौली तभी नाचती है, जब मानू खुद अपने हाथों उस के पांव में घुंघरू बांध कर ढोलक पर थाप देता है. आप लाख साजिंदे बैठा दें मौली नहीं नाचेगी हुकुम…इस बात को सारा इलाका जानता है.’’

‘‘हमारे लिए भी नहीं?’’ समर सिंह ने अपमान का सा घूंट पीते हुए गुस्से में कहा तो मौली के पिता बोले, ‘‘आप के लिए नाचेगी हुकुम…जरूर नाचेगी. लेकिन उस के साथ मानू का होना जरूरी है. सारा गांव जानता है, मौली और मानू दो जिस्म एक जान हैं. अलग कर के सिर्फ दो लाशें रह जाएंगी. उन्हें अलग करना संभव नहीं है.’’

‘‘तुम्हारे मुंह से बगावत की बू आ रही है…और हमें बागी बिलकुल पसंद नहीं.’’ समर सिंह गुस्से में बोले, ‘‘मौली को खुद महल ले कर आते तो हम मालामाल कर देते तुम्हें, लेकिन अब हम खुद उसे साथ ले कर जाएंगे. जा कर तैयार करो उसे. यह हमारा हुक्म है.’’

अच्छा तो किसी को नहीं लगा, लेकिन राजा की जिद के सामने किस की चलती? वही हुआ, जो समर सिंह चाहते थे. रोतीबिलखती मौली को उन के साथ जाने को तैयार कर दिया गया. विदा बेला में मौली ने पहली बार मानू का हाथ थाम कर कहा, ‘‘मौली तेरी है मानू, तेरी ही रहेगी. राजा इस लाश से कुछ हासिल नहीं कर पाएगा.’’

मानू के होंठों से जैसे शब्द रूठ गए थे. वह पलकों में आंसू समेटे चुपचाप देखता रहा. आंसू और भी कई आंखों में थे, लेकिन राजा के भय ने उन्हें पलकों से बाहर नहीं आने दिया. अंतत: मौली राखावास से राजा के साथ विदा हो गई. राखावास में देवल, राठौर, नाड़ीबट्ट और नट आदि कई जातियों के लोग रहते थे. मौली और मानू दोनों ही नट जाति के थे. दोनों साथसाथ खेलतेकूदते बड़े हुए थे. दोनों के परिवारों का एक ही पेशा था—नाचगाना और भेड़बकरियां पालना.

मानू के पिता की झील में डूबने से मौत हो गई थी. घर में मां के अलावा कोई नहीं था. जब यह हादसा हुआ, मानू कुल 9 साल का था. पिता की मौत के बाद मां ने कसम खा ली कि वह अब जिंदगी भर न नाचेगी, न गाएगी. घर में 10-12 भेड़बकरियों के अलावा आमदनी का कोई साधन नहीं था. भेड़बकरियां मांबेटे का पेट कैसे भरतीं? फलस्वरूप घर में रोटियों के लाले पड़ने लगे. मानू को कई बार जंगली झरबेरियों के बेर खा कर दिन भर भेड़बकरियों के पीछे घूमना पड़ता.

मौली बचपन से मानू के साथ रही थी. वह उस का दर्द समझती थी. उसे मालूम था, मानू कितना चाहता है उसे. कैसे अपने बदन को जख्मी कर के झरबेरियों से कुर्ते की झोली भरभर लाल लाल बेर लाता था उस के लिए और बकरियों के पीछे भागतेदौड़ते उस के पांव में कांटा भी चुभ जाता था तो कैसे तड़प उठता था वह. खून और दर्द रोकने के लिए उस के गंदे पांवों के घाव पर मुंह तक रखने से परहेज नहीं करता था वह. कोई अमीर परिवार मौली का भी नहीं था. बस, जैसेतैसे रोजीरोटी चल रही थी. मौली को जो भी घर में खाने को मिलता, उसे वह अकेली कभी नहीं खाती. बहाना बना कर भेड़बकरियों के पीछे साथ ले जाती. फिर किसी बड़े पत्थर पर बैठ कर अपने हाथों से मानू को खिलाती. मानू कभी कहता, ‘‘मेरे नसीब में भूख लिखी है. मेरे लिए तू क्यों भूखी रहती है?’’

तो मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर, उस की आंखों में झांकते हुए कहती, ‘‘मेरी आधी भूख तुझे देख कर भाग जाती है और आधी रोटी खा कर. मैं भूखी कहां रहती हूं मानू.’’

इसी तरह भेड़बकरियां चराते, पहाड़ी ढलानों पर उछलकूद मचाते मानू 14 साल का हो गया था और मौली 12 साल की. दुनियादारी को थोड़ाबहुत समझने लगे थे दोनों. इस बीच मानू की मां उस के पिता की मौत के गम को भूल चुकी थी. उस ने गांव के ही एक दूसरे आदमी का हाथ थाम कर अपनी दुनिया आबाद कर ली थी. सौतेला बाप मानू को भी साथ रखने को तैयार था, लेकिन उस ने इनकार कर दिया.

मानू और मौली जानते थे, नाचगाना उन का खानदानी पेशा है. थोड़ा और बड़ा होने पर उन्हें यही पेशा अपनाना पड़ेगा. उन्हें यह भी मालूम था कि उन के यहां जो अच्छे नाचनेगाने वाले होते हैं, उन्हें राज दरबार में जगह मिल जाती है. ऐसे लोगों को धनधान्य की कमी नहीं रहती. हकीकतों से अनभिज्ञ वे दोनों सोचते, बड़े हो कर वे भी कोशिश करेंगे कि उन्हें राज दरबार में जगह मिल जाए. एक दिन बकरियों के पीछे दौड़ते, पत्थर से टकरा कर मौली का पांव बुरी तरह घायल हो गया. मानू ने खून बहते देखा तो कलेजा धक से रह गया. उस ने झट से अपना कुरता उतार कर खून पोंछा. लेकिन खून था कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था. मानू का पूरा कुरता खून से तर हो गया, पर खून नहीं रुका. चोट मौली के पैर में लगी थी, पर दर्द मानू के चेहरे पर झलक रहा था.

उसे परेशान देख मौली बोली, ‘‘कुरता खून में रंग दिया, अब पहनेगा क्या?’’

हमेशा की तरह मानू के चेहरे पर दर्द भरी मुसकान तैर आई. वह खून रोकने का प्रयास करते हुए दुखी स्वर में बोला, ‘‘कुरता तेरे पांव से कीमती नहीं है. 10-5 दिन नंगा रह लूंगा तो मर नहीं जाऊंगा.’’

काफी कोशिशों के बाद भी खून बंद नहीं हुआ तो मानू मौली को कंधे पर डाल कर झील के किनारे ले गया. मौली को पत्थर पर बैठा कर उस ने झील के पानी से उस का पैर धोया. आसपास झील का पानी सुर्ख हो गया, पर खून था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था. कुछ नहीं सूझा तो मानू ने अपने खून सने कुरते को पानी में भिगो कर उसे फाड़ा और पट्टियां बदलबदल कर घाव पर रखने लगा. उस की यह युक्ति कारगर रही. थोड़ी देर में मौली के घाव से खून बहना बंद हो गया. उस दिन मौली को पहली बार पता चला कि मानू उसे कितना चाहता है. मानू मौली का पांव अपनी गोद में रखे धीरेधीरे उस के घाव को सहला रहा था, ताकि दर्द कम हो जाए. तभी मौली ने उसे टोका, ‘‘खून बंद हो चुका है, मानू. दर्द भी कम हो गया. तेरे शरीर पर, धवले (लुंगी) पर खून के दाग लगे हैं. नहा कर साफ कर ले.’’

मौली का पैर थामे बैठा मानू कुछ देर शांत भाव से झील को निहारता रहा. फिर उस की ओर देख कर उद्वेलित स्वर में बोला, ‘‘झील के इस पानी में तेरा खून मिला है मौली. मैं इस झील में कभी नहीं नहाऊंगा…कभी नहीं.’’

थोड़ी देर शांत रहने के बाद मानू उस के पैर को सहलाते हुए गंभीर स्वर में बोला, ‘‘अपने ये पैर जिंदगी भर के लिए मुझे दे दे मौली. मैं इन्हें अपने हाथों से सजाऊंगा संवारूंगा.’’

‘‘मेरा सब कुछ तेरा है मानू,’’ मौली उस के कंधे पर हाथ रख कर उस की आंखों में झांकते हुए बोली, ‘‘सब कुछ. अपनी चीज को कोई खुद से मांगता है क्या?’’

पलभर के लिए मानू अवाक रह गया. उसे वही जवाब मिला था जो वह चाहता था. वह मौली की ओर देख कर बोला, ‘‘मौली, अब हम दोनों बड़े हो चुके हैं. अब और ज्यादा दिन इस तरह साथसाथ नहीं रह पाएंगे. लोग देखेंगे तो उल्टीसीधी बातें करेंगे. जबकि मैं तेरे बिना नहीं रह सकता. हमें ऐसा कुछ करना होगा, जिस से जिंदगी भर साथ न छूटे.’’

‘‘ऐसा क्या हो सकता है?’’ मौली ने परेशान से स्वर में पूछा तो मानू सोचते हुए बोला, ‘‘नाचनागाना हमारा खानदानी पेशा है न. हम वही सीखेंगे. तू नाचेगी गाएगी, मैं ढोलक बजाऊंगा. हम दोनों इस काम में ऐसी महारत हासिल करेंगे कि दो जिस्म एक जान बन जाएं. कोई हमें अलग करने की सोच भी न सके.’’

मौली खुद भी यही चाहती थी. वह मानू की बात सुन कर खुश हो गई.

मौली का पांव ठीक होने में एक पखवाड़ा लगा और मानू को दूसरा कुरता मिलने में भी. इस बीच वह पूरे समय नंगा घूमता रहा. आंधी, धूप या बरसात तक की चिंता नहीं की उस ने. उसे खुशी थी कि उस का कुरता मौली के काम तो आया. मानू के पिता की ढफ घर में सही सलामत रखी थी. कभी उदासी और एकांत के क्षणों में बजाया करता था वह उसे. मौली का पैर ठीक हो गया तो एक दिन मानू उसी ढफ को झाड़पोंछ कर ले गया जंगल. मौली अपने घर से घुंघरू ले कर आई थी.

मानू ने एक विशाल शिला को चुन कर अपना साधनास्थल बनाया और मौली के पैरों में अपने हाथ से घुंघरू बांधे. उसी दिन से मानू की ढफ की ताल पर मौली की नृत्य साधना शुरू हुई जो अगले 2 सालों तक निर्बाध चलती रही. इस बीच ढफ और ढोलक पर मानू ने नएनए ताल ईजाद किए और मौली ने नृत्य एवं गायन की नईनई कलाएं. अपनी अपनी कलाओं में पारंगत होने के बाद मौली और मानू ने होली के मौके पर गांव वालों के सामने अपनीअपनी कलाओं का पहला प्रदर्शन किया तो लोग हतप्रभ रह गए. उन्होंने इस से पहले न ऐसा ढोलक बजाने वाला देखा था, न ऐसी अनोखी अदाओं के  साथ नृत्य करने वाली.

कई गांव वालों ने उसी दिन भविष्यवाणी कर दी थी कि मौली और मानू की जोड़ी एक दिन राजदरबार में जा कर इस गांव का मान बढ़ाएगी. समय के साथ मानू और मौली का भेड़बकरियां चराना छूट गया और नृत्यगायन पेशा बन गया. कुछ ही दिनों में इलाके भर में उन की धूम मच गई. आसपास के गांवों के लोग अब उन दोनों को तीजत्योहार और विवाह शादियों के अवसर पर बुलाने लगे. इस के बदले उन्हें धनधान्य भी काफी मिल जाता. मानू ने अपनी कमाई के पैसे जोड़ कर सब से पहले मौली के लिए चांदी के घुंघरू बनवाए. वह घुंघरू मौली को सौंपते हुए बोला, ‘‘ये मेरे प्यार की पहली निशानी है. इन्हें संभाल कर रखना. लोग घुंघरुओं को नाचने वाली के पैरों की जंजीर कहते हैं, लेकिन मेरे विचार से किसी नृत्यांगना के लिए इस से बढि़या कोई तोहफा नहीं हो सकता. तुम इन्हें जंजीर मत समझना. इन घुंघरुओं को तुम्हारे पैरों में बाधूंगा भी मैं, और खोलूंगा भी मैं.’’

मौली को मानू की बात भी अच्छी लगी और तोहफा भी. उस दिन के बाद से वही हुआ जो मानू ने कहा था. मौली को जहां भी नृत्यकला का प्रदर्शन करना होता, मानू खुद उस के पैरों में घुंघरू बांध कर ढोलक पर ताल देता. ताल के साथ ही मौली के पैर थिरकने लगते. जब तक मौली नाचती, मानू की निगाह उस के पैरों पर ही जमी रहती. प्रदर्शन के बाद वही अपने हाथों से मौली के पैरों के घुंघरू खोलता. प्यार क्या होता है, यह न मौली जानती थी, न मानू. वे तो केवल इतना जानते थे कि दोनों बने ही एकदूसरे के लिए हैं. मरेंगे तो साथ, जिएंगे तो साथ. मौली और मानू अपने प्यार की परिभाषा भले ही न जानते रहे हों, पर गांव वाले उन के अगाध प्रेम को देख जरूर जान गए थे कि वे दोनों एकदूसरे के पूरक हैं. उन्हें उन के इस प्यार पर नाज भी था. किसी ने उन के प्यार में बाधा बनने की कोशिश भी नहीं की. मौली के मातापिता तक ने नहीं.

एक बार एक पहुंचे हुए साधु घूमते घामते राखावास आए तो गांव के कुछ युवकयुवतियां उन से अपना अपना भविष्य पूछने लगे. उन में मौली भी शामिल थी. साधु बाबा उस के हाथ की लकीरें देखते ही बोले, ‘‘तेरी किस्मत में राजयोग लिखा है. किसी राजा की चहेती बनेगी तू.’’

मौली ने कभी कल्पना भी नहीं की थी, मानू से बिछड़ने की. उस के लिए वह राजयोग तो क्या, सारी दुनिया को ठोकर मार सकती थी. उस ने हड़बड़ा कर पूछा, ‘‘मेरी किस्मत में राजयोग लिखा है, तो मानू का क्या होगा बाबा? …वह तो मेरे बिना…’’

साधु बाबा पलभर आंखें बंद किए बैठे रहे. फिर आंखें खोल कर सामने की झील की ओर निहारते हुए बोले, ‘‘वह इस झील में डूब कर मरेगा.’’

मौली सन्न रह गई. लगा, जैसे धरती आकाश एक साथ हिल रहे हों. न चाहते हुए भी उस के मुंह से चीख निकल गई, ‘‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. मैं ऐसा नहीं होने दूंगी. मुझे मानू से कोई अलग नहीं कर सकता.’’

उस की बात सुन कर साधु बाबा ठहाका लगा कर हंसे. थोड़ी देर हंसने के बाद शांत स्वर में बोले, ‘‘होनी को कौन टाल सकता है बालिके.’’

बाबा अपनी राह चले गए. मौली को लगा, जैसे उस के सीने पर सैकड़ों मन वजन का पत्थर रख गए हों. यह बात सोचसोच कर वह पागल हुई जा रही थी कि बाबा की भविष्यवाणी सच निकली, तो क्या होगा. उस दिन जब मानू मिला तो मौली उसे खींचते हुए झील किनारे ले गई और उस का हाथ अपने सिर पर रख कर बोली, ‘‘मेरी कसम खा मानू, तू आज के बाद जिंदगी भर कभी इस झील में कदम तक नहीं रखेगा.’’

मानू को मौली की यह बात बड़ी अजीब लगी. वह उस की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘यह कसम तो मैं ने उसी दिन खा ली थी, जब तेरा खून इस झील के पानी में मिल गया था. फिर भी तू कहती है तो एक बार फिर कसम खा लेता हूं… पर बात क्या है? इतनी घबराई क्यों है?’’

मानू के कसम खा लेने के बाद मौली ने बाबा की बात उसे बताई तो मानू हंसते हुए बोला, ‘‘तू इतना डरती क्यों है? जब मैं झील के पानी में कभी उतरूंगा ही नहीं तो डूबूंगा कैसे? कोई जरूरी तो नहीं कि बाबा की भविष्यवाणी सच ही हो.’’

साधु की भविष्यवाणी को सालों बीत चुके थे. इस बीच मौली 17 साल की हो गई थी और मानू 19 का. दोनों ही बाबा की बात भूल चुके थे.

…और तभी शिकार से लौटते राजा समर सिंह राखावास में रुके थे.

तो क्या साधु महाराज की भविष्यवाणी सच होने वाली थी? 

समर सिंह मौली को अपने साथ क्या ले गए, राखावास के प्राकृतिक दृश्यों की शोभा चली गई, गांव वालों का अभिमान चला गया और मानू की जान. पागल सा हो गया मानू. बस झील किनारे बैठा उस राह को निहारता रहता, जिस राह राजा के साथ मौली गई थी. खानेपीने का होश ही नहीं था उसे. लगता, जैसे राजा उस की जान निकाल ले गया हो. बात तब की है, जब हिंदुस्तान में मुगलिया सल्तनत का पराभव हो चुका था और ईस्ट इंडिया कंपनी का परचम पूरे देश में फहराने के प्रयास किए जा रहे थे. देश के कितने ही राजारजवाड़े विलायती झंडे के नीचे आ चुके थे और कितने भरपूर संघर्षों के बाद भी आने को मजबूर थे.

उन्हीं दिनों अरावली Raja Ki Kahani पर्वतमाला की घाटियों में बसी एक छोटी सी रियासत थी चंदनगढ़. इस रियासत के राजा समर सिंह थे तो अंगरेज विरोधी, पर शक्तिहीनता की वजह से उन्हें भी ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे तले आना पड़ा था. अंगरेजों का उन पर इतना प्रभाव था कि उन्हें अपने घोड़े गोरा का नाम बदल कर गोरू करना पड़ा था. समर सिंह उन राजाओं में थे, जो रासरंग में डूबे रहने के कारण राजकाज और प्रजा का ठीक से ध्यान नहीं रख पाते थे. राजा समर सिंह को 2 ही शौक थे—पहला शिकार का और दूसरा नाचगाने, मौजमस्ती का. मौली को भी उन्होंने इसी उद्देश्य से चुना था. लेकिन यह उन की भूल थी. वह नहीं जानते थे कि मौली दौलत की नहीं, प्यार की दीवानी है.

राजा समर सिंह मौली के रूपलावण्य, मदमाते यौवन और उस की नृत्यकला से प्रभावित हो कर उसे साथ जरूर ले आए थे, लेकिन उन्हें इस बात का जरा भी भान नहीं था कि यह सौदा उन्हें सस्ता नहीं पड़ेगा. राजमहल में पहुंच कर मौली का रंग ही बदल गया. राजा ने उस की सेवा के लिए दासियां भेजीं, नएनए वस्त्र, आभूषण और शृंगार प्रसाधन भेजे, लेकिन मौली ने किसी भी चीज की ओर आंख उठा कर नहीं देखा. वह जिंदा लाश सी शांत बैठी रही. किसी से बोली तक नहीं, मानो गूंगी हो गई हो. दासियों ने समझाया, पड़दायतों ने मनुहार की, पर कोई फायदा नहीं.

राजा समर सिंह को पता चला तो स्वयं मौली के पास पहुंचे. उन्होंने उसे पहले प्यार से समझाने की कोशिश की, फिर भी मौली कुछ नहीं बोली तो राजा गुस्से में बोले, ‘‘तुम्हें महल ला कर हम ने जो इज्जत बख्शी है, वह किसी को नहीं मिलती, और एक तुम हो जो इस सब को ठोकर मारने पर तुली हो. यह जानते हुए भी कि अब तुम्हारी लाश भी राखावास नहीं लौट सकती. हां, तुम अगर चाहो तो हम तुम्हारे वजन के बराबर धनदौलत तुम्हारे मातापिता को भेज सकते हैं. लेकिन अब तुम्हें हर हाल में हमारी बन कर हमारे लिए जीना होगा.’’

मौली को मौत का डर नहीं था. डर था तो मानू का. वह जानती थी, मानू उस के विरह में सिर पटकपटक कर जान दे देगा. उसे यह भी मालूम था कि उस की वापसी संभव नहीं है. काफी सोचविचार के बाद उस ने राजा समर सिंह के सामने प्रस्ताव रखा, ‘‘अगर आप चाहते हैं कि मौली आप के महल की शोभा बन कर रहे तो इस के लिए पहाड़ों के बीच वाली उसी झील के किनारे महल बनवा दीजिए, जिस के उस पार मेरा गांव है.’’

अपने इस प्रस्ताव में मौली ने 2 शर्तें भी जोड़ीं. एक यह कि जब तक महल बन कर तैयार नहीं हो जाता, राजा उसे छुएंगे तक नहीं और दूसरी यह कि महल में एक ऐसा परकोटा बनवाया जाएगा, जहां वह हर रोज अपनी चुनरी लहरा कर मानू को बता सके कि वह जिंदा है. मानू उसी के सहारे जीता रहेगा. मौली मानू को जान से ज्यादा चाहती है, यह बात समर सिंह को अच्छी नहीं लगी थी. कहां एक नंगाभूखा लड़का और कहां राजमहल के सुख. लेकिन उस की जिद के आगे वह कर भी क्या सकते थे. कुछ करते तो मौली जान दे देती. मजबूर हो कर उन्होंने उस की शर्तें स्वीकार कर लीं.

राखावास के ठीक सामने झील के उस पार वाली पहाड़ी पर राजा ने महल बनवाना शुरू किया. बुनियाद कुछ इस तरह रखी गई कि झील का पानी महल की दीवार छूता रहे. झील के तीन ओर बड़ीबड़ी पहाडि़यां थीं. चौथी ओर वाली छोटी पहाड़ी की ढलान पर राखावास था. महल से राखावास या राखावास से महल तक आधा मील लंबी झील को पार किए बिना किसी तरह जाना संभव नहीं था. उन दिनों आज की तरह न साधनसुविधाएं थीं, न मार्ग. ऐसी स्थिति में चंदनगढ़ से 10 मील दूर पहाड़ों के बीच महल बनने में समय लगना स्वाभाविक ही था. मौली इस बात को समझती थी कि यह काम एक साल से पहले पूरा नहीं हो पाएगा और इस एक साल में मानू उस के बिना सिर पटकपटक कर जान दे देगा. लेकिन वह कर भी क्या सकती थी, राजा ने उस की सारी शर्तें पहले ही मान ली थीं.

लेकिन जहां चाह होती है, वहां राह निकल ही आती है. मोहब्बत कहीं न कहीं अपना रंग दिखा कर ही रहती है. मौली के जाने के बाद मानू सचमुच पागल हो गया था. उस का वही पागलपन उसे चंदनगढ़ खींच ले गया. मौली के घुंघरू जेब में डाले वह भूखाप्यासा, फटेहाल महीनों तक चंदनगढ़ की गलियों में घूमता रहा. जब भी उसे मौली की याद आती, जेब से घुंघरू निकाल कर आंखों से लगाता और जारजार रोने लगता. लोग उसे पागल समझ कर उस का दर्द पूछते तो उस के मुंह से बस एक ही शब्द निकलता-मौली.

मानू चंदनगढ़ आ चुका है, मौली भी इस तथ्य से अनभिज्ञ थी और समर सिंह भी. उधर मानू ने राजमहल की दीवारों से लाख सिर टकराया, पर वह मौली की एक झलक नहीं देख सका. महीनों यूं ही गुजर गए. राजा समर सिंह जिस लड़की को राजनर्तकी बनाने के लिए राखावास से चंदनगढ़ लाए हैं, उस का नाम मौली है, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. राजा स्वयं उसे मालेश्वरी कह कर पुकारते थे, अत: दासदासियां और पड़दायतें तक उसे मालेश्वरी ही कहती थीं.

राजा ने मौली के लिए अपने महल के एक एकांत कक्ष में रहने की व्यवस्था की थी, जहां उसे रानियों जैसी सुविधाएं उपलब्ध थीं. उस की सेवा में कई दासियां रहती थीं. एक दिन उन्हीं में से एक दासी ने बताया, ‘‘नगर में एक दीवाना मौली मौली पुकारता घूमता है. पता नहीं कौन है मौली, उस की मां, बहन या प्रेमिका. बेचारा पागल हो गया है उस के गम में. न खाने की सुध, न कपड़ों की. एक दिन महल के द्वार तक चला आया था, पहरेदारों ने धक्के दे कर भगा दिया. कहता था, इन्हीं दीवारों में कैद है मेरी मौली.’’

मौली ने सुना तो कलेजा धक से रह गया. प्राण गले में अटक गए. लगा, जैसे बेहोश हो कर गिर पड़ेगी. वह संज्ञाशून्य सी पलंग पर बैठ कर शून्य में ताकने लगी. दासी ने उस की ऐसी स्थिति देख कर पूछा, ‘‘क्या बात है, आप मेरी बात सुन कर परेशान क्यों हो गईं? आप को क्या, होगा कोई दीवाना. मैं ने तो जो सुना था, आप को यूं ही बता दिया.’’

मौली ने अपने आप को लाख संभालना चाहा, लेकिन आंसू पलकों तक आ ही गए. दासी पलभर में समझ गई, जरूर कोई बात है. उस ने मौली को कुरेदना शुरू किया तो वह न चाहते हुए भी उस से दिल का हाल कह बैठी. दासी सहृदय थी. मौली और मानू की प्रेम कहानी सुनने और उन के जुदा होने की बात सुन उस का हृदय पसीज उठा.

क्या मानू मौली से मिल सकेगा या राजा के महलों में कैद होकर रह जायेगा? 

मौली ने उस से निवेदन किया कि वह किसी तरह मानू तक यह संदेश पहुंचा दे कि वह उस से मिले बिना न मरेगी, न नाचेगी. वह वक्त का इंतजार करे. एक न एक दिन उन का मिलन होगा जरूर. जब तक मिलन नहीं होता, तब तक वह अपने आप को संभाले. प्यार में पागल बनने से कुछ नहीं मिलेगा. दासी ने जैसे तैसे मौली का संदेश मानू तक पहुंचाया भी, लेकिन उस पर उस की बातों का कोई असर नहीं हुआ. उन्हीं दिनों एक अंगरेज अधिकारी को चंदनगढ़ आना था. राजा समर सिंह ने अधिकारी को खुश करने के लिए उस की खातिर का पूरा इंतजाम किया. महल को विशेष रूप से सजाया गया. नाचगाने का भी प्रबंध किया गया. राजा समर सिंह चाहते थे कि मौली अपनी नृत्यकला से अंगरेज रेजीडेंट का दिल जीते.

उन्होंने इस के लिए मौली से मानमनुहार की तो उस ने शर्त बता दी, ‘‘मानू नगर में मौजूद है, उसे बुलाना पड़ेगा. वह आ कर मेरे पैरों में घुंघरू बांध देगा तो मैं नाचूंगी.’’

समर सिंह जानते थे कि जो बात मौली की नृत्यकला में है, वह किसी दूसरी नर्तकी में नहीं. अंगरेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. राजा ने मौली की शर्त स्वीकार कर ली. मानू को ढुंढवाया गया. उस का हुलिया बदला गया. अगले दिन जब रेजीडेंट आया तो पूरी तैयारी के बाद मौली को सभा में लाया गया. सभा में मौजूद सब लोगों की निगाहें मौली पर जमी थीं और उस की निगाहें उन सब से अनभिज्ञ मानू को खोज रही थीं. मानू सभा में आया तो उसे देख मौली की आंखें बरस पड़ीं. मन हुआ, आगे बढ़ कर उस से लिपट जाए, लेकिन चाह कर भी वह ऐसा नहीं कर सकी. करती तो दोनों के प्राण संकट में पड़ जाते. उस ने लोगों की नजर बचा कर आंसू पोंछ लिए.

आंसू मानू की आंखों में भी थे, लेकिन उस ने उन्हें बाहर नहीं आने दिया. खुद को संभाल कर वह ढोलक के साथ अपने लिए नियत स्थान पर जा बैठा. मौली धीरेधीरे कदम बढ़ा कर उस के पास पहुंची तो मानू थोड़ी देर अपलक उस के पैरों को निहारता रहा. फिर उस ने जेब से घुंघरू निकाल कर माथे से लगाए और मोली के पैरों में बांध दिए. इस बीच मौली उसे ही निहारती रही. घुंघरू बांधते वक्त मानू के आंसू पैरों पर गिरे तो मौली की तंद्रा टूटी. मानू के दर्द का एहसास कर उस के दिल से आह भी निकली, पर उस ने उसे जैसे तैसे जज्ब कर लिया.

इधर ढोलक पर मानू की थाप पड़ी और उधर मौली के पैर थिरके. पलभर में समां बंध गया. मौली उस दिन ऐसा नाची, जैसे वह उस का अंतिम नाच हो. लोगों के दिल धड़क धड़क उठे. अंगरेज रेजीडेंट बहुत खुश हुआ. उस ने नृत्य, गायन और वादन का ऐसा अनूठा समन्वय पहली बार देखा था. राजा समर सिंह का जो मकसद था, पूरा हुआ. महफिल समाप्त हुई तो मौली ने मानू से हमेशा की तरह घुंघरू खोलवाने चाहे, लेकिन राजा ने इस की इजाजत नहीं दी. अंगरेज अधिकारी वापस चला गया तो मानू को महल के बाहर कर दिया गया. मौली अपने कक्ष में चली गई. उस ने कसम खा ली कि उस के पैरों से घुंघरू खुलेंगे तो मानू के हाथ से ही.

झील वाला महल तैयार होने में एक साल लगा. छोटे से इस महल में राजा समर सिंह ने मौली के लिए सारी सुविधाएं जुटाई थीं. मौली की इच्छानुसार एक परकोटा भी बनवाया गया था, जहां खड़ी हो कर वह झील के उस पार स्थित अपने गांव को निहार सके. राजा समर सिंह जानते थे कि मौली और मानू एकदूसरे को बेहद प्यार करते हैं. प्यार में वे दोनों किसी भी हद तक जा सकते थे. इसी बात को ध्यान में रख कर राजा समर सिंह ने महल से सौ गज दूर झील के पानी में एक ऐसी अदृश्य दीवार बनवाई, जिस के आरपार पानी तो जा सके लेकिन जीवों का आनाजाना संभव न हो. दीवार के इस पार उन्होंने पानी में 2 मगरमच्छ छुड़वा दिए. यह सब उन्होंने इसलिए किया था ताकि मानू झील में तैर कर इस पार न आ सके, आए तो मगरमच्छों का शिकार हो जाए.

पूरी तैयारी हो गई तो मौली को झील किनारे नवनिर्मित महल में भेज दिया गया. जिस दिन मौली को महल में ले जाया गया, उस दिन महल को खूब सजाया गया था. राजा समर सिंह की उस दिन वर्ष भर पुरानी आरजू पूरी होनी थी. वादे के अनुसार मौली ने राजा के सामने स्वयं को समर्पित कर दिया. उस दिन उस ने अपना शृंगार खुद किया था. बेहद खूबसूरत लग रही थी वह. समर सिंह की बांहों में सिमटते हुए उस ने सिर्फ इतना कहा था, ‘‘आज से मेरा तन आप का है पर मन को आप कभी छू नहीं पाएंगे. मन पर मानू का ही अधिकार रहेगा.’’

राजा को मौली के मन से क्या लेनादेना था. उन की जिद भी पूरी हो गई और हवस भी. उस दिन के बाद मौली स्थाई रूप से उसी महल में रहने लगी. सेवा में दासदासियां और सुरक्षा के लिए पहरेदार सैनिकों की व्यवस्था थी ही. महीने में 6-7 दिन मौली के साथ गुजारने के लिए राजा समर सिंह झील वाले महल में आते रहते थे. वहीं रह कर वह पास वाले जंगल में शिकार भी खेलते थे. मौली का रोज का नियम था. हर शाम वह महल के परकोटे पर खड़े हो कर अपनी वही चुनरी हवा में लहराती जो गांव से ओढ़ कर आई थी. मानू को मालूम था कि मौली झील वाले महल में आ चुकी है. वह हर रोज झील के किनारे बैठा मौली की चुनरी को देखा करता. इस से उस के मन को काफी तसल्ली मिलती. कई बार उस का दिल करता भी कि वह झील को पार कर के मौली के पास जा पहुंचे, लेकिन मौली की कसम उस के पैर बांध देती थी.

देखतेदेखते एक साल और गुजर गया. मौली को गांव छोड़े 2 साल होने को थे. तभी एक दिन राजा समर सिंह को अंगरेज रेजीडेंट का संदेश मिला कि वह उन की रियासत के मुआयने पर आ रहे हैं और उसी नर्तकी का नृत्य देखना चाहते हैं, जो पिछली यात्रा में उन के सामने पेश की गई थी. राजा समर सिंह ने जब यह बात मौली को बताई तो उस ने अपनी शर्त रखते हुए कहा, ‘‘यह तभी संभव है, जब मानू मेरे साथ हो. उस के बिना नृत्य का कोई भी आयोजन मेरे बूते में नहीं है.’’

समर सिंह ने मौली को समझाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन वह नहीं मानी. अंगरेज रेजीडेंट को खुश करने की बात थी. फलस्वरूप राजा समर सिंह को झुकना पड़ा. मौली ने राजा से कहा कि वह चंदनगढ़ जाने के बजाय उसी महल में नृत्य करेगी और मानू को भी वहीं बुलाना होगा.

क्या मानू और मौली का महामिलान हो पायेगा? या दो प्रेमी फिर एक दूसरे से हमेशा के लिए बिछड़ जायेंगे? 

राजा समर सिंह नहीं चाहते थे कि मानू किसी भी रूप में मौली के सामने आए जबकि अंगरेज रेजीडेंट को खुश करना भी उन की मजबूरी थी. सोचविचार कर राजा ने झील में बनी अदृश्य दीवार पर ठीक महल के परकोट के सामने पत्थरों का एक बड़ा सा गोल चबूतरा बनवा कर उस पर प्रकाश स्तंभ स्थापित कराया. इस चबूतरे और महल के बीच ही वह कुंड था, जिस में मगरमच्छ रहते थे. मगरमच्छों का भोजन चूंकि उसी कुंड में डाला जाता था, अत: वे वहीं मंडराते रहते थे. महल के परकोटे से 2 मजबूत रस्सियां इस प्रकार प्रकाश स्तंभ में बांधी गईं कि आदमी एक रस्सी के द्वारा स्तंभ तक जा सके और दूसरी से आ सके.

अंगरेज रेजीडेंट के आने का दिन तय हो चुका था. उसी हिसाब से राजा ने झील वाले महल में मेहमाननवाजी की तैयारियां कराईं. जिस दिन रेजीडेंट को आना था, उस दिन 2 सैनिक इस आदेश के साथ राखावास भेजे गए कि वे झील के रास्ते मानू को प्रकाश स्तंभ तक भेजेंगे. मौली ने मानू को झील में न उतरने की कसम दे रखी थी, यह बात समर सिंह नहीं जानते थे. तयशुदा दिन जब अंगरेज रेजीडेंट चंदनगढ़ पहुंचा, राजा समर सिंह यह कह कर उसे झील वाले महल में ले गए कि उन्होंने इस बार उन के मनोरंजन की व्यवस्था प्रकृति की गोद में की है. राजा का झील वाला महल अंगरेज रेजीडेंट को खूब पसंद आया.

मौली भी उस दिन खूब खुश थी. मानू से मिलने की खुशी उस के चेहरे से फूटी पड़ रही थी. उसे क्या मालूम था कि मानू को उस के सामने झील वाले रास्ते से लाया जाएगा और वह ठीक से उस की सूरत भी नहीं देख पाएगी. जब सारी तैयारियां हो गईं और अंगरेज रेजीडेंट भी आ गया तो महल के परकोटे से मौली की चुनरी से राखावास की ओर मौजूद सैनिकों को इशारा किया गया. सैनिकों ने मानू से झील के रास्ते प्रकाश स्तंभ तक तैर कर जाने को कहा तो उस ने इनकार कर दिया कि वह मौली की कसम नहीं तोड़ सकता. इस पर सैनिकों ने उस से झूठ बोला कि मौली ने अपनी कसम तोड़ दी है, वही अपनी चुनरी लहरा कर उसे बुला रही है. मानू ने महल के परकोटे पर चुनरी लहराते देखी तो उसे सैनिकों की बात सच लगी. उस ने बिना सोचेसमझे मौली के नाम पर झील में छलांग लगा दी.

जिस समय मानू झील को पार कर प्रकाश स्तंभ तक पहुंचा, तब तक राजा समर सिंह का एक कारिंदा ढोलक ले कर रस्सी के सहारे वहां जा पहुंचा था. उसी ने मानू को बताया कि महल और प्रकाश स्तंभ के बीच मगरमच्छ हैं. उसे उसी स्थान पर बैठ कर ढोलक बजानी होगी और मौली उसी धुन पर परकोटे पर नाचेगी. कारिंदा राजा का हुक्म सुना कर दूसरी रस्सी के सहारे वापस लौट आया. मौली को जब राजा की इस चाल का पता चला तो वह मन ही मन खूब कुढ़ी, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी. उस ने मन ही मन फैसला कर लिया कि आज वह अंतिम बार राजा की महफिल में नाचेगी और नाचते नाचते ही हमेशा हमेशा के लिए अपने मानू से जा मिलेगी.

राजा की महफिल छत पर सजी थी. प्रकाश स्तंभ और महल की छत पर विशेष प्रकाश व्यवस्था कराई गई थी. जब अंधेरा घिर आया और चारों ओर निस्तब्धता छा गई तो मौली को महफिल में बुलाया गया. उस समय उस के चेहरे पर अनोखा तेज था. सजीधजी मौली घुंघरू खनकाती महफिल में पहुंची तो लोगों के दिल धड़क उठे. मौली ने परकोटे पर खड़े हो कर श्वेत ज्योत्सना में नहाई झील को देखा. प्रकाश स्तंभ के पास सिकुड़े सिमटे बैठे मानू को देखा और फिर आकाश के माथे पर टिकुली की तरह चमकते चांद को निहारते हुए बुदबुदाई, ‘‘हे मालिक, तुझ से कभी कुछ नहीं मांगा, पर आज मांगती हूं. इस नाचीज को एक बार, सिर्फ एक बार उस के प्यार के गले जरूर लग जाने देना.’’

मन की मुराद मांग कर मौली ने एक बार जोर से पुकारा, ‘‘मानू…’’

मौली की आवाज के साथ ही मानू के हाथ ढोलक पर चलने लगे. ढोलक की आवाज वादियों में गूंजने लगी और उस के साथ ही मौली के पैरों के घुंघरू भी. पलभर में समां बंध गया. सभा में मौजूद लोग दिल थामे मौली की कला का आनंद लेने लगे. अभी महफिल जमे ज्यादा देर नहीं हुई थी. मौली का पहला नृत्य पूरा होने वाला था. लोग वाहवाह कर रहे थे. तभी मौली तेजी से पीछे पलटी और कोई कुछ समझ पाता, इस से पहले ही मानू का नाम ले कर चीखते हुए परकोटे से प्रकाश सतंभ तक जाने वाले रस्से को पकड़ कर झूल गई. मौली का यह दुस्साहसिक रूप देख पूरी सभा सन्न रह गई.

महल के परकोटे से प्रकाश स्तंभ तक आनेजाने वाले कारिंदे रस्सों में विशेष प्रकार के कुंडे में बंधा झूला डाल कर आतेजाते थे. काम के बाद कुंडे और झूला निकाल कर रख दिए जाते थे. मौली चूंकि रस्से को यूं ही पकड़ कर झूल गई थी और रस्सा नीचे की ओर आ गया था. फलस्वरूप रस्से की रगड़ से उस के हाथ बुरी तरह घायल हो गए थे. वह ज्यादा देर अपने आप को संभाल नहीं पाई और झटके के साथ कुंड में जा गिरी.

हतप्रभ मानू यह दृश्य देख रहा था. मौली के गिरने से छपाक की आवाज उभरी तो मानू ने भी कुंड में छलांग लगा दी. अंगरेज रेजीडेंट, राजा और उस की महफिल इस भयावह दृश्य को देखती रह गई. कुछ देर मानू और मौली पानी में डूबते उतराते दिखाई दिए भी, लेकिन थोड़ी ही देर में वे आंखों से ओझल हो गए हमेशा के लिए. दोनों ही मगरमच्छों का शिकार बन चुके थे.

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