Bollywood news : सत्येंद्रपाल से एक गलती हो गई थी, जिस से डर कर वह मुंबई भाग गए थे. उन्हें क्या पता था कि यह गलती उन की जिंदगी का टर्निंग पौइंट साबित होगी और एक दिन वह अमिताभ बच्चन के साथ हेराफेरी, नमकहलाल और शराबी जैसी सुपरहिट फिल्में बनाएंगे.     

समय के प्रवाह से जीवनधारा का तालमेल बिठाना आसान नहीं होता. तब तो बिलकुल भी नहीं जब रास्ते टेढ़ेमेढ़े और ऊबड़खाबड़ हों. कदमदरकदम चुनौती बन कर खड़े अभाव जीवन के संघर्ष को तिधारे के उस कांटे की तरह बना देते हैं जिस की तीखी चुभन दिमाग तक को सुन्न कर देती है. साधारण मनोवृत्ति के लोग भले ही कंटीली राहों पर उलझ कर रह जाएं, लेकिन दृढ़ मनोबल वाले हार नहीं मानते. वे दुरुह स्थितियों का डट कर मुकाबला करते हैं ताकि उन्हें अपने मनोनुकूल बना सकें. निस्संदेह इस में कामयाब होने वाले ही बुलंदियों को छूते हैं.

ऐसे लोगों का शून्य से शिखर तक का सफर बंजर पथरीली जमीन में अनायास उग आए उस नन्हें अंकुर की तरह होता है जो वजूद को झुलसाने वाली तेज गरमी, अस्तित्व को लीलने को आतुर रहने वाली तीखी सर्दी और जड़ों को उखाड़ फेंकने की कोशिश करने वाली मूसलाधार बरसात से लड़ते हुए विशाल वृक्ष बनता है.

ऐसे ही लोगों में हैं, 70-80 के दशक की बौलीवुड की नामचीन हस्तियों में शामिल रहे फिल्म निर्माता सत्येंद्रपाल चौधरी, जिन्होंने सन 1968 में अपने मित्र प्रकाश मेहरा के साथ शशि कपूर, बबीता अभिनीत फिल्महसीना मान जाएगीसे अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की और बाद मेंहेराफेरी’, ‘शराबी’, औरनमकहलालजैसी ब्लौकबस्टर फिल्में बनाईं. सत्येंद्रपाल चौधरी ने अपना फिल्मी सफर शून्य से शुरू किया था, जो बरसों के संघर्ष और तमाम उतारचढ़ावों के बाद सफलता के उस पायदान तक पहुंचा, जहां पहुंचने के लोग महज सपने देख कर रह जाते हैं.

सच तो यह है कि सत्येंद्रपाल के लिए भी यह सपने जैसा ही था. सपने जैसा इसलिए क्योंकि तो वह हीरो बनने की चाहत ले कर मुंबई पहुंचे थे और स्वप्ननगरी का आकर्षण उन्हें मेरठ से मुंबई खींच कर लाया था. हकीकत में सत्येंद्रपाल का मुंबई पहुंचना एक इत्तफाक था और यह इत्तफाक जन्मा था एक ऐसे हादसे की कोख से, जिस से वह बुरी तरह डर गए थे. यह डर उन के मन में कुछ इस तरह बैठ गया था कि उन्होंने अपनी पहचान छिपाए रखने के लिए जिंदगी भर घर वापस लौटने का फैसला कर लिया था.

जिंदगी में कितनी ही राहें आती हैं, गुजर जाती हैं. कितने ही मोड़ आते हैं, पीछे छूट जाते हैं. लेकिन इन में कोई खास राह, कोई खास मोड़ ऐसा होता है जिसे इंसान ताजिंदगी नहीं भूलता. क्योंकि उसी राह या मोड़ ने उस की जिंदगी में अहम भूमिका निभाई होती है. सत्येंद्रपाल चौधरी का जिला मेरठ स्थित कस्बा बड़ौत के निकटवर्ती गांव बसी से ले कर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री के जानेमाने फिल्म निर्माता बनने तक का सफर किसी फिल्मी कहानी जैसा ही रोचक और रोमांचक है. उन के इस सफर में जिंदगी का हर रंग, हर भाव पूरे प्रभाव के साथ मौजूद है, अपनी अलग और स्पष्ट छाप छोड़ता हुआ. कई बार इंसान के भविष्य की भूमिका उस के बचपन में ही बननी शुरू हो जाती है

सत्येंद्रपाल के साथ भी यही हुआ. उन दिनों वह बसी के जनता स्कूल में 7वीं में पढ़ रहे थे. दिमाग के तेज, पढ़ने में होशियार, अंगरेजी पर अच्छी पकड़. मैट्रिक के एग्जाम चल रहे थे. इत्तफाक से साइकिल से गिर कर मैट्रिक के एक स्टूडेंट का सीधा हाथ टूट गया. उस का अंगरेजी का पेपर था, लेकिन हाथ टूटा होने की वजह से वह लिख नहीं सकता था. स्कूल के टीचर सत्येंद्रपाल की प्रतिभा से परिचित थे. उन्होंने उस छात्र के लिए सत्येंद्र को लेखक बनाने का निश्चय किया.

एग्जाम बड़ौत में था. सत्येंद्र को एग्जाम में उस छात्र के साथ बिठाया गया ताकि वह उस के बताए अनुसार प्रश्नों के उत्तर लिख सकें. वहां पर एग्जामिनर सत्येंद्रपाल के बहनोई प्रताप सिंह शास्त्री थे. सत्येंद्रपाल ने छात्र के बताए अनुसार प्रश्नों के उत्तर तो लिखे ही, कुछ सवालों के जवाब अपनी तरफ से भी लिखे, जो सही थे. प्रताप सिंह शास्त्री ने अपने साले की प्रतिभा को पहचान कर निर्णय लिया कि सत्येंद्र को क्लासों के चक्कर में उलझा कर सीधे मैट्रिक का एग्जाम दिलाएंगे.

प्रताप सिंह शास्त्री की यह दूरदर्शिता बड़ी काम की साबित हुई. अगले साल सत्येंद्रपाल को प्राइवेट फार्म भरवा कर मैट्रिक का एग्जाम दिलाया गया. इस में वह सेकेंड डिवीजन में पास हुए, अंगरेजी में डिसटिंक्शन के साथ. शास्त्रीजी की सलाह पर 2 साल बाद सत्येंद्र को फिर इंटरमीडिएट का एग्जाम प्राइवेट ही दिलाया गया. इस बार भी नतीजा मैट्रिक जैसा ही रहा. इस तरह उन्होंने 15 साल की उम्र में इंटरमीडिएट कर लिया. फिर उसी साल उन्हें मेरठ कालेज में बीए में एडमिशन दिला दिया गया. यह 1959 की बात है

बसी से मेरठ काफी दूर था. आनेजाने के साधन नहीं थे, रोजाना घर से कालेज आनाजाना संभव नहीं था. इसलिए सत्येंद्र के रहने की व्यवस्था मेरठ कालेज के ओडनल हौस्टल में कर दी गई. लेकिन वहां वह ज्यादा दिन नहीं रह सके. वजह बना एक लड़का जो उम्र में उन से काफी बड़ा था. एक तो उन का खायापीया सुगठित शरीर, ऊपर से कम उम्र. वह लड़का जबतब सत्येंद्र को छेड़ता रहता था. जबकि यह बात उन्हें बरदाश्त नहीं थी. हौस्टल में चूंकि सख्ती नहीं थी सो शिकायत का भी कोई असर नहीं हुआ. जब हौस्टल में रहना मुश्किल हो गया तो सत्येंद्रपाल ने अपनी परेशानी अपने पिता चौधरी वीरनारायण सिंह को बताई.

बेटे की दिक्कत को समझते हुए चौधरी वीरनारायण सिंह ने सत्येंद्र का हौस्टल छुड़वा कर उन के रहने का इंतजाम अपने एक मित्र प्रभुदयाल सिंह के घर पर कर दिया. कुछ महीने चैन से गुजरे. लेकिन जल्दी ही पीछे छूटी मुसीबत फिर सामने खड़ी हुई. सत्येंद्रपाल के साथ छेड़छाड़ करने वाले लड़के ने हौस्टल छोड़ कर मोहल्ला पत्थरवाला में किराए का कमरा ले लिया. उस का कमरा सत्येंद्रपाल के कमरे से ज्यादा दूर नहीं था. उस लड़के को पत्थरवाला आए अभी कुछ ही दिन हुए थे कि वह फिर अपनी पुरानी हरकतों पर उतर आया. उस ने कालेज आतेजाते सत्येंद्र को फिर छेड़ना शुरू कर दिया. इस से वह परेशान भी रहने लगे और उन की पढ़ाई में भी व्यवधान पड़ने लगा. दिक्कत यह थी कि बारबार तो जगह बदलना संभव था और पिता से शिकायत करना.

सत्येंद्रपाल पढ़ने के लिए मेरठ आए थे, लेकिन उस लड़के की वजह से वह तनाव में रहने लगे थे. वह लड़का उम्र में सत्येंद्र से बड़ा था, कदकाठी में मजबूत और दबंग. उस से लड़ना उन के लिए संभव नहीं था. जब बात बरदाश्त के बाहर हो गई तो एक दिन सत्येंद्र ने उसे धमकी दी कि वह नहीं माना तो उन्हें अपने घर वालों को बुलाना पड़ेगा. लेकिन उस पर उन की इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ. इस बीच सत्येंद्रपाल को मेरठ में रहते करीब 9 महीने हो गए थे. वह अप्रैल का महीना था. उस लड़के ने सत्येंद्रपाल से फिर छेड़छाड़ की जिसे ले कर दोनों में काफी गालीगलौज हुई. छोटा होने की वजह से सत्येंद्र उस का कुछ नहीं बिगाड़ सके. बात हद से आगे जा चुकी थी, बरदाश्त के बाहर.

उस दिन वह अपने कमरे पर जा कर देर तक रोते रहे. भूख लगी थी पर खानेपीने तक का मन नहीं किया. अपमान और गुस्से ने उन की बुद्धि पर पूरी तरह परदा डाल दिया था. देखतेदेखते रात गहरा गई, लेकिन सत्येंद्र का गुस्सा जरा भी कम नहीं हुआ. भूख थी प्यास, ही आंखों में नींद का नामोनिशान. कहीं कुछ था तो सिर्फ गुस्सा. अपमान से उपजा गुस्सा जब काबू के बाहर हो गया तो सत्येंद्रपाल ने मन ही मन एक खतरनाक निर्णय ले डाला, बिना आगेपीछे सोचे. बिना किसी अंजाम की परवाह किए. गरमी की वजह से लोगों ने खुले में सोना शुरू कर दिया था. वह छात्र जिस मकान में रहता था, उस के बाहर चबूतरा था और वह उसी पर चारपाई डाल कर सोता था.

यह बात सत्येंद्र को पता थी. उन दिनों गांवों और कस्बों के युवक बौडी बनाने के लिए लकड़ी का मुगदर इस्तेमाल किया करते थे. सत्येंद्रपाल भी अपने पास मुगदर रखते थे. जब रात आधी से ज्यादा गुजर गई तो सत्येंद्र अपना मुगदर उठा कर कमरे से बाहर निकले. लोग गहरी नींद में थे. चारों तरफ अंधेरा और सन्नाटा छाया था. कंधे पर मुगदर रखे सत्येंद्रपाल जब चबूतरे के पास पहुंचे तो वह छात्र चादर ताने चैन की नींद सो रहा था. उसे सामने देख उन के गुस्से ने उबाल मारा तो उन्होंने आंखें बंद कर के उस पर मुगदर बरसाना शुरू कर दिया. अचानक हुए हमले से घबरा कर वह चीखाचिल्लाया, लेकिन क्रोध की आग में जलते सत्येंद्र के हाथ तभी रुके जब उन्हें लगा कि अब वहां रुके रहना खतरे से खाली नहीं है. वह मुगदर फेंक कर वहां से भाग लिए.

सत्येंद्रपाल ने क्रोध की अधिकता में सिर्फ इतना ही सोचा था कि उस छात्र को सोते में 2-4 मुगदर मारेंगे और जब तक शोर मचेगा तब तक अपने कमरे पर लौट आएंगे. अंधेरे में किसी को पता भी नहीं चलेगा कि कौन था. इसीलिए वे चप्पलें भी पहन कर नहीं आए थे. लेकिन क्रोध के अतिरेक में मुगदर के वार इतने जोरों से और ज्यादा हो गए कि लगा वह मर जाएगा. यह बात मन में आते ही सत्येंद्र यह सोच कर डर गए कि पकड़े जाएंगे. पुलिस मारेगीपीटेगी, फिर उन्हें जेल भेज दिया जाएगा. और अगर वह लड़का बच गया तो उन्हें जिंदा नहीं छोड़ेगा. इसी डर से वह अपने कमरे पर जा कर बसअड्डे की ओर भाग खड़े हुए, मेरठ से कहीं दूर जाने के लिए. जेब में पैसे, पैरों में चप्पल.

रात ज्यादा नहीं बची थी. शेष रात सत्येंद्रपाल ने बसअड्डे पर छिपछिपा कर गुजारी. सुबह 5 बजे दिल्ली जाने वाली पहली बस निकली तो वह बिना कुछ सोचेसमझे उसी में सवार हो गए. बस में वह एक ऐसे व्यक्ति के पास बैठे जिसे देख कर लगे कि वह उसी के साथ हैं. गनीमत यह रही कि कंडक्टर ने रास्ते भर किसी से टिकट के बारे में नहीं पूछा. उन दिनों बसें लालकिले तक जाती थीं. सत्येंद्रपाल लालकिले पर उतर गए. दरियागंज में आर्यसमाज का बहुत बड़ा आश्रम था जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए बनवाया गया था.

सत्येंद्रपाल के दूसरे बहनोई महेंद्र सिंह शास्त्री इस आश्रम के प्रमुख थे. शास्त्रीजी सपरिवार आश्रम में ही रहते थे. सत्येंद्रपाल अपने पिता के साथ वहां कई बार आए थे. आश्रम के कई लोग उन के अच्छे परिचित थे. लालकिले से वह पैदल ही आश्रम पहुंचे. इत्तफाक से महेंद्र सिंह शास्त्री उस दिन आश्रम में नहीं थे. सत्येंद्र वहां पहुंचे तो उन्हें आश्रम के पूर्व छात्र जयनारायण शर्मा मिल गए. शर्माजी शास्त्रीजी की बहुत इज्जत करते थे. इसी नाते सत्येंद्र को भी खूब मानते थे. सत्येंद्रपाल ने सख्त जरूरत का बहाना कर के जयनारायण शर्मा से 50 रुपए मांगे. शर्माजी के पास उस समय 40 रुपए थे. उन्होंने बिना कोई पूछताछ किए सारे पैसे सत्येंद्र को दे दिए. जेब में पैसे आए तो सत्येंद्र वहां से निकल गए.

उस वक्त किशोरवय सत्येंद्र की मन:स्थिति बड़ी विचित्र थी. दिलोदिमाग में कई तरह के विचार उमड़घुमड़ रहे थे. एक तरफ पुलिस का डर तो दूसरी तरफ घर वालों का. खैर, ये डर अपनी जगह थे लेकिन सच्चाई यह थी कि समय का सूत्रधार उन के लिए एक नई तरह की भूमिका गढ़ रहा था. पैसे मिलने के बाद सत्येंद्रपाल पैदल घूमते हुए चांदनी चौक पहुंचे. बीते दिन से उन्होंने कुछ खाया नहीं था सो एक दुकान पर बैठ कर पहले खाना खाया, फिर 2 रुपए की चप्पल खरीदीं. इस के बाद वह पुरानी दिल्ली स्टेशन जा पहुंचे. इरादा था, कहीं दूर जाने का जहां से कभी लौटा जा सके. इस के लिए उन्हें महानगर मुंबई सब से उपयुक्त लगा क्योंकि इतने बड़े शहर में उन्हें कोई नहीं ढूंढ़ सकता था

मुंबई जाने का विचार आते ही सत्येंद्रपाल ने फ्रंटियर मेल का 32 रुपए का टिकट खरीद लिया. 3 रुपए पहले ही खर्च हो चुके थे, अब उन की जेब में कुल 5 रुपए थे. ट्रेन में सवार होने के बाद भी उन के दिमाग में एक ही बात घूम रही थी कि वह छात्र जरूर मर गया होगा. अब वे कभी अपने घर नहीं लौट पाएंगे. उन्हें छिपछिपा कर रहना होगा. कहां और कैसे, इस का उन्हें खुद कोई पता नहीं था. इसी उधेड़बुन में उन्होंने रास्ते भर कुछ नहीं खायापीया. सत्येंद्रपाल ने मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतर  कर जब मुंबई की धरती पर पांव रखा, तब उन की जेब में बचे हुए वही 5 रुपए थे. सफर काफी लंबा था, जोरों की भूख लगी थी. स्टेशन के बाहर निकल कर सब से पहले उन्होंने एक ढाबे पर खाना खाया, फिर सोचा जाएं तो कहां जाएं. तभी उन्हें चौधरी भोपाल सिंह की याद आई. वह मेरठ जिले के गांव पतला खानपुर के रहने वाले थे.

चौधरी भोपाल सिंह बांबे टाकीज में बतौर प्रोडक्शन मैनेजर काम करते थे. शम्मी कपूर, अमिता की एक फिल्म आई थीतुमसा नहीं देखा’. इस फिल्म के पोस्टरों में बतौर प्रोडक्शन मैनेजर भोपाल सिंह का नाम था. जब इस फिल्म के पोस्टर मेरठ में लगे थे तो मेरठ कालेज के छात्रों में इस बात की चर्चा हुई थी कि पतला खानपुर के चौधरी भोपाल सिंह बांबे टाकीज में प्रोडक्शन मैनेजर बन गए हैं. इसलिए सत्येंद्रपाल को यह बात याद थी. सत्येंद्रपाल को लगा कि उन के इलाके के गांव के रहने वाले भोपाल सिंह उन की मदद जरूर करेंगे. लेकिन साथ ही यह डर भी था कि मेरठ में वह जो कर के आए हैं, कहीं उस की जानकारी उन्हें मिल गई तो क्या होगा? यह मानव प्रवृत्ति है कि भंवर में फंसा आदमी जब अपने बारे में निगेटिव और पौजिटिव दोनों तरह से सोचता है तो वह अपनी निगेटिविटी को अपने ही तर्कों से पुरजोर तरीके से दबाने की कोशिश करता है

सत्येंद्र ने जब इस बारे में सोचा तो उन के दिमाग में 2 बातें आईं. एक तो यह कि जब उन्होंने उस छात्र को मारा, तब उन्हें किसी ने नहीं देखा. दूसरी यह कि मेरठ की बात मुंबई तक नहीं सकती. यही सोच कर उन्होंने चौधरी भोपाल सिंह के पास जाने का फैसला कर लिया. सोचविचार कर सत्येंद्रपाल लोगों से पता कर के इस सोच के साथ बांबे टाकीज पहुंच गए कि वहां से चौधरी भोपाल सिंह का पता मिल जाएगा और मेरठ का होने की वजह से  वह छोटामोटा काम दिलाने में उन की मदद जरूर करेंगे. चौधरी भोपाल सिंह बांबे टाकीज में ही रहते थे. इसलिए उन से मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई. जब सत्येंद्रपाल ने मेरठ से आने की बात बता कर उन से कोई काम दिलाने को कहा तो चौधरी भोपाल सिंह ने उन्हें गौर से देखा.

सत्येंद्रपाल की उम्र लगभग 16 साल थी, शरीर भी भरा हुआ था. चेहरेमोहरे से भी ठीकठाक परिवार के लगते थे. भोपाल सिंह को लगा कि वह हीरो बनने के चक्कर में घर से भाग कर आए हैं. इसलिए उन्होंने पहले उन्हें समझाया, फिर गंभीर हो कर कहा, ‘‘पैसे खत्म हो गए हों तो ले लो, लेकिन घर लौट जाओ. यहां की भीड़ का हिस्सा बनने से अच्छा है अपने खेतों में हल चलाओ. कुछ नहीं कर पाओगे यहां.’’

सत्येंद्रपाल जिस हालात में मुंबई आए थे, उस में लौटना संभव नहीं था. परेशानी यह थी कि वह असल बात किसी को बता भी नहीं सकते थे. उस वक्त उन्हें लौटने के लिए पैसों की नहीं, बल्कि काम की जरूरत थी ताकि वहां रह कर अपना पेट भर सकें. भोपाल सिंह की बातों से वह समझ गए कि वे उन की कोई मदद नहीं करेंगे. इसलिए उन्होंने खुद ही कोई काम खोजने का निश्चय किया. सत्येंद्रपाल की परेशानी यह थी कि उन के पास जो ढाई-3 रुपए बचे थे, उन से वह जैसेतैसे एकदो वक्त पेट तो भर सकते थे, लेकिन इस से बड़ी समस्या रात गुजारने की थी. ऐसी स्थिति में उन्हें तुरंत काम की जरूरत थी. कोई रास्ता देख उन्होंने इस सिलसिले में बांबे टाकीज के कुछ कर्मचारियों से बात की. उन से पता चला कि पौराणिक फिल्में बनाने वाले धीरूभाई देसाई को अच्छी हिंदी जानने वाले एक सहायक की जरूरत है.

सत्येंद्रपाल के लिए इतना ही काफी था. वह हिंदीभाषी तो थे ही, हिंदी के साथसाथ उन की अंगरेजी पर भी अच्छी कमांड थी. धीरूभाई देसाई विलेपार्ले में रहते थे. बांबे टाकीज के कर्मचारियों से देसाई का पता ले कर वह विलेपार्ले स्थित उन के औफिस जा पहुंचे. धीरूभाई से मिलने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. उन्हें वाकई शुद्ध हिंदी जानने वाले एक सहायक की जरूरत थी. उन्होंने सत्येंद्र का टेस्ट लिया तो बात बन गई. उन्हें काम भी मिल गया और रहने का ठिकाना भी. वेतन तय हुआ 35 रुपए महीना. इस तरह पहले ही दिन काम तो मिल गया, लेकिन सवाल यह था कि एक महीना कैसे गुजरेगा? उस वक्त उन की जेब में कुल 2 रुपए थे और वेतन एक महीना बाद मिलना था. फिर भी सत्येंद्रपाल ने हिम्मत नहीं हारी.

धीरूभाई का एक बड़ा सा गोदाम था. उन की कंपनी के कई कर्मचारी उसी गोदाम में रहते थे. गोदाम में टायलेट बाथरूम तो था लेकिन कमरे वगैरह नहीं थे. वहां रहने वालों ने अपने संदूक इधरउधर रखे हुए थे, सोते भी वहीं थे. सत्येंद्र को भी वहीं रहने को कह दिया गया. गोदाम में कर्मचारियों के रहने का इंतजाम जरूर था पर खाना सब को ढाबे पर खाना होता था, वह भी अपने पैसे से. वहीं पर सत्येंद्रपाल की मुलाकात प्रकाश मेहरा से हुई. प्रकाश मूलत: बरेली के रहने वाले थे लेकिन बचपन में मातापिता का निधन हो जाने की वजह से बिजनौर में मामा के घर रह कर पलेबढ़े थे. पढ़ाईलिखाई भी वहीं हुई थी. मैट्रिक में 2 बार फेल हो जाने की वजह से उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी थी और गीतकार बनने का सपना मन में संजोए मुंबई गए थे

प्रकाश मेहरा को जब पता चला कि सत्येंद्र उत्तर प्रदेश से आए हैं और बिजनौर के पड़ोसी जिले मेरठ से हैं तो उन्हें अच्छा लगा. प्रकाश सत्येंद्र से 2 साल बड़े थे और करीब डेढ़ साल से धीरूभाई देसाई के लिए काम कर रहे थे. बातचीत हुई तो उन्होंने सत्येंद्र को छोटे भाई की तरह प्यार और सम्मान दिया. इस से उन्हें लगा कि प्रकाश के सहारे बिना वेतन के महीना कट जाएगा. वह चूंकि वहां काफी दिन से काम कर रहे थे इसलिए कहसुन कर देसाई साहब से खर्चेपानी के लिए एडवांस भी दिला सकते थे. यह भूमिका थी एक अजीज दोस्त मिलने की. एक ऐसी दोस्ती की भूमिका जो बहुत लंबी चलने वाली थी. एक ऐसी जोड़ी की भूमिका जो आगे चल कर फिल्म इंडस्ट्री में एक इतिहास रचने वाली थी, दोस्ती का भी और सफल फिल्मों का भी

समय के सूत्रधार द्वारा बांधी जा रही इस भूमिका के भी 3 आयाम थे. पहला दोस्ती का, दूसरा लंबे संघर्ष का और तीसरा सफलता का. यह अलग बात है कि उस वक्त तो सत्येंद्रपाल यह जानते थे और ही प्रकाश मेहरा कि उन्हें साथसाथ चलना है. संघर्ष भरी राहों पर ठोकरें खा कर भी एकदूसरे का साथ देना है. अनजान शहर और अजनबी चेहरों की भीड़ में अपनी विशिष्ट पहचान बनानी है. प्रकाश मेहरा धीरूभाई देसाई के साथ भले ही काफी दिन से काम कर रहे थे पर वेतन उन का भी 35 रुपए महीना था. वह गीत भी लिखते थे और छोटेमोटे अन्य काम भी करते थे. सत्येंद्रपाल के पास कुछ भी नहीं था, जमीन पर बिछा कर सोने के लिए एक चादर भी नहीं. प्रकाश मेहरा ने उन के साथ सब कुछ शेयर किया. उन के सहारे ही वह सब से घुलमिल गए. इस तरह उन्हें आगे बढ़ने के लिए संकरी सी एक पगडंडी मिल गई.

प्रकाश और सत्येंद्र दोनों का ही वेतन 35-35 रुपए था. इस में से 2 वक्त के खाने के लिए 32-32 रुपए ढाबे वाले को देने होते थे. बचते थे केवल 3-3 रुपए. बाकी सब उसी में चलाना होता था. गनीमत यह थी कि काम के समय लंच ब्रेक में सब को 2-2 रुपए मिलते थे. सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा इस में से 6-6 आने का कुछ खापी कर बाकी पैसे बचा लेते थे. इस से महीने के ऊपर के खर्चे में काफी राहत मिल जाती थीसत्येंद्रपाल को धीरूभाई देसाई के यहां काम करते हुए अभी 4 महीने ही हुए थे कि धीरूभाई ने प्रकाश मेहरा का वेतन 35 से बढ़ा कर 45 रुपए कर दिया. दोस्ती अलग थी और वेतन में बढ़ोत्तरी अलग. यह बात सत्येंद्रपाल को बुरी लगी.

वजह यह कि प्रकाश मेहरा मैट्रिक फेल थे और उन्होंने इंटरमीडिएट करने के साथसाथ बीए की भी पढ़ाई की थी. काम भी उन के पास ज्यादा था. सत्येंद्रपाल ने अपनी इसी दलील के साथ धीरूभाई से वेतन बढ़ाने को कहा, लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया. इस से नाराज हो कर सत्येंद्रपाल ने नौकरी छोड़ दी जो उन का बचपना था. नौकरी छूटी तो रहने का ठिकाना भी छूट गया. इन 4 महीनों में सत्येंद्रपाल मुंबई को कुछकुछ समझने लगे थे. धीरूभाई के यहां आने वाले कुछ अच्छे लोगों से उन की जानपहचान भी हो गई थी. इन्हीं लोगों में वर्ल्ड चैंपियन साइकिलिस्ट और एक्टर जानकी दास भी थे. जानकी दास बहुत अच्छे आदमी थे, दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहने वाले.

सत्येंद्रपाल ने अपनी स्थिति बता कर जानकीदास से कोई काम दिलाने को कहा तो वह उन्हें जुहू विलेज, जानकी कुटीर स्थित अपने घर ले गए. जमनालाल बजाज द्वारा बसाया गया जानकी कुटीर उन दिनों मुंबई का काफी पिछड़ा हुआ इलाका था. हालांकि पृथ्वी थिएटर इसी इलाके में था, लेकिन यहां ज्यादातर झोपड़ेनुमा मकान बने हुए थे. कैफी आजमी भी इसी इलाके में रहते थे. पृथ्वी थिएटर के अलावा पूरे इलाके में तो बिजली थी और मूलभूत सुविधाएं. लोगों को शौच के लिए भी खुले में जाना पड़ता था.

उन दिनों आज जैसा अफरातफरी और अविश्वास का माहौल नहीं था. लोग एकदूसरे की मदद करते थे और उन के बीच मानवीयता की एक मौन संधि होती थी. जानकी दास ने सत्येंद्रपाल को अपने घर ले जा कर कहा, ‘‘जब तक ठीक सा कोई काम नहीं मिल जाता, मेरे घर में रहो. बस एक बात याद रखना, इस फिल्म इंडस्ट्री में वही जड़ें जमा सकता है जिस में मेहनत करने का जज्बा हो, ठोकर खा कर भी आगे बढ़ते रहने की हिम्मत हो. दमखम हो तो अभावों में पलने वालों को ही भाव मिलता है. तुम्हारी उम्र अभी बहुत कम है पर मुंबई में रहना है तो अपने जोश और जुनून को कभी कम मत होने देना.’’

जानकी दास ने जो कहा था बिलकुल सच था. लेकिन विपरीत हालात में हकीकत का धरातल और भी कठोर हो जाता है, यह भी सच था. सत्येंद्रपाल को अब इसी कठोर धरातल पर अपने पैर जमाने थे. बहरहाल, जानकी दास की मदद से उन्हें छोटेछोटे काम मिलने लगे. फलस्वरूप रोजीरोटी की परेशानी नहीं आई. लेकिन स्वाभिमानी स्वभाव के सत्येंद्र को तो यह काम ठीक लग रहे थे और मुफ्त में जानकी दास के घर में रहना. पर इस के अलावा उन के पास कोई रास्ता भी नहीं था. वह जानकी दास के छोटेमोटे काम भी करने लगे और उन के साथ फिल्मों की शूटिंग पर भी जाने लगे. इस से उन के परिचय का दायरा बढ़ने लगा. इसी दौरान उन्होंने जानकी दास की सिफारिश पर पी.एल. संतोषी जैसे बड़े फिल्म डाइरैक्टर के साथ भी काम किया.

धीरूभाई देसाई के यहां से काम छोड़ने के बाद सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा अलग हो गए थे. हालांकि सत्येंद्रपाल ने नौकरी प्रकाश के बढ़े वेतन को इश्यू बना कर छोड़ी थी, लेकिन इस से दोनों की दोस्ती पर कोई फर्क नहीं पड़ा था. अलगअलग रहने के बावजूद दोनों प्राय: रोज ही मिलते थे. ठिकाना था चर्चगेट. मिलते तो दोनों एकदूसरे को अपनी परेशानियां भी बताते और भविष्य की भी सोचते. इस बीच सत्येंद्रपाल अपने घरपरिवार को एक तरह से भूल ही गए थे. एक तो रोजीरोटी के संघर्ष में इस के लिए समय नहीं मिलता था दूसरे उन्हें डर था कि परिवार से संपर्क जोड़ा या वापस लौटे तो फंस जाएंगे. उन्होंने यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि जिस छात्र को वह मार कर भागे थे, उस का क्या हुआ?

देखतेदेखते 4 साल बीत गए. संघर्ष की राह इतनी कंटीली थी कि राह के कांटों को बीनने में समय का पता ही नहीं चला. एक दिन सत्येंद्रपाल जब एक फिल्म के सेट पर काम कर रहे थे तो इत्तफाक से उन के गांव के पड़ोसी कस्बे खेकड़ा का एक बिजनैसमैन श्यामलाल वहां पहुंच गया. वह किसी काम से मुंबई आया था और शूटिंग देखने के लालच में उस फिल्म के सेट पर जा पहुंचा  था. उस ने सत्येंद्रपाल को पहचान लियासत्येंद्र भी उसे पहचानते थे. बातचीत हुई तो पता चला कि वह जिस छात्र को मार कर भागे थे, वह मरा नहीं था. इतना ही नहीं बल्कि कुछ दिन बाद वह बात भी खत्म हो गई थी. यह जान कर सत्येंद्रपाल के मन को बहुत सुकून पहुंचा. एक अपराधबोध जो उन्हें हमेशा घेरे रहता था, खत्म हो गया.

श्यामलाल ने मुंबई से लौट कर यह बात सत्येंद्र के पिता चौधरी वीरनारायण सिंह को बताई तो वह मुंबई जा पहुंचे. बापबेटे की मुलाकात उसी फिल्म के सेट पर हुई. दोनों के लिए ही वह बहुत भावुक क्षण था. सत्येंद्रपाल पिता को जानकी कुटीर ले गए, जहां वह रहते थे. वीरनारायण सिंह उन्हें वापस ले जाने के लिए आए थे, लेकिन सत्येंद्र ने विनम्रता से इनकार कर दिया, ‘‘अब आगे पढ़ तो पाऊंगा नहीं, जाने से क्या फायदा? अब मैं कुछ बन कर ही घर लौटूंगा.’’

इस के बावजूद वीरनारायण सिंह जिद पर अड़े रहे तो जानकी दास ने उन्हें समझाया, ‘‘जिद करने से कोई फायदा नहीं है, चौधरी साहब. यह शायद यहीं के लिए बना है, इसलिए इसे मुंबई में ही रहने दीजिए.’’ निराश हो कर वीरनारायण सिंह घर लौट गए. जब सत्येंद्रपाल काम की तलाश में इधरउधर भटक रहे थे तभी उन्हें पता चला कि किशोर साहू मीनाकुमारी को ले कर एक बड़ी फिल्म बनाने जा रहे हैं. सत्येंद्र ने उन से बात की तो उन्होंने काम देने का वादा भी किया. लेकिन 4 महीने चक्कर लगाने के बाद जब फिल्म शुरू हुई तो सत्येंद्र को काम नहीं  मिला. वह उन का सब से बुरा दौर था.

प्रकाश मेहरा की स्थिति भी ऐसी नहीं थी कि उन की कोई मदद कर पाते. इसी बीच सत्येंद्रपाल की मुलाकात भृंगतुंगकरी से हुई. वह भी जानकी कुटीर क्षेत्र में ही रहते थे. नागपुर के रहने वाले भृंगतुंगकरी हिंदी के अच्छे विद्वान थे, उन्होंने कई किताबें लिखी थीं. वह आल इंडिया रेडियो के लिए न्यूज लिखा करते थे. प्रिंट मीडिया में उन की अच्छी जानपहचान थी. सत्येंद्रपाल काम के सिलसिले में उन से मिलते रहते थे. उन्हीं दिनों एक मारवाड़ी परिवार नेअनुजानाम से हिंदी की पत्रिका निकाली तो भृंगतुंगकरी ने उन्हें वहां प्रूफरीडिंग का काम दिला दिया. वेतन 80 रुपए महीना. सत्येंद्रपाल ने मजबूरी के चलतेअनुजामें नौकरी तो कर ली, लेकिन इस काम से वह संतुष्ट नहीं थे.

नौकरी मिलने के बाद सत्येंद्रपाल ने जानकी कुटीर छोड़ कर सांताक्रुज के विजय गेस्टहाउस में रहना शुरू कर दिया. यह गेस्टहाउस एक राजस्थानी शंकर सेठ का था. वहां एक कमरे में 2 लोगों को रहना होता था. 60 रुपए में खाना, नाश्ता और सोने के लिए चारपाई. इस बीच प्रकाश मेहरा भी धीरूभाई देसाई के यहां काम छोड़ कर उन के करीबी रिश्तेदार विनोद देसाई के यहां चले गए थे. विनोद देसाई मरीन ड्राइव पर गोविंद महल में रहते थे. प्रकाश उन के घर में ही रहने लगे थे. इसी बिल्डिंग में सुरैया और मुमताज के भी घर थे. विनोद देसाई ने उस समय की सुपरहिट फिल्मनाग देवताबनाई थी.

अलगअलग काम करते हुए वर्षों बीत गए थे. इस के बावजूद सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा की दोस्ती में कोई फर्क नहीं आया था. दोनों मुंबई में भले ही कहीं भी रहें, शाम को चर्चगेट पर जरूर मिलते थे और घंटों साथ रहते थे. एक दिन सांझ के अंधेरे में जब दोनों चर्चगेट पर बैठे थे तो सत्येंद्रपाल ने प्रकाश मेहरा से कहा कि उन्हेंअनुजाकी नौकरी पसंद नहीं है और वह फिल्म लाइन में ही कुछ करना चाहते हैं. प्रकाश के मन में पता नहीं क्या आया कि वह सत्येंद्र का हाथ पकड़ कर उन्हें उठाते हुए बोले, ‘‘चल, मेरे साथ. मैं तुझे इस हाल में नहीं देख सकता.’’

‘‘चलना कहां है?’’ सत्येंद्रपाल ने पूछा तो प्रकाश बोले, ‘‘विनोद देसाई के घर गोविंद महल. विनोदजी मुझे बहुत मानते हैं इसीलिए अपने साथ रखते हैं. मैं कहूंगा तो काम के लिए इनकार नहीं करेंगे.’’

प्रकाश मेहरा सत्येंद्रपाल को साथ ले कर जब गोविंद महल पहुंचे तो विनोद देसाई अपने ड्राइंगरूम में बैठे थे. सामने सेंट्रल टेबल पर स्कौच की बोतल, आइस बौक्स और स्नैक्स रखे हुए थे. प्रकाश ने विनोद देसाई को सत्येंद्रपाल का परिचय दे कर कहा कि इसे काम चाहिए, काफी परेशान है. देसाई ने दोनों को प्यार से बैठाया. फिर गिलास मंगा कर शराब औफर की. प्रकाश मेहरा तो देसाई के साथ पीते रहते थे लेकिन सत्येंद्रपाल ने कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाया था. उन्होंने क्षमा मांगते हुए विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिया. लेकिन विनोद देसाई को यह बात अच्छी नहीं लगी. वह स्कौच का गिलास उन की ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘‘पिएगा नहीं तो काम कैसे करेगा? चल पी ले.’’

सत्येंद्रपाल की हालत उस वक्त ऐसी थी कि काम के नाम पर उन से कोई जहर पीने को भी कहता तो पीते भले ही नहीं पर पीने के बारे में सोचते जरूर. विनोद देसाई के सम्मान के मद्देनजर मजबूरी में उन्होंने गिलास हाथ में थाम लिया. प्रकाश मेहरा और विनोद देसाई तो पीने लगे पर सत्येंद्र गिलास हाथ में थामे बैठे रहे, असमंजस की स्थिति में. काम की बातें शुरू हो चुकी थीं. सत्येंद्र को लग भी रहा था कि देसाई साहब उन्हें डायलौग वगैरह लिखने का काम दे देंगे.

विनोद देसाई ने बंदर का एक बच्चा पाल रखा था जो उस वक्त उन की गोद में बैठा था. जब उन्होंने देखा कि सत्येंद्र उन के कहने के बावजूद नहीं पी रहे हैं तो उन्होंने बंदर का बच्चा उन की ओर उछालते हुए मजाक में कहा, ‘‘अभी तक लिए बैठा है, पी क्यों नहीं रहा?’’

यह सब अप्रत्याशित था. बंदर का बच्चा गोद में गिरने से सत्येंद्र के हाथ का गिलास छलक गया जिस से उन के कपड़े भीग गए. गुस्सा आया तो उन्होंने बंदर के बच्चे को थप्पड़ मार दिया. वह चींचीं करते हुए विनोद देसाई की ओर भागा. यह देख देसाई को गुस्सा गया. वह सत्येंद्र की ओर देख कर चीखे, ‘‘साला गांडा, अक्ल नाम की चीज नहीं है, काम क्या खाक करेगा?’’

विनोद देसाई गुजराती थे. गुजराती में गांडा पागल को कहते हैं, यह बात सत्येंद्र को पता नहीं थी. उन्हें यह गाली लगी. एक तो देसाई ने बदतमीजी की थी, ऊपर से गाली. सत्येंद्र को गुस्सा गया. उन्होंने खड़े हो कर गिलास की सारी स्कौच देसाई के मुंह पर फेंकते हुए उन्हें मोटी सी गाली दे दी. फलस्वरूप बात बढ़ गई. दोनों तरफ से गालीगलौज शुरू हो गई. प्रकाश मेहरा विनोद देसाई के आदमी थे, रहते भी उन्हीं के घर में थे. लेकिन जब बात दोस्त की इज्जत पर आई तो उन्होंने देसाई की जगह दोस्त का साथ दिया. यह देख विनोद देसाई चीखते हुए बोले, ‘‘प्रकाश, तू चुप रह.’’ फिर गुस्से में सत्येंद्र से कहा, ‘‘चल, निकल यहां से. अभी, इसी वक्त.’’

प्रकाश मेहरा दोस्त की इस बेइज्जती को बरदाश्त नहीं कर सके. विनोद देसाई की स्कौच की बोतल उठा कर वह सत्येंद्रपाल का हाथ पकड़ते हुए बोले, ‘‘चल यहां से, भाड़ में गई इस की नौकरी. इस ने तेरी बेइज्जती की है, मैं लात मारता हूं इस की नौकरी को.’’

विनोद देसाई का फ्लैट पहली मंजिल पर था. प्रकाश और सत्येंद्रपाल सीढि़यों से नीचे गए. साथ में स्कौच की बोतल भी ले आए. विनोद उन्हें जाते देखने के अलावा कुछ नहीं कर सके. वहां से कर प्रकाश और सत्येंद्र मरीन ड्राइव पर पत्थरों पर जा बैठे, विनोद देसाई के घर के ठीक सामने. उस वक्त सत्येंद्रपाल की आंखों में आंसू थे और मन में गुस्सा. यह देख प्रकाश बोले, ‘‘जो हुआ उसे भूल जा. हम ने उसे कुछ कम कहा है क्या? उस की बोतल भी ले आए. घर में यही एक बोतल थी, हम तो इसे पी कर अपनी बेइज्जती भूल जाएंगे पर वो तड़पेगा रात भर.’’

 प्रकाश मेहरा के समझाने पर गुस्सा कुछ कम हुआ तो सत्येंद्रपाल बोले, ‘‘प्रकाश, तूने अच्छा नहीं किया. मेरी वजह से नौकरी भी छोड़ आया, अब क्या करेगा?’’

‘‘तू मेरा दोस्त है, इस दोस्ती पर सौ नौकरियां कुरबान. अब मैं किसी साले की नौकरी नहीं करूंगा.’’ प्रकाश मेहरा ने कहा तो सत्येंद्रपाल की आंखों में सिमटे आंसू गालों पर उतर आए. वह कमीज की बांह से आंसू पोंछने लगे तो प्रकाश बोले, ‘‘हम यहां आंसू बहाने नहीं आए. हमें कुछ खास करना है. फिल्मी परदे पर हीरोहीरोइन की आंख से एक भी आंसू गिर जाए तो लोगों की आंखें भर आती हैं, पर आम आदमी के आंसुओं की यहां कोई परवाह नहीं करता. सपनों का शहर है ये. यहां सपने बेचे और खरीदे जाते हैं, हमें भी यही करना है.’’

मरीन ड्राइव की लाइटें जगमगा रही थीं. प्रकाश मेहरा ने पीछे मुड़ कर देखा. गोविंद महल में भी लाइटें जल रही थीं. विनोद देसाई अपनी बालकनी में खड़े उन दोनों की ओर ही देख रहे थे. यह देख प्रकाश बोतल उठा कर स्कौच का एक घूंट ले कर बोले, ‘‘देख, गुजराती सेठ इधर ही देख रहा है. तूने उस के कहने से तो नहीं पी लेकिन अब पी. देसाई देख कर जलेगा तो मजा आएगा.’’

सत्येंद्रपाल ने पीछे मुड़ कर देखा. विनोद देसाई को देख उन का ठंडा पड़ता गुस्सा फिर जोर मारने लगा. उसी गुस्से में उन्होंने प्रकाश मेहरा के हाथ से बोतल ले ली और एक ही बार में कई घूंट पी गए. उस दिन उन्होंने पहली बार शराब को हाथ लगाया. दोनों दोस्त देर रात तक समंदर किनारे बैठे रहे. रात काफी गहरा चुकी थी, आखिरी लोकल का समय हो गया था. दोनों पैदल ही चर्चगेट स्टेशन पहुंचे और वहां से ट्रेन पकड़ कर सांताक्रुज. सांताक्रुज के विजय गेस्टहाउस में सत्येंद्रपाल का ठिकाना था ही. उस रात दोनों एक चारपाई पर ही सोए. गेस्टहाउस का मालिक शंकर सेठ अच्छा आदमी था. अगले दिन सत्येंद्र ने उस से कह कर अपने कमरे की दूसरी चारपाई प्रकाश मेहरा के लिए बुक करा दी.

सुबह को जब प्रकाश मेहरा ने कभी नौकरी करने की बात दोहराई तो सत्येंद्रपाल ने उन से कहा, ‘‘ठीक है, तू नौकरी मत कर. मुझे जो पैसे मिलते हैं उसी से काम चलाएंगे. ज्यादा से ज्यादा क्या होगा, 1-2 दिन खाना नहीं मिलेगा. तू फिल्मों में कोशिश कर, काम मिलने लगेगा तो मैं भी नौकरी छोड़ दूंगा.’’ 

प्रकाश मेहरा ने सत्येंद्रपाल को जब विनोद देसाई से मिलवाया था तो यह भी बताया था कि वह सांताक्रुज के विजय गेस्टहाउस में रहते हैं. अगले दिन विनोद देसाई गेस्टहाउस कर प्रकाश मेहरा से मिले. उन्होंने अपनी गलती मानते हुए कहा, ‘‘प्रकाश, मैं तुम्हारे साथसाथ सत्येंद्र को भी नौकरी दे दूंगा, वापस चलो.’’ लेकिन प्रकाश मेहरा ने मना कर दिया.

उस दिन के बाद प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल वहीं रहते हुए अपनेअपने काम करने लगे. सत्येंद्र अपनी नौकरी पर जाते और प्रकाश फिल्मों में काम तलाशते. प्रकाश टैलेंटेड थे, विनम्र स्वभाव के भी. धीरेधीरे उन्हें काम मिलने लगा. वह गीत अच्छे लिख लेते थे. कई मशहूर गीतकार उन से गाने लिखवाते थे. इन गानों के लिए उन्हें नाम तो नहीं मिलता था लेकिन पैसे जरूर मिल जाते थे. कभी सौ तो कभी दो सौ. इस के अलावा फिल्म डाइरैक्टरों के साथ भी छोटामोटा काम मिलता रहता था. कभी स्क्रिप्ट लिखने का तो कभी डायलौग लिखने का. फलस्वरूप दोनों की गाड़ी चलने लगी.

सत्येंद्रपाल जब जानकी दास के साथ रह रहे थे तो कभीकभी उन के साथ धर्मेंद्र के घर जाते थे. धर्मेंद्र तो बड़े दिल वाले थे ही उन की माताजी भी बहुत सहृदय और धार्मिक प्रवृत्ति की थीं. आनेजाने वालों के लिए उन के यहां दिन भर रसोई चलती थी. कोई भी उन के घर से भूखा नहीं जा सकता था. उन के कई करीबी रिश्तेदार उन के घर पर रहते थे. वहीं पर सत्येंद्रपाल की दोस्ती धर्मेंद्र के छोटे भाई अजीत और वहीं रहने वाले भगवंत सिंह से हुई. बाद में किसी वजह से भगवंत भी धर्मेंद्र का घर छोड़ कर विजय गेस्टहाउस में कर रहने लगे थे.

सत्येंद्रपाल कोअनुजाकी नौकरी अच्छी नहीं लगती थी. इसलिए 6-7 महीने काम कर के उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्रकाश मेहरा की तरह ही फिल्मों में छोटेछोटे काम करने लगे. कभी किसी डायलौग राइटर के साथ तो कभी किसी प्रोडक्शन मैनेजर के साथ. प्रकाश मेहरा और उन का वह सब से बुरा दौर था. कई बार तो उधार मांग कर काम चलाना पड़ता था. गनीमत यही थी कि इस बीच परिचय का दायरा काफी बढ़ गया था. छोटेमोटे लेनदेन में कोई परेशानी नहीं आती थी. इसी दौरान एक रोचक घटना घटी. दरअसल प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल का लिंकिंग रोड पर एक अड्डा था जहां शाम को 3-4 दोस्तों की महफिल जमती थी. इस के लिए रोजाना 10 रुपए की जरूरत होती थी. सारे दोस्त वहां बैठ कर खातेपीते और देर रात गेस्टहाउस लौट आते. पिछले कई दिन से कोई काम नहीं मिला था. दोनों की जेबें खाली थीं. सत्येंद्र ने प्रकाश से पूछा तो बोले, ‘‘मेरे पास जहर खाने तक के लिए पैसे नहीं हैं.’’

शाम के वक्त परेशानहाल सत्येंद्रपाल गेस्टहाउस के कमरे के बाहर रेलिंग के सहारे खड़े थे. तभी उन की नजर टैक्सी में जाते मातादीन केजरीवाल पर पड़ी. वह उसी इलाके में रहते थे और लोगों के टेलीफोन वगैरह लगवाने का काम करते थे. सत्येंद्र की उन से अच्छी जानपहचान थी. उन्होंने मातादीन को रोक कर उन से 10 रुपए उधार ले लिए. प्रकाश यह सब देख रहे थे. सत्येंद्र पैसे ले कर आए तो प्रकाश खुश हो कर बोले, ‘‘चल, आज का काम तो हो गया.’’

शाम को सत्येंद्रपाल, प्रकाश मेहरा, भगवंत सिंह और एक अन्य दोस्त लिंकिंग रोड स्थित अपने अड्डे पर गए और उधार के 10 रुपए उड़ा आए. उस रात जब मच्छरों ने काटा तो सत्येंद्रपाल की नींद खुल गई. मच्छर परेशान कर रहे थे, वह कमरे के बाहर रेलिंग पर जा कर खड़े हो गए. तभी उन्हें याद आया कि प्रकाश की पैंट की जेब में सिगरेट का पैकेट होगा. प्रकाश गहरी नींद में थे, उन की पैंट खूंटी पर टंगी थी. सत्येंद्रपाल ने अंधेरे में टटोलना शुरू किया तो उन का हाथ पैंट की चोर पाकेट को छू गया. कुछ डाउट हुआ तो उन्होंने चोर पाकेट टटोली, उस में 10-10 के 6 नोट निकले. सत्येंद्र ने नोट निकाल कर पैंट यथास्थान टांग दी और सिगरेट पीना भूल कर चुपचाप अपनी चारपाई पर लेट गए. उन्हें यह बात कचोट रही थी कि प्रकाश ने उन से झूठ बोला.

सुबह को सत्येंद्र जब सो कर उठे तो देखा प्रकाश हाथ में झाड़ू लिए कमरे को बुहार रहे थे. सत्येंद्र समझ गए कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं. उन्होंने प्रकाश को टोका, ‘‘पिछले 15 मिनट से झाड़ू लगा रहा है, सफाई कर रहा है या कुछ ढूंढ़ रहा है?’’

प्रकाश झाड़ू एक तरफ रख कर मायूसी में बोले, ‘‘मेरी मौसी की चिट्ठी आई थी, पता नहीं कहां गिर गई. सारे में ढूंढ़ ली, कहीं नहीं मिली.’’

‘‘मौसी की चिट्ठी ही तो थी, मेरी नींद क्यों खराब कर दी.’’ सत्येंद्र ने व्यंग्य में कहा, ‘‘इतनी ही खास थी तो मौसी को चिट्ठी लिख दे, दोबारा लिख कर भेज देगी.’’

प्रकाश कुछ नहीं बोले, वह बहुत परेशान थे. उन का पूरा दिन परेशानी में ही गुजरा. गेस्टहाउस के बाहर भी नहीं गए. सत्येंद्र शाम के समय कुछ देर के लिए बाहर जा कर लौट आए. जब अड्डे पर जाने का समय हो गया तो सत्येंद्र ने प्रकाश से कहा, ‘‘तुझे मौसी की बहुत याद रही है, चल लिंकिंग रोड चलते हैं. वहां जा कर तेरा मन शांत हो जाएगा. मैं ने भगवंत को भी कह दिया है.’’

‘‘तेरे पास पैसे कहां से आए?’’ प्रकाश मेहरा ने चौंक कर पूछा तो सत्येंद्र बोले, ‘‘धर्मेंद्र के घर गया था, अजीत से मांग कर लाया हूं. मुझ से तेरी उदासी देखी नहीं जा रही थी.’’

उस दिन भी लिंकिंग रोड के अड्डे पर चारों मुफलिस दोस्तों की महफिल जमी. 10 रुपए सत्येंद्रपाल ने दिए. अगले 5 दिनों तक यही क्रम चला. इस बीच प्रकाश मेहरा सामान्य हो गए थे. छठे दिन जब महफिल जमी थी तो सत्येंद्र ने प्रकाश से कहा, ‘‘प्रकाश, आज जी भर कर खापी ले.’’

‘‘क्यों?’’ प्रकाश ने चौंक कर पूछा तो सत्येंद्र ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘क्योंकि ये तेरी मौसी की चिट्ठी का आखिरी टुकड़ा है.’’

प्रकाश पलभर में सब समझ गए. उन्होंने गुस्से में कहा, ‘‘अच्छा तो ये तेरी करतूत थी. साले 6 दिन से मेरे पैसे से मुझे ही खिलापिला रहा है, शरम नहीं आई?’’

‘‘दोस्ती में तेरामेरा कहां से गया? चल अब शांत हो जा.’’ सत्येंद्र ने प्रकाश को समझाने वाले नजरिए से कहा. फिर हकीकत बताई तो सब खूब हंसे. बाद में जब प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल की जोड़ी मशहूर हुई तो फिल्म इंडस्ट्री में यह किस्सा खूब चर्चाओं में रहा. विजय गेस्टहाउस में रहते सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा का संघर्ष काफी लंबा चला. इस बीच दोनों फिल्मों में छोटेमोटे काम कर के अपने जीवन की गाड़ी चलाते रहे. दोनों खूब लड़तेझगड़ते, लेकिन मुसीबत के समय एकदूसरे के साथ खड़े नजर आते. इसी बीच सत्येंद्रपाल की मुलाकात इंदुभूषण से हुई

इंदुभूषण ओमान ट्रांसपोर्ट कंपनी के मालिक मंगतराम के बेटे थे. यह बहुत बड़ी कंपनी थी. परिवार में पैसे की कोई कमी नहीं थी, लेकिन बड़े भाई और भाभी के झगड़े की वजह से इंदुभूषण अपना घर छोड़ कर पालीहिल में अचला सचदेव (एक्ट्रेस) के मकान में किराए पर रहते थे. इंदुभूषण खानेपीने के शौकीन थे और प्राय: रोज ही दोस्तों के साथ महफिल सजाते थे. कभीकभी सत्येंद्रपाल भी उन की महफिलों में जाने लगे. फलस्वरूप दोनों की दोस्ती गहराती गई.

प्रकाश मेहरा मेहनती भी थे और टैलेंटेड भी. फिल्म वालों के साथ काम कर के उन्होंने बहुत कुछ सीखा था. जानपहचान भी अच्छी बन गई थी. इसी दौरान उन की दोस्ती लेखक एस.एम. अब्बास से हुई. महीपतभाई शाह एक फिल्म बना रहे थेपूर्णिमाजिस के लेखक अब्बास ही थे. धर्मेंद्र, मीना कुमारी स्टारर इस फिल्म का निर्देशन कर रहे थे नरेंद्र सूरी. अब्बास साहब की  सिफारिश पर प्रकाश मेहरा को पूर्णिमा में चीफ असिस्टेंट डाइरैक्टर का काम मिल गया. तब तक प्रकाश मेहरा को मुंबई आए 13 और सत्येंद्रपाल को 11 साल हो गए थे. इस बीच दोनों ने ही अपने घरों की ओर मुड़ कर तक नहीं देखा था. अलबत्ता खतोकिताबत जरूर चलती रहती थी. बहरहाल, पूर्णिमा बनी भी, 1968 में रिलीज भी हुई और चली भी. इस से प्रकाश मेहरा को ज्यादा फायदा तो नहीं हुआ, लेकिन एक दायरे में उन की थोड़ी पहचान जरूर बन गई.

इंदुभूषण और सत्येंद्रपाल की दोस्ती काफी गहरा चुकी थी. एक दिन उन्होंने इंदुभूषण से कहा, ‘‘तुम्हारे पास पैसे की तो कोई कमी है नहीं, इस तरह पैसा उड़ाने से तो अच्छा है एक फिल्म बनाओ. नाम भी मिलेगा और दाम भी.’’

इंदुभूषण इस के लिए तैयार हो गए. तब तक प्रकाश मेहरा को डाइरैक्शन का अच्छाभला अनुभव हो गया था. सत्येंद्रपाल ने चर्चगेट पर इंदुभूषण और प्रकाश मेहरा की मुलाकात कराई. सारी बातें भी हो गईं. लेकिन इंदुभूषण ने सत्येंद्रपाल से कहा, ‘‘ठीक है, मैं फिल्म बनाने को तैयार हूं, लेकिन शर्त यह है कि फिल्म का डाइरैक्शन तुम करोगे.’’

एक तो अपना अनुभव, दूसरे डाइरैक्शन के अनुभवी दोस्त प्रकाश मेहरा, सो सत्येंद्रपाल ने हां कर दी. लेकिन रात को जब इस मुद्दे पर सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा के बीच बात हुई तो प्रकाश बोले, ‘‘तू इंदुभूषण को तैयार कर, फिल्म मैं डाइरैक्ट करूंगा. और अगर तूने मेरी बात नहीं मानी तो मैं आत्महत्या कर लूंगा.’’

प्रकाश मेहरा सत्येंद्रपाल के दोस्त ही नहीं बल्कि सब कुछ थे. मुंबई में उन का कोई था तो सिर्फ प्रकाश. एक ऐसा दोस्त जिस ने दोस्ती के लिए विनोद देसाई की अच्छीभली नौकरी छोड़ने में एक पल भी नहीं लगाया था. प्रकाश मेहरा में आत्महत्या की टैंडेंसी थी, पहले भी वह केवल ऐसी धमकी दे चुके थे बल्कि एकदो बार कोशिश भी कर चुके थे. ऐसे में सत्येंद्र ने ही उन्हें संभाला था

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सत्येंद्रपाल ने प्रकाश मेहरा से कहा, ‘‘ठीक है, मैं इंदुभूषण से बात कर लूंगा. फिल्म तू ही डाइरैक्ट करेगा. वैसे भी इस के लिए मेरी उम्र और अनुभव दोनों ही कम हैं. पर तू वादा कर, फिर कभी आत्महत्या की बात नहीं करेगा.’’ पलभर रुक कर वह प्रकाश का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘अगर हमें फिल्में मिलीं या हम ने कभी फिल्में बनाईं तो उन्हें तू ही डाइरैक्ट करेगा. मैं डाइरैक्शन को कभी हाथ नहीं लगाऊंगा. ये वादा है मेरा. पर अब कभी ऐसी बात मत करना.’’

उस रात सत्येंद्रपाल चौधरी और प्रकाश मेहरा के बीच कई वादे हुए. दोस्ती को ले कर, काम को ले कर, जिंदगी को ले कर. यह अलग बात है कि उस समय इन बातों, इन वादों का कोई महत्त्व नहीं था. क्योंकि जिंदगी की राह में अभी तो कांटे ही कांटे थे जिन्हें बीन कर उन्हें खुद अपनी राह बनानी थी. बहरहाल, सत्येंद्र ने इंदुभूषण को दोस्ती का वास्ता दे कर तैयार किया कि फिल्म प्रकाश मेहरा ही डाइरैक्ट करेंगे. बाकी काम वह खुद संभालेंगे. वह मान गए तो अब्बास को कहानी लिखने को कहा गया. प्रकाश मेहरा ने लेखन में उन का साथ दिया. कहानी तैयार हुई तो सत्येंद्रपाल को सुनाई गई. उन्हें कहानी पसंद आई, इंदुभूषण को भी. कहानी फाइनल हो गई तो फिल्म का नाम रजिस्टर्ड करा दिया गयाहसीना मान जाएगी’.

सब कुछ फाइनल हो जाने पर दादर में औफिस बनाया गया. दारा सिंह का औफिस भी उसी बिल्डिंग में था. इंदुभूषण ने अपने पिता के नाम पर बैनर का नाम रखामंगतराम फिल्म्स’. फिल्म के प्रोड्यूसर बने इंदुभूषण और असिस्टेंट प्रोड्यूसर सत्येंद्रपाल चौधरी. उस वक्त सत्येंद्र की उम्र मात्र 23 साल थी. सारी तैयारियां हो चुकी थीं. तभी इंदुभूषण के बड़े भाई केदारनाथ ने उन्हें समझाया, ‘‘नए लड़के हैं, इन के पीछे पैसा बरबाद मत कर. इन की जगह डाइरैक्टर नरेंद्र बेदी को ले ले, मैं बात करता हूं.’’

भैयाभाभी के झगड़े की वजह से इंदुभूषण अलग भले ही रह रहे थे, लेकिन बड़े भाई का बहुत सम्मान करते थे. उन्होंने केदारनाथ की बात पर कोई आपत्ति नहीं की. नरेंद्र बेदी उस वक्त का बड़ा नाम था. वैसे भी उन दिनों वह खाली थे. सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा को यह बात पता चली तो अपने पहले ही सपने के चटकने की प्रतिध्वनि सुन कर एकदूसरे के गले लग कर खूब रोए. उधर केदारनाथ नरेंद्र बेदी से मिले और उन्हें सारी बातें बता कर इंदुभूषण की फिल्म डाइरैक्ट करने को कहा. बेदी साहब उसूलों वाले आदमी थे. उन्होंने केदारनाथ से दोटूक कह दिया, ‘‘नहीं, मैं किसी के पेट पर लात नहीं मारूंगा. नए लड़के हैं तो क्या हुआ? हो सकता है, बहुत अच्छा काम कर जाएं.’’

केदारनाथ को उन के पास से निराश हो कर लौटना पड़ा. यह बात सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा को पता चली तो दोनों खूब खुश हुए. दोनों बेदी साहब का शुक्रिया अदा करने भी गए. इस के बाद फिल्म की तैयारियां शुरू हो गईं. इंदुभूषण अपने बिजनैस की वजह से औफिस में नहीं बैठ पाते थे. इसलिए फिल्म की सारी जिम्मेदारी सत्येंद्रपाल, प्रकाश मेहरा और अब्बास के कंधों पर थी. तीनों ने मिल कर अपनी टीम बनानी शुरू कर दी. अब्बास चूंकि फिल्म इंडस्ट्री में सीनियर थे इसलिए उन्होंने पूरे प्रोजैक्ट को टेकओवर कर लिया.

उन दिनों राजेश खन्ना सुपरहिट हो चुके थे. उन्हें बतौर हीरो फिल्म में लेने की बात हुई, लेकिन कुछ कारणों से बात नहीं बनी. तब तक शशिकपूर कीजबजब फूल खिले चुकी थी जो हिट फिल्म थी. अब्बास ने शशिकपूर से बात की. हसीना मान जाएगी में हीरो का डबलरोल था इसलिए शशिकपूर ने दोगुनी फीस मांगी. बात वाजिब थी सो उन्हें ज्यादा रकम दे कर साइन कर लिया गया. उन के साथ हीरोइन लिया गया बबीता को. इन दोनों के अलावा फिल्म में जानी वाकर और निरंजन शर्मा को भी रखा गया. फिल्म पूरी होने में डेढ़ साल लगा.

हसीना मान जाएगी’ 1 जनवरी 1968 को रिलीज हुई और जबरदस्त हिट रही. इस फिल्म से सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा को काफी पैसा मिला. गुरबत के दिन निकल चुके थे. साथ ही इस से दोनों की दोस्ती की नींव और भी मजबूत हो गई. इस के बाद किन्हीं कारणों से इंदुभूषण तो फिल्म नहीं बना सके लेकिन प्रकाश मेहरा का नाम हिट डाइरैक्टरों में जरूर शामिल हो गया. उन्हें काम भी मिलने लगा.

इस कड़ी में प्रकाश मेहरा को दूसरी फिल्म मिली .जी. नाडियाडवाला कीमेला’. इस फिल्म में फिरोज खान, संजय खान और मुमताज थे. यह फिल्म भी सुपरहिट रही. जब पैसा आया तो सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा ने सांताकु्रज का विजय गेस्टहाउस छोड़ कर जुहू में एक अच्छा सा मकान किराए पर ले लिया और साथसाथ रहने लगे. उधर धर्मेंद्र के रिश्तेदार भगवंत सिंह भी विजय गेस्टहाउस छोड़ कर फिर धर्मेंद्र के ही घर चले गए थे. उन्हीं दिनों धर्मेंद्र ने पंडित मुखराम शर्मा की एक कहानी पसंद की. मुखराम शर्मा की गिनती बड़े फिल्म लेखकों में होती थी. यह फिल्मसमाधिके नाम से बननी थी. धर्मेंद्र ने इस फिल्म का प्रोड्यूसर भगवंत सिंह को बनाया

भगवंत सत्येंद्रपाल के बहुत करीबी दोस्त थे इसलिए फिल्म का डाइरैक्टर प्रकाश मेहरा को लिया गया. इस फिल्म में धर्मेंद्र की हीरोइन थीं आशा पारेख. यह फिल्म भी सुपरहिट रही. इस बीच सत्येंद्रपाल प्रकाश मेहरा की बैक बन कर केवल उन के साथ खड़े रहे बल्कि हर तरह से उन्हें सहयोग भी करते रहे.

समाधिके बाद धर्मेंद्र की प्रकाश मेहरा से अच्छी पटने लगी. यह स्वाभाविक भी था क्योंकि धर्मेंद्र टौप स्टार थे और प्रकाश मेहरा हिट डाइरैक्टर. उन्हीं दिनों नई उभरती लेखक जोड़ी सलीमजावेद ने धर्मेंद्र को जंजीर की कहानी सुनाई. धर्मेंद्र को कहानी पसंद आई तो उन्होंने एडवांस दे कर खरीद ली. बाद में उन्होंने यह कहानी प्रकाश मेहरा को सुना कर कहा कि  इसे साथ मिल कर बनाते हैं. प्रकाश मेहरा ने उसी रातजंजीरकी कहानी सत्येंद्रपाल को सुना कर धर्मेंद्र के प्रपोजल के बारे में बताया. साथ ही कहा भी, ‘कहानी में गाने की सिचुएशन नहीं है.’ सत्येंद्रपाल को कहानी अच्छी लगी तो उन्होंने कहा, ‘‘कहानी अच्छी है, हाथ से मत जाने देना. गानों का क्या, तू इतने अच्छे गाने लिखता है. खुद लिख लेना. सिचुएशन भी निकल ही आएगी.’’

प्रकाश मेहरा तैयार हो गए. लेकिन तभी धर्मेंद्र की फुफेरी बहन के पति रंजीत विर्क बीच में गए. वह फिल्म में पार्टनर बनना चाहते थे. रिश्तेदारी का मामला था. धर्मेंद्र ने प्रकाश मेहरा से कहा कि तुम रंजीत को पार्टनर बना लो, फिल्म मैं प्रोड्यूस करता हूं. प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल दोस्त ही नहीं, पार्टनर भी थे. सुखदुख के साथी. बिना एकदूसरे की राय के कोई काम नहीं करते थे. प्रकाश मेहरा ने यह बात सत्येंद्रपाल को बताई तो वह बोले, ‘‘प्रकाश, पार्टनरशिप चल नहीं पाएगी. इस मामले में बहुत सोचसमझ कर चलना होगा.’’

बात प्रकाश मेहरा की समझ में गई. उन्होंने धर्मेंद्र से इस पार्टनरशिप के लिए मना कर दिया. रंजीत विर्क शायद यही चाहते थे. उन्होंने पीछा छूटा वाले अंदाज में धर्मेंद्र से कहा, ‘‘फिल्म में हीरो आप रहेंगे, प्रोड्यूस मैं करूंगा.’’

धर्मेंद्र हमेशा से उसूलों के पक्के रहे हैं. वह प्रकाश मेहरा को पार्टनर बनाने की बात कह चुके थे. इसलिए उन्होंने सीने पर पत्थर रख कर दुखी मन से ऐसा करने से इनकार कर दिया. धर्मेंद्र चूंकि हीरो बनने से इनकार कर रहे थे इसलिए रंजीत विर्क भी पीछे हट गए. इस पर धर्मेंद्र ने प्रकाश को बुला कर कहा, ‘‘प्रकाश, तुम फिल्म बना लो. मैं जंजीर की कहानी तुम्हें दे रहा हूं.’’

यह सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा के लिए खुशी की खबर थी. प्रकाश मेहरा ने धर्मेंद्र के साथ के लिए मुमताज को साइन कर लिया. उन दिनों नंदलाल छाबडि़या बड़े फाइनेंसर थे. धर्मेंद्र के नाम पर वह फाइनेंस करने को तैयार हो गए. दिल्ली, पंजाब, यूपी और मुंबई वगैरह के फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स ने भी 70 प्रतिशत एडवांस दे दियासब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि अचानक ऐसी मुसीबत गई कि प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल चौधरी के होश उड़ गए. पारिवारिक कारणों से धर्मेंद्र ने फिल्म में बतौर हीरो काम करने से मना कर दिया. उन्होंने प्रकाश को बड़े प्यार से समझा कर कहा, ‘‘तुम किसी दूसरे हीरो को ले कर फिल्म बना लो, मुझे कोई ऐतराज नहीं है. कहानी मैं तुम्हें दे ही चुका हूं.’’

फिल्म से धर्मेंद्र का नाम हटते ही सत्येंद्रपाल चौधरी और प्रकाश मेहरा परेशान हो गए. उन की समझ में नहीं रहा था कि एक्शन हीरो कहां से लाएं. क्योंकि जंजीर एक्शन पैक्ड फिल्म की कहानी थीइस कहानी में एक बात अच्छी यह थी कि इस में शेरखान की भूमिका बहुत जबरदस्त थी जिसे पहले ही प्राण साहब को देने की बात हो चुकी थी. यह भूमिका चूंकि मनोज कुमार की फिल्मउपकारके मलंग चाचा जैसी थी इसलिए प्राण साहब इसे ले कर खासे उत्साहित थे. प्राण साहब भले ही विलेन के रोल करते थे, लेकिन उन की लोकप्रियता धर्मेंद्र से कम नहीं थी. वैसे भी वह धर्मेंद्र के बराबर ही फीस लेते थे. सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा ने इसी बात को ध्यान में रख कर आगे बढ़ने की सोची. लेकिन हीरो का सवाल पहले था.

इस सिलसिले में राजकुमार और देवानंद से बात की गई, लेकिन उन लोगों ने चेंज के जो सजेशन दिए उन की वजह से बात नहीं बनी. फिरोज खान से बात की गई तो उस का भी कोई नतीजा नहीं निकला. इस के बावजूद सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा ने उम्मीद की डोर नहीं छोड़ी. कदमकदम पर खाए धक्के, थका देने वाला संघर्ष और गुजरे दिनों की मुफलिसी उन्हें किसी भी तरह आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही थी. निराशा के उसी दौर में दोनों ने यह सोच कर कि प्राण साहब शायद कोई रास्ता सुझा सकें, उन के साथ सन एंड सैंड होटल में एक मीटिंग की. दोनों की बातें सुन कर प्राण साहब बोले, ‘‘मैं कमिटमेंट कर चुका हूं. किसी को भी ले कर फिल्म बनाओ, मैं काम करूंगा. हीरो छोटा हो या बड़ा, नया हो या पुराना मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’ उन की इस बात से सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा का हौसला बढ़ा.

उन्हीं दिनों अमिताभ बच्चन की फिल्मबौंबे टू गोवाआई थी जिस में उन की हीरोइन अरुणा ईरानी थीं. फिल्म के प्रोड्यूसर थे महमूद. उन दिनों अमिताभ महमूद के घर में ही रहते भी थे. लगभग दर्जन भर फिल्में कर चुके अमिताभ पर फ्लौप हीरो का लेबल लग चुका था. प्राण साहब ने बौंबे टू गोवा देखी थी. उन्हें अमिताभ बच्चन का काम पसंद आया था. बातें हुईं तो प्राण साहब ने सजेशन दिया, ‘‘आप लोग अमिताभ को ले कर फिल्म शुरू करो. कहानी में दम है, फ्लौप या सक्सेस हीरो से कोई फर्क नहीं पड़ेगा.’’

इस तरह प्राण साहब के सजेशन परजंजीरके हीरो के लिए अमिताभ बच्चन का नाम फाइनल हो गया. उन से बात भी कर ली गई, लेकिन अमिताभ का नाम सामने आते ही मुमताज ने उन के साथ काम करने से इनकार कर दिया. फाइनेंसर या डिस्ट्रीब्यूटर्स नाराज हों यह सोच कर प्रकाश मेहरा ने आननफानन में सायरा बानो को साइन किया. साइनिंग अमाउंट के तौर पर उन्हें 11 हजार रुपए भी दे दिए गए. उन दिनों अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी का चक्कर चल रहा था. जया भादुड़ी अमिताभ से ज्यादा चर्चित थीं. अमिताभ चाहते थे कि फिल्म में जया को लिया जाए. कुछ लोगों का सजेशन था कि दोनों की रीयल लवस्टोरी से फिल्म को भी लाभ होगा. अत: प्रकाश मेहरा ने सायरा बानो से कहा कि उन्हें वह अपनी अगली फिल्म में ले लेंगे. उन की जगहजंजीरमें अमिताभ की जोड़ी जया भादुड़ी के साथ बनाई गई.

हीरोहीरोइन फाइनल हुए तो कई और मुसीबतें खड़ी हो गईं. अमिताभ के नाम पर नंदलाल छाबडि़या ने फाइनेंस करने से मना कर दिया. जो डिस्ट्रीब्यूटर्स एडवांस दे चुके थे, वे भी अपना पैसा वापस मांगने लगे. इस से प्रकाश मेहरा डिप्रेशन में गए. जब हालात ज्यादा नाजुक हो गए तो सत्येंद्रपाल नंदलाल छाबडि़या के पास गए. उन्होंने छाबडि़या को समझाया, ‘‘एक्टर नहीं, कहानी चलती है और हमारी कहानी में दम है.’’

छाबडि़या साहब सिंधी थे, पक्के बिजनैसमैन. प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल की गरज देख कर उन्होंने कहा, ‘‘ठीक है,लेकिन मैं रेट इंटरेस्ट 8 आने बढ़ाऊंगा.’’

वक्त की नब्ज को पहचान कर सत्येंद्रपाल ने हां कर दी. उन से पैसा ले कर डिस्ट्रीब्यूटर्स को उन का पैसा लौटा दिया गया. खैर, अमिताभ बच्चन, जया भादुड़ी, प्राण और अजीत को ले कर फिल्म शुरू हो गई. पूरी होने में 8 महीने लगे. जब बात मार्केटिंग की आई तोजंजीरदूसरे डिस्ट्रीब्यूटर्स को धर्मेंद्र से आधे रेट पर बेचनी पड़ी. आखिर 11 मई 1973 कोजंजीररिलीज हुई. जिस दिन रिलीज थी, उस दिन प्रकाश मेहरा और अमिताभ बच्चन प्रीमियर पर कलकत्ता गए हुए थे. सत्येंद्र मुंबई में ही थे.

मुंबई मेंजंजीरबादल टाकीज में लगी थी. उसी के सामने वाले बिजली टाकीज में उसी दिन शत्रुघ्न सिन्हा और जया भादुड़ी अभिनीतगाय और गौरीरिलीज हुई थी. ‘जंजीरका पहला दिन ठंडा रहा. जबकिगाय और गौरीमें अच्छीभली भीड़ जुट रही थी. यह देख सत्येंद्रपाल बादल टाकीज की सीढि़यों पर बैठ कर रोने लगे. कुछ नहीं सूझा तो उन्होंने खुद ही हर शो के 100-100 टिकट खरीद कर फाड़ दिए ताकि पहले दिन का बिजनैस कुछ तो बढ़ा दिखाई दे.

सोमवार 14 मई सेजंजीरदेखने वालों की भीड़ बढ़नी शुरू हुई. उस वक्त रोमांटिक फिल्मों का दौर था जबकिजंजीरएक्शन पैक्ड फिल्म थी. लोगों को फिल्म का यह बदला हुआ अंदाज पसंद आया. सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा ने यह फिल्म बहुत बड़ा रिस्क ले कर बनाई थी, लेकिन उन का यह रिस्क फिल्म इंडस्ट्री के तमाम लोगों के लिए रश्क बन गया. रूमानियत के रंगीन धागों में उलझी फिल्म इंडस्ट्री उस समय तक सोच भी नहीं सकती थी कि एक्शन से भरपूरजंजीरसफलता का ऐसा चमत्कृत कर देने वाला इतिहास रचेगी कि एक ही झटके में दर्शकों की पसंद और फिल्म इंडस्ट्री की सोच बदल जाएगी.

जंजीरने सचमुच सफलता का अनूठा इतिहास रचा. इस फिल्म ने 12 फ्लौप फिल्मों का दंश झेल चुके अमिताभ बच्चन को तो रातोंरात स्टार बना ही दिया, संघर्ष का लंबा दौर देख चुकी सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा की जोड़ी को भी स्थापित कर दिया. सलीमजावेद तब तकहाथी मेरे साथीसीता और गीतालिख चुके थे. हालांकि ये दोनों फिल्में सफल रही थीं फिर भी दोनों फिल्म इंडस्ट्री में संघर्ष कर रहे थे. जंजीर की सफलता ने इस जोड़ी को भी बुलंदियों पर पहुंचा दिया. अगर सच्चाई को ईमानदारी से स्वीकार किया जाए तो अमिताभ को इतना बड़ा स्टार बनाने में धर्मेंद्र का बहुत बड़ा हाथ था. अगर वह खुद इस फिल्म में काम करते तो शायद स्थिति कुछ और होती.

पैसा आया तो प्रकाश मेहरा ने जुहू में धर्मेंद्र और मनोज कुमार के बंगले के पास बंगला खरीद लिया. सत्येंद्रपाल के साथ वह उसी बंगले में रहने लगे. ग्राउंड फ्लोर में प्रकाश, फर्स्ट फ्लोर पर सत्येंद्रपाल. अब उन की स्थिति यह हो गई थी कि किसी भी हीरोहीरोइन को ले कर फिल्म बना सकते थे. उन के लिए फाइनेंसरों की तिजोरियां खुली हुई थीं. डिस्ट्रीब्यूटर्स उन की फिल्म एडवांस में खरीदने को तैयार थे. लेकिन यह मुकाम इन दोनों को यूं ही नहीं मिल गया था. 1959 से ले कर 1973 तक पूरे 13-14 साल का संघर्ष था ये. इस बीच सत्येंद्रपाल चौधरी सिर्फ एक बार सन 1972 में केवल 4 दिन के लिए अपने भाई की शादी में गांव गए थे.

जंजीरप्रकाश मेहरा के बैनर प्रकाश मेहरा प्रोडक्शंस पर बनी थी. सत्येंद्रपाल और प्रकाश के बीच यह पहले ही तय हो गया था कि एक फिल्म प्रकाश मेहरा प्रोडक्शंस के बैनर पर बनेगी और दूसरी सत्येंद्रपाल के बैनरचौधरी एंटरप्राइजेजपर. इसलिए अब बारी चौधरी एंटरप्राइजेज की थी. इस की तैयारियां भी शुरू हो गईं. नंदलाल छाबडि़या फाइनेंस के लिए तैयार थे. अमिताभ बच्चन को सत्येंद्रपाल नेजंजीरके वक्त ही एडवांस दे कर साइन कर लिया था. फिल्म की कहानी लिखाई गई विजय कौल से. इस कहानी में 2 हीरो थे. दोनों बराबर की टक्कर के.

दूसरे हीरो के लिए सत्येंद्रपाल का ध्यान विनोद खन्ना की ओर गया. विनोद खन्ना से उन की अच्छी दोस्ती थी. तब तक वह कई हिट फिल्में दे चुके थे. सत्येंद्र ने उन से बात की तो अहं आड़े गया. विनोद ने उन से कहा, ‘‘ठीक है, मैं तुम्हारे साथ काम करूंगा, लेकिन अमिताभ बच्चन से एक लाख ज्यादा लूंगा.’’ सत्येंद्र ने सोचविचार कर विनोद खन्ना को 2 लाख में फाइनल कर लिया. जंजीर के समय प्रकाश मेहरा ने सायरा बानो को 11 हजार रुपए दे कर साइन किया था. उन्हें इस फिल्म में ले लिया गया. दूसरी हीरोइन के रूप में सुलक्षणा पंडित को साइन किया गया. सारी तैयारियां हो चुकी थीं लेकिन फिल्म के लिए कोई अच्छा टाइटल नहीं मिल रहा था. तभी अचानक एक झटका लगा और धांसू टाइटल मिल गया

हुआ यह कि एक दिन सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा अपने औफिस में बैठे थे. तभी प्रकाश ने कहा, ‘‘सत्येंद्र, अपना एकाउंटेंट ठाकुर बहुत हेराफेरी करता है. इस का कुछ इलाज करना पड़ेगा.’’

यह सुनते ही सत्येंद्रपाल खुश हो कर बोले, ‘‘प्रकाश, उसे छोड़. फिल्म का टाइटल मिल गया. हम फिल्म का नामहेराफेरीरखेंगे. कहानी पर खूब सूट कर रहा है.’’

उसी दिन फिल्म के लिएहेराफेरीटाइटल रजिस्टर्ड करा दिया गया. फिल्म भी जल्दी ही शुरू हो गई. इसे बनने में 2 साल लगे. हेराफेरी 3 अक्तूबर 1976 को रिलीज हुई और सुपरहिट रही. इस फिल्म की सफलता ने सत्येंद्रपाल चौधरी और प्रकाश मेहरा की जिंदगी में क्रांति सी ला दी. पैसे की तो जैसे बरसात सी हुई. अब अगला नंबर प्रकाश मेहरा प्रोडक्शंस का था. थोड़े से अंतराल के बाद पीएमपी परमुकद्दर का सिकंदरशुरू की गई. फिल्म के लिए अमिताभ बच्चन पहले ही फाइनल थे. हीरोइन लिया गया रेखा को. जब इस फिल्म का काम चल रहा था तभी सत्येंद्रपाल चौधरी ने अमिताभ बच्चन को अपनी अगली फिल्मनमकहलालके लिए साइन कर लिया. मुकद्दर का सिकंदर पहले शुरू हुई. तब तक अमिताभ बच्चन बहुत बड़े स्टार बन गए थे. उन की व्यस्तता भी बहुत बढ़ गई थी.

इसी बीच प्रकाश मेहरा को एक अन्य प्रोड्यूसर का प्रोजैक्ट टेकओवर करना पड़ा, जिसे उन्होंने अमिताभ के साथ हीखून पसीनाके नाम से बनाया. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ विनोद खन्ना और रेखा थे. यह फिल्म 21 जनवरी 1977 को रिलीज हुई और सुपरहिट रही. ‘खून पसीनाकी वजह सेमुकद्दर का सिकंदरको बनने में 2 साल लगे. 27 अक्तूबर 1978 को रिलीज हुई यह फिल्म भी सुपरहिट रही. सन 1978 में ही सत्येंद्रपाल चौधरी ने दिल्ली में मंजू के साथ शादी की. मंजू के पिता रहने वाले तो जिला मेरठ के ही थे, लेकिन शिमला में एक आधिकारिक पद पर तैनात थे. यह शादी घर वालों की इच्छा से हुई थी. मंजू को पसंद भी उन्होंने ही किया था. इस शादी में खास बात यह रही कि फिल्मी सितारों सहित जितने मेहमान मुंबई से दिल्ली आए उस से ज्यादा गांव के लोग आए. इन सब को ठहराने के लिए सत्येंद्रपाल ने होटल अशोका का पूरा फ्लोर बुक कराया था.

इस बीच प्रकाश मेहरा भी शादी कर चुके थे. शादी के बाद भी दोनों एक ही बंगले में साथसाथ रह रहे थे. सत्येंद्रपाल भी पत्नी मंजू चौधरी को मुंबई ले आए थे. मुकद्दर का सिकंदर के बाद सत्येंद्रपाल चौधरी कीनमकहलालबननी थी. इस के लिए अमिताभ को एडवांस दे कर पहले ही साइन कर लिया गया था. इस के लिए बतौर कोस्टार शशि कपूर, रंजीत, परवीन बौबी, स्मिता पाटिल और ओमप्रकाश को लिया गया था. जब फिल्म शुरू होने वाली थी तो सत्येंद्रपाल चौधरी अमिताभ बच्चन के पास गए. तब तक अमिताभ अपना बंगला प्रतीक्षा बना चुके थे. जया और अमिताभ की शादी भी हो चुकी थी. अमिताभ के भाई अजिताभ भी उन के साथ ही रहते थे

वह भाई की फिल्मों का काम भी देखते थे. बात हुई तो अजिताभ ने सत्येंद्रपाल से कहा, ‘‘अमिताभ की मार्केट प्राइस बढ़ गई है. इसलिए 2 लाख रुपए बढ़ाने होंगे.’’

अमिताभ कोनमकहलालके लिए साइन करते समय ही फीस तय हो गई थी. इसलिए सत्येंद्रपाल चौधरी ने साफ कह दिया, ‘‘मैं एक पैसा नहीं बढ़ाऊंगा. जो रकम तय हुई है, उसी में काम करना होगा.’’ अजिताभ भी अपनी बात पर अड़ गए. इस पर सत्येंद्र गुस्से में उठ कर चले आए. उन्होंने लौट कर यह बात प्रकाश मेहरा को बताई. सवाल बात का भी था और दोस्त की इज्जत का भी. प्रकाश मेहरा को भी यह बात ठीक नहीं लगी. उस समय तक प्रकाश मेहरा प्रोडक्शंस के लिएलावारिसकी प्लानिंग हो चुकी थी. इस के लिए प्रकाश मेहरा ने अमिताभ को साइन भी कर लिया था. दोनों के लिए ही यह ड्रीम प्रोजैक्ट था.

बहरहाल, प्रकाश मेहरा ने अमिताभ को फोन कर के कहा कि उन्होंने सत्येंद्रपाल को नाराज कर के ठीक नहीं किया. ऐसे में कैसे साथसाथ काम कर पाएंगे? इस पर अमिताभ ने कहा कि वह सत्येंद्रपाल को ले कर रविवार को उन के घर जाएं. रविवार को इस मुद्दे पर प्रतीक्षा में ही बात हुई. सत्येंद्रपाल ने कहा कि वह ऐसे आदमी के साथ काम नहीं करना चाहते जो जुबान का पक्का हो. इस पर अमिताभ प्रकाश से बोले, ‘‘प्रकाशजी, चौधरी ने एडवांस में जो पैसे दिए हैं, इन्हें लौटा दो. आप लावारिस की फीस में एडजस्ट कर लेना.’’

यह सुनते ही प्रकाश खड़े हो गए. उन्हें बहुत कम गुस्सा आता था, लेकिन उस वक्त वह गुस्से में थे. उन्होंने अमिताभ से कहा, ‘‘लल्ला, हीरो तो बहुत मिल जाएंगे पर दोस्त कहां से लाऊंगा? समझ लो, मैंलावारिसबंद कर रहा हूं.’’

अमिताभ बच्चन ने समझदारी से काम लेते हुए मानमनुहार कर के प्रकाश और सत्येंद्रपाल को रोका. माहौल थोड़ा सामान्य हुआ तो इस मुद्दे पर फिर से बातचीत हुई. नतीजतन समझौता हो गया. सहमति बनने के बाद सत्येंद्रपाल और अमिताभ बच्चन गले मिले. हालांकि अजिताभ इस सब से खुश नहीं थे. नमक हलाल और लावारिस दोनों ही फिल्में सुपरहिट हुईं. कुछ कारणों से नमक हलाल के बनने में ज्यादा वक्त लगा इसलिए पहले 22 मई 1981 को लावारिस रिलीज हुई और इस के 7 महीने बाद 1 जनवरी 1982 को नमक हलाल. इस बीच सत्येंद्रपाल और अमिताभ की अच्छी दोस्ती हो गई थी.

इस के कुछ ही दिन बाद अमिताभ ने एक इंगलिश फिल्म देखी जो उन्हें बहुत पसंद आई. वह चाहते थे कि उसे बेस कर के एक हिंदी फिल्म बनाई जाए जिस में हीरो वह खुद हों. उन्होंने उस फिल्म की कैसेट कई लोगों को दिखाई. लेकिन उस समय के हिसाब से विषय गले उतरने वाला नहीं था इसलिए कोई भी उस पर फिल्म बनाने को तैयार नहीं हुआ. इस पर अमिताभ ने सत्येंद्रपाल को सन एंड सैंड में बुला कर वह फिल्म दिखाई. सत्येंद्रपाल को विषय पसंद आया. उन्होंने अमिताभ से कह दिया, ‘‘मैं बनाऊंगा इस पर फिल्म.’’

सत्येंद्रपाल ने उस इंगलिश फिल्म की कैसेट लेखक लक्ष्मीकांत शर्मा को दे कर उस पर कहानी लिखने को कहा. साथ ही कुछ आइडियाज भी दिए. कहानी तैयार हो गई तो डायलौग लिखवाए गए कादर खान से. फिल्म का नाम रखा गयाशराबी’. इस फिल्म में अमिताभ बच्चन की हीरोइन जयाप्रदा थीं और अन्य महत्त्वपूर्ण कलाकार थे प्राण और ओमप्रकाश. 6 जनवरी 1984 को रिलीज हुई इस फिल्म ने रिकार्डतोड़ सफलता हासिल की. अमिताभ इस से बहुत खुश थे.

सत्येंद्रपाल और प्रकाश मेहरा की दोस्ती बहुत गहरी थी. तेरामेरा जैसा कुछ था ही नहीं. दोनों खूब लड़ते थे, लेकिन यह झगड़ा या नाराजगी सावन की धूप की तरह होती थी. लड़भिड़ लिए और घंटे 2 घंटे में सब कुछ सामान्य. यही वजह थी कि इतनी दौलत आने के बाद भी दोनों ने कभी अलगअलग रहने के बारे में नहीं सोचा था. दोनों प्रकाश मेहरा के जुहू वाले बंगले में रहते थे. नीचे के फ्लोर पर प्रकाश मेहरा और ऊपर वाले पर सत्येंद्रपाल. दोनों की शादियां हो जाने के बाद भी इस में कोई परिवर्तन नहीं आया था. यहां तक कि जुहू में दोनों के औफिस भी साथसाथ थे. इसी दोस्ती की वजह से सत्येंद्रपाल ने कभी अपना अलग घर बनाने के बारे में भी नहीं सोचा था.

सब कुछ ठीकठाक चल रहा था कि एक दिन दोनों में झगड़ा हो गया. झगड़ा इतना बढ़ा कि सत्येंद्रपाल ने अलग होने का फैसला कर लिया. सब कुछ छोड़छाड़ कर. रात को झगड़ा हुआ, सुबह को सत्येंद्रपाल ने पत्नी के साथ प्रकाश मेहरा का बंगला छोड़ दिया. सब से पहले उन्होंने एयरपोर्ट जा कर पत्नी मंजू चौधरी को फ्लाइट पर बैठाया ताकि वह पिता के पास शिमला चली जाएं. इस के बाद वह स्वयं सन एंड सैंड में ठहर गए. 2-3 दिन बाद प्रकाश मेहरा प्राण और ओमप्रकाश को साथ ले कर आए. उन्होंने सत्येंद्रपाल से वापस चलने को कहा, मानमनुहार की, लेकिन उन्होंने जाने से इनकार कर दिया. अगले 3-4 महीने उन्होंने सन एंड सैंड में ही गुजारे. इसी बीच वर्सोवा में घर खरीदा और मंजू चौधरी को मुंबई ले आए. इस झगड़े में सत्येंद्रपाल को बहुत बड़ा नुकसान हुआ.

इस के बाद प्रकाश मेहरा और सत्येंद्रपाल ने अलगअलग कई फिल्में बनाईं. लेकिन कोई भी फिल्म सफल नहीं रही. उन्हीं दिनों सत्येंद्रपाल चौधरी नेचमेली की शादीअपने स्टाफ के लिए बनाई थी. इस के प्रोड्यूसर उन के कर्मचारी सुशील गौड़ और रमेश मिंगू थे. अनिल कपूर, अमृता सिंह, ओमप्रकाश और पंकज कपूर स्टाररचमेली की शादीक्लासिक कौमेडी फिल्म थी. लोगों ने इसे पसंद तो किया लेकिन इस से ज्यादा लाभ नहीं हुआ. अक्षय कुमार, ट्विंकल खन्ना और दारा सिंह अभिनीतजुल्मीसे उन्हें सब से बड़ा नुकसान हुआ. प्रकाश मेहरा की बनाईमुकद्दर का फैसला’, ‘जादूगर’, ‘जिंदगी एक जुआ’, ‘दलाल’, ‘बाल ब्रह्मचारीऔरमुझे मेरी बीवी से बचाओभी फ्लौप रहीं.

फिल्म इंडस्ट्री में एक लंबे संघर्ष के बाद सत्येंद्रपाल चौधरी ने अंतत: वह मुकाम हासिल किया, जिसे सफलता का शीर्ष कहा जाता है. जिस इंडस्ट्री में उन्हें 10-10 रुपए के लिए दूसरों का मुंह देखना पड़ता था, वहीं उन्होंने खूब नाम, शोहरत और दौलत अर्जित की. उन के व्यक्तित्व का एक सुखद पहलू यह भी है कि इतना पैसा, मानसम्मान पा कर भी वह कभी स्वयं को नहीं भूले. महानगर में रह कर भी बिलकुल सहजसरल ही बने रहे. पारिवारिक स्तर पर इस सादगी और व्यवहारिकता को निभाया उन की पत्नी मंजू चौधरी ने. उन के घर जो भी आया उसे भरपूर तवज्जो मिली, चाहे वह महानगर का रहा हो या गांव का. मंजू चौधरी बेहद सौम्य, सुशील और संस्कारी हैं. उन्होंने एक आदर्श पत्नी की तरह सत्येंद्रपाल को हर स्थितिपरिस्थिति में हर तरह से सहयोग दिया. कह सकते हैं कि मंजू चौधरी और सत्येंद्रपाल एकदूसरे के पूरक बने रहे इसीलिए आज तक एकदूसरे के प्रति उन का स्नेह और विश्वास बरकरार है.

जीवन का ईमानदारी से मूल्यांकन कर पाना आसान नहीं होता, क्योंकि ऐसा करते वक्त इंसान अकसर बेइमान हो जाता है और खुद को खुद से छिपाने का प्रयास करता है. यह मानव प्रवृत्ति है कि वह अपनी कमजोरियों को स्वीकारने से घबराता है क्योंकि वह अपनी और दूसरों की नजरों में खुद को एक आदर्श चरित्र के रूप में स्थापित करने का इच्छुक रहता है. लेकिन सत्येंद्रपाल चौधरी अपनी सारी कमजोरियों, कमियों और गलतियों को खुले दिल से स्वीकारते हैं, बिना किसी हिचकिचाहट या कुंठा के. उन का जीवन खुली किताब की तरह है जिसे कहीं से भी किसी भी तरह आसानी से पढ़ा और जाना जा सकता है. कहीं कोई दुरावछुपाव नहीं. इसीलिए उन का व्यक्तित्व भी उतना ही सरल और सहज है, जिस में कोई दिखावा है बनावटीपन और आडंबर.

            

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...