Hindi Stories : शहंशाह-ए-हिंद जहांदारशाह की बेगम-ए-खास गुलबदन जो चाहती थी, वही होता था. शराब के नशे में डूबे बादशाह ने पूरी हुकूमत गुलबदन को सौंप रखी थी. लेकिन जब गुलबदन के सामने उस का अतीत एक बच्चे के रूप में आया तो वह खूंखार सेनापति मंसूर के सामने मजबूर हो गई. लेकिन जब मां के हृदय में टीस उठी तो उस ने…
उस ने काला चोगा पहन रखा था. लंबी सफेद दाढ़ी, सिर पर कफनी, गरदन से नाभि तक झूलती रंगबिरंगे कौड़ीमनकों की मालाएं. कोई अलमस्त मुसलमान फकीर था वह. उस के एक हाथ में काले मोतियों की माला थी, जो अंगुलियों पर घूम रही थी. दूसरे हाथ से एक 11-12 वर्ष के बच्चे की अंगुली थामे वह मंथर गति से लालकिले के मुख्यद्वार की ओर बढ़ रहा था. बाहर खड़े हो कर उस फकीर ने लालकिले के प्राचीर पर नजर डाली. सदियों से सजग प्रहरी की तरह सीना ताने खड़ी लालकिले की गुंबदें कुछ अलसाई सी लगीं, लेकिन किले की प्राचीर पर लहराता मुगलिया सल्तनत का झंडा सतर्कता का परिचय दे रहा था.
किले की प्राचीर से फिसलती हुई उस बूढ़े फकीर की नजर किले के मुख्यद्वार पर जा कर ठहर गई, जहां कई संतरी हाथों में भाले और शमशीर लिए खड़े थे. संतरियों को देख कर बूढ़े फकीर ने एक गहरी सांस छोड़ी. उस के चेहरे पर कशमकश के भाव उभर आए, मानो किसी बात को ले कर उस के मन में उथलपुथल मची हो. हिम्मत टूटती सी लगी, पैर जवाब देने लगे. लेकिन उस ने शीघ्र ही अपने आपको संभाला और बच्चे की ओर देखते हुए बोला, ‘‘बेटा, यही है लालकिला, जहां मलिका-ए-आलम गुलबदन रहती हैं. हम लोग यहां तक आ तो गए, पर कह नहीं सकता कि मलिका-ए-हिंद से मिल भी पाएंगे या नहीं.
‘‘यदि किसी प्रकार मिल भी गए, तो यह निश्चित नहीं कि हमें सजा-ए-मौत मिलेगी या मलिका-ए-हिंद का प्यार. फिर भी कोशिश कर के देखते हैं. क्या पता, भाग्य साथ दे जाए.’’
बच्चा सहमासहमा सा था. एकदम शांत और गंभीर.
आने वाले क्षणों की कल्पना में डूबा बूढ़ा बच्चे की अंगुली थामे संतरियों के पास तक जा पहुंचा. कोई और व्यक्ति रहा होता, तो शायद संतरी उसे भगा देते, लेकिन मुगल सल्तनत में पीरफकीरों की काफी कद्र थी. शायद इसीलिए उन्होंने बूढ़े के आगमन पर कोई आपत्ति नहीं की. बल्कि अदब से पूछा, ‘‘बाबा, कैसे तशरीफ लाए?’’
‘‘हमें सरदार मंसूर से मिलना है.’’ बूढ़ा फकीर बोला.
ख्वाजासराओं का सरदार मंसूर शाही अंगरक्षक दल का सेनापति था. सरदार मंसूर का नाम सुनते ही किले के कर्मचारियों की सांसें रुक जाती थीं. संतरी चौंके. बूढ़े फकीर को सरदार मंसूर से क्या काम पड़ गया? उन्हें यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई. संतरियों ने मुख्यद्वार के रक्षक को बुलाया और बूढ़े फकीर के चेहरे को विस्मय से देखा, मानो वह मौत का वरण करने शेर की मांद में जा रहा हो. बूढ़े के चेहरे पर अनोखी दृढ़ता थी, साथ ही संतोष भी. रक्षक ने इशारा किया, तो बूढ़ा बच्चे की अंगुली थामे उस के पीछेपीछे चल दिया.
मुख्यद्वार से आगे एक और द्वार था- लाल पत्थर का विशाल द्वार. इसी द्वार के ऊपरी हिस्से में बने विशाल कक्ष में ख्वाजासरा सरदार शीदी मंसूर रहता था. घुमावदार सीढि़यां पार कर के रक्षक बूढ़े को ऊपर बने एक विशेष कक्ष में ले गया. यह कक्ष आगंतुकों के बैठने के लिए था. सरदार मंसूर उसी कक्ष में आगंतुकों से मुलाकात करता था. शाही सज्जा से युक्त उस कक्ष की छवि दर्शनीय थी. दरवाजों पर झूलती मोतीमणिकों की लडि़यों को देख बूढ़े और बच्चे की आंखें चुंधिया गईं.
उसी कक्ष से जुड़ा एक और कक्ष था, जिस के दरवाजे पर सुनहरी बेलबूटों से कढ़ा मखमली परदा झूल रहा था. रक्षक ने बूढ़े को उसी कक्ष में बैठा कर दूसरे कक्ष के दरवाजे पर दस्तक दी. परदे के पीछे से एक हब्शी गुलाम ने झांक कर देखा और अंदर चला गया. पलभर बाद उस ने परदे के पीछे से फिर झांका और रक्षक को कोई इशारा किया. रक्षक अंदर चला गया. कुछ देर बाद रक्षक परदे से बाहर आया और बूढ़े से यह कहता हुआ चला गया कि ख्वाजासरा सरदार शीदी तशरीफ ला रहे हैं. बूढ़ा फकीर संभल कर बैठ गया. उस के चेहरे पर भय की हल्की सी छाया उतर आई. उस ने बच्चे को अपने आप से सटा कर बैठा लिया.
मखमली परदा हिला और सरदार मंसूर ने कक्ष में प्रवेश किया. अधेड़ उम्र का सरदार मंसूर दाढ़ीविहीन था. क्रूर चेहरा, शोले सी दहकती आंखें, गंजा सफाचट सिर. बूढ़े फकीर ने न तो उसे आदाब किया और न डर का ही कोई भाव दिखलाया. वह निश्चल बैठा रहा. सरदार मंसूर ने बूढ़े के चेहरे पर चुभती नजरडाल कर पूछा, ‘‘किसी खानकाह के मुजाबिर लगते हैं आप?’’
‘‘हां सरदार, मैं फतेहपुर-सीकरी की खानकाह का मुजाबिरआला हूं.’’ बूढ़ा बोला.
‘‘मौलवी साहब, मुझ से मिलने की वजह बताने के पहले आप का यह जान लेना जरूरी है कि मुझ से खास वजह से ही कोई मिलता है.’’ होठों पर विषैली मुस्कराहट लाते हुए सरदार मंसूर बोला.
‘‘मैं जानता हूं, जनाबेआली. मुझे वाकई बहुत जरूरी काम है. इसीलिए जनाब को तकलीफ दी है.’’ बूढ़ा फकीर अपने आप को संभालते हुए बोला.
‘‘फरमाइए,’’ सरदार मंसूर की खूंख्वार नजर फिर बूढ़े के चेहरे पर जम गई.
बूढ़े मुजाबिर ने सरदार मंसूर के चेहरे की पैशाचिकता को तोलते हुए कहा, ‘‘सरदार आली, मैं मलिका-ए-बेगम गुलबदन के दरबार में पेश होना चाहता हूं. मेरा काम उन्हीं से है. अगर परेशानी न हो तो मलिका-ए-आलम के हुजूर में इत्तला कर दें.’’
मलिका-ए-जमानी गुलबदन, हिंद की साम्राज्ञी. शहंशाह जहांदारशाह की बेगम-ए-खास. वह बेगम गुलबदन जिस के हुक्म की पूरी मुगलिया सल्तनत मोहताज थी. जिस की आंख से बादशाह-ए-हिंद जहांदारशाह अपनी हुकूमत को देखता था, जिस के कानों से प्रजा की आवाज सुनता था.
गुलबदन का नाम सुन कर सरदार मंसूर चौंका, फिर आंखों को एक खास अंदाज में सिकोड़ते हुए बोला, ‘‘मलिका-ए-बेगम से मिलोगे? लेकिन क्यों? क्या काम है बेगम-ए-खास से?’’
‘‘यह मैं उन्हीं से अर्ज करूंगा.’’ बूढ़े फकीर ने दृढ़ स्वर में कहा.
‘‘अर्ज तो तब करोगे मौलवी साहब, जब मलिका-ए-हिंद तक पहुंच पाओगे. बिना मेरी इजाजत के इस द्वार से आगे आप नहीं जा सकते और मेरे लिए शहंशाह-आलम का हुक्म है कि किले से ताल्लुक रखने वाली गुप्त से गुप्त बात भी मुझे मालूम होनी चाहिए. आप को अगर बेगम गुलबदन से मिलना है, तो मिलने का मकसद मुझे बताना ही पड़ेगा.’’ सरदार मंसूर की आवाज में तल्खी थी.
‘‘मैं मजबूर हूं जनाब-ए-आली, वह राज मैं आप को नहीं बता सकता.’’ बूढ़े ने कहा.
सरदार मंसूर त्यौरी चढ़ा कर बूढ़े की आंखों में झांकते हुए बोला, ‘‘साईं बाबा, सल्तनते मुगलिया का कोई राज हम से छिपा नहीं है. चाहे वह बेगम-ए-खास का हो या जहांपनाह आलम का. आप भी मिलने का मकसद बताए बिना जिंदगी भर बेगम-ए-खास से नहीं मिल सकेंगे.’’
सरदार मंसूर की बात सुन कर बूढ़ा मुजाबिर असमंजस में फंस गया. न तो वह बेगम गुलबदन से मिलने का राज उसे बता सकता था और न बिना बताए गुलबदन से मिल सकता था.
मुजाबिर सोचविचार में डूबा था कि सरदार मंसूर की विषैली हंसी कमरे में गूंज उठी. वह बोला, ‘‘बुजुर्गवार, तुम शायद यह नहीं जानते कि सरदार मंसूर के पास पहुंचना कोई मुश्किल नहीं, पर उस के पास से लौटना बहुत मुश्किल है. मेरे एक इशारे पर तुम्हें उम्र भर के लिए किले के उस तहखाने में कैद किया जा सकता है, जिस में पहुंचने के बाद कोई जिंदा वापस नहीं लौटता.
‘‘तुम्हें बेगम गुलबदन से क्या काम है, मुझे बताना ही पड़ेगा. मेरे लिए शहंशाह और मलिका-ए-जमानी से ताल्लुक रखने वाली हर बात का जानना जरूरी है. यह भी तो हो सकता है कि तुम्हारे मन में कोई पाक इरादा न हो?’’
दरअसल, बूढ़े मुजाबिर की अब तक की बातों और चेहरे के हावभाव देख कर चतुरचालाक मंसूर यह समझ चुका था कि मुजाबिर किसी खास राज से बेगम को वाकिफ कराना चाहता है.
यह घटना उन दिनों की है, जिन दिनों मुगल साम्राज्य की जड़ें खोखली हो चुकी थीं. बादशाह जहांदारशाह सुरा और सुंदरी के नशे में डूबा रहता था. राजकाज के सारे काम मुगल साम्राज्ञी बेगम गुलबदन देखती थी.
किले का हर खास ओहदेदार बादशाह और बेगम की कमजोरियों से लाभ उठाने की कोशिश करता रहता था. सरदार मंसूर भी इसी लिए मुजाबिर के दिल की बात जानना चाहता था कि क्या पता मलिका-ए-हिंद की कोई दुखती रग हाथ लग जाए.
जान बचने का कोई रास्ता न था. बात केवल अपनी होती तो शायद बूढ़ा मुजाबिर परवाह न करता, लेकिन सवाल उस नन्हीं जान का था, जिसे उस बूढ़े ने 12 वर्ष से अपने सीने से लगा रखा था. इसीलिए मुजाबिर को मुंह खोलना पड़ा, ‘‘जनाब-ए-आली, यह जो बच्चा आप देख रहे हैं, यह बेगम गुलबदन का है. उन की अमानत मैं उन्हें सौंपना चाहता हूं.’’
सरदार मंसूर चौंका. फिर एकाएक त्यौरियां चढ़ा कर बोला, ‘‘क्या कहा, मलिका-ए-हिंद का बच्चा तुम्हारे पास? पागल हो गए हो तुम? बादशाह आलम तो बेऔलाद हैं. बेगम की गोद अभी तक सूनी है. फिर बच्चा कहां से आ गया?’’
‘‘यह एक गहरा राज है सरदार-ए-आली, जिसे मैं पिछले 12 सालों से अपने सीने में छिपाए हूं. सच मानिए, यह बच्चा बेगम की कोख से ही जन्मा है. इसे देखते ही बेगम को सब कुछ याद आ जाएगा.’’ मुजाबिर बोला.
सरदार मंसूर ने बालक के चेहरे पर एक चुभती नजर डाली. उस की शक्ल हूबहू बेगम गुलबदन से मिलती थी. मंसूर विस्मित रह गया.
मंसूर को मुजाबिर की बात में सच्चाई महसूस हुई, फिर भी मुजाबिर को तोलने के लिए उस ने पूछा, ‘‘इस बच्चे की शक्ल हूबहू बेगम से मिलती है. यह इत्तफाक है और तुम इस इत्तफाक से फायदा उठाना चाहते हो. मौलवी हो कर शर्म नहीं आती तुम्हें, इस गुस्ताखी की सजा जरूर मिलेगी.’’
‘‘अगर मैं गलत हूं, तो जरूर सजा दीजिए, सरदार-ए-आली! लेकिन इस से पहले आप इस बच्चे के गले में बंधे मुहरबंद खरीते को खोल कर देखिए. इस खरीते में जो कागज है उस में पूरा वाकया लिखा है, बेगम-ए-आली की लिखावट में.’’ बूढ़े मुजाबिर ने दृढ़ता से कहा.
सरदार मंसूर ने बालक के गले से खरीता (ताबीज) खोल लिया और उस के अंदर रखा कागज निकाल कर पढ़ा. मंसूर मुगल साम्राज्ञी गुलबदन की लिखावट पहचानता था. सचमुच उस कागज में गुलबदन की ही लिखावट थी.
उस कागज को पढ़ते ही सरदार मंसूर के चेहरे पर विचित्र भाव उभर आए. आंखें शैतानी चमक से सिकुड़ गईं. वह मुजाबिर की ओर मुखातिब हो कर बोला, ‘‘सांई बाबा, आप ने यह राज और कितने लोगों को बताया है?’’
‘‘इस राज को मेरे, बेगम गुलबदन और इस बच्चे के अलावा कोई चौथा नहीं जानता.’’ मुजाबिर बोला.
‘‘ठीक है, पूरा वाकया सिलसिलेवार बताइए, ताकि मैं आप का मकसद समझ सकूं. उस के बाद मैं आप को बेगम-ए-खास से मिला दूंगा.’’ सरदार मंसूर ने नम्र होते हुए कहा.
एक पल तक चुप्पी छाई रही. फिर बूढ़े मुजाबिर ने गहरी सांस छोड़ी और बच्चे के चेहरे पर निगाह डाल कर बताना शुरू किया, ‘‘बात अब से 12-13 वर्ष पहले की है. तब, जबकि तख्तेताऊस पर जहांपनाह, शंहशाह-ए-आलम, बहादुरशाह (प्रथम) 1707-1712 ई. का रुतबा था. शहजादे जहांदारशाह ने यौवन की पहली सीढ़ी पर पांव रखा ही था. मैं तब भी फतेहपुर-सीकरी की पाक दरगाह का मुजाबिर आला था.
‘‘उन दिनों आगरा की मशहूर तवायफ सज्जोबाई की रजवाड़ों तक धूम थी. जयपुर, जोधपुर और उदयपुर के महाराजाओं की महफिलों की शान थी सज्जोबाई. सज्जोबाई की एक लड़की थी, रूपिका, जिसे लोग रूपा भी कहते थे.
‘‘रूपा जब 15 वर्ष की थी, तभी सज्जोबाई ने उस के पैरों में घुंघरू बांध कर उसे सरेमहफिल खड़ा कर दिया था. नर्तकी मां की नर्तकी बेटी रूपा रूप का लहरातागहराता सागर थी.
‘‘रूपा पैरों में घुंघरू बांध कर जब शाही महफिलों में उतरी, तो कई राजकुमारों के दिल तड़प कर उस के कदमों में आ गिरे. लेकिन रूपा नहीं गिरी. वह तवायफ की बेटी जरूर थी, पर नापाक दामन नहीं. सोने के सुनहरे सिक्के उस के रूप को छलने में नाकाम रहे. लेकिन फिर भी वह छली गई. वह भी ऐसे युवक के हाथों, जिसे उस ने तनमनधन से प्यार किया.
‘‘सज्जोबाई ने रूपिका को बहुत समझाया, पर वह नहीं मानी. उस ने अपने दिलवर के कदमों में अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया. दिलवर की बेवफाई के बाद भी उस की याद को अपने सीने में कायम रखने के लिए रूपा ने 18 वर्ष की उम्र में उस के प्यार की निशानी को जन्म दिया.
‘‘जब रूपा का बच्चा केवल 2 माह का था, तो आगरा और उस के आसपास के इलाकों में जाटों का उपद्रव शुरू हो गया. जाटों की फौज ने आगरा पर हमला कर दिया. इसी हमले में रूपा की दौलत ही नहीं लुटी, बल्कि वह बेघर भी हो गई.
‘‘आगरा की सारी तवायफें जाटों के हाथ लुटपिट कर इधरउधर भाग निकलीं. सज्जोबाई उपद्रवियों के हाथ मारी गई. लेकिन रूपा 2 माह की नन्ही सी जान को सीने से लगा कर शाम के धुंधलके में लुकछिप कर आगरा से भाग निकली.
‘‘वक्त की मारी रूपा पर खुदा ने भी रहम नहीं किया. उसी रात भयानक तूफान आया और तेज बारिश हुई. निर्जन जंगल में मासूम जान को सीने में छिपा कर कमसिन रूपा ने बारिशतूफान का कैसे मुकाबला किया होगा, अल्लाह ही बेहतर जाने.’’
‘‘बहरहाल, उस दिन सुबह जब मैं वजू के लिए उठा, तो मैंने खानकाह के सदर दरवाजे पर एक बेइंतहा खूबसूरत लड़की को बेहोश पड़े देखा. उस के भीगे हुए दामन में छोटा-सा बच्चा लिपटा था. मैंने दूसरे मुजाबिरों को बुलाया और उस लड़की को उठा कर खानकाह में ले गया.
‘‘रूपा पहले कई बार अपनी मां सज्जोबाई के साथ दरगाह में आई थी. खानकाह के कई मुजाबिर उसे पहचानते थे. उन्होंने ही मुझे बताया कि वह आगरा की मशहूर तवायफ रूपा है.
‘‘होश आने पर रूपा ने मुझे सारी आपबीती सुना कर पनाह मांगी. दरगाह के कायदेकानून के मुताबिक मैं रूपा को पनाह न देने के लिए मजबूर था. हां, उस के बच्चे को जरूर पनाह दे सकता था.
‘‘रूपा ने अपना बच्चा मेरी गोद में डाल दिया और कदमबोसी कर के रोते हुए बोली, ‘‘साईं बाबा, मैं नहीं जानती मौत का शैतानी पंजा मुझे कब निगल जाएगा. मैं बड़ी अभागी औरत हूं बाबा, जो अपनी कोख से जन्मी इस नन्ही सी जान की हिफाजत भी नहीं कर सकती. मैं इसे आप की झोली में डाल रही हूं. मुनासिब हो तो इस की हिफाजत करना.’’
‘‘मुझे रूपा की हालत से हमदर्दी थी. मैं ने उस के बच्चे को संभालने का वादा किया. साथ ही वक्तजरूरत के लिए रूपा से सारे वाकए का मजमून लिखवा कर खरीते में भरने के बाद बच्चे के गले में बंधवा दिया. रूपा के सामने ही उस खरीते को मुहरबंद किया गया.
‘‘बाद में रूपा भटकतेभटकते किसी तरह दिल्ली पहुंची. नृत्यकला में वह बेजोड़ थी. साथ ही अपने पेशे में भी हुनरमंद थी. शाही घरानों और बादशाह के रूबरू रूपा ने अपने हुनर का इस्तेमाल किया और दिल्ली शहंशाह-ए-हिंद के दरबार में जगह पा ली.
‘‘जहांपनाह बहादुरशाह ने एक बार रूपा का नाच देखा, तो उस पर लट्टू हो गए. उन्होंने उसे धनदौलत ही नहीं दिया, बल्कि किले में रहने के लिए एक कक्ष भी दे दिया.
‘‘शहजादे जहांदारशाह ने शाही महलों में रूपा को नाचते देखा, तो उस का दीवाना हो गया. उस के दीवानेपन को देख रूपा ने मौके का भरपूर लाभ उठाया. वह चोरीछिपे जहांदारशाह से प्यार का नाटक खेलने लगी.
‘‘कुछ दिनों बाद जहांदारशाह तख्तेताऊस पर बैठा, तो सब से पहले उस ने रूपा को अपनी बेगम-ए-खास बनाया और उस का नाम गुलबदन रखा. चूंकि रूपा का बच्चा मेरे पास था, अत: मैं उस के बारे में पता लगाता रहता था. यह बातें मुझे शाही दरबार के ही कुछ लोगों से पता चली थीं.
‘‘चूंकि रूपा हिंद की साम्राज्ञी गुलबदन बन चुकी थी, अत: उस ने अपनी पिछली जिंदगी को भुला देना ही बेहतर समझा होगा. हो सकता है, उस ने जहांदारशाह से भी पिछली बातों को छिपाया हो. बहरहाल, अब मैं रूपा की अमानत उसे सौंपने आया हूं.’’
बूढ़े मुजाबिर के मुंह से सारी बातें सुनने के बाद सरदार मंसूर को पक्का विश्वास हो गया कि वह बच्चा बेगम गुलबदन का ही है. 10-12 वर्ष पहले के सारे दृश्य उस की आंखों के सामने घूम गए. तब वह रक्षकदल का सेनापति नहीं बल्कि मामूली ओहदेदार था.
17-18 वर्ष की खूबसूरत नर्तकी रूपा शहंशाह-ए-हिंद का मन बहलाने शाही महफिल में आई थी और बादशाह सलामत का दिल जीत कर उन की महफिल की शान बन गई थी.
रूपा और शहजादे जहांदारशाह के प्यार के किस्से भी मंसूर ने सुने थे. फिर मंसूर को यह भी याद था कि बादशाह-ए-हिंद की गद्दी पर बैठते ही जहांदारशाह ने रूपा को बेगम-ए-खास का दर्जा दिया था और उस का नाम रूपा से बदल कर गुलबदन रख दिया था.
गुलबदन चतुरचालाक थी. उस ने जहांदारशाह को सुरा और शबाब के नशे में ऐसा डुबोया कि उसे चारों ओर गुलबदन ही गुलबदन नजर आने लगी. उस पर जहांदारशाह अटूट विश्वास करने लगा था.
यहां तक कि विलासिता के गर्त में डूबे जहांदारशाह ने मुगलिया सल्तनत के सभी कामों की जिम्मेदारी गुलबदन को सौंप दी थी. जहांदारशाह नाम का बादशाह रह गया था, जबकि सल्तनत की बागडोर गुलबदन के हाथों में थी.
सरदार मंसूर सोचने लगा कि शहंशाह-ए-आलम गुलबदन के हाथों में हैं और अगर गुलबदन मेरे हाथों में आ जाए तो… गुलबदन को जब यह मालूम होगा कि मैं उस की जिंदगी का एक ऐसा राज जान गया हूं, जिस से वह बादशाह-ए-हिंद की नजर से गिर सकती है और उसे मौत की सजा भी मिल सकती है, तो वह जरूर मेरे हाथों का खिलौना बन जाएगी. सरदार मंसूर के दिमाग में शैतान नाचने लगा.
उस दिन बादशाह-ए-आलम जहांदारशाह की तबीयत कुछ नासाज थी. वह अपने विशेष कक्ष में आराम फरमा रहे थे. बेगम गुलबदन इंितयाज महल में थी. यह बात मंसूर को मालूम थी.
बूढ़े मुजाबिर और बच्चे को उसी कक्ष में बैठा कर सरदार मंसूर अपने निजी कक्ष से होता हुआ दूसरे रास्ते से इंितयाज महल पहुंचा. बेगम गुलबदन महल में थीं. बाहर पहरे पर दासी थी. सरदार मंसूर ने दासी से बेगम गुलबदन के पास संदेश भिजवाया, ‘‘सरदार-ए-आला मंसूर मलिका-ए-जमानी के हुजूर में पेश होना चाहते हैं.’’
दासी अंदर गई और 2 पल बाद बाहर आ कर बोली, ‘‘सरदार-ए-आला, मलिका-ए-हिंद ने आप को महल में तशरीफ लाने का हुक्म दिया है.’’
दासी ने परदा हटाया, तो सरदार मंसूर निस्संकोच इतियाज महल में प्रवेश कर गया. बेगम गुलबदन महल के बीच से बहने वाली नहर-ए-बहिश्त के किनारे बैठी कंकड़ फेंकफेंक कर नीले जल से खिलवाड़ कर रही थीं. उन के दाएंबाएं बैठी 2 दासियां उन के फेंके हुए कंकड़ों को नहर से निकाल कर फिर उन के सामने रखती जा रही थीं. मंसूर को देखते ही गुलबदन ने कंकड़ फेंकना बंद कर के उस की ओर देखते हुए पूछा, ‘‘कहो सरदार-ए-आला, कैसे तशरीफ लाए?’’
सरदार मंसूर ने झुक कर सात बार कोर्निश की, फिर बेगम के कमसिन चेहरे को तोलता हुआ बोला, ‘‘जिल्लेसुभानी, फतेहपुरसीकरी की पाक दरगाह से एक बूढ़ा मुजाबिर तशरीफ लाया है, जो आप के दरबार में पेश होना चाहता है. साथ में एक बच्चा भी है. अगर आप हुक्म दें, तो दरबार में पेश करूं?’’
‘फतेहपुर सीकरी की दरगाह का मुजाबिर? साथ में एक बच्चा?’ सरदार मंसूर की बात सुन कर बेगम गुलबदन का चेहरा फक पड़ गया. लेकिन दूसरे पल ही गुलबदन ने अपने आप को संभालकर मंसूर से पूछा, ‘‘कहां हैं वे लोग?’’
‘‘हमारे रिहायशी कक्ष में बैठे हैं.’’
‘‘ठीक है, हम वहीं तशरीफ ला रहे हैं.’’ बेगम गुलबदन ने बुझे स्वर में कहा.
सरदार मंसूर वापस चला गया. बेगम गुलबदन एक सरदार के रिहायशी कक्ष में जाए, यह हिमाकत की बात थी. लेकिन गुलबदन ने मंसूर के कक्ष में जा कर ही बातें करने का फैसला किया था. साफ जाहिर था कि बेगम की कमजोरी उसे अपने महल से बाहर किसी से बातें करने को मजबूर कर रही थीं. मंसूर समझ गया.
2 पल बाद बेगम गुलबदन सरदार मंसूर के रिहायशी कक्ष में जा पहुंचीं. मंसूर वहां नहीं था. वह समझ गईं कि वह मुजाबिर के पास होगा. मंसूर के कक्ष से निकल कर बेगम गुलबदन ने परदा हटा कर उस कक्ष में प्रवेश किया, जहां बूढ़ा मुजाबिर बच्चे के साथ बैठा था. सरदार मंसूर भी वहीं था. उस ने उठ कर बेगम गुलबदन को सात बार कोर्निश की. बूढ़े मुजाबिर ने देखा, वह रूपा ही थी, आज की मलिका-ए-हिंद गुलबदन. लेकिन इस गुलबदन और 12 साल पहले की रूपा में जमीनआसमान का फर्क था.
उस वक्त मुजाबिर ने एक मजबूर, असहाय औरत का रूप देखा था और यह रूप अहंकार में डूबी एक साम्राज्ञी का था. कहां वह सीधीसादी मामूली से लहंगे में लिपटी रूपा और कहां हीरेजवाहरात में लदीफंदी बेगम गुलबदन. लेकिन उस के रंगरूप में इतने बरसों के बाद भी कोई फर्क नहीं आया था. वैसा ही तेजस्वी रूप, सांचे में ढला अंगअंग. बेगम गुलबदन ने एक नजर बूढ़े मुजाबिर को देखा और फिर बच्चे को. उस की नजर अपने ही प्रतिबिंब पर चिपक कर रह गई. बच्चा हूबहू उसी की शक्ल पर गया था. दुनिया के लिए गुलबदन कितनी भी कठोर रही हो, पर अपने ही कलेजे के टुकड़े को सामने देख वह अपने आप को संभाल नहीं पाई.
नारी मन के किसी कोने में ममत्व टीस उठी. टीस असहनीय थी. एक पल के लिए गुलबदन भूल गई कि वह हिंद की साम्राज्ञी है. उसे लगा कि वह साम्राज्ञी नहीं, मां है-सिर्फ एक मां. ममत्व भाव से द्रवित हो कर गुलबदन ने उस मासूम बच्चे को अपने सीने से लिपटा लिया. बच्चा भी ‘अम्मी…अम्मी’ चीखता हुआ अमरबेल सा गुलबदन से लिपट गया. लेकिन दूसरे पल ही गुलबदन को अपनी गलती का एहसास हुआ. अगर यह बात बादशाह आलम के कानों तक पहुंच गई तो? बादशाह के कोप का मतलब था सजा-ए-मौत या उम्रकैद. वह जानती थी कि सरदार मंसूर यह बात शहंशाह-ए-आलम के कानों तक पहुंचा सकता है. दूसरे ही पल गुलबदन ने एक झटके से बच्चे को अपने आप से अलग कर दिया.
सरदार मंसूर पास खड़ा लाचार बेगम की इस कमजोरी को देख कर मंदमंद मुस्करा रहा था. बेगम गुलबदन ने मंसूर से मुजाबिर और बच्चे को दूसरे कक्ष में ले जाने को कहा. मंसूर ने ताली बजाई. परदे के पीछे से ख्वाजासरा बाहर आए और मंसूर का इशारा पाते ही मुजाबिर और बच्चे को दूसरे कक्ष में ले गए. अब उस कक्ष में केवल गुलबदन और सरदार मंसूर ही थे. गुलबदन ने मंसूर की ओर देखा, तो उस के चेहरे पर फैली क्रूर मुस्कान देख कर वह सिहर उठी. गुलबदन बेबसी की आवाज में बोली, ‘‘सरदार-ए-आला, हम अब तुम्हारे हवाले हैं. तुम हमारा राज जानते हो. इस राज की पोशीदगी के लिए हम हर कीमत चुकाएंगे. लेकिन यह बात शहंशाह-ए-आलम के कानों तक नहीं पहुंचनी चाहिए.’’
‘‘खाकसार मलिका-ए-आलम का गुलाम है. चाहें तो खाल की जूतियां बनवा लें. आप चिंता न करें जिल्ला सुभानी, यह राज ताउम्र खाकसार के सीने में दफन रहेगा.’’ सरदार मंसूर ने बेगम की कदमबोसी करते हुए कहा.
गुलबदन चिंता व्यक्त करते हुए बोली, ‘‘तुम पर तो विश्वास किया जा सकता है सरदार, पर उन दोनों का क्या भरोसा है. अगर उन लोगों ने यह बात किसी और के सामने कही तो क्या होगा?’’
‘‘इस का एक ही तरीका है बेगम-ए-आला.’’
‘‘क्या?’’
‘‘उन दोनों को उम्र भर के लिए तहखाने में कैद कर दिया जाए.’’ मंसूर ने अपने चेहरे पर कठोरता लाते हुए कहा.
‘‘उम्रकैद!’’ गुलबदन चौंकी. जिस सजा के डर से वह अपने ही बच्चे को नकार रही थी, वही सजा अपने कलेजे के टुकड़े को दे? वह जानती थी कि लालकिले की विशाल इमारत के नीचे बने तहखाने में एक ऐसी दुनिया आबाद है, जो नरक से भी बदतर है. जहां शाही कोप के शिकार कैदी रखे जाते हैं. एक बार तहखाने में जाने के बाद हमेशाहमेशा के लिए बाहरी दुनिया से उन का ताल्लुक खत्म हो जाता है. अभी बेगम गुलबदन सोच में ही डूबी थी कि मंसूर ने नया पैंतरा बदला, ‘‘बेगम-ए-आला, यह सजा ठीक नहीं तो फिर दोनों की आंखें निकलवा, जुबान कटवा कर छोड़ दूं. आप के हुक्म की देर है.’’
मंसूर की बात सुन कर गुलबदन को अपनी ही आंखों में लोहे की गर्म सलाखें घुसती सी लगीं. वह चीख पड़ी, ‘‘नहींनहीं, इस से तो मौत बेहतर है.’’
‘‘हां, मौत ही बेहतर है. इस राज को मौत ही अपने सीने में छिपा सकती है जिल्ले सुभानी?’’ मंसूर धूर्तता से बोला.
‘‘हम हुक्म देते हैं सरदार-ए-आला, तुम इस राज को हमेशाहमेशा के लिए धरती के सीने में दफन कर दो.’’ गुलबदन एक ही सांस में कह गई.
स्वयं मंसूर भी यही चाहता था, ताकि बाद में वह बेगम को मनमाना नचा सके. उस ने एक पल भी देर करना उचित नहीं समझा. उस ने गुलबदन को सात बार कोर्निश की और उस कमरे से बाहर निकल गया. गुलबदन ने कत्ल की इजाजत तो दे दी थी, पर मां के मन की ममता तड़प उठी थी. वह वहीं फर्श पर गिर कर बिलख पड़ी. सरदार मंसूर दूसरे कक्ष में पहुंचा, जहां ख्वाजासराओं से घिरे मुजाबिर और बच्चा अपनी जिंदगी का फैसला सुनने का इंतजार कर रहे थे. कक्ष में पहुंचते ही मंसूर ने ख्वाजासराओं को एक खास इशारा किया. उस का इशारा पाते ही 7-8 ख्वाजासराओं ने बूढ़े मुजाबिर और बच्चे को दबोच लिया और घसीटते हुए तहखाने की ओर ले चले.
सीढि़यां उतरने के बाद नीचे अंधेरा बरामदा था और बरामदे के अंितम छोर पर लोहे का फाटक लगा था. एक ख्वाजासरा ने लोहे का दरवाजा खोला. शेष ख्वाजासरा बूढ़े और बच्चे को ले कर उस फाटक में घुस गए. उन सब के पीछेपीछे सरदार मंसूर चल रहा था. उस सींखचेदार लोहे के फाटक से आगे 4 सीढि़यां उतरने के बाद तहखाना शुरू होता जाता था. बदबू, सीलन और तंग रास्तों वाला अंधेरा तहखाना, जिस में हजारों कैदी भरे पड़े थे और काले पत्थर की मूर्तियों की तरह सीना ताने खड़े बेजुबान हब्शी और तातारी गुलाम उन की निगरानी के लिए 2-2 गज के फासले पर खड़े थे. तहखाने का फर्श पत्थर का जरूर था, पर सीलन काफी थी. रास्ते आदि का अनुमान लगाने के लिए कई जगह हल्के प्रकाश की भी व्यवस्था थी.
ख्वाजासरा बूढ़े और बच्चे को घसीटते हुए कई घुमावदार रास्तों को पार कर के तहखाने के आखिरी छोर पर ले गए. तहखाने के आखिरी छोर पर 8-10 सीढि़यां थीं, जिन्हें उतरने के बाद एक संकरी सुरंग आगे तक गई थी. यह सुरंग मौत की घाटी के नाम से जानी जाती थी. मौत की यह घाटी पृथ्वी के गर्भ में, जमुना नदी के नीचे थी. उस अंधेरी सुरंग में काफी नमी और बदबू थी. कहींकहीं पानी और कीचड़ भी था. सुरंग की ऊपरी दीवारों से कहींकहीं पानी की बूंदें टपक रही थीं. शाही कोप का शिकार होने के बाद इस खौफनाक वातावरण में न जाने कितने अभागों की चीखें गूंजती थीं और न जाने कितने बेगुनाह लोग वहां तिलतिल गल कर दम तोड़ते थे.
जिस जगह सुरंग समाप्त होती थी, उसी जगह लोहे का सींखचेदार एक विशाल फाटक था, जो एक कमरे में खुलता था. कमरा खाली था. वहां पहुंचते ही एक ख्वाजासरा ने उस फाटक को धक्का दिया, तो वह झनझना कर खुल गया. सरदार मंसूर सहित सब लोग उस कमरे में घुस गए. उस कमरे के बीचोंबीच मुंडेर पर टिका तथा लोहे की 4 जंजीरों से जकड़ा लकड़ी का एक भारीभरकम गोल तख्ता रखा था. सरदार मंसूर के इशारे पर 2-3 ख्वाजासराओं ने तख्ता हटा दिया. उस तख्ते के नीचे एक गहरा, अंधा कुआं था. आने वाले क्षणों की कल्पना कर के बूढ़ा मुजाबिर मन ही मन सिहर उठा और उस ने बच्चे को अपने सीने में छिपा लिया. बच्चा डर कर बूढ़े से लिपट गया.
बूढ़े मुजाबिर को अपनी उस भूल पर दुख हुआ, जो उसे फतेहपुर-सीकरी से दिल्ली खींच लाई थी. दरअसल मुजाबिर ने सोचा था कि जहांदारशाह निस्संतान है और बेगम गुलबदन के इशारों पर नाचता है. क्या पता ऐसी स्थिति में गुलबदन अपने बच्चे के लिए कोई रास्ता निकाले, लेकिन ऐसा सोच कर उस ने कितनी बड़ी भूल की, इस बात का एहसास उसे अब हुआ था. मौत का पंजा सिर पर लहराते देख बूढ़े मुजाबिर ने गंभीर आवाज में सरदार मंसूर से प्रार्थना की, ‘‘हजरत-ए-आला, कसूरवार मुजाबिर है. कहरइलाही और आजाबशाही उसी पर गिरना चाहिए. इस मासूम जान का कोई कसूर नहीं सरदार-ए-आला, इस की जान बख्शी जाए.’’
सरदार मंसूर पर बूढ़े मुजाबिर की बात का कोई असर न हुआ, बल्कि वह अट्टहास करते हुए भयानक हंसी हंसने लगा. उसे इस तरह हंसता देख बच्चे ने डर कर मुजाबिर के सीने में मुंह छिपा लिया. उसी समय सरदार मंसूर ने एक पत्थर उठा कर कुएं में फेंका. पत्थर कुएं की दीवारों से टकरा कर विचित्र आवाज करता हुआ छपाक से पानी में जा गिरा. मंसूर की इस हरकत ने बड़ी भयावह स्थिति पैदा कर दी थी. आने वाले पलों की कल्पना कर के मुजाबिर और बच्चे के दिलोदिमाग में एक सर्द सिहरन उतर गई थी.
मुजाबिर और बच्चा अभी उस भयावह स्थिति से उबर भी न पाए थे कि मंसूर ने ख्वाजासराओं को एक खास इशारा किया. इशारा पाते ही ख्वाजासराओं ने मुजाबिर और बच्चे को हाथों पर उठा लिया और कुएं की ओर ले चले. उन दोनों की चीखें सुरंग की दीवारों में टकरा कर अंधे कुएं में समाने लगीं.
ठीक उसी समय एक रोबीले नारी स्वर से सुरंग की दीवारें दहल उठीं, ‘‘ठहरो!’’
ख्वाजासराओं के पैर बंध गए. सरदार मंसूर आश्चर्य में रह गया. मुजाबिर और बच्चे की चीखें थम गईं. सब ने देखा, हाथ में मशाल लिए सुरंग के दरवाजे पर मलिका-ए-हिंद, गुलबदन खड़ी थी. उस की आंखें क्रोध से अंगारे की तरह दहक रही थीं. गुलबदन का इशारा पाते ही ख्वाजासराओं ने मुजाबिर और बच्चे को छोड़ दिया. गुलबदन ने इशारा कर के उन्हें अपने पास बुलाया. बेगम के इस हृदय परिवर्तन पर मंसूर आश्चर्यचकित था, साथ ही परेशान भी. बच्चे के पास आते ही गुलबदन ने तड़प कर उसे अपने सीने में समेट लिया और उस के माथे को चूमती हुई बोली, ‘‘मुझे माफ करना मेरे लाल, मैं बहुत बदनसीब हूं. तेरी मां हो कर भी तेरी हिफाजत न कर सकी. लेकिन मैं अपने हाथों से तुझे सजा-ए-मौत भी नहीं दे सकती.’’
बच्चे का माथा चूमने के बाद गुलबदन ने असहाय दृष्टि से मुजाबिर की ओर देखा और सिसकते हुए बोली, ‘‘साईं बाबा, आप महान हैं. आप ने अपना वादा निभा कर मुझ पर जो एहसान किया, उसे मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकती. मुझे माफ करना बाबा, मैं सरदार मंसूर की बातों में आ कर गुमराह हो गई थी.
‘‘12 साल पहले मैं ने इस मासूम को आप की झोली में डाला था. मैं एक बदनसीब मां हूं बाबा, इस मासूम की हिफाजत तक नहीं कर सकती. इसे यहां से दूर ले जाओ और यह राज हमेशाहमेशा के लिए अपने सीने में दफन कर लो. इस की हिफाजत आप को ही करनी होगी. मौका मिला, तो मैं तुम दोनों के लिए जरूर कुछ करूंगी.’’
बूढ़े मुजाबिर ने बच्चे की अंगुली पकड़ी और सुरंग में वापस दौड़ पड़ा.
गुलबदन की आंखों से आंसू टपक कर उस के अपने खाली दामन में समा गए. बच्चे और मुजाबिर को यूं जाता देख सरदार मंसूर त्यौरियां चढ़ा कर बोला, ‘‘यह क्या कर रही हो मलिका-ए-जमानी, यह राज.’’
‘‘यह राज अब कभी नहीं खुलेगा, जालिम सरदार.’’ मंसूर की बात पूरी होने से पहले ही मलिका-ए-हिंद खूंख्वार शेरनी की तरह दहाड़ उठी. उसी समय गुलबदन ने ख्वाजासराओं को ठीक वैसा ही इशारा किया, जैसा कुछ देर पहले सरदार मंसूर ने किया था.
गुलबदन का इशारा पाते ही ख्वाजासराओं ने सरदार मंसूर को हाथों पर उठा लिया. उसी समय सुरंग में एक भयानक चीख और कुएं में छप्प से किसी भारी चीज के गिरने की आवाज गूंजी. पलभर बाद वहां फिर पहले जैसा सन्नाटा छा गया.