जून का महीना था, समय दोपहर के लगभग ढाई बजे. विवेक अपने मित्र सुदर्शन के साथ राजस्थान के राज्यमार्ग पर कार में सफर कर रहे थे.
‘‘दर्शी, आज गरमी कुछ ज्यादा है, कार का एयरकंडीशनर भी काम नहीं कर रहा है.’’ विवेक ने सुदर्शन से कहा, जो कार की स्टीयरिंग पर एकाग्रता से बैठा था.
दोस्त का नाम तो सुदर्शन था, पर सब मित्र और परिवार के लोग उसे दर्शी ही कहते थे. उस की उम्र भले ही 40 साल हो गई थी, लेकिन बचपन से अब तक प्यार का नाम दर्शी ही प्रचलन में था. यही हाल विवेक का भी था, उसे सब विक्की कहते थे.
‘‘विक्की, एक तो जून का महीना है, ऊपर से दोपहर का समय. गरमी के इस प्रकोप में वह भी राजस्थान में कार का एयरकंडीशनर क्या काम करेगा.’’
‘‘दर्शी, थोड़ी देर रुक कर आराम कर लिया जाए.’’
‘‘यार, दूर तक सिर्फ रेत के टीले ही नजर आ रहे हैं. रुकने लायक कोई जगह नजर आए तभी तो रुक कर आराम करेंगे.’’ दर्शी ने दूर तक नजर दौड़ाते हुए जवाब दिया.
‘‘दर्शी, आज तक हम राजस्थान की अंदरूनी जगहों पर नहीं गए. जयपुर, अजमेर और उदयपुर तक ही सीमित रहे. आज हमें राजस्थान की एकदम अंदरूनी जगह के लिए एक चुनौती मिली है, जहां हमें अपना हुनर दिखाना है.’’
‘‘विक्की, हम ने उस सेठ की बातों में आ कर चुनौती स्वीकार तो कर ली है, लेकिन क्या हमारी मेहनत का पैसा मिलेगा?’’
‘‘दिल छोटा मत कर यार. इन सेठों के पास पैसों की कोई कमी नहीं है.’’
‘‘यार, आधा घंटा हो गया, रेतीला रेगिस्तान समाप्त ही नहीं हो रहा है. जून के महीने की दोपहर में अगर कार के एसी ने बिलकुल जवाब दे दिया, तब क्या हालत होगी?’’
‘‘जो होगा देखा जाएगा, अब क्या कर सकते हैं.’’ विक्की ने कहा.
विवेक और सुदर्शन, दोनों बचपन के दोस्त थे. स्कूल से ही लंगोटिया यार, पेशे से आर्किटेक्ट, एक साथ पार्टनरशिप में काम करते थे. दोनों ने एक महीने पहले ही उदयपुर में एक हवेलीनुमा कोठी का नक्शा बनाया था. जब कोठी बन कर तैयार हुई, तो उस की जम कर तारीफ हुई. आज के आधुनिक युग में पुरानी हवेली जैसी कोठी का निर्माण विवेक और सुदर्शन की देखरेख में हुआ.
पुराने नक्शे में कोठी के अंदर सभी आधुनिक सुविधाएं इस तरह से दी गईं कि हवेली का अंदाज बरकरार रहे. गृह प्रवेश पर हवेली के मालिक ने एक शानदार दावत दी, जिस में राजस्थान के धन्ना सेठों की पूरी बिरादरी आई थी. विवेक और सुदर्शन के काम से प्रभावित हो कर सेठ पन्नालाल ने उन्हें अपनी हवेली के निर्माण का कार्य सौंपा था.
सेठ पन्नालाल ने अपने पुश्तैनी मकान की जमीन पर उन्हें विशाल हवेली तैयार करने का जिम्मा दिया था.
गर्मी में कार चलाते हुए दोनों आशंकित हो रहे थे. कहीं कार जवाब न दे जाए. कार का एसी न के बराबर ठंडा कर रहा था और पीने का पानी भी समाप्त हो गया था. दोनों का गला प्यास से सूखने लगा, तभी उन्हें कुछ दूर आगे आबादी नजर आई. वह एक छोटा सा गांव था. गांव में सड़क किनारे ट्रक रिपेयर की वर्कशौप थी. कुछ दुकानें भी थीं, पर दोपहर की गरमी की वजह से बंद थीं. सुदर्शन ने कार ट्रक रिपेयर वर्कशौप के पास रोकी. वर्कशौप से एक मिस्त्री बाहर आया.
‘‘साहब, कार दिखानी है. ठीक हो जाएगी. हमारी वर्कशौप में स्कूटर, बाइक से ले कर कार, ट्रक सभी रिपेयर होते हैं.’’ मिस्त्री ने बताया.
विवेक और सुदर्शन उस की बात सुन कर मुसकरा दिए. भारत तरक्की पर है, एक ही जगह सभी सुविधाएं और वह भी गांव में.
‘‘कार तो ठीक है, पर गर्मी बहुत है, पीने के लिए पानी चाहिए.’’ विक्की ने कहा.
उस आदमी ने आवाज दी. एक लड़का वर्कशौप से निकला और साथ वाली दुकान खोली, जिस में किराने का सभी सामान मौजूद था.
‘‘क्या लोगे साहब, सब कुछ मिलेगा. कोल्डड्रिंक्स भी और ठंडी बियर भी. क्या पिओगे साहब?’’
‘‘अभी तो सादा पानी चाहिए. बाकी बाद में देखते हैं.’’
पानी पीने के बाद विवेक और सुदर्शन वहां पड़ी चारपाई पर बैठ गए.
‘‘थकान हो गई है विक्की. थोड़ा आराम कर लें?’’ सुदर्शन ने विवेक से उस की राय पूछी.
‘‘अगर आराम के लिए जगह मिल जाए तो जरूर करेंगे.’’
सुदर्शन ने वर्कशौप वाले आदमी से थोड़ी देर आराम करने के लिए थोड़ी जगह देने के लिए कहा.
‘‘साहब आप को कहां जाना है?’’
‘‘रंग बांगडू में सेठ पन्नालाल के यहां जाना है. वह अपने पुश्तैनी घर की जगह हवेली का निर्माण करवाना चाहते हैं. हम दोनों आर्किटेक्ट हैं.’’
‘‘रंग बांगडू वैसे तो करीब 80 किलोमीटर होगा. लेकिन यहां से आगे सड़क का भरोसा नहीं है. सड़क पक्की जरूर है. रेत उड़ती है तो सड़क पर सिर्फ रेत ही रेत नजर आती है. कार चलाने में भी दिक्कत होती है. मेरी राय तो यह है कि आप रात यहीं गुजार लें. सुबह चले जाना. मौसम भी थोड़ा ठंडा रहता है और रेत भी नहीं उड़ती.’’
‘‘रात में रुकने की जगह मिल जाएगी?’’ सुदर्शन ने पूछा.
‘‘सामने देखिए, आप को एक हवेली नजर आएगी.’’
‘‘जो ऊंचा मकान है, क्या उस की बात कर रहे हो?’’ विवेक ने हाथ से इशारा करते हुए पूछा.
‘‘जी साहब, यह हवेली सेठ मूंगालाल की है. छोटा सा यह गांव उन्हीं का बसाया हुआ है. आप वहां रुक सकते हैं.’’
‘‘हम उन्हें जानते तक नहीं. वह हमें अपनी हवेली में क्यों रुकने देंगे?’’
‘‘हवेली के कुछ कमरे मेहमानों के लिए हैं. आप वहां रुक सकते हैं. चलिए मैं आप को वहां ले चलता हूं.’’
उस आदमी को कार में बैठा कर तंग गली से गुजरते हुए दोनों हवेली के गेट तक पहुंचे. मुख्य सड़क से हवेली तक गली के दोनों ओर कच्चेपक्के कहीं एक मंजिल के और कहीं 2 मंजिल के मकान थे. हवेली पर जा कर गली समाप्त हो गई थी. गली के ठीक सामने हवेली का बहुत बड़ा दरवाजा था, जो बंद था.
सुदर्शन ने हवेली की दीवार से कार सटा कर पार्क की. जैसे किसी किले का बड़ा सा दरवाजा होता है, ठीक उसी तरह का दरवाजा था हवेली का. विवेक और सुदर्शन चूंकि आर्किटेक्ट थे, वे बहुत सूक्ष्म दृष्टि से दरवाजे पर हुई नक्काशी का निरीक्षण करने लगे. नक्काशी धूल से लथपथ थी और अपने पुराने इतिहास की कहानी खुद बयां कर रही थी.
‘‘दर्शी, यह हवेली तो कम से कम एक सौ साल पुरानी होगी. दरवाजे की नक्काशी अपने जन्म का खुद बयान कर रही है.’’
‘‘विक्की, बिलकुल ठीक कहा तुम ने.’’
उस बडे़ दरवाजे में एक छोटा दरवाजा था. वह खुला और तीनों अंदर चले गए. हवेली की देखभाल करने वाले रखवालों में से एक रखवाले ने दरवाजा खोला. वर्कशौप वाले व्यक्ति ने उस से कुछ बात की, जिस के बाद उस रखवाले ने हवेली की बैठक खोली. धूल देख कर विवेक और सुदर्शन समझ गए कि हवेली के मालिक वहां कभी नहीं आते होंगे. रखवाले ने कुर्सियां पोंछ कर साफ कीं.
‘‘आइए साहबजी, थोड़ा आराम कीजिए. चाय लेंगे?’’
विवेक और सुदर्शन ने हामी भर दी. आरामकुर्सी पर धीरेधीरे आगेपीछे झूलते हुए दोनों हवेली का निरीक्षण करने लगे. बैठक बहुत बड़ी थी, जो 3 मंजिल की थी. दूसरी और तीसरी मंजिल पर खिड़कियां थीं. तभी चाय आ गई. बोनचाइना के सुंदर कप में चाय की चुस्कियां लेते हुए विवेक ने रखवाले से पूछा, ‘‘क्या नाम है आप का?’’
‘‘मेरा नाम भंवर सिंह है.’’ उस ने बताया.
‘‘इस हवेली में कब से हो?’’
‘‘मैं तो जनाब पैदा ही इसी हवेली में हुआ हूं. पहले मेरे दादा ने यह हवेली संभाली, फिर मेरे पिता ने और अब मैं इसे संभाल रहा हूं.’’
‘‘बहुत खूब, ऐसी सेवा भी किस्मत से मिलती है.’’
‘‘जी जनाब, चाय कैसी लगी?’’
‘‘चाय एकदम मस्त है, तुलसी और अदरक के स्वाद से चाय पौष्टिक हो जाती है.’’
‘‘यह तो है जनाब.’’
‘‘इस हवेली के बारे में कुछ बताओ. देखने में बहुत पुरानी लगती है.’’
‘‘यह हवेली 200 साल पुरानी है. सौ साल से तो हमारा परिवार ही इसे संभाल रहा है. इस के मालिक सेठ मूंगालाल हैं. 80 के लपेटे में होंगे. उन की तबीयत कुछ ठीक नहीं चल रही है, इसलिए अब यहां नहीं आते.
बहुत बड़े व्यापारी हैं, देशविदेश में औफिस हैं. बेशुमार दौलत है उन के पास. धन का समंदर कहूं तो गलत नहीं होगा. बोरों में रकम पड़ी रहती है. यह हवेली मूंगालाल के पुरखों ने बनवाई थी. मूंगालाल के बच्चे यहां नहीं आते. वे विदेश में अधिक रहते हैं.’’
‘‘भंवर सिंह, हम आर्किटेक्ट हैं. इसी नाते इस हवेली को ठीक से देखना चाहते हैं. हम रंग बंगडू में सेठ पन्नालाल के पुश्तैनी मकान की जगह एक हवेली के निर्माण के सिलसिले में जा रहे हैं. आर्किटेक्ट होने के नाते इस हवेली की बनावट शायद हमारे काम आए.’’
‘‘जनाब अभी धूप और गर्मी दोनों ही तेज है. शाम के समय आप को हवेली के दर्शन करवाएंगे.’’
‘‘हमें आगे रंग बंगडू भी जाना है.’’
‘‘रंग बंगडू कल सुबह जाना, आज हमारे मेहमान रहिए. आप को हवेली देखने का आनंद रात को ही आएगा. बहुत सी रहस्य की बातें हैं, मुझे लगता है, उन बातों को आप को जरूर जानना चाहिए.’’
भंवर सिंह की बातें सुन कर विवेक ने सुदर्शन की ओर देखा. सुदर्शन ने गर्दन हिला कर हामी भर दी. भंवर सिंह चला गया.
भंवर सिंह के जाने के बाद विवेक और सुदर्शन हवेली की बैठक का निरीक्षण करने लगे. भंवर सिंह के मुताबिक हवेली 2 सौ साल पुरानी थी. हवेली की बैठक बहुत बड़ी, करीब एक हौल के बराबर थी. लाल किले के दीवान ए खास जैसी. दूसरी और तीसरी मंजिल की खिड़कियां बंद थीं.
दोनों ओर 6-6 खिड़कियां अर्थात 24 खिड़कियां देख कर विवेक ने सुदर्शन से कहा, ‘‘दर्शी, इन खिड़कियों को देख कर हवा महल की याद आ गई. मुझे ये कमरे ऐसे लगते हैं, जैसे महल में राजा जब मंत्रियों से वार्तालाप करता था, तो रानियां ऊपर झरोखों से देखती थीं. कुछ इसी तरह जब इस हवेली के बुजुर्ग पुरुष बैठक में बैठते रहे होंगे, तब बच्चे और महिलाएं अपने कमरे की खिड़की में से मूक दर्शक बन कर बैठती होंगी. उस जमाने में महिलाएं घूंघट में रहती थीं.’’
‘‘बिलकुल सही, इन झाड़फानूस को देखो. जरूर बेल्जियम से मंगाए गए होंगे. सेठ ने दिल खोल कर हवेली बनाई है. ऊपर खिड़कियों के रंगीन शीशे देखो, नीले, पीले और हरे रंग की नक्काशी वाले शीशे. अब ये शीशे न तो बनते हैं और न ही कोई लगाता है. एकदम सादे शीशों पर फिल्म चढ़ती है.’’
‘‘दर्शी, इन टाइल्स को देखो, उभरी हुई आकृतियां कितनी खूबसूरत लग रही हैं.’’
‘‘उमर खैयाम की इस तस्वीर को देखो. कितनी टाइल्स को जोड़ कर बनाई गई होगी यह तसवीर, कितनी आकर्षक, कितनी अतुलनीय है.’’
‘‘दर्शी, आजकल यह कला लुप्त हो गई है. वाकई ये खूबसूरत कलाकृति लाजवाब है.’’
‘‘सच में राजस्थान में वास्तुकला देखने लायक होती है. एक से बढ़ कर एक महल और हवेलियां हैं.’’
‘‘दर्शी, बैठक का गुंबद देखो, रोशनी आ रही है.’’
विक्की ने इशारा कर के कहा तो सुदर्शन उधर देखते हुए बोला, ‘‘हवेली दो सदी पुरानी है और रखरखाव न के बराबर है. मुझे दरारें लग रही हैं, जिन से धूप छन कर आ रही है.’’
दोनों मित्र बातें करते हुए हवेली को देखने बैठक से बाहर आ गए. हवेली के पिछले भाग में बहुत बड़ा बगीचा था, जिस में फव्वारे लगे थे. फलदार पेड़ शोभा बढ़ा रहे थे. रखरखाव की कमी वहां भी साफ झलक रही थी. परंतु पेड़ फलों से लदे हुए थे. एक तरफ गुलाब के फूलों की क्यारियां थीं और पीछे सब्जियों की क्यारियां.
‘‘दर्शी, देख फल, फूल और सब्जियां, सभी कुछ है हवेली के अंदर. सुखसुविधा का पूरा प्रबंध है. यह हवेली किसी छोटे महल जैसी है.’’
दोनों मित्र बातें कर रहे थे कि भंवर सिंह मिल गया. वह अपने परिवार समेत कोठी के पिछले हिस्से में बने सर्वेंट क्वार्टर में रहता था. दोनों भंवर सिंह से हवेली का इतिहास जानने के लिए उत्सुक थे. पूछने पर उस ने बताना शुरू किया.
‘‘इस गांव को सेठ मूंगालाल के पूर्वजों ने बसाया था. गांव के आसपास कई गांव और हवेलिया थीं. गांवों और हवेलियों का यह सिलसिला रंग बांगडू पर समाप्त होता था. इस हवेली के पीछे पर्वत है, पर्वत की चोटी पर देवी का मंदिर है. चाहे आप हवेली को पुरानी और खंडर समझें, पर इस हवेली और गांव पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती.
‘‘यह हवेली और गांव दो सदियों से ऐसा ही है. यहां कभी कोई विपदा नहीं आई. इस गांव के आसपास मीलों तक आप को कोई बस्ती न तो नजर आई होगी और न आगे नजर आएगी. आप रंग बांगडू जा रहे हैं, वहां तक आप को कोई बस्ती नहीं मिलेगी. लगभग 100 साल पहले विपदा आई और सारी बस्तियां उजड़ गईं लेकिन इस हवेली पर कोई आंच नहीं आई.’’
‘‘यह कैसे संभव है?’’ विवेक और सुदर्शन ने एक साथ पूछा.
‘‘साहब, यह एक रहस्य है, जिसे मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं जानता.’’
उस की बात से विवेक और सुदर्शन की उत्सुकता बढ़ने लगी.
‘‘भंवर सिंह हम ठहरे आर्किटेक्ट, बिना देखे नहीं समझ पाएंगे?’’
‘‘ठीक है, रात के ठीक 12 बजे मैं आप को उस जगह ले जाऊंगा, आप आज रात यहीं रुकें.’’
विवेक और सुदर्शन रात को हवेली में रुक गए. अमावस की रात थी. बादलों से घिरा आसमान काला स्याह नजर आ रहा था. गांव वाले सभी नींद में थे. भंवर सिंह का परिवार भी सो रहा था. विवेक और सुदर्शन की आंखों में नींद नहीं थी. हवा धीमी गति से चल रही थी. शाम को गई बिजली अभी तक नहीं आई थी.
गांव में 24 घंटे बिजली का सुख नसीब नहीं होता. एक बार गई न जाने कब आए. काली घनी अमावस की रात एक डरावना माहौल पैदा कर रही थी. हवेली के पीछे बगीचे में एक बेंच पर विवेक बैठा था, जबकि सुदर्शन चहल कदमी कर रहा था.
‘‘विक्की, मुझे ठीक नहीं लग रहा है. माहौल बहुत डरावना है, निकल चलते हैं.’’
‘‘दर्शी, आज जिंदगी में पहली बार ऐसे डरावने माहौल का सामना कर रहे हैं, फिर भी हमें हिम्मत रखनी होगी. यहां से जाएंगे भी तो कहां जाएंगे.’’
‘‘विक्की, बाहर कार खड़ी है. चलते हैं, या तो रंग बांगडू या फिर दिल्ली अपने घर.’’
उसी बीच भंवर सिंह लालटेन के साथ आता नजर आया. वह पास आ कर बोला, ‘‘साहबजी, 12 बज रहे हैं. आइए मेरे साथ.’’
विवेक और सुदर्शन चुपचाप भंवर सिंह के पीछे चल दिए. हवेली के एक छोर पर जा कर उस ने एक दरवाजा खोला. दरवाजे के पास नीचे जाने के लिए सीढि़यां थीं. सीढि़यां उतर कर वे एक कमरे में पहुंचे. यह तहखाना था, जिस की दीवारों पर विचित्र सी आकृतियां बनी थीं. अंधेरे को दूर करने के लिए लालटेन की रोशनी कम थी.
‘‘भंवर सिंह यह सामने क्या है?’’ अंधेरे में नजर टिका कर विवेक और सुदर्शन ने पूछा.
‘‘साहबजी, यह नर कंकाल हैं.’’
‘‘किसलिए?’’ विवेक और सुदर्शन की आवाज कांप गई.
भंवर सिंह के उत्तर में एक रहस्यमयी मुसकान थी, ‘‘यह नरकंकाल सेठ मूंगालाल के पिता का है, जिस की बलि मेरे पिता ने दी थी और वह सेठ मूंगालाल के दादा का है, जिस की बलि मेरे दादा के हाथों द्वारा दी गई थी. अब सेठ मूंगालाल की बलि का वक्त आ गया है, जो मेरे हाथों होगी. अभी वह अस्पताल में है, उन्हें यहां आना ही होगा. डाक्टर बलि के लिए उन्हें जिंदा रखेंगे. इन के वंश पर लक्ष्मी की कृपा हो, इस के लिए.
‘‘इस जगह को देखो, सेठ मूंगालाल के पूर्वजों ने बलि से पहले यहां पर रतन गाड़े हैं. बलि के बाद लक्ष्मी की असीम कृपा होती है और छप्पर फटता है सेठ के परिवार में. साथ ही इस हवेली के गुंबद में एक दरार आ जाती है. आप गुंबद की वह दरार देख रहे थे, जहां से धूप छन कर आ रही थी. जब तक बलि चढ़ती रहेगी, इस हवेली का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता.’’
भंवर सिंह की बातें सुन कर विवेक और सुदर्शन थरथर कांपने लगे. तभी भंवर सिंह ने एक कटार निकालते हुए कहा, ‘‘यही है खानदानी कटार, जिस से बलि होगी.’’
विवेक और सुदर्शन को ऐसा लगा, जैसे कटार उन दोनों की ओर बढ़ रही है. पता नहीं कहां से शक्ति मिली कि दोनों सीढि़यों की ओर भागे. तहखाने का दरवाजा खुला था. भागते हुए हवेली के मुख्य द्वार तक पहुंचे. भंवर सिंह कटार ले कर उन के पीछे था. द्वार पर मोटी सांकल लगी थी, जिसे खोल कर दोनों छोटे द्वार से बाहर आए और कार में बैठ कर कार स्टार्ट की.
भंवर सिंह पीछे से आया और कार का दरवाजा खोलने की चेष्टा करने लगा. सुदर्शन ने तेजी से कार को पीछे किया, जिस की टक्कर से भंवर सिंह गिर पड़ा. इसी मौके का फायदा उठा कर सुदर्शन ने कार को एकदम से बढ़ा दिया.
रात के सन्नाटे में तंग सी वह गली बिलकुल सुनसान थी. एक रेहड़ी तिरछी खड़ी था, जिसे टक्कर मार कर सुदर्शन ने कार की गति बढ़ाई और वे चंद पलों में मुख्य राजमार्ग पर आ गए. कार की गति बढ़ती गई. दोनों ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. उन्हें नहीं मालूम था कि वे किस ओर जा रहे थे. सुनसान सड़क, अंधेरी अमावस की रात, सड़क पर कोई स्ट्रीट लाइट नहीं.
कार की हैडलाइट अंधेरे को चीर रही थी. फर्राटा भरती कार 2 घंटे तक भागती रही. कुछ दूर जा कर रोशनी दिखी तो दोनों की हिम्मत बढ़ी. नजदीक पहुंचे तो वह रेलवे स्टेशन था.
रात के लगभग ढाई बजे थे, रेलवे स्टेशन सुनसान पड़ा था. उन्होंने रेलवे स्टेशन के बाहर कार खड़ी की. कार की आवाज सुन कर स्टेशन मास्टर बाहर निकला.
‘‘कौन है, इतनी रात को? क्या काम है?’’ स्टेशन मास्टर ने पूछा.
विवेक और सुदर्शन डर की वजह से कार से बाहर नहीं निकले. स्टेशन मास्टर ने टौर्च की रोशनी कार पर डाली और कार के शीशे को खटखटाया. सुदर्शन ने कार का शीशा थोड़ा नीचे कर के कहा, ‘‘हमें रंग बांगड़ू जाना है. शायद हम रास्ता भूल गए हैं?’’
‘‘रास्ता तो एकदम सही है. यह रंग बांगडू का ही स्टेशन है. आप को किस के यहां जाना है?’’
यह सुन कर दोनों की जान में जान आई और दोनों कार से उतर आए.
‘‘हमें सेठ पन्नालाल ने बुलाया है, जो अपने पुश्तैनी मकान की जगह हवेली बनवाना चाहते हैं. हम आर्किटेक्ट हैं और हमारी देखरेख में ही निर्माण शुरू होना है.’’
‘‘सेठजी ने आप को बताया नहीं कि रेल से आना. सड़क पर कई बार हादसे हो जाते हैं. इसलिए सेठजी भी ट्रेन से ही आते हैं. यहां 2 टे्रन आती हैं. सुबह साढ़े 5 बजे, जिस में सेठजी आ रहे हैं और दूसरी रात के साढ़े 8 बजे. आप यहां आराम कीजिए, सुबह सेठजी के साथ जाना. यहां से 10 मिनट का रास्ता है, उन के गांव का.’’
‘‘ठीक है, हम कार में आराम कर लेंगे.’’
‘‘अभी तो 3 घंटे हैं, टे्रन आने में. स्टेशन का कमरा है, जहां कुर्सी और चारपाई भी है. आप बिस्तर पर आराम कीजिए.’’
‘‘आराम अब नहीं होगा. आंखों में नींद नहीं है.’’
‘‘आप कुछ घबराए से लग रहे हैं. क्या हुआ?’’ स्टेशन मास्टर ने पूछा.
विवेक और सुदर्शन ने आपबीती बताई.
‘‘साहबजी, आप की किस्मत अच्छी थी. तभी आप बच गए. अमावस की रात बलि की खबरें हम ने भी सुनी हैं. अमावस की रात उस हवेली से कोई भी बच कर नहीं निकलता. अच्छा है, आप बच गए. इसी वजह से सेठ पन्नालाल ट्रेन से आते हैं, वरना एक से बढ़ एक देशीविदेशी कारों की लाइन लगी है, उन के यहां.’’
बातों में 3 घंटे बीत गए. साढ़े 5 बजे रेल प्लेटफार्म पर आ कर लगी. सेठजी विवेक और सुदर्शन को देख आश्चर्यचकित रह गए. उन्होंने कार में सेठ पन्नालाल को अपनी आपबीती सुनाई.
‘‘सेठ मूंगालाल का निधन 4 दिन पहले हो चुका है. उन का अंतिम संस्कार कल हुआ, क्योंकि उन के लड़के विदेश में थे. पिछले 3 महीने से अस्पताल में उन का इलाज चल रहा था. उन से हमारे बहुत अच्छे व्यापारिक संबंध थे. उन की हवेली के बारे में कई विचित्र बातें सुनते रहते हैं. हो सकता है, भंवर सिंह को सेठ मूंगालाल की मृत्यु का समाचार मिल गया हो और बलि के लिए उस ने तुम दोनों को रात में वहां रुकने के लिए कहा हो. खैर, अब वहां मत जाना.’’
विवेक और सुदर्शन सेठ पन्नालाल के साथ 2 दिन रहे. हवेली का पूरा खाका तैयार कर के वापसी के लिए सेठजी की अनुमति ली. सेठजी ने उन्हें सुबह के समय जाने की सलाह दी, ताकि फिर से कोई हादसा न हो.
सुबह नाश्ते के बाद विवेक और सुदर्शन ने वापसी की. रास्ते में उन्होंने मूंगालाल की हवेली के पास कार रोक कर उसी कार मैकेनिक से हवेली के बारे में बात की.
‘‘साहबजी, आप को मैं ही हवेली ले कर गया था. उस रात हवेली का एक हिस्सा ढह गया और भंवर सिंह का पूरा परिवार हादसे का शिकार हो गया.’’ उस व्यक्ति ने बताया.
मुख्य सड़क से हवेली की ओर देखा. बैठक का वह गुंबद ढह चुका था, जिस की दरारों से उन्होंने रोशनी आते देखी थी.
सुदर्शन ने कार आगे बढ़ाई. इस बार कार की रफ्तार धीमी थी. दोनों के होंठों पर हल्की मुसकान थी. अब उन के दिल में डर नाम की कोई चीज नहीं थी.