मुग्धा का बदन बुखार से तप रहा था. ऊपर से रसोई की जिम्मेदारी. किसी तरह सब्जी चलाए जा रही थी तभी उस का देवर राज वहां पानी पीने आया. उस ने मुग्धा के हावभाव देखे तो उस के माथे पर हाथ रखा और बोला, ‘‘भाभी, आप को तो तेज बुखार है.’’
‘‘हां…’’ मुग्धा ने कमजोर आवाज में कहा, ‘‘सुबह कुछ नहीं था. दोपहर से अचानक…’’
‘‘भैया को बताया?’’
‘‘नहीं, वे तो परसों आने ही वाले हैं वैसे भी… बेकार परेशान होंगे. आज तो रात हो ही गई… बस कल की बात है.’’
‘‘अरे, लेकिन…’’ राज की फिक्र कम नहीं हुई थी. मगर मुग्धा ने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं. मामूली बुखार ही तो है. तुम जा कर पढ़ाई करो, खाना बनते ही बुला लूंगी.’’
‘‘खाना बनते ही बुला लूंगी…’’ मुग्धा की नकल उतार कर चिढ़ाते हुए राज ने उस के हाथ से बेलन छीना और बोला, ‘‘लाइए, मैं बना देता हूं. आप जा कर आराम कीजिए.’’
‘‘न… न… लेट गई तो मैं और बीमार हो जाऊंगी,’’ मुग्धा बैठने वालियों में से नहीं थी. वह बोली, ‘‘हम दोनों मिल कर बना लेते हैं,’’ और वे दोनों मिल कर खाना बनाने लगे.
मुग्धा का पति विनय कंपनी के किसी काम से 3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ था. वह कर्मचारी तो कोई बहुत बड़ा नहीं था, लेकिन बौस का भरोसेमंद था. सो, किसी भी काम के लिए वे उसे ही भेजते थे.
मुग्धा का 21 साल का देवर राज प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. विनय जैसा प्यार करने वाला पति पा कर मुग्धा भी खुश रहती थी. कुछ पति की तनख्वाह और कुछ वह खुद जो निजी स्कूल में पढ़ाती, दोनों से मिला कर घर का खर्च अच्छे से निकल आता. सासससुर गांव में रहते थे. देवर राज अपनी पढ़ाई के चलते उन के साथ ही रहता था.
जिंदगी में कमी थी तो बस यही कि खुशहाल शादीशुदा जिंदगी के 10 सालों के बाद भी उन के कोई औलाद नहीं थी. अब मुग्धा 35 साल की हो चुकी थी. अपनी हमउम्र बाकी टीचरों को उन के बच्चों के साथ देखती तो न चाहते हुए भी उसे रोना आ ही जाता. वह अपनी डायरी के पन्ने इसी पीड़ा से रंगती जाती.
रोटियां बन चुकी थीं. राज ने उसे कुरसी पर बैठने को बोला और सामान समेटने लगा. मुग्धा ने सिर पीछे की ओर टिकाया और आंखें बंद कर लीं. वातावरण एकदम शांत था. तभी वहां वही तूफान फिर से गरजने लगा जिस का शोर मुग्धा आज तक नहीं भांप पाई थी.
राज की गरदन धीरे से मुग्धा की ओर घूम चुकी थी. वह कनखियों से मुग्धा की फिटिंग वाली समीज में कैद उस के उभारों को देखने लगा था. मुग्धा की सांसों के साथ जैसेजैसे वे ऊपरनीचे होते, वैसेवैसे राज के अंदर का शैतान जागता जाता.
‘‘हो गया सब काम…?’’ बरतनों की आवाज बंद जान कर मुग्धा ने अचानक पूछते हुए अपनी आंखें खोल दीं.
राज हकबका गया और बोला, ‘‘हां भाभी, बस हो ही गया…’’ कह कर राज ने जल्दीजल्दी बाकी काम निबटाया और खाने की चीजों को उठा कर मेज पर ले गया.
मुग्धा ने मुश्किल से 2 रोटियां खाईं, वह भी राज की जिद पर. वह जबरदस्ती सब्जी उस की प्लेट में डाल दे रहा था. खाने के बाद मुग्धा सोने जाने लगी तो राज बोला, ‘‘भाभी, 15 मिनट के लिए आगे वाले कमरे में बैठिए न… मैं आप के लिए दवा ले आता हूं.’’
‘‘अरे नहीं, रातभर में उतर जाएगा…’’ मुग्धा ने मना किया लेकिन राज कहां मानने वाला था.
‘‘मैं पास वाले कैमिस्ट से ही दवा ले कर आ रहा हूं भाभी… जहां से आप मंगाती हैं हमेशा… दरवाजा बंद कर लीजिए… मैं अभी आया…’’ कहता हुआ वह निकल गया.
मुग्धा ने दरवाजा बंद किया और सोफे पर पैर ऊपर कर के बैठ गई.
राज ने तय कर लिया था कि आज तो वह अपने मन की कर के ही रहेगा. इस बीच कैमिस्ट की दुकान आ गई.
‘‘क्या बात है राज बाबू?’’ कैमिस्ट ने राज को खोया सा देखा तो पूछा. राज का ध्यान वापस दुकान पर आया.
‘‘दवा चाहिए थी,’’ उस ने जवाब दिया.
‘‘अबे तो यहां क्या मिठाई मिलती है?’’ कैमिस्ट उसे छेड़ते हुए बोला. वह उस का पुराना दोस्त था.
राज मुसकरा उठा और कहा, ‘‘अरे, जल्दी दे न…’’
‘‘जल्दी दे न…’’ बड़बड़ाते हुए कैमिस्ट ने हैरत से उस की ओर देखा, ‘‘कौन सी दवा चाहिए, यह तो बता?’’
राज को याद आया कि उस ने तो सचमुच कोई दवा मांगी ही नहीं है. उस ने ऐसे ही बोल दिया, ‘‘भाभी की तबीयत ठीक नहीं है. उन्हें बुखार है. जरा नींद की गोली देना.’’
‘नींद की गोली बुखार के लिए…’ सोचते हुए कैमिस्ट ने उसे देखा. वह खुद भी मुग्धा के हुस्न का दीवाना था. हमेशा उस के बारे में चटकारे लेले कर बातें किया करता था. उस ने राज के मन की बात ताड़ ली. ऐसी बातों का उसे बहुत अनुभव जो था. उस ने नींद की गोली के साथ बुखार की भी दवा दे दी.
राज ने लिफाफा जेब में रखा और तेजी से वापस चलने को हुआ कि तभी कैमिस्ट चिल्लाया, ‘‘अरे भाई, खुराक तो सुन ले.’’
राज को अपनी गलती का अहसास हुआ. वह काउंटर पर आया. कैमिस्ट ने उसे डोज बताई और आंख मारते हुए बोला, ‘‘यह नींद वाली एक से ज्यादा मत देना… टाइट चीज है…’’
‘‘अबे, क्या बकवास कर रहा है,’’ राज के मन का डर उस की जबान से बोल पड़ा. उस की तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली हालत हो गई. वह जाने लगा.
कैमिस्ट पीछे से कह रहा था, ‘‘अगली बार हम को भी याद रखना दोस्त…’’
राज उस को अनसुना करता हुआ आगे बढ़ गया. घर लौटने पर डोर बैल बजाते ही मुग्धा ने दरवाजा खोल दिया और बोली, ‘‘यहीं बैठी थी लगातार…’’
‘‘जी भाभी, आइए अंदर चलिए…’’ राज ने अपने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा.
मुग्धा अपने कमरे में आ कर लेट गई. राज ने उसे पहले बुखार की दवा दी. मुग्धा दवा ले कर सोने के लिए लेटने लगी तो राज ने उसे रोका, ‘‘भाभी, अभी एक दवा बाकी है…’’
‘‘कितनी सारी ले आए भैया?’’ मुग्धा ने थकी आवाज में बोला और बाम ले कर माथे पर लगाने लगी.
‘‘भाभी दीजिए, मैं लगा देता हूं,’’ कह कर राज ने उस से बाम की डब्बी ले ली और उस के माथे पर मलने लगा. थोड़ी देर बाद उस ने मुग्धा को नींद वाली गोली भी खिला दी और लिटा दिया.
राज उस का माथा दबाता रहा. थोड़ी देर बाद उस ने पुष्टि करने के लिए मुग्धा को आवाज दी. ‘‘भाभी सो गईं क्या?’’
कोई जवाब नहीं मिला. राज ने उस के चेहरे को हिलाडुला कर भी देख लिया. कोई प्रतिक्रिया न पा कर वह समझ गया कि रास्ता साफ हो चुका है.
राज की कनपटियों में खून तेजी से दौड़ने लगा. वह बत्ती जलती ही छोड़ मुग्धा के ऊपर आ गया. मर्यादा के आवरण प्याज के छिलकों की तरह उतरते चले गए. कमरे में आए भूचाल से मेज पर रखी विनयमुग्धा की तसवीर गिर कर टूट गई.
सबकुछ शांत होने पर राज थक कर चूरचूर हो कर मुग्धा के बगल में लेट गया.
‘‘बस अब बुखार उतर जाएगा भाभीजी… इतना पसीना जो निकलवा दिया मैं ने आप का,’’ राज बेशर्मी से बड़बड़ाया और मुग्धा की कुछ तसवीरें खींचने के बाद उसे कपड़े पहना दिए.
मुग्धा अब तक धीमेधीमे कराह रही थी. राज पलंग से उतरा और खुद भी कपड़े पहनने लगा. तभी उस की नजर आधी खुली दराज पर गई. भूल से मुग्धा अपनी डायरी उसी में छोड़ी हुई थी. राज ने उसे निकाला और कपड़े पहनतेपहनते उस के पन्ने पलटने लगा.
अचानक एक पेज पर जा कर उस की आंखें अटक गईं. वह अभी अपनी कमीज के सारे बटन भी बंद नहीं कर पाया था लेकिन उस को इस बात की परवाह नहीं रही. वह अपलक उस पन्ने में लिखे शब्दों को पढ़ने लगा. उस में मुग्धा ने लिखा था, ‘बस अब बहुत रो लिया, बहुत दुख मना लिया औलाद के लिए. मेरा बेटा मेरे पास था और मैं उसे पहचान ही नहीं पाई. जब से मैं यहां आई, उसे बच्चे के रूप में देखा तो आज अपनी कोख के बच्चे के लिए इतनी चिंता क्यों? मैं बहुत जल्दी राज को कानूनी रूप से गोद लूंगी.’
राज की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा. वह सिर पकड़ कर वहीं बैठ गया और जोरजोर से रोने लगा, फिर भाग कर मुग्धा के पैरों को पकड़ कर अपना माथा उस से रगड़ते हुए रोने लगा, ‘‘भाभी, मुझे माफ कर दो… यह क्या हो गया मुझ से.’’
अचानक राज का ध्यान मुग्धा के बिखरे बालों पर गया. उस ने जल्दी से जमीन पर गिरी उस की हेयर क्लिप उठाई और मुग्धा का सिर अपनी गोद में रख कर बालों को संवारने लगा. वह किसी मशीन की तरह सबकुछ कर रहा था. हेयर क्लिप अच्छे से उस के बालों में लगा कर राज उठा और घर से निकल गया.
अगली सुबह तकरीबन 8 बजे मुग्धा की आंखें खुलीं. उस का सिर अभी तक भारी था. घर में भीड़ लग चुकी थी.
एक आदमी ने आखिरकार बोल ही दिया, ‘‘देवरभाभी के रिश्ते पर भरोसा करना ही पागलपन है…’’
मुग्धा के सिर में जैसे करंट लगा. वह सवालिया नजरों से उसे देखने लगी. तभी इलाके के पुलिस इंस्पैक्टर ने प्रवेश किया और बताया, ‘‘आप के देवर राज की लाश पास वाली नदी से मिली है. उस ने रात को खुदकुशी कर ली…’’
मुग्धा का कलेजा मुंह को आने लगा. वह हड़बड़ा कर पलंग से उठी लेकिन लड़खड़ा कर गिर गई.
एक महिला सिपाही ने राज के मोबाइल फोन में कैद मुग्धा की कल रात वाली तसवीरें उसे दिखाईं और कड़क कर पूछा, ‘‘कल रंगरलियां मनातेमनाते ऐसा क्या कह दिया लड़के से तू ने जो उस ने अपनी जान दे दी?’’
तसवीरें देख कर मुग्धा हैरान रह गई. अपनी शारीरिक हालत से उसे ऐसी ही किसी घटना का शक तो हो रहा था लेकिन दिल अब तक मानने को तैयार नहीं था. वह फूटफूट कर रोने लगी.
इंस्पैक्टर ने उस महिला सिपाही को अभी कुछ न पूछने का इशारा किया और बाकी औपचारिकताएं पूरी कर वहां से चला गया. धीरेधीरे औरतों की भीड़ भी छंटती गई.
विनय का फोन आया था कि वह आ रहा है, घबराए नहीं, लेकिन मुग्धा बस सुनती रही. उस की सूनी आंखों के सामने राज का बचपन चल रहा था. जब वह नईनई इस घर में आई थी.
दोपहर तक विनय लौट आया और भागते हुए मुग्धा के पास कमरे में पहुंचा. वह जड़वत अभी भी पलंग पर बैठी शून्य में ताक रही थी. विनय ने उस के कंधे पर हाथ रखा लेकिन मुग्धा का शरीर एक ओर लुढ़क गया.
‘‘मुग्धा… मुग्धा…’’ चीखता हुआ विनय उसे झकझोरे जा रहा था, पर मुग्धा कभी न जागने वाली नींद में सो चुकी थी.