रात के 2 बजे थे. अमर अपने कमरे में बेसुध सोया हुआ था कि तभी दरवाजे पर ठकठक हुई. ठकठक की आवाज से अमर की नींद खुल गई. लेकिन उस ने सोचा कि शायद यह आवाज उस के मन का भरम है, इसलिए वह करवट बदल कर फिर सो गया.
लेकिन कुछ देर बाद फिर ठकठक की आवाज आई. ‘लगता है कोई है,’ उस ने मन ही मन सोचा, फिर उठ कर लाइट जलाई और दरवाजा खोलने लगा. तभी उस के मन में खयाल आया कि कहीं बाहर कोई चोर तो नहीं है.
यह खयाल आते ही वह थोड़ा सहम सा गया. फिर उस ने धीरे से पूछा, ‘‘कौन है?’’
‘‘मैं हूं,’’ बाहर से किसी लड़की की मीठी सी आवाज आई. अमर ने दरवाजा खोल दिया. सामने पारो को खड़ा देख कर वह हैरान हो कर बोला, ‘‘अरे तुम?’’
‘‘क्यों, कोई अनहोनी हो गई क्या?’’ पारो मुसकराते हुए बोली. अमर ने देखा कि पारो नारंगी रंग का सलवारसूट पहने हुए थी. दुपट्टा न होने से उस के उभरे अंग दिख रहे थे.
पारो की आंखों में एक अनोखी मस्ती थी. उसे देख कर अमर को ऐसा लगा, जैसे उस के आगे कोई जन्नत की हूर खड़ी हो. तभी पारो कमरे के अंदर आ गई और अमर को अपनी बांहों में भर कर उस के होंठों पर अपने होंठ टिका दिए.
पारो की गरमगरम सांसों के साथ उस के उभरे अंगों की छुअन से अमर को एक अजीब तरह की मस्ती का एहसास होने लगा. वह पारो के आगे बेबस सा हो गया. इस से पहले कि अमर कुछ और करता, उस के मन के किसी कोने से आवाज आई कि यह तू क्या कर रहा है. जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर अपने मालिक के एहसानों का यह बदला दे रहा है.
‘लेकिन मैं ने तो पहल नहीं की है. पारो खुद ही ऐसा चाहती है, तभी तो इतनी रात गए मेरे पास आई है,’ उस ने सोचा और खुद को पारो से अलग करते हुए बोला, ‘‘पारो, अब तुम चली जाओ और फिर कभी मेरे करीब न आना.’’ ‘‘क्या ऐसे ही चली जाऊं,’’ पारो ने प्यासी नजरों से अमर को देखा.
अमर के दिमाग में एकएक कर के पिछली बातें घूमने लगीं. अमर बीए पास हो कर भी बेरोजगार था. उस ने कई इंटरव्यू दिए, पर कहीं भी कामयाब नहीं हुआ. आखिर में निराश हो कर उस ने एक दोस्त के कहने पर गाड़ी चलाना सीखा और बतौर ड्राइवर डाक्टर भुवनेश की कार चलाने लगा.
अमर की मेहनत और ईमानदारी से खुश हो कर भुवनेश उसे बेटे की तरह मानने लगे और उस की हर जरूरत को फौरन पूरा कर देते. पारो डाक्टर भुवनेश की एकलौती बेटी थी. वह बहुत शोख, चंचल और खूबसूरत थी. वह हमेशा अपनी अदाओं से अमर को रिझाती, पर अमर मन से उसे अपनी बहन मानता था और पिछले रक्षाबंधन पर पारो ने उस को राखी भी बांधी थी.
डाक्टर भुवनेश ने अपने घर के पिछवाड़े वाला कमरा अमर को रहने के लिए दिया था. वह वहीं अपनी रात बिताता और दिन में डाक्टर साहब की कार चलाता था. इधर कुछ दिनों से अमर महसूस कर रहा था कि पारो की नीयत ठीक नहीं है. वह तरहतरह से उसे अपने जाल में फांसने की कोशिश कर रही थी. उस की हरकतें देख कर कई बार अमर की वासना भड़कने लगती थी, पर बदनामी और नौकरी जाने के डर से वह मन मसोस कर रह जाता था.
पिछले हफ्ते की बात है. डाक्टर भुवनेश अमर से बोले, ‘अमर, पारो अपनी कुछ सहेलियों के साथ पिकनिक पर जा रही है. तुम सब को कार से ले जाओ. ध्यान रखना, किसी को कोई तकलीफ न हो.’ ‘जी,’ अमर ने बस इतना ही कहा.
अमर ने कार निकाली, तो पारो कार पर सवार हो गई. कार चल पड़ी. ‘कहां जाना है?’ तभी अमर ने पारो से पूछा.
पारो बोली, ‘होटल मयूरी.’ ‘क्या तुम होटल में पिकनिक मनाओगी? तुम्हारी सहेलियां कहां रह गईं?’ अमर ने पूछा.
‘पिकनिक वाली बात मनगढ़ंत थी. मैं ने पापा से झूठ बोला था,’ पारो हंसते हुए बोली, ‘पहले तुम एक कमरा तो बुक कराओ.’ अमर ने हैरानी से पारो की ओर देखा और कमरा बुक कराने होटल की ओर चला गया.
जब दोनों कमरे में आए, तो पारो ने कहा, ‘अमर, कुछ नाश्ता मंगाओ.’ थोड़ी देर बाद दोनों नाश्ता कर चुके, तो पारो रूमाल से हाथ पोंछती हुई अमर के और करीब खिसक आई और बोली, ‘कुछ बात नहीं करोगे?’
‘कौन सी बात?’ ‘वही, जो आधी रात के समय पतिपत्नी के बीच होती है,’ इतना कह कर पारो ने अमर को चूम लिया, फिर बोली, ‘अमर, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो.’
अमर गुस्से में बोला, ‘पारो, होश में आओ. एक भले घर की लड़की का इस तरह बहकना ठीक नहीं है.’ चढ़ती जवानी के नशे में चूर पारो अमर की बात को अनसुना करते हुए बोली, ‘मैं एक अरसे से इस मौके की तलाश में थी. क्या मेरे कपड़े नहीं उतारोगे?’ कह कर पारो ने अमर को अपनी बांहों में भींच लिया.
अमर खुद पर काबू रखते हुए बोला, ‘पारो, इतना भी मत बहको. मैं तो तुम्हें अपनी बहन मानता हूं. याद है, पिछले साल तुम ने मुझे राखी बांधी थी और फिर तुम्हारे पिता मुझ पर कितना भरोसा करते हैं. क्या मैं उन के भरोसे को तोड़ दूं?’ ‘तुम मेरे सगे भाई तो हो नहीं,’
कह कर पारो ने अपने ब्लाउज के बटन खोल दिए. अमर की हालत सांपछछूंदर की सी थी. वह पारो से छिटक कर दूर जा खड़ा हुआ, फिर गिड़गिड़ाते हुए बोला, ‘पारो, तुम इस तरह की हरकतें कर के मुझे मत भड़काओ, वरना कुछ गलत कर बैठूंगा.’
इतना कह कर अमर ने पारो को कपड़े पहन कर आने को कहा और वह कार में जा कर बैठ गया. ‘‘कहां खो गए अमर?’’ तभी पारो ने अमर को टोका, तो वह चौंक कर उसे देखने लगा.
‘‘पारो, मुझ पर रहम करो. तुम जल्दी यहां से चली जाओ. मैं कमजोर हो रहा हूं,’’ अमर गिड़गिड़ाते हुए बोला. तभी दूसरे कमरे से खांसने की आवाज आई और पारो अपने कमरे की ओर भाग गई.
अमर ने अब चैन की सांस ली. अगले दिन अमर का कुछ अतापता नहीं था. डाक्टर भुवनेश ने कमरे की तलाशी ली, तो एक चिट्ठी मिली. उस चिट्ठी में लिखा था:
‘मैं आप की नौकरी छोड़ कर जा रहा हूं. कृपया परेशान न होइएगा और न ही मुझे खोजने की कोशिश कीजिएगा. ‘आप का, अमर.’
चिट्ठी पढ़ कर डाक्टर भुवनेश हैरान रह गए. अमर का इस तरह बिना कुछ बताए जाना उन की समझ में नहीं आ रहा था. पारो को जब यह बात मालूम हुई, तो वह भी हक्कीबक्की रह गई.