कहते हैं कि कुछ रिश्ते खून के होते हैं बाकी सब संयोग से बनते हैं, लेकिन खास बात यह भी है कि रिश्तों की यह दुनिया जितनी सुकून देती है, उतनी ही उलझनें भी पैदा करती है. क्योंकि कभी रिश्ते फूलों की तरह महकते हैं तो कभी कांटे बन कर जिंदगी के सुख और चैन ही छीन लेते हैं.
लेकिन संयोग से बने रिश्तों से अलग कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं, जो बनते नहीं, बल्कि किन्हीं वजहों से बनाए जाते हैं. कुछ रिश्ते जताए जाते हैं तो कुछ सिर्फ दिखाए जाते हैं. ऐसा ही एक रिश्ता है एक मां और एक बेटे के बीच का, जिस का राज जब खुला तो मामला उच्च न्यायालय तक पहुंच गया.
आरती महास्कर वह नाम है, जो पिछले कई दिनों से मुंबई में ही नहीं बल्कि देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है. आरती पर आरोप है कि उन्होंने 38 साल पहले अपने ही बेटे श्रीकांत सबनीस को 2 साल की उम्र में चलती ट्रेन में जानबूझ कर छोड़ दिया और अभिनेत्री बनने के सपने लिए मायानगरी मुंबई आ गईं.
अब ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर की कहानी परदे के पीछे से झांक रही है. इतना ही नहीं, वह इंसानी रिश्तों की अहमियत और उन के बदलते मिजाज को ले कर तमाम सवाल खड़े कर रही है.
उन तमाम सवालों का जवाब क्या होगा? इसे कोई नहीं जानता, लेकिन बेटे ने जो सवाल खड़ा कर दिया, उस का जवाब दे पाना आरती महास्कर नाम की उस मां के लिए शायद बेहद मुश्किल हो गया है. क्या है श्रीकांत सबनीस की कहानी? इसे जानने के लिए हमें उस के अतीत के पन्नों को खंगालना होगा, वह कहानी कुछ इस तरह सामने आई—
उस रोज जनवरी, 2020 की 6 तारीख थी. मुंबई उच्च न्यायालय परिसर में वादकारियों की चहलकदमी बदस्तूर जारी थी. सौम्य, सजीला, गोरा और गठीले बदन वाला बेहद हैंडसम श्रीकांत सबनीस न्यायाधीश ए.के. मेनन के कक्ष में उन के सामने सावधान की मुद्रा में खड़ा था. उस की उम्र यही कोई 40 वर्ष थी.
काला कोट पहने लगभग श्रीकांत की ही उम्र के एडवोकेट संजय कुमार, जो श्रीकांत के वकील थे, हाथों में फाइल लिए अपना नंबर आने की प्रतीक्षा में जज के सामने खड़े थे. फाइल के भीतर कुछ जरूरी दस्तावेज थे, उन्हीं दस्तावेजों की एकएक प्रति न्यायाधीश मेनन के सामने डेस्क पर रखी थी, जिन्हें जज साहब पढ़ने में तल्लीन थे.
सफेद रंग के पन्नों पर नीली स्याही से उकेरे गए शब्द जैसेजैसे श्री मेनन पढ़ते गए, आश्चर्य और हैरत के महासागर में डूबतेउतराते गए. शायद यह देश की पहली चौंकाने वाली घटना थी, जिस में याचिकाकर्ता श्रीकांत सबनीस ने अपनी सगी मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर से मानसिक आघात की क्षतिपूर्ति के बदले डेढ़ करोड़ रुपए का मुआवजा मांगा था.
मां से मांगे गए मुआवजे के पीछे रोंगटे खड़े कर देने वाली जो पीड़ा एक कहानी के रूप में परोसी, वाकई वह किसी रोमांचित कर देने वाली फिल्मी पटकथा से कम नहीं थी.
बात करीब 41 साल पहले सन 1978 के आसपास की है. पुणे (महाराष्ट्र) के दीपक सबनीस के साथ खूबसूरत ऊषा सबनीस दांपत्य सूत्र में बंधी तो उस का जीवन चांदनी की भीनी खुशबू की तरह महक उठा. घर में चारों ओर खुशियां छाई थीं. मां के समान दुलारने वाली सास थीं तो पिता की तरह प्यार देने वाले ससुर.
सखी समान राज छिपाने वाली हरदिल अजीज ननद थी तो सच्चे और वफादार दोस्तों के समान देवर, मिलाजुला कर घर के सदस्यों का भरपूर प्यार ऊषा के खाते में आया था.
कुल मिला कर ऊषा सबनीस वहां बहुत खुश थी. इन्हीं खुशियों के बीच वह एक बेटे की मां बन गई, जिस का नाम श्रीकांत सबनीस रखा. उन के जीवन में श्रीकांत के आने से चारों ओर बहार सी छा गई थी.
दीपक सबनीस पत्नी से खुश थे ही, बेटे के जन्म के बाद वह और निहाल हो गए. भौतिक सुखसुविधाओं की तमाम वस्तुएं घर में थीं, इसलिए उन्हें अब किसी और चीज की लालसा नहीं थी. उसी में वह खुशहाल जीवन जी रहे थे.
इस के विपरीत ऊषा की आकांक्षाएं अनंत थीं. बचपन से ही उस की ख्वाहिश रुपहले परदे पर खुद को दिखाने की थी. ऊषा फिल्मी दुनिया में जाना चाहती थी.
वह जब भी कोई फिल्म देखती तो अभिनेत्री के स्थान पर खुद को रख कर देखती थी. ऐसा कर के ऊषा के मन को भरपूर सुकून मिलता था और मन ही मन वह खूब खुश हुआ करती थी. खुली आंखों से देखे गए सपनों को वह पति से शेयर भी करती.
दीपक उस का मन रखने के लिए हां तो कह देता लेकिन सच्चे दिल से उसे पत्नी की ये बातें अच्छी नहीं लगती थीं. वह कभी नहीं चाहता था कि उस की पत्नी फिल्मी दुनिया की ओर रुख करे.
दीपक सबनीस यही चाहता था कि ऊषा एक कुशल गृहिणी की तरह घर में रह कर सासससुर और बच्चे की सेवा करे लेकिन ऊषा की सोच इस के विपरीत थी. उसे तो हीरोइन बनने की सनक सवार थी. इतना ही नहीं, उस ने ठान लिया था कि उसे अपने सपने पूरे करने के लिए राह की हर मुश्किलों को पार कर के आगे बढ़ते जाना है. इस बात को ले कर अकसर उस का पति दीपक से विवाद भी हो जाया करता था.
बात सन 1981 के सितंबर की है. आंखों में अभिनेत्री बनने के सपने लिए ऊषा 2 साल के बेटे श्रीकांत को अपने साथ ले कर पुणे से मुंबई चल दी थी. उस ने कहीं सुना था कि फिल्मी दुनिया में कुंवारियों को हीरोइन के रूप में तरजीह दी जाती है. हालांकि शरीर की कसावट से वह अविवाहित लगती थी, लेकिन वास्तव में उस के पास तो अपना खुद का बेटा था. बेटे को ले कर वह परेशान थी.
उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपने 2 साल के बेटे का क्या करे? मुंबई पहुंच चुकी ऊषा की समझ में जब कुछ नहीं आया तो उस ने अपने दुधमुंहे बेटे श्रीकांत को जानबूझ कर ट्रेन के डिब्बे में किसी निर्मोही की तरह बिलखता छोड़ दिया और सपनों की तलाश में मायानगरी में गुम हो गई.
ट्रेन में 2 साल के रोते बच्चे की आवाज टीटीई के कानों के परदे से टकराई थी. बच्चे की करुण क्रंदन सुन कर टीटीई ने डिब्बे के अंदर झांका तो बच्चे को अकेला रोता देख कर उस का हृदय भर आया था.
ट्रेन में सवार सभी यात्री उस में से उतर कर अपनेअपने गंतव्य स्थान को जा चुके थे. 2 साल का बच्चा ही डिब्बे में अकेला मां की गोद पाने के लिए बिलख रहा था. उस की मां उस के आसपास कहीं नहीं दिख रही थी.
प्लेटफार्म पर मौजूद तमाम यात्रियों से उस ने बच्चे के बारे में पूछताछ की थी, लेकिन किसी ने उस नन्हीं सी जान को नहीं पहचाना. टीटीई की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? अंत में टीटीई ने बच्चे को राजकीय रेलवे पुलिस (जीआरपी) को सौंप दिया. जीआरपी ने लिखापढ़ी करने के बाद वह बच्चा अनाथाश्रम को सौंप दिया था.
दुधमुंहे श्रीकांत का अपना भरापूरा परिवार था. घर था, प्यार करने वाले दादादादी और पिता थे, फिर भी वह अनाथों की तरह अनाथाश्रम में पहुंच गया था. वहां वह अन्य अनाथ बच्चों की तरह पल रहा था. उन अजनबी चेहरों के बीच नन्हा श्रीकांत अपनों को तलाशता रहता. उन में उस का अपना कोई नहीं था. अनजान और अजनबी चेहरों को देख कर वह अकसर रोता ही रहता था.
अगले दिन स्थानीय अखबारों में नन्हें श्रीकांत के ट्रेन में पाए जाने की खबर प्रमुखता से प्रकाशित की गई थी. समाचारपत्रों के माध्यम से लावारिस श्रीकांत की तसवीर राजस्थान के एक दंपति ने भी देखी. उस दंपति की अपनी कोई औलाद नहीं थी, जिस के बाद उस दंपति ने श्रीकांत को गोद ले लिया.
बाद में यह जानकारी श्रीकांत की नानी को मिली तो वह तड़प कर रह गईं. उन्होंने राजस्थान के उस दंपति से श्रीकांत को मांगा तो उन्होंने बच्चा देने से इनकार कर दिया. तब नानी ने कोर्ट की शरण ली. आखिर उन्होंने 4 साल तक कानूनी लड़ाई लड़ कर राजस्थानी दंपति से श्रीकांत को हासिल कर लिया. उस समय श्रीकांत करीब 6 साल का हो चुका था. इस के बाद वह अपनी नानी के पास ही पलाबढ़ा.
तकदीर का खेल देखिए, जिस मजबूत वृक्ष के सहारे श्रीकांत को घनी छाया मिल रही थी, वही उस से सदा के लिए छिन गई. सन 1991 में उस की नानी सदा के लिए दुनिया छोड़ गईं. नानी के देहांत के बाद वह अपनी मौसी आशा के साथ रहने लगा. अब तक श्रीकांत की जिंदगी खानाबदोश की जिंदगी हो गई थी.
मौसी आशा से उसे पिछली जिंदगी की सारी सच्चाई पता चली तो श्रीकांत का कलेजा फट गया. मां पर उसे काफी गुस्सा आया लेकिन वह नहीं जानता था कि इस वक्त उस की मां कहां हैं? लेकिन मन ही मन उस ने ठान लिया कि मां को एक न एक दिन जरूर ढूंढ़ निकालेगा. तब उस से अपनी त्रासद जिंदगी के एकएक पल का हिसाब मांगेगा.
नानी के बाद सहारा बनी मौसी आशा ने श्रीकांत को एक नई जिंदगी दी. सन 2006 में उन्होंने श्रीकांत की शादी करा दी. नई जिंदगी की शुरुआत श्रीकांत ने अपने तरीके से की. वह बतौर एक मेकअप आर्टिस्ट अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो गया और मां की तलाश में पुणे से मुंबई आ गया.
मुंबई के जुहू में किराए का कमरा ले कर पत्नी के साथ रहने लगा. वह जानता था कि उस की मां मुबंई में रहती है. दिनरात वह यही कोशिश करता था कि किसी तरह उस की मां से मुलाकात हो जाए.
आखिर श्रीकांत की यह इच्छा भी पूरी हो गई. सन 2017 में श्रीकांत सबनीस को सोशल मीडिया की मदद से किसी तरह मां का पता चल गया. वह उस तक पहुंचा था. लेकिन मां की सच्चाई जान कर वह हैरान रह गया था. मां ऊषा सबनीस से अब आरती महास्कर बन चुकी थी और किसी धनाढ्य उदय महास्कर से शादी कर के अपना संसार बसा चुकी थी. ऊषा से आरती महास्कर का चोला ओढ़े ऊषा ने पति से अपना अतीत छिपा लिया था.
उस ने यह बात दूसरे पति से कभी नहीं बताई थी कि पुणे के रहने वाले दीपक सबनीस से उस की शादी हुई थी. उस से अपना एक बेटा भी है, जिसे उस ने हीरोइन बनने की लालसा में मुंबई की ट्रेन में लावारिस छोड़ दिया था.
आरती महास्कर उर्फ ऊषा सबनीस ने यह राज अपने सीने में हमेशा के लिए दफन कर लिया था और उदय महास्कर के साथ नई जिंदगी की पारी शुरू कर दी थी. बाद के दिनों में उस से 2 बच्चे भी हुए, जो आज भी हैं.
कहते हैं, ठान लो तो पत्थर के सीने से भी दूध निकाल सकते हैं. श्रीकांत ने ऐसा ही कुछ किया था. मौसी आशा द्वारा बताई अतीत को सच साबित करने के लिए श्रीकांत ने सोशल मीडिया का सहारा लिया और साथ ही अपने परिचितों से अपनी मां का पता लगाने का आग्रह भी किया. उस की मेहनत रंग लाई. डेढ़ साल बाद यानी सितंबर, 2018 में आखिरकार श्रीकांत ने मां ऊषा उर्फ आरती महास्कर का मोबाइल नंबर ढूंढ ही लिया.
उस ने मां से बात की. लेकिन मां आरती महास्कर ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया. उस ने मां को याद दिलाने के लिए 38 साल पहले घटी पूरी घटना विस्तार से बताई तब जा कर उस की मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर ने यह तो स्वीकार किया कि वह उसी का बेटा है.
38 सालों से सीने में दबा राज अचानक सामने आया तो आरती महास्कर विचलित सी हो गई. वह सोच नहीं पा रही थी कि वह इस राज को राज कैसे रखेगी. बच्चों के सामने जब यह सच्चाई खुल कर आएगी तो क्या होगा? यह सोच कर आरती महास्कर कांप गई थी.
इस से पहले कि आरती की सच्चाई खुल कर सब के सामने आती, उस ने पति उदय महास्कर को सारी सच्चाई बता दी. किसी तरह पतिपत्नी ने मामला आपस में फिलहाल सुलझा लिया था. एक दिन आरती और उदय महास्कर ने श्रीकांत को अपने पास बुलाया और उसे समझाया कि यह बात उन के बेटों से कभी नहीं बताएगा कि वह उन्हीं का बेटा है, नहीं तो उन के घर में भूचाल आ जाएगा.
श्रीकांत को मां और सौतेले पिता से ऐसी उम्मीद नहीं थी कि वे उसे अपना बेटा नहीं स्वीकारेंगे. मां के इनकार से उस का कलेजा छलनीछलनी हो गया था. उसी समय उस ने फैसला किया कि वह मां को इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगा.
38 सालों से जिस तरह वह अपनों के होते हुए भी उन के प्यार के लिए तरसा है, अनाथों की तरह यहांवहां जीया है, उन सब का हिसाब उन से जरूर लेगा. उस के बाद श्रीकांत मां के पास से लौट आया और मुंबई हाईकोर्ट की शरण में जा पहुंचा.
6 जनवरी, 2020 को श्रीकांत ने न्यायाधीश ए.के. मेनन की अदालत में एक याचिका दायर की. याचिका में उस ने लिखा था कि 38 साल पहले सन 1981 में मां ऊषा सबनीस उर्फ आरती महास्कर ने मुझे मुंबई (तब बंबई) स्टेशन पर ट्रेन में छोड़ दिया था.
मां भी यह मान चुकी थी कि ट्रेन में वह उसे छोड़ गई थी. मां ने यह तो माना कि वह उस का बेटा है. यह भी बताया कि कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों के चलते उसे छोड़ना पड़ा था, लेकिन वह अब मिलना नहीं चाहती.
तब मैं ने वहीं जा कर मां और अपने सौतेले पिता उदय महास्कर से मुलाकात की. वहां उन दोनों ने कहा कि वह अपनी सच्चाई उन के बच्चों के सामने नहीं बताए. मैं एक तो पहले से ही परेशान था, लेकिन अपनी मां और सौतेले पिता की यह शर्त सुन कर और ज्यादा परेशान हो गया.
याचिका में श्रीकांत ने कहा कि कोर्ट मां को मुझे अपना बेटा घोषित करने और यह ऐलान करने का आदेश दे कि उस ने 2 साल की उम्र में उसे छोड़ दिया था. मैं ने बरसों तक मानसिक आघात सहा है और असुविधाओं को झेला है.
मां से बिछुड़ने पर जिंदगी दर्दभरी हो गई. मां की ममता को अनाथों की तरह तरसा है. मातापिता के होते हुए भी अनाथों की तरह रहा हूं. तब तक भिखारी की तरह जीना पड़ा, जब तक अपनी नानी के पास नहीं पहुंच गया. जिस ममता के लिए मैं तरसा हूं, मुझे बेटे का दरजा न देने के एवज में डेढ़ करोड़ का मुआवजा दें.
याचिकाकर्ता श्रीकांत सबनीस ने आगे बताया कि मैं अपने अतीत से बेखबर था. मेरी मौसी ने मुझे अतीत की पूरी हकीकत बयान की.
इस के बाद सोशल मीडिया की मदद से किसी तरह मैं अपनी मां ऊषा तक पहुंचा, लेकिन अब मां ऊषा सबनीस से आरती महास्कर बन चुकी थी और अपने दूसरे पति उदय महास्कर के साथ संसार बसा चुकी थी. अपनी पहचान बताने के बावजूद आरती महास्कर ने उसे सब के सामने बेटा स्वीकारने से इनकार कर दिया.
इसी के बाद श्रीकांत ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और पिछले 38 साल तक झेले मानसिक संत्रास के लिए डेढ़ करोड़ रुपए के मुआवजे की भी मांग की.
इस घटना ने देश भर में सनसनी पैदा कर दी थी. इस के बाद श्रीकांत सबनीस और आरती महास्कर के बीच जंग शुरू हो गई थी. यह मामला अभी भी न्यायालय में चल रहा है. कथा लिखे जाने तक मुकदमे में काररवाई जारी थी.
—कथा सोशल मीडिया पर आधारित