‘दलित भाइयों पर अत्याचार मत करो. अगर गोली मारनी है, तो उन्हें नहीं मुझे मारो…’ जैसी जज्बाती और किताबी अपील प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद के एक जलसे में की थी. उस का उलटा असर यह हुआ कि देशभर में दलित अत्याचारों की बाढ़ सी आ गई.

दलितों पर कहर ढाने के लिए दबंग धर्म के नाम पर तरहतरह के नएनए तरीके ईजाद करते रहते हैं. गौरक्षा इन में से एक है. लेकिन मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में तो दबंगों ने सारी हदें पार करते हुए ऐसा नजारा पेश किया था कि इनसानियत भी कहीं हो तो वह भी शर्मसार हो उठे.

लाश को भी नहीं बख्शा

यह मामला मुरैना जिले की अंबाह तहसील के गांव पाराशर की गढ़ी का है. 10 अगस्त, 2016 को इस गांव में एक दलित बाशिंदे बबलू की 25 साला बीवी पूजा की मौत हुई थी.

अपनी जवान बीवी की बेवक्त मौत का सदमा झेल रहा बबलू उस वक्त सकते में आ गया, जब दबंगों ने पूजा की लाश को श्मशान घाट में नहीं जलाने दिया.

इस पर बबलू हैरान रह गया और दबंगों के सामने गिड़गिड़ाता रहा कि वह लाश को कहां ले जा कर जलाए, पर दबंगों का दिल नहीं पसीजा. उन्होंने बबलू को डांट फटकार कर भगा दिया कि जो करना है सो कर लो, पर एक दलित औरत की लाश श्मशान घाट में जलाने की इजाजत हम नहीं दे सकते.

मौत के कुछ घंटे बीत जाने के बाद घर में पड़ी लाश भी भार लगने लगती है, इसलिए बबलू की हालत अजीब थी कि बीवी की लाश का क्या करे.

पाराशर की गढ़ी गांव में एक नहीं, बल्कि 3-3 श्मशान घाट हैं, पर तीनों पर रसूखदारों का कब्जा है, जिन में कोई दलित अंतिम संस्कार नहीं कर सकता.

बबलू को बुजुर्गों ने मशवरा यह दिया कि बेहतर होगा कि पूजा की लाश को किसी खेत में जला दो.

इस पर बबलू फिर गांव वालों के पास गया और बीवी की मिट्टी ठिकाने लगाने के लिए सभी जमीन वालों से 2 गज जमीन मांगी, पर किसी को उस पर तरस नहीं आया.

जब इस भागादौड़ी में पूरे 24 घंटे गुजर गए और लाश गलने लगी, तो बबलू घबरा उठा और थकहार कर बुझे मन से उस ने पूजा की लाश का दाह संस्कार अपने घर के सामने बनी कच्ची सड़क पर किया.

यह वही हिंदू धर्म है, जिस में किसी शवयात्रा के निकलते वक्त लोग सिर झुका कर किनारे हो जाते हैं और मरने वाले की अर्थी की तरफ देख कर हाथ जोड़ते हैं. लेकिन अगर शवयात्रा किसी दलित की हो, तो नफरत से मुंह फेर लेते हैं.

गांवों में यह नजारा आम है, जिस के तहत मरने के बाद भी दलितों से ऊंची जाति वालों की नफरत खत्म नहीं होती, उलटे उन्हें तंग करने के लिए श्मशान में भी जगह नहीं दी जाती.

इस हकीकत पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी कहा था कि अब गांव में एक घाट एक श्मशान होगा, दलितों के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा.

अकेले ग्वालियरचंबल इलाके की नहीं, बल्कि देशभर के गांवों की यही हालत है कि दलितों के घर कोई मौत हो, तो उन्हें लाश बड़ी जाति वालों की तरह श्मशान में जलाने की सहूलियत नहीं है. इस का मतलब तो यह हुआ कि धर्म मानता है कि आत्मा भी दलित होती है और किसी ऊंची जाति वाले की आत्मा को दलित की आत्मा छू गई, तो वह भी अपवित्र हो जाएगी.

लेकिन हकीकत तो यह है कि इस तरह की ज्यादतियां दलितों को दबाए रखने के लिए जानबूझ कर की जाती हैं, जिस से वे दबंगों के सामने सिर नहीं उठा पाएं.

पाराशर की गढ़ी गांव की तरह दलितों को अपने वालों की लाश अपनी ही जमीन पर जलानी पड़ती है, लेकिन दिक्कत बबलू जैसे 95 फीसदी दलितों की होती है, जिन के पास अपनी जमीन नहीं होती. लिहाजा, वे लाश को किसी जंगल में या गांव के बाहर सरकारी जमीन पर जलाने के लिए मजबूर होते हैं.

कब्जा करने की मंशा

पाराशर की गढ़ी गांव के तीनों श्मशानों में केवल ऊंची जाति वालों की लाशें जलती हैं, पर हैरानी की बात यह है कि श्मशान की जमीनों पर दबंगों का कब्जा है और वे शान से इन जमीनों पर खेती करते हैं. उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है.

पूजा की लाश को जगह न देने पर जब ज्यादा होहल्ला मचा, तो आला अफसर भागेभागे पाराशर की गढ़ी गांव गए और हालात का जायजा लिया.

मुरैना के कलक्टर विनोद शर्मा और एसपी विनीत खन्ना ने फौरीतौर पर श्मशान घाट की जमीनों पर फैसिंग करवा दी, जो तय है कि जो कुछ दिनों या महीनों में हट जाएगी और दबंग फिर से इस सरकारी जमीन पर काबिज हो जाएंगे.

मंदिर बना कर जमीनें हड़पना आम बात है. इसी तर्ज पर अब श्मशानों की जमीनों पर भी ऊंची जाति वाले कब्जा करने लगे हैं. जिस तरह मंदिरों में पूजापाठ के लिए दलितों को दाखिल नहीं होने दिया जाता, ठीक उसी तरह श्मशानों में भी उन्हें जलाने की इजाजत नहीं है.

पाराशर की गढ़ी गांव में तहकीकात करने गए अफसर कुरसियों पर बैठे दलित बबलू की दास्तां सुनते रहे और बबलू समेत और दलित नीचे जमीन पर बैठे रिरियाते रहे.

प्रशासन ने बात सुनी, लेकिन किसी दोषी दबंग के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की. यह बात इस रिवाज को शह देने वाली नहीं तो क्या है?

ऐसा ही एक मामला इसी साल अप्रैल के महीने में नरसिंहपुर जिले की करेली तहसील में सामने आया था. वंदेसुर गांव के एक गरीब बुजुर्ग की मौत के बाद उस के घर वाले लाश को जलाने श्मशान घाट ले गए, तो दबंगों ने उन्हें लाश समेत वहां से भगा दिया था.

इस पर मरने वाले के भांजे गोपाल मेहरा ने हल्ला मचाया, तो गाडरवारा के तहसीलदार संजय नागवंशी गांव पहुंचे और मामले की जांच कर यह बयान दिया कि कायदेकानूनों के तहत कुसूरवारों पर कार्यवाही की जाएगी.

दरअसल, वंदेसुर गांव की श्मशान घाट की 3 एकड़ जमीन पर दबंगों भानुप्रताप राजपूत और छत्रसाल राजपूत का कब्जा है. इस मामले में भी मरे बुजुर्ग का अंतिम संस्कार तालाब किनारे सड़क पर किया गया था.

इन उजागर हुए मामलों से जाहिर सिर्फ इतना भर होता है कि जीतेजी तो दलित दबंगों का कहर झेलते ही हैं, पर मरने के बाद भी उन्हें बख्शा नहीं जाता.

गांव में पंचायती राज कहने भर की बात है, नहीं तो असल राज दबंगों का चलता है, जो श्मशान तक की जमीनें हथिया लेते हैं और दलितों की लाश को नहीं जलाने देते.

समस्या श्मशान घाटों की कमी की नहीं, बल्कि छुआछूत और दबंगई की है, जिस के तहत ऊंची जाति वाले श्मशान तक में छुआछूत मानते हैं. वे अगर दलितों को श्मशान में लाश जलाने की इजाजत दे देंगे, तो जमीनों पर बेजा कब्जा नहीं कर पाएंगे.

ज्यादातर दलितों के पास जमीनें नहीं हैं, इसलिए लाशों को ठिकाने लगाने के लिए वे यहांवहां भटकते रहते हैं. हालत यह है कि कुएं और नदी ऊंची जाति वालों के कब्जे में हैं, सड़कें उन के लिए हैं, मंदिर उन के लिए हैं और श्मशान घाट भी उन्हीं के हैं. ऐसे में भाईचारे और बराबरी की बात मजाक ही लगती है.

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