मैं जब सुबहसुबह तैयार हो कर कालेज के लिए निकलती, तो वह मुझे सड़क पर जरूर मिल जाता था. वह गोराचिट्टा और बांका जवान था. उस की हलके रंग की नई मोटरसाइकिल सड़क के एक ओर खड़ी रहती और वह खुद उस पर बैठा या नजदीक ही चहलकदमी करता दिखाई देता.

जब कभी वह उस जगह से गायब मिलता, मैं उसे इधरउधर गरदन घुमा कर ढूंढ़ने को मजबूर हो जाती. तब वह कभी चाय की दुकान में चाय पी रहा होता, तो कभी पान वाले के पास और कभी गुलाब की झाड़ी के पास हाथों में गुलाब लिए खड़ा दिखाई देता. उस की नजर मुझ पर ही लगी होती और जब मैं उस की ओर देखती, तो वह अपनी नजर दूसरी ओर घुमा लेता.

हम लोग एक बस्ती के पक्के मकान में रहते थे, जिस में हर तरह के लोग रहते थे. कुछ ओबीसी कहलाते, कुछ एससी, कुछ अल्पसंख्यक. पिछले कुछ सालों से कुछ गुंडेटाइप लोगों ने हमें भी सताना शुरू कर दिया था, इसलिए मैं बड़े संकोच से घर से निकलती थी.  सच पूछो तो मुझे भी उसे देखना अच्छा लगता था. डर लगता था कि कहीं यह उन गुंडों में न हो, जो आजकल हर जगह आतंक फैलाए हुए हैं और चुनावों व त्योहारों में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.

मैं जब तक उसे देख न लेती, दिल को चैन नहीं मिलता था. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. उस के बाद उस ने मुझे ‘नमस्ते’ करना शुरू कर दिया. मैं भी डरडर कर मुसकरा कर जवाब देने लगी थी. एक दिन मेरे छोटे भाई मदन के पेट में अचानक दर्द उठा, तो मैं उसे पास के एक डाक्टर के क्लिनिक पर ले गई. वहां बोर्ड लगा था- डा. रमेश.  जैसे ही मैं कमरे में गई तो यह देख कर चौंकी कि कुरसी पर वही मोटरसाइकिल वाला नौजवान बैठा हुआ था.

वह भी मुझे देख कर हैरान रह गया और बोला, ‘‘आप… आइए, बैठिए…’’ हम कुरसियों पर बैठ गए, तो वह आगे बोला, ‘‘कैसे आना हुआ?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह मेरा छोटा भाई है मदन. इस के पेट में सुबह से दर्द हो रहा है.’’ उस ने मदन को बिस्तर पर लिटाया और 5-7 मिनट तक उस की जांच की, फिर बोला ‘‘कोई बड़ी बात नहीं है. कभीकभी ऐसा हो जाता है. मैं दवाएं दे देता हूं. आप इन्हें देते रहिए. सब ठीक हो जाएगा.’’ हम दवाएं ले कर घर आ गए. जल्दी ही मदन बिलकुल ठीक हो गया.

अगले दिन जब मैं कालेज से क्लिनिक गई, तो डाक्टर रमेश मुझे कहीं दिखाई नहीं दिए. मैं ने सोचा कि चलो इस आंखमिचौली के खेल का खात्मा हो गया.  एक दिन कालेज में हमारे सभी पीरियड खाली थे, मैं इसलिए बाजार घूमने निकल पड़ी. वहीं पर डाक्टर रमेश मिल गए. मैं ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘आज आप कहां थे?’’ वे बोले, ‘‘मदन कैसा है?’’

‘‘अब बिलकुल ठीक है.’’

वे कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,

‘‘क्या आप मेरे साथ एक प्याला चाय पी सकती हैं?’’

‘‘जरूर, मुझे खुशी होगी.’’

हम दोनों एक रैस्टोरैंट में चले गए और एक जगह बैठ गए. उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप का नाम ‘निशा’ है?’’ ‘‘आप कैसे जानते हैं…?’’

मैं ने हैरानी से पूछा. वे हंसे, फिर बोले, ‘‘आप ने अपनी किताब पर जो लिख रखा है. वैसे, सब से पहले मेरी छोटी बहन मधु ने बताया था, जो आप के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘अच्छा, तो आप मधु के भाई हैं…’’ मैं मधु को जानती थी. वह मुझ से एक क्लास पीछे थी. ‘‘क्या हर रोज इस आंखमिचौली का भेद बता सकेंगे आप…?’’ मैं ने जानना चाहा. बैरा चाय रख गया था और हम चाय पीने लगे थे. डाक्टर रमेश धीरे से बोले, ‘‘बहुत दिनों से मैं इस भेद को खोलना चाहता था, पर हिम्मत नहीं बटोर सका. आज मौका मिला है,

पर सोचता हूं कि आप कहीं बुरा न मान जाएं.’’ मैं चौंक कर उन की नीली आंखों में झांकने लगी, फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘‘जो आप कहना चाहते हैं, साफसाफ कहिए.’’ ‘‘बात यह है निशाजी, जब से मैं ने आप को देखा है, मैं आप को चाहने लगा हूं. मैं आप को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं. क्या आप मेरा जिंदगीभर साथ दे सकती हैं?’’ मेरी धड़कनें तेज हो गई थीं. मैं कुछ पल चुप रही. फिर बोली, ‘‘देखो, इस बारे में मैं ने अभी कुछ सोचा ही नहीं है.

एक तो मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का आखिरी साल है और इम्तिहान सिर पर हैं. दूसरे, इस मामले में मातापिता की मंजूरी लेना भी जरूरी है.’’ ‘‘अगर आप की मंजूरी मिल जाएगी, तो बाकी सभी की भी मिल जाएगी और हमारे रास्ते में कोई रुकावट नहीं आएगी,’’ उन्होंने मेरी राय जाननी चाही. मैं मुसकरा उठी थी. मेरे सभी परचे बहुत अच्छे हुए थे. जब नतीजा आया तो कालेज में मेरा नंबर चौथा था. डाक्टर रमेश ने आ कर मुझे बधाई दी और कहने लगे,

‘‘बस निशा, अब तुम अपने मातापिता को भी अपना फैसला बता दो. तुम्हारी नौकरी के लिए भागदौड़ मैं करता हूं.’’

मदन, जो मुझ से 2 साल छोटा था और इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था, उसे मैं ने एक दिन अपने दिल की बात बताई. सुन कर वह बहुत खुश हुआ, क्योंकि वह भी कई बार डाक्टर रमेश से मिल चुका था. फिर मदन ने ही मातापिता से बात की और वे भी मान गए. कुछ दिनों के बाद पिताजी ने डाक्टर रमेश को चाय पर बुलाया. शादी के बारे में बात चल पड़ी.  बातचीत के दौरान पिताजी कहने लगे, ‘‘देखो रमेश, हम जाति से हरिजन हैं और आप ब्राह्मण… क्या आप की बिरादरी एक हरिजन लड़की को अपनी बहू बनाने को तैयार होगी?

‘‘क्या आप को समाज के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ेगा? यह ठीक है कि सरकारी नौकरी मिलने की वजह से हमारा खानपान अच्छा है और अहम यह है कि निशा पढ़ने में बेहद होशियार है, पर आजकल तुम जानते ही हो कि ऊंचीनीची जातियों में विचारों में भी दिक्कतें आने लगी हैं. सरकार मुंह से नहीं कहती, पर जो लोग हल्ला करते हैं, उन्हें हर तरह की छूट दे रखी है. निशा को मैडिकल कालेज में बड़ी दिक्कतें आती हैं. कम ही लोग उस के दोस्त बनते हैं.’’

‘‘मैं जातबिरादरी के ढोंग को नहीं मानता…’’ डाक्टर रमेश बोल उठे थे, ‘‘मुझे किसी की परवाह नहीं है. हम इस बुराई को खत्म करने के लिए आगे बढ़ेंगे और हमारी शादी इस दिशा में एक सही कदम साबित होगी.’’  डाक्टर रमेश इस तरह की बहुत सी बातें करते हैं. ऊंची जाति का होने पर भी उन्होंने इसीलिए हमारे जैसे लोगों की बस्ती में क्लिनिक खोला, ताकि कोई बीमारी से न मरे. हम डाक्टर रमेश की बातों को सुन कर बहुत खुश हुए थे.

इस से अगले ही महीने डाक्टर रमेश से मेरी शादी एक कोर्ट में हो गई. उन्होंने गांव से अपने मातापिता और कुछ दोस्तों को भी बुलाया था.  शहर आने से पहले हमारा परिवार भी गांव में ही रहता था. हमारे गांव से उन के गांव की दूरी केवल 5 किलोमीटर ही थी. चूंकि शादी कोर्ट में की थी, उन के मातापिता को एकदम पता नहीं चल पाया कि हमारी जाति क्या है.

पर डाक्टर रमेश के मातापिता को शादी के बाद पता लग गया कि हम हरिजन हैं, तो वे कुछ गुस्सा हो गए. वे दूसरे ही दिन गांव लौट गए. फिर क्या था, उन के पूरे गांव में जंगल की आग की तरह यह खबर फैल गई. शादी के बाद जब पहली बार हम गांव गए,

तो मातापिता बहुत नाराज थे, पर महेश के पैसे और डाक्टर की डिगरी के आगे ज्यादा बोल नहीं पाई. हमें देख एक बुजुर्ग दूसरे से कहने लगा, ‘‘देखो भाई, क्या जमाना हो गया है. छोटी जाति के लोग हमारे पास जीहुजूरी करते थे, आंगन में जूते उतार कर चलते थे, अब उन्हीं लोगों की लड़कियां हमारे लड़कों को फंसा कर शादियां करने लगी हैं. हमारी इज्जत तो मिट्टी में मिल गई…’’

दूसरे बूढ़े ने ताना मारा, ‘‘अरे रमेश, क्या तुझे अपनी बिरादरी में कोई लड़की नहीं मिली?’’ रमेश चुप रहे, पर मैं जानती थी कि यह कैसा समाज इनसानों के बीच दीवारों को हटाने की जगह और बना रहा है. आखिर यह ऊंचनीच का भेदभाव कब तक जारी रहेगा? रमेश मुझे समझाने लगे, ‘‘निशा, तुम इन लोगों की बातों का बुरा मत मानना. गांव वाले अनपढ़ और गंवार हैं, जो समझाने पर भी नहीं समझते. अब तो ये लोग ह्वाट्सएप वगैरह पर खूब जातिवाद फैलाते हैं. इस का तो मुकाबला करना ही होगा. जब लोगों में समझ आएगी, तभी समाज में धीरेधीरे बदलाव आएगा.’

’ हम कुछ दिन बाद शहर आ गए. कुछ ही महीने गुजरे थे कि मुझे डाक्टर की डिगरी मिल गई. हम दोनों अब एक ही सरकारी अस्पताल में काम करने लगे. फिर डेढ़ साल बाद हमारी बदली हमारे गांव के पास के एक अस्पताल में हो गई. अपने इलाके के लोगों की सेवा करने में हमें बड़ी खुशी होती थी. गांव में रमेश के एक पक्के दोस्त घनश्याम, जो स्कूल में मास्टर थे, के घर बेटे ने जन्म लिया. इस खुशी में उन्होंने एक बहुत बड़ा भोज किया.

जब खाने का समय आया और चावल परोसे जाने लगे तो हम भी पत्तलें ले कर गांव वालों के साथ बैठ गए. पर यह क्या. पूरे के पूरे गांव वाले पत्तलों में अपनाअपना खाना छोड़ कर उठ खड़े हुए और कानाफूसी करते सुनाई दिए, ‘हम किसी हरिजन के छुए अन्न को नहीं खाएंगे. इन्हें बुलाया ही क्यों…?’ मैं हैरान रह गई. मैं ने सोचा भी नहीं था कि हमारे आने से इतना बड़ा भूचाल आ जाएगा. उधर रमेश, घनश्याम और 2-3 समझदार लोग गांव वालों को समझाने लगे. पर सब बेकार. उस अन्न को पशुपक्षियों के आगे और नदी में मछलियों के लिए फेंक दिया गया.

उस दिन से मैं इतनी शर्मिंदा और दुखी हुई कि दोबारा कभी गांव में न जाने का पक्का इरादा कर लिया. तभी कोविड पैर पसारने लगा था. लोगों को सांस की तकलीफ बढ़ने लगी. 2-3 दिनों में ही पूरा अस्पताल भर गया. कोविड बीमारी ने हमारे गांव को भी अपनी चपेट में ले लिया. पंचायतघर और स्कूल के कमरों ने भी अस्पताल का रूप ले लिया. डाक्टर कम और मरीज ज्यादा और डाक्टरों को भी डर लगना कि उन की सेहत न बिगड़ जाए.

मम्मीपापा को हम अपने पास ले आए. हम ने तन, मन से गांव वालों की मदद की. गांव के कई लोग जो अस्पताल देर से पहुंचे, मौत के मुंह में चले गए. उन की लाशों को आग के हवाले किया. जिन की हालत ज्यादा खराब थी, उन्हें शहर के बड़े अस्पतालों में भेजने का इंतजाम किया. औक्सीजन सिलैंडरों का इंतजाम किया. हम से जो बन पड़ा किया.

मैं और महेश दोनों  20-20 घंटे काम करते. बीच में मुश्किल से कुरसी पर बैठेबैठे सुस्ताते. गांव के लोगों की देखभाल मैं खुद करती थी. उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाती थी. जब लोग कुछ ठीक हो गए, तो एक दिन खाना खिलाते समय मैं ने एक बूढ़े को छेड़ ही दिया, ‘‘ताऊजी, आप सभी ने उस दिन मेरे छुए अन्न को खाने से मना कर दिया था, पर आज…’’ उन की गरदन झुक गई. वे कहने लगे, ‘‘बेटी, हम बहुत शर्मिंदा हैं और आप से माफी मांगते हैं. हम सब बराबर हैं.

कोई छोटा या बड़ा नहीं है. अब हमें यह बात समझ आ गई है.’’ दूसरा आदमी बोल उठा, ‘‘बेटी, तुम तो हमारे लिए जिंदगी बन कर आई हो…’’ मुझे उन की बातें सुन कर संतोष हुआ. महामारी पर काबू पाने में तकरीबन 2-3 महीने लगे.

इस बीच गांव के सभी लोग दिनरात हमारी तारीफ ही करते रहते थे. एक दिन दोपहर को मैं और मधु आपस में बातें कर रही थीं कि अचानक वह बोली, ‘‘भाभीजी, मैं पिछले कई दिनों से आप से एक बात कहना चाहती हूं, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही…’’

‘‘जरूर बोलो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकी तो मुझे खुशी होगी,’’ मैं ने उस की पीठ थपथपाते हुए कहा. ‘‘बात यह है कि…’’ वह आगे कुछ न कह सकी.

‘‘अरे, इतनी शरमा क्यों रही हैं?’’ ‘‘भाभीजी, मैं ने अपने लिए जीवनसाथी चुन लिया है.’’ ‘‘अच्छा, वह कौन है भला…?’’ मैं ने चहक कर पूछा. ‘‘मदन.’’ ‘‘क्या?’’ मैं उछल पड़ी, ‘‘सच?’’

‘‘हां भाभीजी, ‘‘वह बोली, ‘‘मदन ने ही मुझे आप से अपना फैसला सुनाने के लिए कहा था. हम दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते हैं.’’ मैं ने भरी आंखों से मधु को सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘अगर जवान लड़केलड़कियां आगे आएं तो यह छुआछूत और भेदभाव की दीवार जरूर मिटाई जा सकती है. काश, हमारे गांव की तरह पूरे देश से इस बुराई  का खात्मा हो पाता, तो देश तेजी से तरक्की करता.’

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