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परसराम महावर का परिवार हर तरह से खुशहाल था, जो भोपाल की सिंधी बाहुल्य बैरागढ़ स्थित राजेंद्र नगर के एक छोटे से मकान में रहता था. परसराम कपड़े की दुकान में काम करता था. बैरागढ़ का कपड़ा बाजार देश भर में मशहूर है, यहां देश के व्यापारी थोक और फुटकर खरीदारी करने आते हैं. परसराम सुबह 8-9 बजे दुकान पर चला जाता था और देर रात लौटना उस की दिनचर्या थी. घर में उस की 30 वर्षीय पत्नी कविता (बदला नाम) और 2 बच्चे 10 साल की कनक और 8 साल का बेटा कार्तिक था, जिसे भरत भी कहते थे.

सुबह के वक्त दोनों बच्चों को स्कूल भेज कर कविता घर के कामकाज में जुट जाती थी और दोपहर 12 बजे तक फारिग हो कर या तो पड़ोस में चली जाती थी या फिर अपने मोबाइल फोन पर गेम खेल कर वक्त गुजार लेती थी. दोपहर ढाई बजे बच्चे स्कूल से वापस आ जाते थे तो वह फिर उन के कामों में व्यस्त हो जाती थी. इस के बाद बच्चों के खेलने और ट्यूशन पढ़ने का वक्त हो जाता था.

एक लिहाज से परसराम और कविता का घर और जिंदगी दोनों खुशहाल थे, उस की पगार से घर ठीकठाक चल जाता था. शादी के 12 साल हो जाने के बाद पतिपत्नी का मकसद बच्चों को पढ़ालिखा कर कुछ बनाने भर का रह गया था. इन लोगों ने अपने बच्चों को नजदीकी क्राइस्ट स्कूल में दाखिल करा दिया था. हर मांबाप की तरह इन की इच्छा भी बच्चों को अंगरेजी स्कूल में पढ़ाने की थी, जिस वे फर्राटे से अंगरेजी बोलने लगें. कनक और कार्तिक जब स्कूल की यूनिफार्म के साथ टाई बेल्ट और जूते पहन कर जाते थे, तो परसराम के काम करने का उत्साह और बढ़ जाता था.

कपड़े की दुकान का काम कितना कठिन होता है, यह परसराम जैसे लोग ही बेहतर जानते हैं जो दिन भर ग्राहकों के सामने कपड़ों के थान और पीस खोल कर रखते हैं, फिर वापस तह बना कर उन्हें उन की जगह पर जमाते हैं. सीजन के दिनों में तो कर्मचारी कमर सीधी करने और बाथरूम जाने तक को तरस जाते हैं. सालों से कपड़े की दुकान में काम कर रहे परसराम को अपनी नौकरी से कोई शिकायत नहीं थी. रात को घर लौट कर उस की थकान बच्चों की बातों और खूबसूरत पत्नी के होंठों की मुसकराहट देख कर गायब हो जाती थी.

अच्छीभली गृहस्थी थी कविता और परसराम की

कविता कुशल गृहिणी थी, जो किफायत से खर्च कर के घर चला लेती थी. वह दूसरी औरतों की तरह फिजूलखर्ची नहीं करती थी. 12 साल के वैवाहिक जीवन में उस ने पति को किसी भी शिकायत का मौका नहीं दिया था. इस बात पर परसराम को गर्व भी होता था और पत्नी पर प्यार भी उमड़ आता था.

कुल जमा परसराम अपनी जिंदगी से खुश था, लेकिन बीती 8 जनवरी को उस की इन खुशियों को ऐसा ग्रहण लगा, जिस से शायद ही वह जिंदगी में कभी उबर पाए. उस दिन दोपहर करीब 3 बजे उस के पास कविता का फोन आया कि कनक तो आ गई है, लेकिन कार्तिक स्कूल से वापस नहीं लौटा है. फोन सुनते ही वह घबरा कर घर की तरफ भागा.

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कनक और कार्तिक दोनों एक ही औटो से स्कूल आतेजाते थे. दोनों के आनेजाने का वक्त तय था, सुबह 8 बजे जाना और दोपहर ढाई बजे लौट आना. लेकिन उस दिन कविता जब रोजाना की तरह घर के दरवाजे पर आई तो कविता ने कनक के साथ कार्तिक को नहीं देखा.

‘‘भाई कहां है?’’ पूछने पर कनक ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि वह तो नहीं आया. क्यों नहीं आया, इस सवाल का कनक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई तो कविता घबरा उठी.

इस पर उस ने औटो वाले से पूछा तो उस ने भी हैरानी से बताया कि आज तो कार्तिक स्कूल में दिखा ही नहीं और जल्दबाजी में उस ने भी ध्यान नहीं दिया.

इन जवाबों पर कविता को गुस्सा तो बहुत आया कि कार्तिक को छोड़ने की लापरवाही क्यों की, पर इस गुस्से को रोक कर उस ने पहले पति को फोन किया, फिर यह सोच कर बेचैन निगाहों से सड़क को निहारने लगी कि शायद कार्तिक आता दिख जाए.

हो न हो, वह बच्चों के साथ खेलने के कारण औटो में बैठना भूल गया हो या फिर स्कूल में ही किसी काम से रुक गया हो. कई तरह की शंकाओं, आशंकाओं से घिरी कविता परसराम के आने तक बेटे की सलामती की दुआ मांगती रही.

कोई खास वजह थी, जिस से परसराम और कविता दोनों जरूरत से ज्यादा आशंकित हो उठे थे. परसराम ने घर आतेआते फोन पर अपने भाई दिलीप को यह बात बताई तो वह भी चंद मिनटों में राजेंद्रनगर आ पहुंचा.

दोनों भाई भागेभागे क्राइस्ट मेमोरियल स्कूल पहुंचे और कार्तिक के बारे में पूछताछ की. वहां मौजूद सिक्योरिटी गार्ड और स्कूल स्टाफ ने बताया कि कार्तिक तो वक्त रहते चला गया था. इस जवाब पर परसराम का झल्लाना स्वाभाविक था, लेकिन स्कूल वालों से बहस करने के बजाय उस ने कार्तिक को ढूंढना ज्यादा बेहतर समझा और दोनों भाई उसे इधरउधर ढूंढने लगे. उन्होंने स्कूल से घर तक का रास्ता भी छाना. कई लोगों से कार्तिक के बारे में पूछताछ भी की लेकिन उस के बारे में कोई जानकारी नहीं मिली.

एक घंटे की खोजबीन के बाद परसराम ने बैरागढ़ थाने जा कर बेटे की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवा दी, जो एक जरूरी औपचारिकता वाली बात थी. कार्तिक को जान से भी ज्यादा चाहने वाले परसराम को चैन नहीं मिल रहा था, इसलिए रिपोर्ट दर्ज करने के बाद वह फिर बेटे को तलाशने में लग गया. उस ने बैरागढ़ की कोई गली नहीं छोड़ी.

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