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प्रदीप काफी उदास था. 30 अक्तूबर को रविवार होने के बावजूद वह सुबहसुबह ईरिक्शा ले कर निकल गया था. ज्योति ने भी जल्दीजल्दी कुछ पकाया और काम पर चली गई.

उस रोज शाम का अंधेरा होने से पहले लौट आई थी. उस का मूड ठीक था. उस ने बच्चों से प्यार से बातें की और बच्चों की पसंद का खाना पकाने को बोल कर रसोई में चली गई. प्रदीप भी घर पर था. वह भी चुपचाप उस के काम में हाथ बंटाने लगा.

प्रदीप को लगा कि वह ज्योति से अपने दिल की बात कह सकता है. वह रसोई में गया. जूठे बरतनों को साफ करता हुआ उस के और जोगेंद्र को ले कर गांव में लोगों के बीच चल रही बातें बताने लगा. पहले तो कुछ देर तक ज्योति उस की बातें सुनती रही, लेकिन जैसे ही जोगेंद्र के साथ नशा करने और अवैध संबंध की बात आई, वह भड़क उठी.

गांव वालों को गालियां बकने लगी, ‘‘हरामजादे वे कौन होते हैं टोकाटाकी करने वाले? दारू उन के बाप के पैसे की नहीं पीती हूं... मेहनत करती हूं... कमाती हूं तब पीती हूं... जोगेंद्र नहीं होता तो मैं इस काम को कर ही नहीं पाती...’’

दोनों ने प्रदीप की कर दी धुनाई

तभी जोगेंद्र भी आ गया. उस ने ज्योति के गुस्से को शांत किया. चाय की फरमाइश कर दी. ज्योति चाय ले कर जोगेंद्र को देने उस के पास गई. वहीं बैठे प्रदीप को चाय नहीं दी. इस पर प्रदीप ने ताना मारा, ‘‘पहले प्रेमी. पति गया भाड़ में...’’

‘‘तू है ही इसी लायक तो कोई क्या करेगा? चल जा भाग यहां से... चाय पीनी है तो अपने लिए बना ले. और हां, रात का खाना भी तुम्हें ही पकाना है.’’ बोलती हुई ज्योति ने जोगेंद्र को आंखों ही आंखों में इशारा किया.

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