एक दिन जैसे ही पूनम के पिता पुरोहिताई में घर से बाहर निकले तो एक पड़ोसी ने टोका, ‘‘क्यों पंडितजी, बेटी का ब्याह घर में बैठने के लिए किए थे? समाज में कोई मानमार्यादा है या नहीं?’’
दरवाजे की ओट में बैठी पूनम अपने बेटी को दूध पिला रही थी. पिता से इस तरह की गई बात उसे चुभ गई. उस के पिता ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन एक नजर उसे देखते हुए तेज कदमों निकल गए.
अगले दिन ही पड़ोस की चाची आई और मांबाबूजी को ताना मारती हुई बोली, ‘‘का हो पंडिताइन नतिनी के बयाह ताही करबहूं की?’’
‘‘ऐसा काहे बोलती हो? अभी नतनी 3 महीना के है.’’
‘‘पूनम के दूल्हा कहां है? बेटी जन्म लेवे पर कोय हालचाल लेवे नहीं आया, ऐही से कहलियो. हमर बात के बुरा मता मानिह...’’
‘‘आइथिन कैसे नय! दिल्ली यहीं है? आबेजाय में खरचा हय...समय लाग हय...तोर बेटिया के ससुराल सुलतानपुर जैसन थोड़े हय कि कुछो गाड़ीघोड़ा से घंटा भर में आ जाय.’’ पूनम की मां ने जवाब दिया.
पूनम को अपने पड़ोस में चाची की बात बहुत बुरी लगी. उस के जाते ही वह बोली, ‘‘माई गे 1000 रुपया के इंतजाम कर दे हम दिल्ली जायम.’’
‘‘तू दिल्ली जयबे? कैसे? दूल्हा के पता मालूम हउ?’’ पूनम की मां बोली.
‘‘हां गे माई, ससुराल से अबे घड़ लक्ष्मी नगर बोललथिन.’’ पूनम बोली.
‘‘कहां खोजवहीं? पूनम की मां ने प्रश्न किया.
‘‘कल्लू के साथे रह हथिन न! उ ओहजे मदर डेरी के बगल में काम कर हथिन.’’ पूनम ने मां को समझाया.
‘‘अच्छा आवे दे बाबूजी के... सांझ के बोलवउ.’’ मां ने कहा.
पूनम की मां ने उसे आश्वासन दिया. शाम को जैसे ही पंडित जी आए, उन्होंने पूनम के बारे बात की. पहले तो वह यह सुन कर तमतमा गए. सिर्फ इतना कह पाए, ‘अकेले गोदी में बच्चा के ले कर कैसे जाएगी?’