रुखसाना काफी परेशान थी. वह पिछले 10 महीने से थानों तथा वकीलों के चक्कर काट रही थी, मगर उस की कहीं पर भी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी. उस के दिमाग में अब बारबार यह सवाल उठ रहा था कि वह अब क्या करे? पुलिस और अदालत भी उसे इंसाफ देने में देरी कर रहे थे. स्थानीय नेता भी कई बार उस की मदद कर चुके थे, फिर भी उसे लगता था कि अभी इंसाफ उस से कोसों दूर है.
रुखसाना अकसर अपने बीते दिनों को याद करती. उस का सपना था कि वह अपने बेटे मेहताब का निकाह कर के जो चांद जैसी दुलहन लाएगी, वह घर की सारी जिम्मेदारियां संभाल लेगी और बहू उस की भी खूब सेवा किया करेगी, लेकिन हुआ इस का उलटा.
आरजू नाम की जिस बहू को वह ब्याह कर लाई थी, उस ने रुखसाना के सारे अरमानों पर पानी फेर दिया था.
बात पिछले साल की है. रमजान का महीना शुरू हो गया था. रात को 11 बजे खाना खा कर मेहताब और आरजू अपने कमरे में सोने चले गए. रुखसाना ने सुबह 3 बजे अपने बेटे मेहताब के कमरे का दरवाजा खटखटा कर आवाज लगाई, ‘‘आरजू-मेहताब, उठ जाओ, सेहरी का वक्त हो गया है.’’
2-3 बार दरवाजा खटखटा कर आवाज लगाने के बाद रुखसाना को बहू आरजू का अलसाया हुआ स्वर सुनाई दिया, ‘‘अम्मी, इन की तबियत खराब है, सो रहे हैं. यह रोजा नहीं रखेंगे.’’
रुखसाना बड़बड़ाई, ‘‘रात तो अच्छाभला सोने गया था, तबियत कैसे खराब हो गई?’’ रुखसाना मायूसी से अपने कमरे में लौट आई.