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आशा का बेटा पंकज जवानी की दहलीज पर था. उसे दीपक सिंह का घर आना अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उस के हमउम्र दोस्त दीपक सिंह को ले कर तरहतरह की बातें करते थे, पर पंकज को अपनी मां पर भरोसा था. इसलिए दोस्तों को वह झिड़क देता था. लेकिन उस के भरोसे को तब ठेस लगी, जब उस ने मां को दीपक के साथ खिड़की से आपत्तिजनक हालत में देख लिया.

किसी बेटे के लिए इस से अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती थी कि मां अपने प्रेमी के साथ रास रचा रही थी. यह देख कर पंकज का खून खौलने लगा.

पंकज का जी चाह रहा था कि वह लातें मारमार कर दरवाजा तोड़ दे और मां व दीपक को उन की गंदी हरकत का सबक सिखाए, लेकिन ऐसा करना उस ने उचित नहीं समझा. क्योंकि ऐसा करने से पूरे मोहल्ले में घर की बदनामी हो जाती. वह स्वयं भी किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं रह जाता.

गुस्से को काबू कर पंकज दरवाजे से ही लौट गया. लगभग एक घंटा बाद वह वापस घर आया. तब तक दीपक सिंह जा चुका था. मां घर के काम में व्यस्त थी. पंकज के आते ही वह मुसकराते हुए बोली, ‘‘गोलू खाना लगा दूं.’’

‘‘नहीं, मुझे भूख नहीं है.’’ पंकज गुस्से से बोला.

‘‘क्या बात है बेटा, तेरा मूड क्यों उखड़ा है? क्या किसी से झगड़ कर आया है?’’ आशा ने पूछा.

‘‘मां, पहले तुम यह बताओ कि पप्पू घर में क्यों आता है? उस से तुम्हारा क्या रिश्ता है?’’

‘‘मेरा उस से कोई रिश्ता नहीं है. लगता है बेटा, किसी ने तुम्हारे कान भरे हैं?’’

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