दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखते हुए संजय गुप्ता ने बेटी को आवाज दी, ‘‘बेटी चेतना जल्दी करो, ट्यूशन के लिए देर हो रही  है.’’ चेतना ने कोई जवाब नहीं दिया तो संजय गुप्ता ने पुन: आवाज लगाई, ‘‘जल्दी करो बेटा, देर हो रही है.’’

पिता के दोबारा आवाज लगाने पर चेतना टोस्ट का टुकड़ा मुंह में ठूंसते हुए बोली, ‘‘बस आई पापा, दो मिनट.’’

कह कर चेतना ने किताबें और नोटबुक समेटीं और जल्दी से संजय गुप्ता के पास आ कर बोली, ‘‘चलिए पापा.’’

‘‘चलो.’’ कह कर संजय गुप्ता बाहर आ गए. उन्होंने स्कूटी निकाल कर स्टार्ट की तो चेतना फुर्ती से उन के पीछे बैठ गई. इस के बाद उन्होंने स्कूटी आगे बढ़ा दी. संजय गुप्ता और चेतना का यह रोज का काम था. चेतना गुप्ता जगराओं के डीएवी कालेज से बीकौम कर रही थी. वह कालेज दोपहर के बाद जाती थी, इसीलिए सुबह साढ़े 8 बजे से साढ़े 11 बजे तक ट्यूशन पढ़ने जाती थी. यही वजह थी कि दुकान पर जाते समय संजय गुप्ता चेतना को साथ लेते जाते थे. उसे ट्यूशन वाले मास्टर की गली के मोड़ पर छोड़ कर वह अपनी दुकान पर चले जाते थे.

संजय गुप्ता शरीफ और नेकदिल इंसान तो थे ही, शहर के जानेमाने व्यवसाई भी थे. जगराओं रामनगर में ‘एस.के. टेक्सटाइल्स’ नाम से उन का कपड़ों का भव्य शोरूम था. उन के परिवार में पत्नी सीमा गुप्ता के अलावा बेटा साहिल गुप्ता और बेटी चेतना गुप्ता थी. साहिल पिता के साथ शोरूम संभालता था, जबकि चेतना अभी पढ़ रही थी. चेतना छोटी थी, इसलिए संजय गुप्ता बेटे से अधिक बेटी को प्यार करते थे.

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