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लोक जनशक्ति पार्टी के आदिवासी प्रकोष्ठ के युवा प्रदेश अध्यक्ष 35 वर्षीय अनिल उरांव रोजाना की तरह उस दिन भी नाश्ता कर के क्षेत्र में भ्रमण के लिए तैयार हो कर ड्राइंगरूम में बैठे अपने भतीजे के आने का इंतजार कर रहे थे. तभी उन के मोबाइल फोन की घंटी बजी. अपनी शर्ट की जेब से मोबाइल निकाल कर डिसप्ले पर उभर रहे नंबर पर नजर डाली तो वह नंबर जानापहचाना निकला.

स्क्रीन पर डिसप्ले हो रहे नंबर को देख कर अनिल उरांव का चेहरा खुशियों से खिल उठा था. उन्होंने काल रिसीव करते हुए कहा, ‘‘हैलो!’’

‘‘नेताजी, प्रणाम.’’ दूसरी ओर से एक महिला की मीठी सी आवाज अनिल उरांव के कानों से टकराई.

‘‘प्रणाम...प्रणाम.’’ उन्होंने जबाव दिया, ‘‘कैसी हो प्रियंकाजी?’’ उस महिला का नाम प्रियंका उर्फ दुलारी था.

‘‘ठीक हूं, नेताजी.’’ प्रियंका जबाव देते हुए बोली, ‘‘मैं क्या कह रही थी कि जनता की खैरियत पूछने जब क्षेत्र में निकलिएगा तो मेरे गरीबखाने पर जरूर पधारिएगा. मैं आप की राह तकूंगी.’’

‘‘सुबह....सुबह क्यों मेरी टांग खींच रही हैं प्रियंकाजी. कोई और नहीं मिला था क्या आप को टांग खींचने के लिए? आलीशान और शानदार महल कब से गरीबखाना बन गया?’’ अनिल ने कहा.

‘‘क्या नेताजी? क्यों मजाक उड़ा रहे हैं इस नाचीज का. काहे का शानदार महल. सिर ढंकने के लिए ईंटों की छत ही तो है. बहुत मजाक करते हैं आप मुझ से. अच्छा, अब मजाक छोडि़ए और सीरियस हो जाइए. ये बताइए कि दोपहर तक आ रहे हैं न मेरी कुटिया में, मुझ से मिलने. कुछ जरूरी मशविरा करना है आप से.’’ वह बोली.

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