कानपुर शहर के दक्षिण में बने एक रेस्टोरेंट की केबिन में बैठे प्रेम और सुशीला अपलक एकदूसरे की आंखों में झांक रहे थे. उन्होंने एकदूसरे का हाथ ऐसे पकड़ रखा था, जैसे आज के बाद फिर कभी न मिलने का डर सता रहा हो. काफी देर तक उन के बीच खामोशी छाई रही, फिर सुशीला ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘प्रेम, तुुम पास होते हो तो जिंदगी बहुत सुहानी लगती है. दिल करता है कि बस यूं ही तुम्हारी आंखों में झांकते हुए तमाम उम्र गुजार दूं.’’
सुशीला के दिल में एक अजीब सी बेचैनी थी. होंठ थरथरा रहे थे. कहने लगी, ‘‘मैं जानती हूं कि तुम मुझे अपनी जान से भी ज्यादा चाहते हो. फिर भी न जाने क्यों मेरा दिल घबरा रहा है. ऐसा लग रहा है प्रेम, जैसे तुम मुझ से बहुत दूर जाने वाले हो.’’ सुशीला की आंखें भर आई थीं. उस ने धीरे से अपना सिर प्रेम की छाती पर टिका दिया था, ‘‘तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? खामोश क्यों हो? तुम्हारी खामोशी तो मुझे आने वाले किसी तूफान का दस्तक दे रही है.’’
“घबराओ मत सुशीला, धैर्य रखो और हिम्मत से काम लो.’’ प्रेम ने सुशीला की जुल्फों में अपनी अंगुलियां फिराते हुए कहा, ‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे डर की वजह क्या है, तुम संगीता के बारे में सोच रही हो न?’’
सुशीला चौंक पड़ी, ‘‘तुम्हें कैसे पता?’’
“वह मेरी पत्नी है और तुम मेरी धडक़न. मैं खुद से ज्यादा तुम्हें जानता हूं. तुम्हारी इन आंखों में कौन सा सपना है, मुझे सब पता है.’’
“तुम सही कह रहे हो प्रेम, लेकिन संगीता के डर से निजात भी तुम्हीं दिला सकते हो, सिर्फ तुम ही.’’