सुदाम : आखिर क्यों हुआ अनुराधा को अपने फैसले पर पछतावा?

अनुराधा पूरे सप्ताह काफी व्यस्त रही और अब उसे कुछ राहत मिली थी. लेकिन अब उस के दिमाग में अजीबोगरीब खयालों की हलचल मची हुई थी. वह इस दिमागी हलचल से छुटकारा पाना चाहती थी. उस की इसी कोशिश के दौरान उस का बेटा सुदेश आ धमका और बोला, ‘‘मम्मी, कल मुझे स्कूल की ट्रिप में जाना है. जाऊं न?’’

‘‘उहूं ऽऽ,’’ उस ने जरा नाराजगी से जवाब दिया, लेकिन सुदेश चुप नहीं हुआ. वह मम्मी से बोला, ‘‘मम्मी, बोलो न, मैं जाऊं ट्रिप में? मेरी कक्षा के सारे सहपाठी जाने वाले हैं और मैं अब कोई दूध पीता बच्चा नहीं हूं. अब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ रहा हूं.’’

उस की बड़ीबड़ी आंखें उस के जवाब की प्रतीक्षा करने लगीं. वह बोली, ‘‘हां, अब मेरा बेटा बहुत बड़ा हो गया है और सातवीं कक्षा में पढ़ रहा है,’’ कह कर अनु ने उस के गाल पर हलकी सी चुटकी काटी.

सुदेश को अब अपेक्षित उत्तर मिल गया था और उसी खुशी मे वह बाहर की ओर भागा. ठीक उसी समय उस के दाएं गाल पर गड्ढा दे कर वह अपनी यादों में खोने लगी.

अनु को याद आई सुदेश के पिता संकेत से पहली मुलाकात. जब दोनों की जानपहचान हुई थी, तब संकेत के गाल पर गड्ढा देख कर वह रोमांचित हुई थी. एक बार संकेत ने उस से पूछा था, ‘‘तुम इतनी खूबसूरत हो, गुलाब की कली की तरह खिली हुई और गोरे रंग की हो, फिर मुझ जैसे सांवले को तुम ने कैसे पसंद किया?’’

इस पर अनु नटखट स्वर में हंसतेहंसते उस के दाएं गाल के गड्ढे को छूती हुई बोली थी, ‘‘इस गड्ढे ने मुझे पागल बना दिया है.’’

यह सुनते ही संकेत ने उसे बांहों में भर लिया था. यही थी उन के प्रेम की शुरूआत. दोनों के मातापिता इस शादी के लिए राजी हो गए थे. दोनों ग्रेजुएट थे. वह एक बड़ी फर्म में अकाउंटैंट के पद पर काम कर रहा था. उस फर्म की एक ब्रांच पुणे में भी थी.

दोपहर को अनु घर में अकेली थी. सुदेश 3 दिन के ट्रिप पर बाहर गया हुआ था और इधर क्रिसमस की छुट्टियां थीं. हमेशा घर के ज्यादा काम करने वाली अनु ने अब थोड़ा विश्राम करना चाहा था. अब वह 35 पार कर चुकी थी और पहले जैसी सुडौल नहीं रही थी. थोड़ी सी मोटी लगने लगी थी. लेकिन संकेत के लिए दिल बिलकुल जवान था. वह उस के प्यार में अब भी पागल थी. लेकिन अब उस के प्यार में वह सुगंध महसूस नहीं होती थी.

जब भी वह अकेली होती. उस के मन में तरहतरह के विचार आने लगते. उसे अकसर ऐसा महसूस होता था कि संकेत अब उस से कुछ छिपाने लगा है और वह नजरें मिला कर नहीं बल्कि नजरें चुरा कर बात करता है. पहले हम कितने खुले दिल से बातचीत करते थे, एकदूसरे के प्यार में खो जाते थे. मैं ने उस के पहले प्यार को अब भी अपने दिल के कोने में संभाल कर रखा है. क्या मैं उसे इतनी आसानी से भुला सकती हूं? मेरा दिल संकेत की याद में हमेशा पुणे तक दौड़ कर जाता है लेकिन वह…

उस का दिल बेचैन हो गया और उसे लगा कि अब संकेत को चीख कर बताना चाहिए कि मेरा मन तुम्हारी याद में बेचैन है. अब तुम जरा भी देर न करो और दौड़ कर मेरे पास आओ. मेरा बदन तुम्हारी बांहों में सिमट जाने के लिए तड़प रहा है. कम से कम हमारे लाड़ले के लिए तो आओ, जरा भी देर न करो.

बच्चा छोटा था तब सासूमां साथ में रहती थीं. अनजाने में ही सासूमां की याद में उस की आंखें डबडबा आईं. उसे याद आया जब सुरेश सिर्फ 2 साल का था. घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए उसे नौकरी तो करनी ही थी. ऐसे में संकेत का पुणे तबादला हो गया था.

वे मुंबई जैसे शहर में नए फ्लैट की किस्तें चुकातेचुकाते परेशान थे, लेकिन क्या किया जा सकता था. बच्चे को घर में छोड़ कर औफि जाना उसे बहुत अखरता था, लेकिन सासूमां उसे समझाती थीं, ‘बेटी, परेशान मत हो. ये दिन भी निकल जाएंगे. और बच्चे की तुम जरा भी चिंता मत करो, मैं हूं न उस की देखभाल के लिए. और पुणे भी इतना दूर थोड़े ही है. कभी तुम बच्चे को ले कर वहां चली जाना, कभी वह आ जाएगा.’

सासूमां की यह योजना अनु को बहुत भा गई थी और यह बात उस ने तुरंत संकेत को बता दी थी. फिर कभी वह पुणे जाती तो कभी संकेत मुंबई चला आता. इस तरह यह आवाजाही का सिलसिला चलता रहा. इस दौड़धूप में भी उन्हें मजा आ रहा था.

कुछ दिनों बाद बच्चे का स्कूल जाना शुरू हो गया, तो उस की पढ़ाई में हरज न हो यह सोच कर दोनों की सहमति से उसे पुणे जाना बंद करना पड़ा. संकेत अपनी सुविधा से आता था. इसी बीच उस की सासूमां चल बसीं. उन की तेरही तक संकेत मुंबई  में रहा. तब उस ने अनु को समणया था, ‘अनु, मुझे लगता है तुम बच्चे को ले कर पुणे आ जाओ. वह वहां की स्कूल में पढ़ेगा और तुम भी वहां दूसरी नौकरी के लिए कोशिश कर सकोगी.’

इस प्रस्ताव पर अनु ने गंभीरता से नहीं सोचा था क्योंकि फ्लैट की कई किस्तें अभी चुकानी थीं. उस ने सिर्फ यह किया कि वह अपने बेटे सुरेश को ले कर अपनी सुविधानुसार पुणे चली जाती थी. संकेत दिल खोल कर उस का स्वागत करता था. बच्चे को तो हर पल दुलारता रहता था.

बच्चे की याद में तो उस ने कई रातें जाग कर काटी थीं. वह बेचैनी से करवट बदलबदल कर बच्चे से मिलने के लिए तड़पता था1 उस ने ये सब बातें साफसाफ बता दी थीं, लेकिन अनु ने उसे समणया था, ‘एक बार हमारी किस्तें अदा हो जाएं तो हम इस झंझट से छूट जाएंगे. तुम्हारे अकेलेपन को देख कर मेरा दिल भी रोता है. मेरे साथ तो सुरेश है, रिश्तेदार भी हैं. यहां तुम्हारा तो कोई नहीं. तुम्हें औफिस का काम भी घर ला कर करना पड़ता है, यह जान कर मुझे बहुत दुख होता है. मन तो यही करता है कि तुम जाग कर काम करते हो, तो तुम्हें गरमागरम चाय का कप ला कर दूं, तुम्हारे आसपास मंडराऊं, जिस से तुम्हारी थकावट दूर हो जाए.’

यह सुन कर संकेत का सीना गर्व से फूल जाता था और वह कहता था, ‘तुम मेरे पास नहीं हो फिर भी यादों में तो तुम हमेशा मेरे साथ ही रहती हो.’

अब फ्लैट की सारी किस्तों की अदायगी हो चुकी थी और फ्लैट का मालिकाना हक भी उन्हें मिल चुका था. सुदेश अब सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था. उस ने फैसला कर लिया कि अब वह कुछ दिनों के लिए ही सही पुणे में जा कर रहेगी. सरकारी नौकरी के कारण उसे छुट्टी की समस्या तो थी नहीं.

उस ने संकेत को फोन किया दफ्तर के फोन पर, ‘‘हां, मैं बोल रही हूं.’’

‘‘हां, कौन?’’ उधर से पूछा गया.

‘‘ऐसे अनजान बन कर क्यों पूछ रहे हो, क्या तुम ने मेरी आवाज नहीं पहचानी?’’ वह थोड़ा चिड़चिड़ा कर बोली.

‘‘हां तो तुम बोल रही हो, अच्दी हो न? और सुदेश की पढ़ाई कैसे चल रही है?’’ उस के स्वर में जरा शर्मिंदगी महसूस हो रही थी.

‘‘मैं ने फोन इसलिए किया कि सुदेश

3 दिनों के लिए बाहर गया हुआ है और मैं भी छुट्टी ले रही हूं. अकेलपन से अब बहुत ऊब गई हूं, इसलिए कल सुबह 10 बजे तक तुम्हारे पास पहुंच रही हूं. क्या तुम मुझे लेने आओगे स्टेशन पर?’’

‘‘तुम्हें इतनी जल्दी क्यों है? शाम तक आओगी तो ठीक रहेगा, क्योंकि फिर मुझे छुट्टी लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

संकेत का रूखापन अनु को समझने में देर नहीं लगी. एक समय उस से मिलने के लिए तड़पने वाला संकेत आज उसे टालने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उस के प्यार को दिल में संजोने का पूरा प्रयास भी कर रहा था. दरअसल, अब वह दोहरी मानसिकता से गुजर रहा था.

काफी साल अकेले रहने के कारण इस बीच एक 17-18 साल की लड़की से उसे प्यार हो गया था. वह एक बाल विधवा रिश्तेदार थी. वह उस के यहां काम करती थी. वह काफी समझदार, खूबसूरत और सातवीं कक्षा तक पढ़ीलिखी थी. संकेत के सारे काम वह दिल लगा कर किया करती थी और घर की देखभाल भलीभांति करती थी.

कुछ दिनों बाद संकेत के अनुरोध पर चपरासी चाचा की सहमति से वह उसी घर में रहने लगी थी. फिर जबजब अनु वहां जाती तो उसे अपना पूरा सामान समेट कर चाचा के यहां जा कर रहना पड़ता था. यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा.

अभी अनु के आने की खबर मिलते ही वह परेशान हो गया था और अनु से बात करते वक्त उस की जुबान सूखने लगी थी. अब उसे तुरंत घर जा कर पारू को वहां से हटाना जरूरी था. उसे पारू पर दया आती, क्योंकि जबजब ऐसा होता वह काफी समझदारी से काम लेती. उसे अपने मालिक और मालकिन की परवाह थी, क्योंकि उसे उन का ही आसरा था1 कम उम्र में ही उस ने पूरी गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया था.

शाम को अनु संकेत के साथ घर पहुंची तो रसोईघर से जायकेदार भोजन की खुशबू आ रही थी. इस खुशबू से उस की भूख बढ़ गई और उस ने हंसतेहंसते पूछा, ‘‘वाह, इतना अच्छा खाना बनाना तुम ने कब सीखा?’’

वह भी हंसतेहंसते बोला, ‘‘अपनी नौकरानी अभीअभी खाना बना कर गई है.’’

दूसरे दिन सुबहसुबह पारू आई और दोनों के सामने गरमागरम चाय के 2 कप रखे. चाय की खुशबू से वह तृप्त हो गई. थोड़ी देर बाद वह घर के चारों ओर फैले छोटे से बाग में टहलने लगी. घास का स्पर्श पा कर वह विभोर हो उठी. पेड़पौधों की सोंधी महक ने उस का मन मोह लिया.

अचानक उस का ध्यान एक 6-7 साल के बच्चे की ओर गया. वह वहां अकेला ही लट्टू घुमाने के खेल में खोया हुआ था. धीरेधीरे वह उस की ओर बढ़ी तो वह भागने की कोशिश करने लगा. अनु ने उस की छोटी सी कलाई पकड़ ली और बोली, ‘‘मैं कुछ नहीं करूंगी. ये बताओ तुम्हारा नाम क्या है?’’

वह घबरा गया तो कुछ नहीं बोला और सिर्फ देखता ही रह गया. उस के फूले हुए गाल और बड़ीबड़ी आंखें देख कर अनु को बहुत अच्छा लगा. वह हंस दी तो नादान बालक भी हंसा. उस की हंसी के साथ उस के दाएं गाल का गड्ढा भी मानो उस की ओर देख कर हंसने लगा.

यह देख कर उस का दिल दहल गया क्योंकि वह बच्चा बिलकुल संकेत की तरह दिख रहा था. ऐसा लगा कि संकेत का मिनी संस्करण उस के समाने खड़ा हो गया हो. वह दहलीज पर बैठ गई. उसे लगा कि अब आसमान टूट कर उसी पर गिरेगा और वह खत्म हो जाएगी. एक अनजाने डर से उस का दिल धड़कने लगा. उस का गला सूख गया और सुबह की ठंडीठंडी बयार में भी वह पसीने से तर हो गई. उस की इस स्थिति को वह नन्हा बच्चा समझ नहीं पाया.

‘‘क्या, अब मैं जाऊं?’’ उस ने पूछा.

इस पर अनु ने ठंडे दिल से पूछा, ‘‘तुम कहां रहते हो?’’

वह बोला, ‘‘मैं तो यहीं रहता हूं, लेकिन कल शाम को मैं और मेरी मां चाचा के घर चले गए. सुबह मैं मां के साथ आया तो मां बोलीं, बाहर बगीचे में ही खेलना, घर में मत आना.’’

बोझिल मन से उस ने उस मासूम बच्चे को पास ले कर उस के दाएं गाल के गड्ढे को हलके से चूमा. अब उसे मालूम हुआ कि पारू उस की खातिरदारी इतनी मगन हो कर क्यों करती है, उस की पसंद के व्यंजन क्यों बनाती है.

उसे संकेत के अनुरोध और विनती याद आने लगी, ‘‘हम सब एकसाथ रहेंगे. तुम्हारी और सुरेश की मुझे बहुत याद आती है.’’

लगता है मुझे उस समय उस की बात मान लेनी चाहिए थी. लेकिन मैं ने ऐसा क्या किया? मेरी गलती क्या है? मैं ने भी खुद के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार के लिए नौकरी की. वह पुरुष है, इसलिए उस ने ऐसा बरताव किया. उस की जगह अगर मैं होती और ऐसा करती तो? क्या समाज व मेरा पति मुझे माफ कर देता? यहां कुदरत का कानून तो सब के लिए एक जैसा ही है. स्त्रीपुरुष दोनों में सैक्स की भावना एक जैसी होती है, तो उस पर काबू पाने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्री पर ही क्यों?

कहा जाता है कि आज की स्त्री बंधनों से मुक्त है, तो फिर वह बंधनों का पालन क्यों करती है? हम स्त्रियों को बचपन से ही माताएं सिखाती हैं इज्जत सब से बड़ी दौलत होती है, लेकिन उस दौलत को संभालने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ स्त्रियों की है?

यह सब सोचते हुए उस के आंसू वह निकले तो उस ने अपने आंचल से पोंछ डाले. उसे रोता देख कर वह बच्चा फिर डर कर भागने की कोशिश करने लगा, तो अनु जरा संभल गई. उस ने उस मासूम बच्चे को अपने पास बिठा लिया और कांपते स्वर में बोली, ‘‘बेटा, तुम मुझे बहुत अच्छे लगते हो, लेकिन तुम ने अब तक अपना नाम नहीं बताया? अब बताओ क्या नाम है तुम्हारा?’’

अब वह बच्चा निडर बन गया था, क्योंकि उसे अब थोड़ा धीरज जो मिल गया था. वह मीठीमीठी मुसकान बिखेरते हुए बोला, ‘‘सुदाम.’’ और फिर बगीचे में लट्टू से खेलने लगा.

शर्वरी : महिमा देवी को बेटी के घर क्या अच्छा लगा

महिमा देवी कुछ दिनों के लिए अपनी बेटी नूपुर के घर गईं तो उस की ननद शर्वरी के व्यवहार व शालीनता ने उन का मन जीत लिया. इसलिए दामाद अभिषेक की गैरहाजिरी में उन्होंने शर्वरी को अपने साथ ही रख लिया. महिमा के इस वात्सल्य व स्नेह का शर्वरी ने क्या प्रतिदान दिया? ‘‘ओशर्वरी, इधर तो आ. इस तरह कतरा कर क्यों भाग रही है,’’ महिमा ने कांजीवरम साड़ी में सजीसंवरी शर्वरी को दरवाजे की तरफ दबे कदमों से खिसकते देख कर कहा था. ‘‘जी,’’ कहती, शरमातीसकुचाती शर्वरी उन के पास आ कर खड़ी हो गई.

‘‘क्या बात है? इस तरह सजधज कर कहां जा रही है?’’ महिमा ने पूछा. ‘‘आज डा. निपुण का विदाई समारोह है न, मांजी, कालेज में सभी अच्छे कपड़े पहन कर आएंगे. मैं ऐसे ही, सादे कपड़ों में जाऊं तो कुछ अजीब सा लगेगा,’’ शर्वरी सहमे स्वर में बोली. ‘‘तो इस में बुरा क्या है, बेटी. तेरी गरदन तो ऐसी झुकी जा रही है मानो कोई अपराध कर दिया हो.

इस साड़ी में कितनी सुंदर लग रही है, हमें भी देख कर अच्छा लगता है. रुक जरा, मैं अभी आई,’’ कह कर महिमा ने अपनी अलमारी में से सोने के कंगन और एक सुंदर सा हार निकाल कर उसे दिया. ‘‘मांजी…’’ उन से कंगन और हार लेते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा आई थीं. ‘‘यह क्या पागलपन है. सारा मुंह गंदा हो जाएगा,’’ मांजी ने कहा. ‘‘जानती हूं, पर लाख चाहने पर भी ये आंसू नहीं रुकते कभीकभी,’’ शर्वरी ने खुद पर संयम रखने का प्रयास करते हुए कहा. शर्वरी ने भावुक हो कर हाथों में कंगन और गले में हार डाल लिया.

‘‘कैसी लग रही हूं?’’ अचानक उस के मुंह से निकल पड़ा. ‘‘बिलकुल चांद का टुकड़ा, कहीं मेरी नजर ही न लग जाए तुझे,’’ वह प्यार से बोलीं. ‘‘पता नहीं, मांजी, मेरी अपनी मां कैसी थी. बस, एक धुंधली सी याद शेष है, पर मैं यह कभी नहीं भूलूंगी कि आप के जैसी मां मुझे मिलीं,’’ शर्वरी भावुक हो कर बोली. ‘‘बहुत हो गई यह मक्खनबाजी. अब जा और निपुण से कहना, मुझ से मिले बिना न चला जाए,’’ उन्होंने आंखें तरेर कर कहा. ‘‘जी, डा. निपुण तो खुद ही आप से मिलने आने वाले हैं. उन की माताजी आई हैं. वह आप से मिलना चाहती हैं,’’ कहती हुई शर्वरी पर्स उठा कर बाहर निकल गई थी.

इधर महिमा समय के दर्पण पर जमी अतीत की धूल को झाड़ने लगी थीं. वह अपनी बेटी नूपुर के बेटा होने के मौके पर उस के घर गई थीं. वह जा कर खड़ी ही हुई थी कि शर्वरी ने आ कर थोड़ी देर उन्हें निहार कर अचानक ही पूछ लिया था, ‘आप लोग अभी नहाएंगे या पहले चाय पिएंगे?’ वह कोई जवाब दे पातीं उस से पहले ही नूपुर, शर्वरी पर बरस पड़ी थीं, ‘यह भी कोई पूछने की बात है? इतने लंबे सफर से आए हैं तो क्या आते ही स्नानध्यान में लग जाएंगे? चाय तक नहीं पिएंगे?’ ‘ठीक है, अभी बना लाती हूं,’ कहती हुई शर्वरी रसोईघर की तरफ चल दी. ‘और सुन, सारा सामान ले जा कर गैस्टरूम में रख दे. अंकुश का रिकशे वाला आता होगा. उसे तैयार कर देना. नाश्ते की तैयारी भी कर लेना…’

‘बस कर नुपूर. इतने काम तो उसे याद भी नहीं रहेंगे,’ महिमा ने मुसकराते हुए कहा. ‘मां, आप नहीं जानती हैं इसे. यह एक नंबर की कामचोर है. एक बात कहूं मां, पिताजी ने कुछ भी नहीं देखा मेरे लिए. पतिपत्नी कैसे सुखचैन से रहते हैं, मैं ने तो जाना ही नहीं, जब से इस घर में पैर रखा है मैं तो देवरननद की सेवा में जुटी हूं,’ अब नूपुर पिताजी की शिकायत करने लगी.

‘ऐसे नहीं कहते, अंगूठी में हीरे जैसा पति है तेरा. इतना अच्छा पुश्तैनी मकान है. मातापिता कम उम्र में चल बसे तो भाईबहन की जिम्मेदारी तो बड़े भाईभाभी पर ही आती है,’ महिमा ने समझाते हुए कहा. ‘वही तो कह रही हूं. यह सब तो देखना चाहिए था न आप को. भाई की पढ़ाई का खर्च, फिर बहन की पढ़ाई. ऊपर से उस की शादी के लिए कहां से लाएंगे लाखों का दहेज,’ नूपुर चिड़चिड़े स्वर में बोली थी. ‘ठीक है, यदि मैं सबकुछ देख कर विवाह करता और बाद में सासससुर चल बसते तो क्या करतीं तुम?’ अभिजीत भी नाराज हो उठे थे.

महिमा ने उन्हें शांत करना चाहा. बेटी और पति के स्वभाव से वह अच्छी तरह परिचित थीं और उन के भड़कते गुस्से को काबू में रखने के लिए उन्हें हमेशा ठंडे पानी का कार्य करना पड़ता था. तभी चाय की ट्रे थामे शर्वरी आई थी. साथ ही नूपुर के पति अभिषेक ने वहां आ कर उस गरमागरम बहस में बाधा डाल दी थी.

चाय पीते हुए भी महिमा की आंखें शर्वरी का पीछा करती रहीं. उस ने फटाफट अंकुश को तैयार किया,उस का टिफिन लगाया, अभिषेक को नाश्ता दिया और महिमा और उन के पति के लिए नहाने का पानी भी गरम कर के दिया. महिमा नहा कर निकलीं तो उन्होंने देखा कि शर्वरी सब्जी काट रही थी. वह बोलीं, ‘अरे, अभी से खाने की क्या जल्दी है, बेटी. आराम से हो जाएगा.’

‘मांजी, मैं सोच रही थी, आज कालेज चली जाती तो अच्छा रहता. छमाही परीक्षाएं सिर पर हैं. कालेज न जाने से बहुत नुकसान होता है,’ शर्वरी जल्दीजल्दी सब्जी काटते हुए बोली. ‘तुम जाओ न कालेज. मैं आ गई हूं, सब संभाल लूंगी. इस तरह परेशान होने की क्या जरूरत है.

मुझे पता है, इंटर की पढ़ाई में कितनी मेहनत करनी पड़ती है,’ महिमा ने कहा. उन की बात सुन कर शर्वरी के चेहरे पर आई चमक, उन्हें आज तक याद है. कुछ पल तक तो वह उन्हें एकटक निहारती रह गई थी, फिर कुछ इस तरह मुसकराई थी मानो बहुत प्यासे व्यक्ति के मुंह में किसी ने पानी डाल दिया हो.

दोनों के बीच इशारों में बात हुई व शर्वरी लपक कर उठी और तैयार हो कर किताबों का बैग हाथ में ले कर बाहर आ गई थी. ‘तो मैं जाऊं, मांजी?’ उस ने पूछा. ‘कहां जा रही हैं, महारानीजी?’ तभी नूपुर ने वहां आ कर पूछा. ‘कालेज जा रही है, बेटी,’ शर्वरी कुछ कहती उस से पहले ही महिमा ने जवाब दे दिया. ‘मैं ने कहा था न, एक सप्ताह और मत जाना,’ नूपुर ने डांटने के अंदाज में कहा. ‘जाने दे न नूपुर, कह रही थी, पढ़ाई का नुकसान होता है,’

महिमा ने शर्वरी की वकालत करते हुए कहा. ‘ओह, तो आप से शिकायत कर रही थी. कौन सी पीएचडी कर रही है? इंटर में पढ़ रही है और वह भी रोपीट कर पास होगी,’ नूपुर ने व्यंग्य के लहजे में कहा.

महिमा का मन हुआ कि वे नूपुर को बताएं कि जब वह स्कूल में पढ़ती थी तो उसे कैसे सबकुछ पढ़ने की टेबल पर ही चाहिए होता था और तब भी वह उसी के शब्दों में ‘रोपीट कर’ ही पास होती थी, या नहीं भी होती थी, पर स्थिति की नजाकत देख कर वे चुप रह गई थीं.

अभिजीत तो 2 दिन बाद ही वापस चले गए थे पर उन्हें नूपुर के पूरी तरह स्वस्थ होने तक वहीं उस की देखभाल को छोड़ गए थे. शर्वरी दिनभर घर के कार्यों में हाथ बंटा कर अपनी पढ़ाई भी करती और नूपुर की जलीकटी भी सुनती, पर उस ने कभी भी कुछ न कहा. अभिषेक अपने काम में व्यस्त रहता या व्यस्त रहने का दिखावा करता.

छोटे भाई रोहित ने, शायद नूपुर के स्वभाव से ही तंग आ कर छात्रावास में रह कर पढ़ने का फैसला किया था. वह मातापिता की चलअचल संपत्ति पर अपना हक जताता तो नूपुर सहम जाती थी, पर अब सारा गुस्सा शर्वरी पर ही उतरता था. कभीकभी महिमा को लगता कि सारा दोष उन का ही है.

वे उसे दूसरों से शालीन व्यवहार की सीख तक नहीं दे पाई थीं. बचपन से भी वह अपने तीनों भाईबहनों में सब से ज्यादा गुस्सैल स्वभाव की थी और बातबात पर जिद करना और आपे से बाहर हो जाना उस के स्वभाव का खास हिस्सा बन गए थे. कुछ दिन और नूपुर के परिवार के साथ रह कर महिमा जब घर लौटीं तो उन के मन में एक कसक सी थी. वे चाह कर भी नूपुर से कुछ नहीं कह सकी थीं. 2 महीने तक साथ रह कर शर्वरी से उन का अनाम और अबूझ सा संबंध बन गया था. कहते हैं, ‘मन को मन से राह होती है,’

पहली बार उन्होंने इस कथन की सचाई को जीवन में अनुभव किया था, पर संसार में हर व्यक्ति को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है और वे चाह कर भी शर्वरी के लिए कुछ न कर पाई थीं. पर अचानक ही कुछ नाटकीय घटना घट गई थी. अभिषेक को 2 साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से जरमनी जाना था. शर्वरी को वह कहां छोड़े, यह समस्या उस के सामने मुंहबाए खड़ी थी.

दोनों ने पहले उसे छात्रावास में रखने की बात भी सोची पर जब महिमा ने शर्वरी को अपने पास रखने का प्रस्ताव रखा तो दोनों की बांछें खिल गई थीं. ‘अंधा क्या चाहे दो आंखें,’ फिर भी अभिषेक ने पूछ ही लिया, ‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं होगी, मांजी?’ ‘अरे, नहीं बेटे, कैसी बातें करते हो. शर्वरी तो मेरी बेटी जैसी है. फिर तीनों बच्चे अपने घरसंसार में व्यवस्थित हैं.

हम दोनों तो बिलकुल अकेले हैं. बल्कि मुझे तो बड़ा सहारा हो जाएगा,’ महिमा ने कहा. ‘सहारे की बात मत कहो, मां. बहुत स्वार्थी किस्म की लड़की है यह सहारे की बात तो सोचो भी मत,’ नूपुर ने अपनी स्वाभाविक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा था.

महिमा की नजर सामने दरवाजे पर खड़ी शर्वरी पर पड़ी थी तो उस की आंखों की हिंसक चमक देख कर वे भी एक क्षण को तो सहम गई थीं. ‘हां, तो पापा, आप क्या कहते हैं?’ उन्हें चुप देख कर नूपुर ने अभिजीत से पूछा था. ‘तुम्हारी मां तैयार हैं तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. वैसे मुझे भी नहीं लगता कि कोई समस्या आएगी. शर्वरी अच्छी लड़की है और तुम्हारी मां को तो यों भी कभी किसी से तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं हुई है,’ अभिजीत ने नूपुर के सवाल का जवाब देते हुए कहा.

इस तरह शर्वरी महिमा के जीवन का हिस्सा बन गई थी और जल्दी ही उस ने उन दोनों पतिपत्नी के जीवन में अपनी खास जगह बना ली थी. एक दिन शर्वरी कालेज से लौटी तो महिमा अपने बैडरूम में बेसुध पड़ी थीं. यह देख कर शर्वरी पड़ोसियों की मदद से उन्हें अस्पताल ले गई. बीमारी की हालत में शर्वरी ने उन की ऐसी सेवा की कि सब आश्चर्यचकित रह गए थे. ‘शर्वरी,’ महिमा ने हाथ में साबूदाने की कटोरी थामे खड़ी शर्वरी से कहा था. ‘जी.’ ‘तुम जरूर पिछले जन्म में मेरी मां रही होगी,’ महिमा ने मुसकरा कर कहा था. ‘आप पुनर्जन्म में विश्वास करती हैं क्या?’ शर्वरी ने पूछा. ‘हां, पर क्यों पूछ रही हो तुम?’

‘यों ही, पर मुझे यह जरूर लगता है कि कभी किसी जन्म में कुछ भले काम जरूर किए होंगे मैं ने जो आप लोगों से इतना प्यार मिला, नहीं तो मुझ अभागी के लिए यह सब कहां,’ कहते हुए शर्वरी की आंखें डबडबा गई थीं. ‘आज कहा सो कहा, आगे से कभी खुद को अभागी न कहना. कभी बैठ कर शांतमन से सोचो कि जीवन ने तुम्हें क्याक्या दिया है,’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था.

अभिजीत और महिमा के साथ रह कर शर्वरी कुछ इस कदर निखरी कि सभी आश्चर्यचकित रह गए थे. उस स्नेहिल वातावरण में शर्वरी ने पढ़ाई में अपनी पूरी ताकत लगा दी थी. जब कठिनाई से पास होने वाली शर्वरी पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम आई थी तो खुद महिमा को भी उस पर विश्वास नहीं हुआ था. उसे स्वर्ण पदक मिला था. स्वर्ण पदक ला कर उस ने महिमा को सौंपते हुए कहा था,

‘इस का श्रेय केवल आप को जाता है, मांजी. पता नहीं इस का ऋण मैं कैसे चुका पाऊंगी.’ ‘पगली है, शर्वरी तू तो, मां भी कहती है और ऋण की बात भी करती है. फिर भी मैं बताती हूं, मेरा ऋण कैसे उतरेगा,’ महिमा ने उसे समझाते हुए कहा, ‘तेन त्यक्तेन भुंजीषा.’ ‘क्या?’ शर्वरी ने चौंकते हुए कहा, ‘यह क्या है?

सीधीसादी भाषा में कहिए न, मेरे पल्ले तो कुछ नहीं पड़ा,’ कह कर शर्वरी हंस पड़ी. यह मजाक की बात नहीं है, बेटी. जीवन का भोग, त्याग के साथ करो और इस त्याग के लिए सबकुछ छोड़ कर संन्यास लेने की जरूरत नहीं है. परिवार और समाज में छोटी सी लगने वाली बातों से दूसरों का जीवन बदल सकता है. तुम समझ रही हो, शर्वरी?’ महिमा ने शर्वरी को समझाते हुए कहा था.

‘जी, प्रयास कर रही हूं,’ शर्वरी ने जवाब दिया. ‘देखो, नूपुर मेरी बेटी है, पर उस के तुम्हारे प्रति व्यवहार ने मेरा सिर शर्म से झुका दिया है. तुम ऐसा करने से बचना, बचोगी न?’ महिमा ने पूछा. ‘जी, प्रयत्न करूंगी कि आप को कभी निराश न करूं,’ शर्वरी गंभीर स्वर में बोली थी. शीघ्र ही शर्वरी की अपने ही कालेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति हो गई और अब तो उस का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. उस की कायापलट की बात सोचते हुए उन के चेहरे पर हलकी सी मुसकान तैर गई थी. ‘‘कहां खोई हो?’’ तभी अभिजीत ने आ कर महिमा की तंद्रा भंग करते हुए पूछा. ‘‘कहीं नहीं, यों ही,’’ महिमा ने चौंक कर कहा. ‘‘तुम्हारी तो जागते हुए भी आंखें बंद रहती हैं. आज लाइब्रेरी से निकला तो देखा शर्वरी डा. निपुण के साथ हाथ में हाथ डाले जा रही थी,’’ अभिजीत ने कहा. ‘‘जानती हूं,’’ महिमा ने उन की बात का जवाब दिया. ‘‘क्या?’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘यही कि दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं,’

’ उन्होंने बताया. ‘‘क्या कह रही हो, पराई लड़की है, कुछ ऊंचनीच हो गई तो हम कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे,’’ अभिजीत ने सकपकाते हुए कहा. ‘‘घबराओ नहीं, मुझे शर्वरी पर पूरा भरोसा है. उस ने तो अभिषेक को सब लिख भी दिया है,’’ महिमा बोलीं. ‘‘ओह, तो दुनिया को पता है. बस, हम से ही परदा है,’’ अभिजीत ने मुसकरा कर कहा था. थोड़ी ही देर में शर्वरी दरवाजे पर दस्तक देती हुई घर में घुसी.

‘‘मां, आज शाम को निपुण अपनी मां के साथ आप से मिलने आएंगे,’’ उस ने शरमाते हुए महिमा के कान में कहा. ‘‘क्या बात है? हमें भी तो कुछ पता चले,’’ अभिजीत ने पूछा. ‘‘खुशखबरी है, निपुण अपनी मां के साथ शर्वरी का हाथ मांगने आ रहे हैं. चलो, बाजार चलें, बहुत सी खरीदारी करनी है,’’ महिमा ने कहा तो शर्वरी शरमा कर अंदर चली गई. ‘‘सच कहूं महिमा, आज मुझे जितनी खुशी हो रही है उतनी तो अपनी बेटियों के संबंध करते समय भी नहीं हुई थी,’’ अभिजीत गद्गद स्वर में बोले. ‘‘अपनों के लिए तो सभी करते हैं पर सच्चा सुख तो उन के लिए कुछ करने में है जिन्हें हमारी जरूरत है,’’ संतोष की मुसकान लिए महिमा बोलीं.

मिलन : क्या थी डॉक्टर की कहानी

मैं जब सुबहसुबह तैयार हो कर कालेज के लिए निकलती, तो वह मुझे सड़क पर जरूर मिल जाता था. वह गोराचिट्टा और बांका जवान था. उस की हलके रंग की नई मोटरसाइकिल सड़क के एक ओर खड़ी रहती और वह खुद उस पर बैठा या नजदीक ही चहलकदमी करता दिखाई देता.

जब कभी वह उस जगह से गायब मिलता, मैं उसे इधरउधर गरदन घुमा कर ढूंढ़ने को मजबूर हो जाती. तब वह कभी चाय की दुकान में चाय पी रहा होता, तो कभी पान वाले के पास और कभी गुलाब की झाड़ी के पास हाथों में गुलाब लिए खड़ा दिखाई देता. उस की नजर मुझ पर ही लगी होती और जब मैं उस की ओर देखती, तो वह अपनी नजर दूसरी ओर घुमा लेता.

हम लोग एक बस्ती के पक्के मकान में रहते थे, जिस में हर तरह के लोग रहते थे. कुछ ओबीसी कहलाते, कुछ एससी, कुछ अल्पसंख्यक. पिछले कुछ सालों से कुछ गुंडेटाइप लोगों ने हमें भी सताना शुरू कर दिया था, इसलिए मैं बड़े संकोच से घर से निकलती थी.  सच पूछो तो मुझे भी उसे देखना अच्छा लगता था. डर लगता था कि कहीं यह उन गुंडों में न हो, जो आजकल हर जगह आतंक फैलाए हुए हैं और चुनावों व त्योहारों में आगे बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं.

मैं जब तक उसे देख न लेती, दिल को चैन नहीं मिलता था. कई दिनों तक यह सिलसिला चलता रहा. उस के बाद उस ने मुझे ‘नमस्ते’ करना शुरू कर दिया. मैं भी डरडर कर मुसकरा कर जवाब देने लगी थी. एक दिन मेरे छोटे भाई मदन के पेट में अचानक दर्द उठा, तो मैं उसे पास के एक डाक्टर के क्लिनिक पर ले गई. वहां बोर्ड लगा था- डा. रमेश.  जैसे ही मैं कमरे में गई तो यह देख कर चौंकी कि कुरसी पर वही मोटरसाइकिल वाला नौजवान बैठा हुआ था.

वह भी मुझे देख कर हैरान रह गया और बोला, ‘‘आप… आइए, बैठिए…’’ हम कुरसियों पर बैठ गए, तो वह आगे बोला, ‘‘कैसे आना हुआ?’’ मैं ने कहा, ‘‘यह मेरा छोटा भाई है मदन. इस के पेट में सुबह से दर्द हो रहा है.’’ उस ने मदन को बिस्तर पर लिटाया और 5-7 मिनट तक उस की जांच की, फिर बोला ‘‘कोई बड़ी बात नहीं है. कभीकभी ऐसा हो जाता है. मैं दवाएं दे देता हूं. आप इन्हें देते रहिए. सब ठीक हो जाएगा.’’ हम दवाएं ले कर घर आ गए. जल्दी ही मदन बिलकुल ठीक हो गया.

अगले दिन जब मैं कालेज से क्लिनिक गई, तो डाक्टर रमेश मुझे कहीं दिखाई नहीं दिए. मैं ने सोचा कि चलो इस आंखमिचौली के खेल का खात्मा हो गया.  एक दिन कालेज में हमारे सभी पीरियड खाली थे, मैं इसलिए बाजार घूमने निकल पड़ी. वहीं पर डाक्टर रमेश मिल गए. मैं ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘आज आप कहां थे?’’ वे बोले, ‘‘मदन कैसा है?’’

‘‘अब बिलकुल ठीक है.’’

वे कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले,

‘‘क्या आप मेरे साथ एक प्याला चाय पी सकती हैं?’’

‘‘जरूर, मुझे खुशी होगी.’’

हम दोनों एक रैस्टोरैंट में चले गए और एक जगह बैठ गए. उन्होंने मेरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘आप का नाम ‘निशा’ है?’’ ‘‘आप कैसे जानते हैं…?’’

मैं ने हैरानी से पूछा. वे हंसे, फिर बोले, ‘‘आप ने अपनी किताब पर जो लिख रखा है. वैसे, सब से पहले मेरी छोटी बहन मधु ने बताया था, जो आप के कालेज में पढ़ती है.’’

‘‘अच्छा, तो आप मधु के भाई हैं…’’ मैं मधु को जानती थी. वह मुझ से एक क्लास पीछे थी. ‘‘क्या हर रोज इस आंखमिचौली का भेद बता सकेंगे आप…?’’ मैं ने जानना चाहा. बैरा चाय रख गया था और हम चाय पीने लगे थे. डाक्टर रमेश धीरे से बोले, ‘‘बहुत दिनों से मैं इस भेद को खोलना चाहता था, पर हिम्मत नहीं बटोर सका. आज मौका मिला है,

पर सोचता हूं कि आप कहीं बुरा न मान जाएं.’’ मैं चौंक कर उन की नीली आंखों में झांकने लगी, फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘‘जो आप कहना चाहते हैं, साफसाफ कहिए.’’ ‘‘बात यह है निशाजी, जब से मैं ने आप को देखा है, मैं आप को चाहने लगा हूं. मैं आप को अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं. क्या आप मेरा जिंदगीभर साथ दे सकती हैं?’’ मेरी धड़कनें तेज हो गई थीं. मैं कुछ पल चुप रही. फिर बोली, ‘‘देखो, इस बारे में मैं ने अभी कुछ सोचा ही नहीं है.

एक तो मेरी डाक्टरी की पढ़ाई का आखिरी साल है और इम्तिहान सिर पर हैं. दूसरे, इस मामले में मातापिता की मंजूरी लेना भी जरूरी है.’’ ‘‘अगर आप की मंजूरी मिल जाएगी, तो बाकी सभी की भी मिल जाएगी और हमारे रास्ते में कोई रुकावट नहीं आएगी,’’ उन्होंने मेरी राय जाननी चाही. मैं मुसकरा उठी थी. मेरे सभी परचे बहुत अच्छे हुए थे. जब नतीजा आया तो कालेज में मेरा नंबर चौथा था. डाक्टर रमेश ने आ कर मुझे बधाई दी और कहने लगे,

‘‘बस निशा, अब तुम अपने मातापिता को भी अपना फैसला बता दो. तुम्हारी नौकरी के लिए भागदौड़ मैं करता हूं.’’

मदन, जो मुझ से 2 साल छोटा था और इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहा था, उसे मैं ने एक दिन अपने दिल की बात बताई. सुन कर वह बहुत खुश हुआ, क्योंकि वह भी कई बार डाक्टर रमेश से मिल चुका था. फिर मदन ने ही मातापिता से बात की और वे भी मान गए. कुछ दिनों के बाद पिताजी ने डाक्टर रमेश को चाय पर बुलाया. शादी के बारे में बात चल पड़ी.  बातचीत के दौरान पिताजी कहने लगे, ‘‘देखो रमेश, हम जाति से हरिजन हैं और आप ब्राह्मण… क्या आप की बिरादरी एक हरिजन लड़की को अपनी बहू बनाने को तैयार होगी?

‘‘क्या आप को समाज के गुस्से का सामना नहीं करना पड़ेगा? यह ठीक है कि सरकारी नौकरी मिलने की वजह से हमारा खानपान अच्छा है और अहम यह है कि निशा पढ़ने में बेहद होशियार है, पर आजकल तुम जानते ही हो कि ऊंचीनीची जातियों में विचारों में भी दिक्कतें आने लगी हैं. सरकार मुंह से नहीं कहती, पर जो लोग हल्ला करते हैं, उन्हें हर तरह की छूट दे रखी है. निशा को मैडिकल कालेज में बड़ी दिक्कतें आती हैं. कम ही लोग उस के दोस्त बनते हैं.’’

‘‘मैं जातबिरादरी के ढोंग को नहीं मानता…’’ डाक्टर रमेश बोल उठे थे, ‘‘मुझे किसी की परवाह नहीं है. हम इस बुराई को खत्म करने के लिए आगे बढ़ेंगे और हमारी शादी इस दिशा में एक सही कदम साबित होगी.’’  डाक्टर रमेश इस तरह की बहुत सी बातें करते हैं. ऊंची जाति का होने पर भी उन्होंने इसीलिए हमारे जैसे लोगों की बस्ती में क्लिनिक खोला, ताकि कोई बीमारी से न मरे. हम डाक्टर रमेश की बातों को सुन कर बहुत खुश हुए थे.

इस से अगले ही महीने डाक्टर रमेश से मेरी शादी एक कोर्ट में हो गई. उन्होंने गांव से अपने मातापिता और कुछ दोस्तों को भी बुलाया था.  शहर आने से पहले हमारा परिवार भी गांव में ही रहता था. हमारे गांव से उन के गांव की दूरी केवल 5 किलोमीटर ही थी. चूंकि शादी कोर्ट में की थी, उन के मातापिता को एकदम पता नहीं चल पाया कि हमारी जाति क्या है.

पर डाक्टर रमेश के मातापिता को शादी के बाद पता लग गया कि हम हरिजन हैं, तो वे कुछ गुस्सा हो गए. वे दूसरे ही दिन गांव लौट गए. फिर क्या था, उन के पूरे गांव में जंगल की आग की तरह यह खबर फैल गई. शादी के बाद जब पहली बार हम गांव गए,

तो मातापिता बहुत नाराज थे, पर महेश के पैसे और डाक्टर की डिगरी के आगे ज्यादा बोल नहीं पाई. हमें देख एक बुजुर्ग दूसरे से कहने लगा, ‘‘देखो भाई, क्या जमाना हो गया है. छोटी जाति के लोग हमारे पास जीहुजूरी करते थे, आंगन में जूते उतार कर चलते थे, अब उन्हीं लोगों की लड़कियां हमारे लड़कों को फंसा कर शादियां करने लगी हैं. हमारी इज्जत तो मिट्टी में मिल गई…’’

दूसरे बूढ़े ने ताना मारा, ‘‘अरे रमेश, क्या तुझे अपनी बिरादरी में कोई लड़की नहीं मिली?’’ रमेश चुप रहे, पर मैं जानती थी कि यह कैसा समाज इनसानों के बीच दीवारों को हटाने की जगह और बना रहा है. आखिर यह ऊंचनीच का भेदभाव कब तक जारी रहेगा? रमेश मुझे समझाने लगे, ‘‘निशा, तुम इन लोगों की बातों का बुरा मत मानना. गांव वाले अनपढ़ और गंवार हैं, जो समझाने पर भी नहीं समझते. अब तो ये लोग ह्वाट्सएप वगैरह पर खूब जातिवाद फैलाते हैं. इस का तो मुकाबला करना ही होगा. जब लोगों में समझ आएगी, तभी समाज में धीरेधीरे बदलाव आएगा.’

’ हम कुछ दिन बाद शहर आ गए. कुछ ही महीने गुजरे थे कि मुझे डाक्टर की डिगरी मिल गई. हम दोनों अब एक ही सरकारी अस्पताल में काम करने लगे. फिर डेढ़ साल बाद हमारी बदली हमारे गांव के पास के एक अस्पताल में हो गई. अपने इलाके के लोगों की सेवा करने में हमें बड़ी खुशी होती थी. गांव में रमेश के एक पक्के दोस्त घनश्याम, जो स्कूल में मास्टर थे, के घर बेटे ने जन्म लिया. इस खुशी में उन्होंने एक बहुत बड़ा भोज किया.

जब खाने का समय आया और चावल परोसे जाने लगे तो हम भी पत्तलें ले कर गांव वालों के साथ बैठ गए. पर यह क्या. पूरे के पूरे गांव वाले पत्तलों में अपनाअपना खाना छोड़ कर उठ खड़े हुए और कानाफूसी करते सुनाई दिए, ‘हम किसी हरिजन के छुए अन्न को नहीं खाएंगे. इन्हें बुलाया ही क्यों…?’ मैं हैरान रह गई. मैं ने सोचा भी नहीं था कि हमारे आने से इतना बड़ा भूचाल आ जाएगा. उधर रमेश, घनश्याम और 2-3 समझदार लोग गांव वालों को समझाने लगे. पर सब बेकार. उस अन्न को पशुपक्षियों के आगे और नदी में मछलियों के लिए फेंक दिया गया.

उस दिन से मैं इतनी शर्मिंदा और दुखी हुई कि दोबारा कभी गांव में न जाने का पक्का इरादा कर लिया. तभी कोविड पैर पसारने लगा था. लोगों को सांस की तकलीफ बढ़ने लगी. 2-3 दिनों में ही पूरा अस्पताल भर गया. कोविड बीमारी ने हमारे गांव को भी अपनी चपेट में ले लिया. पंचायतघर और स्कूल के कमरों ने भी अस्पताल का रूप ले लिया. डाक्टर कम और मरीज ज्यादा और डाक्टरों को भी डर लगना कि उन की सेहत न बिगड़ जाए.

मम्मीपापा को हम अपने पास ले आए. हम ने तन, मन से गांव वालों की मदद की. गांव के कई लोग जो अस्पताल देर से पहुंचे, मौत के मुंह में चले गए. उन की लाशों को आग के हवाले किया. जिन की हालत ज्यादा खराब थी, उन्हें शहर के बड़े अस्पतालों में भेजने का इंतजाम किया. औक्सीजन सिलैंडरों का इंतजाम किया. हम से जो बन पड़ा किया.

मैं और महेश दोनों  20-20 घंटे काम करते. बीच में मुश्किल से कुरसी पर बैठेबैठे सुस्ताते. गांव के लोगों की देखभाल मैं खुद करती थी. उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाती थी. जब लोग कुछ ठीक हो गए, तो एक दिन खाना खिलाते समय मैं ने एक बूढ़े को छेड़ ही दिया, ‘‘ताऊजी, आप सभी ने उस दिन मेरे छुए अन्न को खाने से मना कर दिया था, पर आज…’’ उन की गरदन झुक गई. वे कहने लगे, ‘‘बेटी, हम बहुत शर्मिंदा हैं और आप से माफी मांगते हैं. हम सब बराबर हैं.

कोई छोटा या बड़ा नहीं है. अब हमें यह बात समझ आ गई है.’’ दूसरा आदमी बोल उठा, ‘‘बेटी, तुम तो हमारे लिए जिंदगी बन कर आई हो…’’ मुझे उन की बातें सुन कर संतोष हुआ. महामारी पर काबू पाने में तकरीबन 2-3 महीने लगे.

इस बीच गांव के सभी लोग दिनरात हमारी तारीफ ही करते रहते थे. एक दिन दोपहर को मैं और मधु आपस में बातें कर रही थीं कि अचानक वह बोली, ‘‘भाभीजी, मैं पिछले कई दिनों से आप से एक बात कहना चाहती हूं, पर हिम्मत नहीं जुटा पा रही…’’

‘‘जरूर बोलो, अगर मैं तुम्हारे किसी काम आ सकी तो मुझे खुशी होगी,’’ मैं ने उस की पीठ थपथपाते हुए कहा. ‘‘बात यह है कि…’’ वह आगे कुछ न कह सकी.

‘‘अरे, इतनी शरमा क्यों रही हैं?’’ ‘‘भाभीजी, मैं ने अपने लिए जीवनसाथी चुन लिया है.’’ ‘‘अच्छा, वह कौन है भला…?’’ मैं ने चहक कर पूछा. ‘‘मदन.’’ ‘‘क्या?’’ मैं उछल पड़ी, ‘‘सच?’’

‘‘हां भाभीजी, ‘‘वह बोली, ‘‘मदन ने ही मुझे आप से अपना फैसला सुनाने के लिए कहा था. हम दोनों एकदूसरे को बहुत पसंद करते हैं.’’ मैं ने भरी आंखों से मधु को सीने से लगा लिया और सोचने लगी, ‘अगर जवान लड़केलड़कियां आगे आएं तो यह छुआछूत और भेदभाव की दीवार जरूर मिटाई जा सकती है. काश, हमारे गांव की तरह पूरे देश से इस बुराई  का खात्मा हो पाता, तो देश तेजी से तरक्की करता.’

कैलेंडर गर्ल : कैसी हकीकत से रूबरू हुई मोहना

‘‘श्री…मुझे माफ कर दो…’’ श्रीधर के गले लग कर आंखों से आंसुओं की बहती धारा के साथ सिसकियां लेते हुए मोहना बोल रही थी.

मोहना अभी मौरीशस से आई थी. एक महीना पहले वह पूना से ‘स्कायलार्क कलेंडर गर्ल प्रतियोगिता’ में शामिल होने के लिए गई थी. वहां जाने से पहले एक दिन वह श्री को मिली थी.

वही यादें उस की आंखों के सामने चलचित्र की भांति घूम रही थीं.

‘‘श्री, आई एम सो ऐक्साइटेड. इमैजिन, जस्ट इमैजिन, अगर मैं स्कायलार्क कलेंडर के 12 महीने के एक पेज पर रहूंगी दैन आई विल बी सो पौपुलर. फिर क्या, मौडलिंग के औफर्स, लैक्मे और विल्स फैशन वीक में भी शिरकत करूंगी…’’ बस, मोहना सपनों में खोई हुई बातें करती जा रही थी.

पहले तो श्री ने उस की बातें शांति से सुन लीं. वह तो शांत व्यक्तित्व का ही इंसान था. कोई भी चीज वह भावना के बहाव में बह कर नहीं करता था. लेकिन मोहना का स्वभाव एकदम उस के विपरीत था. एक बार उस के दिमाग में कोई चीज बस गई तो बस गई. फिर दूसरी कोई भी चीज उसे सूझती नहीं थी. बस, रातदिन वही बात.

टीवी पर स्कायलार्क का ऐड देखने के बाद उसे भी लगने लगा कि एक सफल मौडल बनने का सपना साकार करने के लिए मुझे एक स्प्रिंग बोर्ड मिलेगा.

‘‘श्री, तुम्हें नहीं लगता कि इस कंपीटिशन में पार्टिसिपेट करने के लिए मैं योग्य लड़की हूं? मेरे पास एथलैटिक्स बौडी है, फोटोजैनिक फेस है, मैं अच्छी स्विमर हूं…’’

श्री ने आखिर अपनी चुप्पी तोड़ी और मोहना की आंखों को गहराई से देखते हुए पूछा, ‘‘दैट्स ओके, मोहना… इस प्रतियोगिता में शरीक होने के लिए जो 25 लड़कियां फाइनल होंगी उन में भी यही गुण होंगे. वे भी बिकनी में फोटोग्राफर्स को हौट पोज देने की तैयारी में आएंगीं. वैसी ही तुम्हारी भी मानसिक तैयारी होगी क्या? विल यू बी नौट ओन्ली रैडी फौर दैट लेकिन कंफर्टेबल भी रहोगी क्या?’’

श्री ने उसे वास्तविकता का एहसास करा दिया. लेकिन मोहना ने पलक झपकते ही जवाब दिया, ‘‘अगर मेरा शरीर सुंदर है, तो उसे दिखाने में मुझे कुछ हर्ज नहीं है. वैसे भी मराठी लड़कियां इस क्षेत्र में पीछे नहीं हैं, यह मैं अपने कौन्फिडैंस से दिखाऊंगी.’’

मोहना ने झट से श्री को जवाब दे कर निरुतर कर दिया. श्री ने उस से अगला सवाल पूछ ही लिया, ’’और वे कौकटेल पार्टीज, सोशलाइजिंग…’’

‘‘मुझे इस का अनुभव नहीं है लेकिन मैं दूसरी लड़कियों से सीखूंगी. कलेंडर गर्ल बनने के लिए मैं कुछ भी करूंगी…’’ प्रतियोगिता में सहभागी होने की रोमांचकता से उस का चेहरा और खिल गया था.

फिर मनमसोस कर श्री ने उसे कहा, ‘‘ओके मोहना, अगर तुम ने तय कर ही लिया है तो मैं क्यों आड़े आऊं? खुद को संभालो और हारजीत कुछ भी हो, यह स्वीकारने की हिम्मत रखो, मैं इतना ही कह सकता हूं…’’

श्री का ग्रीन सिगनल मिलने के बाद मोहना खुश हुई थी. श्री के गाल पर किस करते हुए उस ने कहा, ‘‘अब मेरी मम्मी से इजाजत लेने की जिम्मेदारी भी तुम्हारी ही है?’’

श्री ने भी ज्यादा कुछ न बोलते हुए हामी भर दी. श्री के समझाने के बाद मोहना की मम्मी भी तैयार हो गईं. मोहना आखिर सभी को अलविदा कह कर मौरीशस पहुंची. यहां पहुंचने के बाद उसे एक अलग ही दुनिया में आने का आभास हुआ था… उस के सदाशिवपेठे की पुणेरी संस्कृति से बिलकुल ही अलग किस्म का यहां का माहौल था. फैशनेबल, स्टाइल में फ्लुऐंट अंगरेजी बोलने वाली, कमनीय शरीर की बिंदास लड़कियां यहां एकदूसरे की स्पर्धी थीं. इन 30 खूबसूरत लड़कियों में से सिर्फ 12 को महीने के एकएक पन्ने पर कलेंडर गर्ल के लिए चुना जाना था.

शुरुआत में मोहना उन लड़कियों से और वहां के माहौल से थोड़ी सहमी हुई थी. लेकिन थोड़े ही दिनों में वह सब की चहेती बन गई.

सब से पहले सुबह योगा फिर हैल्दी बे्रकफास्ट, फिर अलगअलग साइट्स पर फोटोशूट्स… दोपहर को फिर से लाइट लंच… लंच के साथ अलगअलग फू्रट्स, फिर थोड़ाबहुत आराम, ब्यूटीशियंस से सलाहमशवरा, दूसरे दिन जो थीम होगी उस थीम के अनुसार हेयरस्टाइल, ड्रैसिंग करने के लिए सूचना. शाम सिर्फ घूमने के लिए थी.

दिन के सभी सत्रों पर स्कायलार्क के मालिक सुब्बाराव रेड्डी के बेटे युधि की उपस्थिति रहती थी. युधि 25 साल का सुंदर, मौडर्न हेयरस्टाइल वाला, लंदन से डिग्री ले कर आया खुले विचारों का हमेशा ही सुंदरसुंदर लड़कियों से घिरा युवक था.

युधि के डैडी भी रिसौर्ट पर आते थे, बु्रअरी के कारोबार में उन का बड़ा नाम था. सिल्वर बालों पर गोल्डन हाईलाइट्स, बड़ेबड़े प्लोटेल डिजाइन के निऔन रंग की पोशाकें, उन के रंगीले व्यक्तित्व पर मैच होती शर्ट्स किसी युवा को भी पीछे छोड़ देती थीं. दोनों बापबेटे काफी सारी हसीनाओं के बीच बैठ कर सुंदरता का आनंद लेते थे.

प्रतियोगिता के अंतिम दौर में चुनी गईं 15 लड़कियों में मोहना का नाम भी शामिल हुआ है, यह सुन कर उस की खुशी का ठिकाना ही न रहा. आधी बाजी तो उस ने पहले ही जीत ली थी, लेकिन यह खुशी पलक झपकते ही खो गई. रात के डिनर के पहले युधि के डैडी ने उसे स्वीट पर मिलने के लिए मैसेज भेजा था. मोहना का दिल धकधक कर रहा था. किसलिए बुलाया होगा? क्या काम होगा? उसे कुछ सूझ ही नहीं रहा था. लेकिन जाना तो पड़ेगा ही. आखिर इस प्रतियोगिता के प्रमुख का संदेश था.

श्री को छोड़ कर किसी पराए मर्द से मोहना पहली बार एकांत में मिल रही थी.

जब वह रेड्डी के स्वीट पर पहुंची थी तब दरवाजा खुला ही था. दरवाजे पर दस्तक दे कर वह अंदर गई. रेड्डी सिल्क का कुरता व लुंगी पहन कर सोफे पर बैठा था. सामने व्हिस्की की बौटल, गिलास, आइस फ्लास्क और मसालेदार नमकीन की प्लेट रखी थी.

‘‘कम इन, कम इन मोहना, माई डियर…’’ रेड्डी ने खड़े हो कर उस का हाथ पकड़ कर उसे सोफे पर बैठाया.

मोहना अंदर से सहम गई थी. रेड्डी राजकीय, औद्योगिक और सामाजिक सर्कल में मान्यताप्राप्त थे. इतना ही नहीं ‘कलेंडर गर्ल’ में सब से हौट सुपरमौडल का चुनाव तो यही करने वाले थे.

‘‘ड्रिंक,’’ उन्होंने मोहना से पूछा. मोहना ने ‘नो’ कहा, फिर भी उन्होंने दूसरे खाली गिलास में एक पैग बना दिया. थोड़ी बर्फ और सोडा डाल कर उन्होंने गिलास मोहना के सामने रखा.

‘‘कम औन मोहना, यू कैन नौट बी सो ओल्ड फैशंड, इफ यू वौंट टु बी इन दिस फील्ड,’’ उन की आवाज में विनती से ज्यादा रोब ही था.

मोहना ने चुपचाप गिलास हाथ में लिया. ‘‘चिअर्स, ऐंड बैस्ट औफ लक,’’ कह कर उन्होंने व्हिस्की का एक बड़ा सिप ले कर गिलास कांच की टेबल पर रख दिया.

मोहना ने गिलास होंठों से लगा कर एक छोटा सिप लिया, लेकिन आदत न होने के कारण उस का सिर दुखने लगा.

रेड्डी ने उस से उस के परिवार के बारे में कुछ सवाल पूछे. वह एक मध्यवर्गीय, महाराष्ट्रीयन युवती है, यह समझने के बाद तो उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारी हिम्मत की दाद देता हूं, मोहना… लेकिन अगर तुम्हें सचमुच कलेंडर गर्ल बनना है, तो इतना काफी नहीं है… और एक बार अगर तुम्हारी गाड़ी चल पड़ी, तब तुम्हें आगे बढ़ते रहने से कोई नहीं रोक सकता. सिर्फ थोड़ा और कोऔपरेटिव बनने की जरूरत है…’’

रेड्डी ने व्हिस्की का एक जोरदार सिप लेते हुए सिगार सुलगाई और उसी के धुएं में वे मोहना के चेहरे की तरफ देखने लगे.

रेड्डी को क्या कहना है यह बात समझने के बाद मोहना के मुंह से निकला, ‘‘लेकिन मैं ने तो सोचा था, लड़कियां तो मैरिट पर चुनी जाती हैं…’’

‘‘येस, मैरिट… बट मोर दैन रैंप, मोर इन बैड…’’ रेड्डी ने हंसते हुए कहा और अचानक उठ कर मोहना के पास आ कर उस के दोनों कंधों पर हाथ रखा और अपनी सैक्सी आवाज में कहा, ‘‘जरा सोचो तो मोहना, तुम्हारे भविष्य के बारे में… मौडलिंग असाइनमैंट… हो सकता है फिल्म औफर्स…’’

इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई और वेटर खाने की टे्र ले कर अंदर आया. मोहना उन के हाथ कंधे से दूर करते हुए उठी और उन की आंखों में देख कर उस ने कहा, ‘‘आई एम सौरी, बट आई एम नौट दैट टाइप, रेड्डी साहब,’’ और दूसरे ही पल वह दरवाजा खोल कर बाहर आ गई.

उस रात वह डिनर पर भी नहीं गई. रात को नींद भी नहीं आ रही थी. बाकी लड़कियों के हंसने की आवाज रात को देर तक उसे आ रही थी. उस की रूममेट रिया रातभर गायब थी और वह सुबह आई थी.

दूसरे ही दिन उस के हाथ में स्कायलार्क का लैटर था, पहले तो अंतिम दौर के लिए उस का चुनाव हुआ था, लेकिन अब उस का नाम निकाल दिया गया था. वापसी का टिकट भी उसी लैटर के साथ था.

उस के सारे सपने टूट चुके थे. मनमसोस कर मोहना पूना आई थी और श्री के गले में लग कर रो रही थी, ‘‘मेरी… मेरी ही गलती थी, श्री… स्कायलार्क कलेंडर गर्ल बनने का सपना और सुपर मौडल बनने की चाह में मैं ने बाकी चीजों की तरफ ध्यान ही नहीं दिया. लेकिन यकीन करो मुझ पर, श्री… मैं ने वह लक्ष्मण रेखा कभी भी पार नहीं की… उस के पहले ही मैं पीछे मुड़ गई और वापस लौट आई, अपने वास्तव में, अपने विश्व में तुम्हारा भरोसा है न श्री?’’

श्री ने उसे बांहों में भर लिया…’’ अब 12 महीनों के पन्नों पर सिर्फ तुम्हारे ही फोटोज का कलेंडर मैं छापूंगा, रानी,’’ उस ने हंसते हुए कहा और मोहना रोतेरोते हंसने लगी.

उस की वह हंसी, उस के फोटोशूट की बनावटी हंसी से बहुत ही नैचुरल और मासूमियत भरी थी.

मोहिनी : कौन सी गलती ने बर्बाद कर दिया परिवार

मनोहरा की पत्नी मोहिनी बड़ी शोख और चुलबुली थी. अपनी अदाओं से वह मनोहरा को हमेशा मदहोश किए रहती थी. उस को पा कर मनोहरा को जैसे पंख लग गए थे और वह हमेशा आकाश में उड़ान भरने को तैयार हो उठता था. मोहिनी उस की इस उड़ान को हमेशा ही सहारा दे कर दुनिया जीतने का सपना देखती रहती थी.

अपने मायके में भी मोहिनी खुली हिरनी की तरह गांवभर में घूमती रहती थी. इस में उसे कोई हिचक नहीं होती थी, क्योंकि उस की मां बचपन में ही मर गई थी और सौतेली मां का उस पर कोई कंट्रोल न था.

मोहिनी छोटेबड़े किसी काम में अपनी सीमा लांघने से कभी भी नहीं हिचकती थी. शादी से पहले ही उस का नाम गांव के कई लड़कों से जोड़ा जाता था. वैसे, ब्याह कर अपने इस घर आने के बाद पहले तो मोहिनी ने अपनी बोली और बरताव से पूरे घर का दिल जीत लिया, पर जल्दी ही वह अपने रंग में आ गई.

मनोहरा के बड़े भाई गोखुला की सब से बड़ी औलाद एक बेटी थी, जो अब सयानी और शादी के लायक हो चली थी. उस का नाम सलोनी था. गोखुला के 2 बेटे अभी छोटे ही थे. गोखुला की पत्नी पिछले साल हैजे की वजह से मर गई थी.

मोहिनी के सासससुर और गोखुला अब कभीकभी सलोनी की शादी कर देने की चर्चा छेड़ देते थे, जिस से वह डर जाती थी. उस की शादी में अच्छाखासा खर्च होने की उम्मीद थी.

मोहिनी चाहती थी कि अगर किसी तरह उस का पति अपने भाई गोखुला से अलग होने को राजी हो जाए, तो होने वाले इस खर्च से वह बच निकलेगी.

मोहिनी ने माहौल देख कर मनोहरा को अपने मन की बात बताई. मनोहरा एक सीधासादा जवान था. वह घर के एक सामान्य सदस्य की तरह रहता और दिल खोल कर कमाता था. वह इन छलप्रपंचों से कोसों दूर था.मोहिनी की बातों को सुन कर पलभर के लिए तो मनोहरा को बहुत बुरा लगा, पर मोहिनी ने जब इन सारी बातों की जिम्मेदारी अपने ऊपर छोड़ देने की बात कही, तो वह चुप हो गया.

यही तो मोहिनी चाहती थी. अब वह आगे की चाल के बारे में सोचने लग गई. पहले कुछ दिनों तक तो उस ने सलोनी से खूब दोस्ती बढ़ाई और उसे घूमनेफिरने, खेलनेखिलाने वगैरह की पूरी आजादी दे दी, फिर खुद ही अपने सासससुर से उस की शिकायत भी करने लगी.

1-2 बार उस ने सलोनी को गुपचुप उसी गांव के रहने वाले अपने चहेते पड़ोसी रामखिलावन के साथ मेले में भेज दिया और पीछे से ससुर को भी भेज दिया.

सलोनी के रंगे हाथ पकड़े जाने पर मोहिनी ने उस घर में रहने से साफ इनकार कर दिया. सासससुर और गांव वाले उसे समझासमझा कर थक गए, पर उस ने तब तक कुछ नहीं खायापीया, जब तक कि पंचों ने अलग रहने का फैसला नहीं ले लिया.

अब तो मोहिनी की पौबारह थी. अकेले घर में उसे सभी तरह की छूट थी. न दिन में कोई देखने वाला, न रात में कोई उठाने वाला. अब तो वह अपनी नींद सोती और अपनी नींद जागती थी. मनोहरा तो उस के रूप और जवानी पर पहले से ही लट्टू था, बंटवारा होने के बाद से तो वह उस का और भी एहसानमंद हो गया था.

मनोहरा दिनभर अपने खेतों में काम करता और रात में खापी कर मोहिनी के रूपरस का पान कर जो सोता, तो 4 बजे भोर में ही पशुओं को चारापानी देने के लिए उठता.

इस बीच मोहिनी क्या करती है, क्या खातीपीती है, कहां उठतीबैठती है, इस का उसे बिलकुल भी एहसास न था और न ही चिंता थी.

मोहिनी ने एक मोबाइल फोन खरीद लिया. कुछ ही दिनों में उस ने अपने पुराने प्रेमी से फोन पर बात की, ‘‘सुनो कन्हैया, अब मैं यहां भी पूरी तरह से आजाद हूं. तुम जब चाहो समय निकाल कर यहां आ सकते हो, केवल इतना ध्यान रखना कि मेरे गांव के पास आ कर पहले मुझ से बातचीत कर के ही घर पर आना… समझे?’’

‘क्यों, अब मेरे रात में आने से तुझे अपनी नींद में खलल पड़ती है क्या? दिन में बारबार तुम्हारे यहां आने से नाहक लोगों को शक होगा,’ कन्हैया ने कहा.

‘‘रात के अंधेरे में तो सभी काला धंधा चलाते हैं, पर दिन के उजाले में भी कुछ दिन अपना काला धंधा चला कर मजा लेने में क्या हर्ज है. रात को पशुशाला में गोबर की बदबू के बीच वह मजा कहां, जो दिन के उजाले में अपने मर्द के बिछावन पर मिलेगा.’’

‘ठीक है, मोहिनी. तुम्हारी बातों को मैं ने कब काटा है. यह आदेश भी सिरआंखों पर, लेकिन जोश के साथ होश कभी नहीं खोना चाहिए… ठीक है, कल दोपहर बाद…’ कन्हैया बोला.

दूसरे दिन सवेरे ही मोहिनी ने मनोहरा को चायनाश्ता करा कर, दोपहर का खाना दे कर खेत पर काम करने इस तरह विदा किया, जैसे कोई मां अपने बच्चे को तैयार कर पढ़ने के लिए भेजती है.

ठीक साढ़े 12 बजे मोबाइल फोन की घंटी बजने लगी. भीतरबाहर, अगलबगल देख कर मोहिनी ने कन्हैया को घर पर आने का सिगनल दे दिया.

कन्हैया सावधानी से उस के दरवाजे तक आ गया और वहां से उसे अपने आंगन तक ले जाने के लिए तो मोहिनी वहां मौजूद थी ही. तकरीबन 2 घंटे तक कन्हैया वहां रह कर मौजमजा लेता रहा, फिर जैसे आया था वैसे ही लौट गया.

ठीक उसी समय अलग हुए बराबर के घर में सलोनी अपने छोटे भाई रमुआ के साथ पशुओं को खूंटे से बांध रही थी. आज रमुआ अपने साथ दोपहर का खाना नहीं ले जा सका था, इसी वजह से वह सवेरे ही पशुओं को हांक लाया था.

सलोनी ने चाची के घर से निकल कर एक अजनबी को जाते देखा, तो उसे कुछ अटपटा सा लगा, पर वह चुप लगा गई.

दूसरे दिन भी जब सलोनी बैलों को पानी पिलाने के लिए दरवाजे पर आई, तो गांव के ही रामखिलावन को मोहिनी के घर से निकलते देखा. देखते ही वह पहचान गई कि यह वही रामखिलावन है, जिस के साथ चाची उसे बदनाम कर के दादादादी और उन से अलग हुई थी.

अब तो सलोनी के मन में कुछ उथलपुथल सी होने लगी. उस ने अपने मन को शांत कर एक फैसला लिया और मुसकराने लगी.

अब सलोनी बराबर चाचा के घर की निगरानी करने लगी. वह अपने आंगन से निकल कर चुपके से चाचाचाची के घर की ओर देख लेती और लौट जाती. एक दिन उसे फिर एक नया अजनबी उस आंगन से निकलते हुए दिखा.

अब सलोनी से रहा नहीं गया. उस ने अपनी दादी से सारी बातें बताईं. वह बूढ़ी अपनी एक खास जवान पड़ोसन से मदद ले कर इस बात की जांच में जुट गई.

तीनों मिल कर छिपछिप कर एक हफ्ते तक निगरानी करती रहीं. सलोनी की बात सोलह आने सच साबित हुई. फिर दादी ने अपने बड़े बेटे गोखुला और अपने पति से सहयोग ले कर एक नई योजना बनाई और 2-4 दिनों तक और इंतजार किया.

दूसरी ओर मोहिनी इन सभी बातों से अनजान मौजमस्ती में मशगूल रहती थी. वैसे, उस के घर में जो भी मर्द आता था, वह कोई कीमती चीज उसे दे जाता था.

कन्हैया को आए जब कई दिन हो गए, तो मोहिनी के मन की तड़प बढ़ गई, दिल जोरों से धड़कने लगा. उसे खयाल आया कि सिकंदर भी आने से मना कर चुका है, तो क्यों न आज फिर एक बार कन्हैया को ही बुला लिया जाए. उस ने झट से मोबाइल फोन उठा लिया.

दूसरी ओर से कन्हैया ने पूछा, ‘हां मोहिनी, क्या हालचाल है? तुम वहां खुश तो हो न?’

‘‘क्या खाक खुश रहूंगी. तुम तो इधर का जैसे रास्ता ही भूल बैठे. दिनभर बैठी रहती हूं मैं तुम्हारी याद में और तुम तो जैसे डुमरी का फूल बन गए हो आजकल.’’

‘बोलो क्या हुक्म है?’

‘‘आज तुम दोपहर के 12 बजे मेरे घर आ जाओ.’’

‘हुजूर का हुक्म सिरआंखों पर,’ कहते हुए कन्हैया ने फोन काट दिया.

मोहिनी ने तो अपनी योजना बना ली थी, पर उसे भनक तक नहीं थी कि कोई उस पर नजर रखे हुए है. कन्हैया पर नजर पड़ते ही सभी सावधान हो गए. वह एक ओर से आ कर मोहिनी के आंगन में घुस गया. लोगों ने देखा कि मोहिनी उसे दरवाजे से भीतर ले गई.

सलोनी ने दादी के कहने पर मनोहरा चाचा को भी बुला कर अपने दरवाजे पर बैठा लिया था. धीरेधीरे कुछ और लोग आ गए और जब तकरीबन आधा घंटा बीत गया होगा, तब मनोहरा को आगे कर सभी लोग उस के दरवाजे पर पहुंच गए.

दस्तक देने पर जब दरवाजा नहीं खुला, तब लोगों ने मनोहरा को ऊंची आवाज लगा कर मोहिनी को बुलाने को कहा. उस की आवाज को पहचान कर मोहिनी को कुछ शक हुआ, क्योंकि आज उसे धान के खेत की निराईगुड़ाई करनी थी. आज उसे शाम में भी देर से आने की उम्मीद थी. वह कन्हैया संग पलंग पर प्रेम की पेंगें भर रही थी.

ज्यों ही मोहिनी ने दरवाजा खोला, सामने मनोहरा के संग पासपड़ोस के लोगों को देख कर उस के होश उड़ गए. वह कुछ बोलती, इस से पहले ही पूरा हुजूम उस के आंगन में घुस गया और कन्हैया को भी धर दबोचा.

पत्नी मोहिनी के सामने हमेशा भीगी बिल्ली बना रहने वाला मनोहरा आज न जाने कैसे बब्बर शेर बन कर दहाड़ता हुआ उस पर पिल पड़ा और चिल्लाया, ‘‘आज मैं इस को जान से मार कर ही चैन की सांस लूंगा.’’

उस दिन के बाद से फिर न तो मोहिनी कभी वापस गांव में दिखी और न ही उस का प्रेमी. सुना था कि वह शहर जा कर कई घरों में बरतन मांज कर फटेहाल गुजारा कर रही है.

यह मेरी मंजिल नहीं : गुमराह होती सहेली की अंजलि ने कैसे की मदद

‘अंजली, तुम से आखिरी बार पूछ रही हूं, तुम मेरे साथ साइबर कैफे चल रही हो या नहीं?’ लहर ने जोर दे कर पूछा.

अंजली झुंझला उठी, ‘नहीं चलूंगी, नहीं चलूंगी, और तुम भी मत जाओ. दिन में 4 घंटे बैठी थीं न वहां, वे क्या कम थे. महीना भर भी नहीं बचा है परीक्षा के लिए और तुम…’

‘रहने दो अपनी नसीहतें. मैं अकेली ही जा रही हूं,’ अंजली आगे कुछ कहती, इस से पहले लहर चली गई.

‘शायद इसीलिए प्यार को पागलपन कहते हैं. वाकई अंधे हो जाते हैं लोग प्यार में,’ अंजली ने मन ही मन सोचा. फिर वह नोट्स बनाने में जुट गई, पर मन था कि आज किसी विषय पर केंद्रित ही नहीं हो रहा था. उस ने घड़ी पर नजर डाली.  शाम के 6 बजने को थे. आज लहर की मम्मी से फिर झूठ बोलना पडे़गा.

4 दिन से लगातार लहर के घर से फोन आ रहा था, शाम 6 से 8 बजे तक का समय तय था, जब होस्टल में लड़कियों के घर वाले फोन कर सकते थे. लहर की गैरमौजूदगी में रूममेट के नाते अंजली को ही लहर की मम्मी को जवाब देना पड़ता था. कैसे कहती वह उन से कि लहर किसी कोचिंग क्लास में नहीं बल्कि साइबर कैफे में बैठी अपने किसी बौयफे्रंड से इंटरनेट पर चैट कर रही है, समय व पैसे के साथसाथ वह खुद को भी इस आग में होम करने पर तुली है.

आग ही तो है जो एक चैट की चिंगारी से सुलगतेसुलगते आज लपट का रूप ले बैठी है, जिस में लहर का झुलसना लगभग तय है.

क्या अपनी प्रिय सखी को यों ही जल कर खाक होने दे? समझाने की सारी कोशिशें तो अंजली कर चुकी थी. पर अगर कोई डूबने पर आमादा हो जाए तो उसे किनारे कैसे लाया जाए. क्या वह लहर की मम्मी को सारी सचाई बयान कर दे? पर सचाई जानने के बाद लहर का क्या होगा. यह तो तय था कि सचाई पता चलते ही लहर के मम्मीपापा उस की पढ़ाई व होस्टल छुड़वा कर उसे वापस गांव ले जाएंगे. गांव में कैद होने का मतलब था लहर के लिए भविष्य के सारे रास्ते बंद. अंजली सोच में पड़ गई.

अपनी बचपन की सहेली के साथ ऐसा हो, यह तो अंजली कतई नहीं चाहती थी. पर दोनों के स्वभाव में शुरू से ही विरोधाभास था. लहर चुलबुली, अल्हड़ सी लड़की थी तो अंजली गंभीर और व्यावहारिक. इसलिए अकसर दोनों में बहस भी हो जाया करती. पर अगले ही पल वे दोनों एक हो जातीं.

इंटर पास कर के अंजली का शहर जा कर पढ़ना तय था. गांव में कालिज नहीं था और पढ़नेलिखने में तेज अंजली की महत्त्वाकांक्षा आसमान छू लेने की थी. मांबाप भी यही चाहते थे.

इस से उलट लहर के परिवार वाले उसे शहर में अकेले होस्टल में रखने के हक में कतई न थे. पर रोधो कर लहर ने घर वालों को मना ही लिया था, शहर भेजने के लिए. लहर हमेशा से औसत दरजे की छात्रा थी. भविष्य संवारने से बढ़ कर उसे आकर्षित कर रही थी शहरी चमकदमक, आजादी व मनमौजी जीवनशैली, जो गांव में मांबाप की छत्रछाया में संभव नहीं थी.

शहर आ कर दोनों ने बी.आई.टी. में प्रवेश ले लिया. दोनों ही लगन से कंप्यूटर की बारीकियां सीखने में लग गईं. कालिज में फ्री इंटरनेट सुविधा थी. लड़कियां कई बार समय काटने के लिए नेट चैट करती रहतीं. अंजली व लहर भी कभीकभार इस तरह समय काटा करती थीं.

पर कुछ समय बाद अंजली ने महसूस किया कि लहर किसी नेटफे्रंड को ले कर कुछ सीरियस हो रही है. उठतेबैठते, सोते- जागते, उसी की चर्चा. उसी के खयाल, हर वक्त, चैट करने का उतावलापन. अंजली उसे कई बार समझा चुकी थी कि किसी अनजान से इतना लगाव ठीक नहीं. माना कि तुम्हारी दोस्ती है पर इतना अधिक पजेसिव होने की जरूरत नहीं. ये नेट चैट तो आजकल लोगों के लिए टाइमपास है. आधी से ज्यादा बातें तो इस पर लोग झूठी ही करते हैं.

अंजली के समझाने पर लहर जाने कहांकहां की प्रेम कहानियां सुनाने लगती. ढेरों उदाहरण पेश कर देती, जिस में प्रेमी भारत का तो प्रेमिका न्यूजीलैंड की, कभी प्रेमी आस्ट्रेलिया का तो प्रेमिका भारत की होती. फिर लहर का तर्क होता, ‘इन की शादियां क्या यों ही हो गईं? रिश्ते तो विश्वास पर ही बनते हैं.’

‘वह तो ठीक है लहर, फिर भी सिर्फ बातों से किसी की सचाई का पता नहीं चल जाता,’ अंजली उसे समझाती, पर लहर ने तो जैसे ठान ही लिया था कि वह जो कर रही है वही ठीक है.

कालिज के बाद का फ्री टाइम लहर साइबर कैफे में बैठ कर गुजारने लगी, जहां प्रति घंटे की दर से कुछ पैसे ले कर इंटरनेट सुविधा उपलब्ध कराई जाती है. अंजली की बातों पर जब लहर ने ध्यान नहीं दिया तो उस ने भी कुछ कहना छोड़ दिया. वह जानती थी कि नेटचैट का भूत किसी नशे से कम नहीं होता. जिस दिन नशा उतर जाएगा, उस दिन लहर खुद राह पर आ जाएगी.

पर धीरेधीरे लहर का नशा उतरने के बजाय चढ़ता ही जा रहा था. दिन में 4-4 घंटे तो कभी 6-6 घंटे साइबर कैफे में बैठ कर चैट करने की लत लहर का पर्स 15 दिन में खाली कर देती. महीने के बाकी बचे 15 दिनों के लिए वह अंजली से उधार मांगती व कहती कि पहली तारीख को घर से मनीआर्डर आने पर पैसे लौटा देगी.

1-2 बार अंजली ने दोस्ती की खातिर रुपए उधार दे दिए. पहली तारीख को लहर ने लौटा भी दिए. पर फिर अगले माह उसे पैसे की तंगी हो जाती. अंजली के मना करने पर वह किसी दूसरी लड़की से पैसे उधार ले लेती. धीरेधीरे होस्टल की सभी लड़कियां उस की उधारी वाली आदत से परेशान हो गईं. सभी कोई न कोई बहाना बना कर उसे टाल देतीं.

अब लहर ने घर फोन कर और पैसे मांगने शुरू कर दिए, कभी यह कह कर कि मेरे पैसे रास्ते में कहीं गिर गए, तो कभी नया बहाना होता कि मुझे किसी विषय की ट्यूशन लगवानी है.

लहर अपनी लत में लगी रही. नतीजा तय था. परीक्षा में जहां अंजली अच्छे नंबरों से पास हो गई वहीं लहर सभी विषयों में फेल थी.

रोधो कर लहर ने अंजली को मजबूर कर दिया, एक और झूठ बोलने के लिए, ‘अंजली प्लीज, मेरे घर पर यही कहना कि परीक्षा के दिनों में मुझे तेज बुखार था. इसी वजह से रिजल्ट खराब रहा.’

फेल होने के बावजूद लहर को कोई अफसोस नहीं था बल्कि वह तो फिर यह सोच कर चैन की सांस लेने लगी थी कि चलो, मम्मीपापा को उस की असफलता को ले कर कोई शंका नहीं है. पर अंजली परेशान थी. उस ने लहर की खातिर सिर्फ यह सोच कर झूठ बोला था कि ठोकर खा कर वह अब सही राह पर चलेगी.

अंजली लहर से एक क्लास आगे हो गई थी. अब उन का साथसाथ आना कम हो गया था. अंजली होस्टल से सुबह निकलती तो लहर उस के 2 घंटे बाद. दोनों ही अपनीअपनी तरह जी रही थीं. अंजली का पढ़ाई में लगाव बढ़ता जा रहा था. लेकिन लहर का मन पढ़ाई से पूरी तरह उचट चुका था.

अंजली ने भी उसे समझाने की कोशिशें छोड़ दीं, पर एक दिन अचानक अंजली पर जैसे गाज गिरी. अटैची में रखे 1 हजार रुपए गायब देख कर उस के होश उड़ गए. ‘तो अब लहर इस हद तक गिर गई है,’ अंजली को यकीन नहीं हो रहा था. होस्टल के कमरे में उन दोनों के अलावा कोई तीसरा आता नहीं था.

‘लहर को पैसे की तंगी तो हमेशा ही रहती थी. पैसों के लिए जब वह अपने मांबाप से झूठ बोल सकती है तो चोरी भी कर सकती थी,’ अंजली ने सोचा, पर सीधा इलजाम लगाने से बात बिगड़ सकती है. कोई ठोस सुबूत भी तो नहीं, जो साबित कर सके कि पैसे लहर ने ही निकाले हैं.

अंजली मन ही मन बहुत दुखी थी. अचानक उसे ध्यान आया कि लहर का पासवर्ड वह जानती है. क्यों न उस के पासवर्ड को कंप्यूटर में डाल कर लहर का ईमेल अकाउंट जांचा जाए. आखिर 6-6 घंटे साइबर कैफे में बैठ कर चैट करने के पीछे कारण क्या हैं.

अंजली ने साइबर कैफे में जा कर लहर के पासवर्ड से उस का ईमेल अकाउंट खोला. लहर के नाम आए मेल पढ़ कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. ये सारे मेल लहर के उसी दोस्त के थे जिस के पीछे वह दीवानी हो गई थी. नाम था साहिल खान. वह सऊदी अरब में काम करने वाला भारतीय था. साहिल खान के भावुकता के रस में डूबे प्रेम से सराबोर पत्रों से पता चला कि लहर तो उस के साथ भाग कर शादी करने का वादा भी कर चुकी है, वह शादी के बाद उस के साथ सऊदी अरब में रहने के सपने देख रही है. 3 माह बाद साहिल ने उस से भारत आने का वादा किया है.

अंजली ने अपनी एक नई आई.डी. बनाई फिर साहिल खान से दोस्ती गांठने के लिए ‘जिया’ नाम से उस से संपर्क किया. अंजली को ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. साहिल उस वक्त आनलाइन ही था. वह ‘जिया’ बनाम अंजली से चैट करने लगा. अंजली ने भी बातों में उलझा कर उस से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की. साहिल ने अंजली को अपनी उम्र लगभग वही बताई जो लहर को बताई थी, पर लहर के लिए वह कंप्यूटर इंजीनियर था तो ‘जिया’ बनाम अंजली को उस ने बताया कि वह पिछले ही साल भारत से सऊदी अरब में 2 वर्ष के कांट्रैक्ट पर एक अस्पताल में चीफ मेडिकल आफिसर बन कर आया है. अंजली ने जिया के नाम से महीने भर लगातार साहिल से चैट किया. उस ने 2-4 भावुक प्रेमपत्र ईमेल से भेजे. जवाब में आए प्रेम से सराबोर लंबेचौडे़ वादे. भावभीने प्रेमरस में डूबे प्रेमपत्रों में साहिल ने कांटै्रक्ट खत्म होते ही अगले वर्ष भारत पहुंच कर जिया से शादी करने का वादा किया.

अंजली अपनी योजना के मुकाम पर पहुंच चुकी थी. लहर ने अपने नेटफें्रड के किस्से अंजली को सुनाने लगभग बंद कर दिए थे, क्योंकि उस की बातों पर अंजली बिफर पड़ती थी. इसी वजह से दोनों के बीच तनातनी सी हो जाती थी.

गांव से शहर में आ कर होस्टल में रह कर पढ़ाई करने के बीते हुए दिनों को याद कर अंजली अतीत में खो गई थी. तंद्रा भंग हुई तो उसे याद आया कि अब क्या करना है, अपनी प्रिय सहेली लहर को भटकने से कैसे बचाना है. आज अंजली ने लहर से कहा, ‘‘लहर, आज समय हो तो प्लीज मेरे साथ साइबर कैफे चलो न, बहुत जरूरी काम है.’’

‘‘तुम्हें, साइबर कैफे में काम है?’’ लहर हैरान हो गई.

‘‘हां, पर तुम्हारे जैसा नहीं. कुछ इनफार्मेशन कलेक्ट करनी है, टर्म पेपर के लिए,’’ अंजली ने कहा.

‘‘वह तो मैं जानती हूं. तुम जैसी नीरस लड़की को भला और कोई काम हो भी नहीं सकता. अच्छा चलती हूं.’’

‘‘तुम्हारे नेटफ्रेंड का क्या हालचाल है? बहुत दिनों से तुम ने कुछ सुनाया नहीं उस के बारे में,’’ अंजली ने बात छेड़ी, ‘‘गाड़ी कहां तक आ गई है?’’

‘‘बस, समझो स्टेशन आने वाला है. 3 माह बाद ही साहिल भारत आ रहा है. कह रहा था कि मम्मीपापा से बात कर के पहले उन्हें मनाने की कोशिश करेगा. नहीं तो शादी तो हर हाल में करनी ही है. उस के बाद वह मुझे सीधे सऊदी अरब ले जाएगा. तुम तो मेरी पक्की सहेली हो. तुम तो साथ दोगी न मेरा?’’ लहर ने पूछा.

‘‘क्यों नहीं. तुम्हारी पक्की सहेली हूं. तुम्हारी खुशी के लिए कुछ भी कर सकती हूं,’’ अंजली ने कहा.

बात करतेकरते दोनों साइबर कैफे पहुंच गईं. अगले ही पल सऊदी अरब में बसे लहर के तथाकथित प्रेमी साहिल खान बनाम कंप्यूटर इंजीनियर का कच्चा चिट्ठा अंजली ने लहर के सामने खोल कर रख दिया.

वही साहिल जो लहर के लिए कंप्यूटर इंजीनियर था, वही ‘जिया’ बनाम अंजली के लिए डाक्टर था, जो 3 माह बाद लहर को ब्याहने आने वाला था. वही साल भर बाद भारत आ कर जिया से भी शादी करने के वादे कर रहा था. अब समझनेसमझाने के लिए कुछ भी बाकी नहीं था.

लहर के जीवन का लक्ष्य अचानक धराशायी हो गया. उसे एहसास हो गया कि यह मंजिल नहीं है. कटी डाल की तरह टूट कर लहर, अंजली की गोद में सिर रख कर बिलख पड़ी, ‘‘अंजली, मैं तो भूल गई थी कि लहर की मंजिल कभी साहिल तो हो ही नहीं सकता. साहिल से टकरा कर लहर को वापस लौटना पड़ता है.’’

‘‘रो ले, जी भर कर रो ले, मन का सारा दुख आज बह जाने दे, ताकि आने वाले दिनों में बीती बातों की कोई कसक बाकी न रहे,’’ अंजली ने लहर के सिर पर प्यार से हाथ फेरा.

आज अंजली भी खुद को हलका महसूस कर रही थी. उसे याद आया कि शहर आने से पहले लहर की मम्मी ने कितने विश्वास के साथ उस से कहा था, ‘बेटी, लहर का ध्यान रखना. तुम तो जानती हो न इस का स्वभाव. मन की भोली है. बड़ी जल्दी किसी की भी बातों में आ जाती है. तुम साथ हो इसलिए हम ब्रेफिक्र हो कर इसे शहर भेज रहे हैं.’

आज लहर को गुमराह होने से बचा कर अंजली ने उस के मांबाप का विश्वास भी सहेज लिया था.         द्य

उलझी हुई पहेली, जो सुलझ गई – भाग 3

एक रोज राघव थाने में बैठे मोबाइल पर यों ही दोस्तों की पोस्ट्स देख रहे थे कि तभी उन की साली का फोन आया.

‘‘जीजू, मैं ने जिस लड़के के बारे में बताया था आप को, उस के साथ मेरी वीडियो सेल्फी देखी आप ने? आज ही अपलोड की मैं ने.’’

राघव झल्लाए, लेकिन उस से जान छुड़ाने के लिए उस का प्रोफाइल पेज खोला. जैसे ही उन्होंने उस की सेल्फी देखी. उस की बैकग्राउंड पर नजर जाते ही मानो वे उछल पड़े.

यहां मुकुल के घर नए रिश्ते वाले आए थे. लड़की का पिता बोल रहा था.

‘‘चलिए, जो हुआ सो हुआ आप के साथ. अब एक नई जिंदगी शुरू कीजिए.’’

तभी एक मजबूत आवाज गूंजी ‘जिंदगी भी क्याक्या दिखा देती है भाईसाहब.’ सब ने आवाज की दिशा में देखा. इंसपेक्टर राघव मुसकराते हुए खडे़ थे. अचानक उन्हें यहां पा कर सभी चौंक उठे. मुकुल ने पूछा.

‘‘विमल ने अपना जुर्म कबूल लिया क्या सर?’’

‘‘उसी सिलसिले में बात करने आया हूं.’’ राघव ने मुसकराते हुए कहा. मुकुल के पिता ने एक प्लेट उन की ओर बढ़ाई, ‘‘जी जरूर, लीजिए मुंह मीठा कीजिए आप भी.’’

‘‘धन्यवाद,’’ राघव ने विनम्रता से मना कर दिया और बोले.

‘‘देखिए मुकुलजी, मैं ने बहुत कोशिश की लेकिन विमल ने अपना जुर्म कबूल नहीं किया.’’

‘‘तो अब क्या होगा?’’ मुकुल के चेहरे पर दुविधा के भाव साफ दिखने लगे. राघव आगे बोले, ‘‘होगा वही जो होना है. मैं ने अभीअभी अपनी साली की भेजी हुई एक वीडियो सेल्फी देखी, संयोगवश ये उसी दिन की है, जिस दिन नव्या का खून हुआ था.’’

‘‘तो? उस से इस केस का क्या लेना?’’ इस बार मुकुल की मां बोल पड़ी.

‘‘जी वही बता रहा हूं.’’ राघव ने कहा, ‘‘वो सेल्फी उस ने अपने पुरुष दोस्त के साथ मल्लिका स्टोर के सामने खड़ी हो कर बनाई थी और मजे की बात ये कि पीछे का एक बेहद जरूरी दृश्य उस में अनायास ही कैद हो गया.’’

‘‘कैसा दृश्य?’’ मुकुल ने पूछा.

‘‘सुनिए तो…’’ राघव ने फिर कहा, ‘‘मेरी तब तक की पूरी जांच के अनुसार ये समय वही था जब नव्या औफिस से घर लौट रही थी और विमल उस की गाड़ी से उतर चुका था. एक आदमी ने मल्लिका स्टोर के सामने नव्या की कार रुकवाई और उस में बैठ गया. कहने की जरूरत नहीं कि उसी आदमी का संग नव्या के लिए कातिल साबित हुआ.’’

‘‘कौन था वो आदमी?’’ मुकुल को देखने आए लड़की के पिता ने उत्सुकता से पूछा.

मिल गया हत्यारा, जिस ने बलात्कार भी कराया ‘‘वो आदमी…’’ राघव के इतना कहते कहते मुकुल बिजली की तेजी से उठा और दरवाजे की ओर भागा. राघव चिल्लाए, ‘‘पकड़ो इस को जल्दी.’’

सिपाहियों ने मुकुल को दबोच लिया. वो छटपटाने लगा. सब लोग हैरान थे. मुकुल खुद को छुड़ाने की कोशिश कर रहा था लेकिन राघव के जोरदार पुलिसिया थप्पड़ ने उसे दिन में तारे दिखा दिए. वह सोफे पर गिर पड़ा और सिसकते हुए कहने लगा, ‘‘हां, मैं ने उस शाम मोटरसाइकिल से नव्या का पीछा किया क्योंकि वो अगले दिन वकील को बुला कर मुझ पर तलाक के लिए दबाव डलवाने वाली थी. इसी कारण उस ने औफिस से भी छुट्टी ले ली थी.’’

सभी हैरानी से उस की बातें सुन रहे थे. वो कहता गया, ‘‘हालांकि मैं ने सोचा था कि एक बार फिर प्यार से उसे समझाऊंगा, लेकिन जब मैं ने उसे विमल के साथ संबंध बनाते देख लिया तो मेरा शक यकीन में बदल गया. मैं ने उस से पहले ही मल्लिका स्टोर के सामने पहुंच उस की कार रुकवाई और कहा कि मेरी बाइक खराब हो गई है. उस ने अनमने भाव से मुझे अंदर बिठाया. जब वो कुछ सामान लेने उतरी तो इसी बीच मैं ने अपने साथ लाई नींद की गोलियां उस की कोल्डड्रिंक की बोतल में मिला दीं, जो उस ने विमल के साथ आधी ही पी थी.’’

‘‘लेकिन उस के साथ सामूहिक बलात्कार किन से कराया तुम ने?’’ राघव को अभी तक इस सवाल का उत्तर नहीं मिल सका था. मुकुल बोला, ‘‘मैं अपने घरेलू तनाव में डूबा एक दिन उसी जंगल में बैठा था. मैं ने देखा कि कुछ नशेड़ी वहां गप्पें मारते हैं, वे रोज वहां उसी जगह आते. मैं ने उस शाम नव्या के बेहोश जिस्म को वहीं रख दिया और उन का इंतजार करने लगा. जब वे वहां आए तो मैं ने पत्थर मार के उन का ध्यान नव्या की ओर दिला दिया, वे नशे की हालत में उस पर टूट पडे़…’’

‘‘और तुम ने सोचा कि ये मामला बलात्कार और हत्या का मान लिया जाएगा.’’ राघव ने उसे बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘तभी मैं कहूं कि ऐसा हत्या का केस मैं ने पहले कभी कैसे नहीं देखा. वे नशेड़ी बलात्कार कर वहां से भाग गए और दुबारा नहीं लौटे. वैसे हम उन को भी ढूंढ निकालेंगे. मानता हूं कि नव्या ने तुम्हारे साथ गलत किया लेकिन हत्या तो हत्या है. तुम्हें सजा मिलेगी ही.’’

राघव के चेहरे पर विश्वास साफ झलक रहा था. वे मुकुल को गिरफ्तार कर वहां से चल पड़े.

मेरी नहीं तो किसी की नहीं – भाग 3

उस ने चंद्रशेखर की आवाज को कोई तरजीह नहीं दी. फिर वह उस ओर चला गया, जहां एक पेड़ के नीचे उस की बाइक खड़ी थी. सोचों का बवंडर चंद्रशेखर को झकझोरने लगा था. रूपा आखिर इतनी निर्मोही, बेमुरव्वत कैसे हो गई. वह अपने गांव की ओर बढ़ चला.

2 पखवाड़े बाद उस ने रूपा से मिलने का मंसूबा बनाया. किसी तरह से वह रूपा से मिलने में कामयाब भी रहा. अब की बार वह रूपा से मिल कर ठोस निर्णय लेने के पक्ष में था. वह उस स्थान पर खड़ा रहा, जहां पर रूपा से

मिलना था.

रूपा वहां आई, काफी इंतजार करवाने के बाद वह चंद्रशेखर से मिली. चंद्रशेखर ने किसी तरह की भूमिका नहीं बांधी. वह सीधे मुद्दे पर आ गया, ‘‘रूपा, मैं तुम से शादी करना चाहता हूं.’’

रूपा ने उसी अंदाज में जवाब दिया, ‘‘मैं तुम से शादी नहीं कर सकती.’’

चंद्रशेखर रूपा की ओर टकटकी लगा कर देखता हुआ बोला, ‘‘आखिर, तुम मुझ से शादी क्यों नहीं कर सकतीं? अच्छाभला कमा लेता हूं. घर से भी संपन्न हूं. अपनी हैसियत से बढ़ कर तुम्हें वह सब कुछ देने का प्रयास करूंगा, जिस की तुम ख्वाहिश रखती होगी.’’

‘‘चंद्रशेखर, मैं साफसाफ बता देती हूं कि मैं तुम से किसी भी कीमत पर शादी नहीं कर सकती.’’

चंद्रशेखर कुछ बोलने वाला ही था कि रूपा ने हाथ उठा कर चुप रहने का इशारा किया, ‘‘मेरे घर के लोग मेरी शादी जहां करेंगे, मुझे मंजूर होगा. उन की इच्छा के विरुद्ध मैं कुछ नहीं कर पाऊंगी. मैं पहले ही कह चुकी हूं कि मैं तुम से प्यार नहीं करती. और हां, अभी तक जो कुछ तुम ने मुझे दिया है. जस के तस लौटा रही हूं.’’ रूपा ने एक कैरीबैग चंद्रशेखर की ओर बढ़ा दिया.

‘‘अपने पास ही रखो इसे, मैं दी हुई चीज वापस नहीं लेता.’’

‘‘तुम्हारी मरजी. और हां, यह खयाल रखना कि आइंदा मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’’

रूपा जाने को हुई तो चंद्रशेखर ने धमकी दी, ‘‘रूपा, तुम्हारी शादी होगी तो सिर्फ मुझ से होगी. मैं तुम्हें किसी और की दुलहन बनते नहीं देख सकता. तुम मेरी नहीं हो सकतीं तो किसी और की भी नहीं बन पाओगी, याद रखना.’’

कुछ दिनों तक चंद्रशेखर के हवास पर रूपा का इनकार डंक मारता रहा. जलन की आग ने चंद्रशेखर को बुरी तरह सुलगा रखा था. उसे करार तभी आता जब या तो रूपा उस की हो जाती या वह रूपा के वजूद को मिटा देता.

उस पर पागलपन काबिज हो चुका था. दिमागी संतुलन खोता जा रहा था. आखिर उस ने एक योजना बना ली. उसी के तहत वह रूपा की रैकी करने लगा.

11 फरवरी, 2021 को दोपहर करीब सवा बजे रूपा अपनी बहन हेमलता के साथ दवा लेने एक मैडिकल स्टोर पर पहुंची. चंद्रशेखर कई दिनों से रूपा की टोह में लगा था.

किसी छलावे की तरह चंद्रशेखर रूपा के सामने पहुंच गया. उस के साथ बाइक पर उस के 2 दोस्त भरत निषाद और गोपाल यादव भी थे. अप्रत्याशित रूप से अपने सामने चंद्रशेखर को देख कर रूपा घबरा गई.

चंद्रशेखर ने दोनों को अपने साथ इसलिए रखा था कि किसी तरह का व्यवधान आने पर भरत निषाद और गोपाल यादव उस की मदद करेंगे.

तभी फुरती से देशी तमंचा निकाल कर चंद्रशेखर रूपा की ओर तानते हुए बोला, ‘‘रूपा, तुम मेरी नहीं तो किसी की नहीं.’’

चंद्रशेखर का खूंखार चेहरा देख कर रूपा ने डर कर भागना चाहा तभी चंद्रशेखर ने उस की कलाई पकड़ ली. उस की बड़ीबहन हेमलता ने बीचबचाव करने की कोशिश की. जब तक वह कामयाब होती तब तक गोली रूपा की कनपटी के बाहर हो चुकी थी.

गोली लगते ही रूपा जमीन पर गिर पड़ी. किसी को कुछ समझ में नहीं आया. वे तीनों बाइक पर बैठ कर वहां से भाग गए.

चंद्रशेखर के कहने पर उस के दोस्तों ने उसे नदी मोड़ के पास बाइक से उतार दिया. वारदात को अंजाम देने के बाद दोपहर सवा 2 बजे चंद्रशेखर सीधे थाना सिटी कोतवाली, महासमुंद पहुंचा और आत्मसमर्पण कर दिया. पुलिस को उस ने रूपा की हत्या करने की बात बता दी.

थानाप्रभारी ने उसे हिरासत में ले लिया और पुलिस टीम के साथ घटनास्थल पर पहुंच गए. थानाप्रभारी ने यह सूचना उच्चाधिकारियों को दे दी. कुछ ही देर में एडिशनल एसपी मेघा टेंभुरकर साहू, एसपी प्रफुल्ल ठाकुर के अलावा पुलिस अधिकारी शेर सिंह बंदे, यू.आर. साहू, संजय सिंह राजपूत (साइबर सेल प्रभारी) योगेश कुमार सोनी, टीकाराम सारथी आदि भी घटनास्थल पर पहुंच गए.

पुलिस ने मृतका के घर वालों से पूछताछ करने के बाद रूपा की लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज दी.

इस के बाद उसी दिन शाम के समय आरोपी भरत निषाद और गोपाल यादव को उन्हीं के गांव मुडैना से गिरफ्तार कर लिया गया.

तीनों आरोपियों से पूछताछ के बाद पुलिस ने उन्हें कोर्ट में पेश कर 15 फरवरी तक पुलिस रिमांड पर लिया. रिमांड अवधि पूरी होने से पहले ही पुलिस ने उन्हें फिर से कोर्ट में पेश कर महासमुंद जेल भेज दिया.

मेरी नहीं तो किसी की नहीं – भाग 2

रास्ते में उस ने एक पेड़ के नीचे बाइक खड़ी की. फिर रूपा को मालिक से हुई तकरार के बारे में बताया. सुन कर रूपा गंभीर हो गई. वह बोली, ‘‘उन्होंने जो कुछ कहा, वह अपनी जगह सही है. अच्छाखासा काम हाथ से निकल गया.’’

‘‘तुम क्यों परेशान हो रही हो रूपा, काम चला गया तो क्या हुआ. हाथपैर और मेरा हुनर थोड़े ही चला गया है.’’ चंद्रशेखर ने उसे समझाया, ‘‘काम करना है तो कहीं भी कर लेंगे. तुम पर ऐसी दरजनों गाडि़यां और नौकरियां कुरबान.’’

फिर चंद्रशेखर जेब के अंदर हाथ डाल कर बंद मुट्ठी निकाल कर बोला, ‘‘गेस करो रूपा, इस मुट्ठी में क्या है?’’

‘‘मुझे क्या मालूम.’’ वह बोली.

‘‘सोचो न.’’

‘‘टौफी है क्या?’’ रूपा ने पूछा.

‘‘नहीं…और कुछ, बताओ.’’

रूपा ने दिमाग पर जोर डाला. फिर उस ने अनभिज्ञता से कंधे उचकाए. तभी चंद्रशेखर बोला, ‘‘चलो, अपनी आंखें बंद करो…और हाथ आगे बढ़ाओ.’’

रूपा ने आंखें बंद कर के अपनी हथेलियां उस के सामने खोल दीं. तभी चंद्रशेखर ने रूपा की हथेली पर कुछ रख कर कहा, ‘‘अब अपनी आंखें खोलो.’’

रूपा ने आंखें खोलीं. एक अंगूठी थी जो अमेरिकन डायमंड की थी और जगमगा रही थी.

अंगूठी पर पेड़ के पत्तों से छन कर आती हुई सूर्य की किरणें पड़ रही थीं. और रिफ्लेक्ट हो कर सात रंगों की किरणें बिखर रही थीं. अंगूठी देख कर रूपा बहुत खुश हुई.

‘‘कैसा लगा?’’ चंद्रशेखर ने पूछा.

‘‘बहुत सुंदर…बहुत ही प्यारा है.’’

‘‘पहन कर दिखाओ जरा.’’

‘‘जब लाए ही हो तो तुम्हीं पहना दो न.’’ कहती हुई रूपा ने अपना हाथ चंद्रशेखर की ओर बढ़ा दिया. रूपा के हाथ से अंगूठी ले कर रूपा को पहना दी. उस की अंगुली में अंगूठी अच्छी लग रही थी.

सड़क के किनारे गन्ने का एक खेत था. चंद्रशेखर ने उस ओर इशारा किया तो रूपा बोली, ‘‘गन्ना खाना चाहते हो तो जाओ ले आओ.’’

‘‘ऐसा करते हैं दोनों वहीं खेत में चलते हैं.’’

‘‘नहीं…नहीं मुझे गन्ने के झुरमुटों से डर लगता है. मैं नहीं जाऊंगी.’’

चंद्रशेखर ने जिद की तो रूपा को झुकना पड़ा. फिर दोनों गन्ने के खेत की ओर बढ़े और खेत में भीतर घुस गए. दोचार कदम चलने के बाद रूपा ठिठकी. तो चंद्रशेखर बोला, ‘‘अरे, आओ न… आओ, आती क्यों नहीं. अच्छा सा गन्ना तोडें़गे.’’

डरतीझिझकती रूपा चंद्रशेखर के पीछे चलने लगी. गन्ने के सूखे भूरे पत्ते पैरों में दब कर चर्रमर्र की आवाज कर रहे थे. जब दोनों काफी भीतर घुस गए तब चंद्रशेखर ने अपनी बाइक और सड़क की ओर देखा. लेकिन झुरमुटों की वजह से कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था. अचानक चंद्रशेखर ठिठका. उसे ठिठकते देख कर रूपा भी ठिठक पड़ी.

चंद्रशेखर उस की ओर देखते हुए मुसकराया, ‘‘रूपा, यहां तक चली आई. गन्ना ही खाना होता तो इतनी दूर आने की क्या जरूरत थी. पहले ही न तोड़ लेता.’’

‘‘फिर क्यों आए इतनी दूर? मैं अभी भी नहीं समझी.’’

चंद्रशेखर के होंठों पर शरारत उभर आई. वह रूपा के करीब पहुंचा

और उस के हाथों को अपने हाथ में ले लिया, ‘‘रूपा…’’

चंद्रशेखर ने तर्जनी अंगुली को अंगुली पर रखा तो रूपा बोली, ‘‘ओह… इसलिए मुझे यहां इतनी दूर लाए हो.’’

‘‘हां, तुम तो जानती हो कि वहां तो ऐसा कुछ कर नहीं पाते, जगह भी मुफीद नहीं थी. यहां भला हमें कौन देखेगा.’’ कह कर चंद्रशेखर ने रूपा को अपने बाहुपाश में लेना चाहा. वह कोई ठोस निर्णय ले पाता कि उस ने देखा रूपा उस के पीछे देख रही है.

वह पीछे पलटा तो एक गाय तेजी से दौड़ती आ रही थी. गाय के पीछे से रखवाली करने वाले किसान की हा…हू.. की आवाज उन दोनों के कानों तक पहुंची. रूपा बोली, ‘‘चलो, यहां से. गाय आ रही है. लगता है, किसान गांव के पीछेपीछे आ रहा है.’’

फिर कई गायों का झुंड गन्ने में घुस आया. किसान की आवाज भी करीब आती जा रही थी. फिर रूपा वहां नहीं ठहरी. वह हाथों से गन्ने के पत्तों को अलग करती हुई वहां से भागी. चंद्रशेखर भी हड़बड़ाए अंदाज में बाइक की ओर भागा.

रूपा हांफ रही थी. वह हांफती हुई बोली, ‘‘खा लिए गन्ने? ऊपर से देखो…’’ उस के सैंडिल की पट्टी एक ओर से उखड़ गई थी. पत्तों से हाथपैर अलग छिल गए थे.

रूपा बोली, ‘‘कहां ला कर फंसा दिया.’’

फिर दोनों वहां ठहरे नहीं. बाइक पर बैठ कर चले गए.

इस के बाद दोनों की मेलमुलाकातों की चर्चाएं पहले कानाफूसी में तब्दील हुईं. फिर बेलसोंडा में दोनों की मुलाकात और प्यार की चर्चाएं होने लगीं. यह बात रूपा के पिता सुरेंद्र और मां जमुना के कानों तक भी पहुंची.

चूंकि लड़की बालिग हो चुकी थी और बगावत पर उतर सकती थी. इसलिए सुरेंद्र ने रूपा को अपनी बड़ी बेटी हेमलता की ससुराल में उस के पास भेज दिया. रूपा हेमलता के यहां 20-25 दिन रह कर पिता के घर आ गई.

इस बीच चंद्रशेखर ट्रक चलाने लगा था. गुजरे हुए समय में रूपा और चंद्रशेखर ने सैकड़ों ख्वाब देखे थे. गांव आने के बाद कुछ समय तक सब कुछ ठीक चलता रहा.

20-25 दिनों की जुदाई के बाद चंद्रशेखर और रूपा की मुलाकात हुई. चंद्रशेखर ने उस से शिकायत की, ‘‘रूपा, तुम अपनी बहन के पास रायपुर जा कर इतनी मशगूल हो गईं कि एक फोन तक नहीं किया.’’

‘‘मेरे पास फोन था ही कहां,’’ रूपा सफाई में बोली.

‘‘क्यों, कहां गया तुम्हारा फोन?’’

‘‘घर वालों ने ले लिया था.’’

‘‘नंबर तो जानती हो. फोन किसी से मांग लेती.’’

‘‘मैं दीदी की देखभाल में थी.’’

‘‘यह क्यों नहीं कहतीं कि मैं याद ही नहीं रहा तुम्हें.’’ चंद्रशेखर ने कहा.

‘‘नहीं…नहीं, ऐसी बात नहीं है. हमारा मिलना और हमारा प्यार गांव वालों की नजरों में आ चुका है. अब ऐसा लगता है कि हमें एकदूसरे से नहीं मिलना चाहिए.’’ रूपा बोली.

‘‘रूपा…तुम मिलने की बात पर अटकी हो, मैं तो तुम से शादी करना चाहता हूं.’’ चंद्रशेखर बोला.

‘‘हमारे चाहने से क्या होगा? घर वालों और समाज की मंजूरी भी जरूरी है.’’ रूपा तनिक चिढ़ गई.

‘‘रूपा, तुम्हारी यह बात गलत है. बताओ, जब तुम ने मुझ से प्यारर किया था तो क्या घर, समाज और परिवार से पूछ कर किया था?’’

‘‘नहीं, उस वक्त मुझ पर घरपरिवार और समाज का दबाव नहीं था. और आज मैं इन तीनों की निगाहों में हूं. मुझ में इतनी ताकत नहीं है कि मैं इन से लड़ कर विद्रोह कर सकूं.’’ रूपा ने कहा.

‘‘यह बात तुम्हें उस वक्त सोचनी चाहिए थी, जब प्यार की डगर पर चंद कदम ही बढ़ी थीं. अब तो हम बहुत दूर निकल आए हैं रूपा. इस का मतलब, तुम मेरा साथ नहीं दोगी?’’

‘‘माना कि हम दोनों साल भर साथ रहे, दोस्त की तरह. लेकिन इस अपनेपन को प्यार का नाम नहीं दिया जा सकता.’’

कुछ पलों तक हैरानगी, बेचारगी से रूपा की ओर देख कर चंद्रशेखर बोला, ‘‘ऐसा मत कहो रूपा. हमारी चाहत को अपनेपन का लबादा मत ओढ़ाओ. मैं ने तुम्हें और खुद को ले कर ढेरों ख्वाब देखे हैं. तुम्हारे विचार जान कर जी चाहता है कि इसी सड़क पर किसी वाहन के नीचे कुचल कर मर जाऊं.’’

वह गहरी सांस ले कर फिर बोला, ‘‘सचमुच मैं बहुत दूर निकल आया हूं तुम्हारे साथ, अब वापस लौटना मुमकिन नहीं.’’

‘‘सड़क पर सिर पटक कर मरना चाहते हो, ऐसा कर के क्या यह जाहिर करना चाह रहे हो कि तुम मेरे बिना जी नहीं सकते?’’ रूपा तीखे शब्दों में बोली.

चंद्रशेखर रूपा की बात सुन कर पहली बार आपे से बाहर होता हुआ बोला, ‘‘मत भूलो रूपा कि जिस सड़क पर मैं स्वयं को फना करने का माद्दा रखता हूं. यहीं इस सड़क पर तुम्हारे साथ भी कर सकता हूं.’’

वह फिर गिड़गिड़ाया, ‘‘प्लीज रूपा, ऐसा मत कहो.’’

‘‘चंद्रशेखर, तुम समझने का प्रयास नहीं कर रहे हो या फिर समझना नहीं चाहते.’’

‘‘रूपा, तुम क्या समझाना चाह रही हो? और मैं क्या नहीं समझ रहा हूं?’’

‘‘तो सुनो, फिर कह रही हूं कि जिसे तुम प्यार समझ रहे हो, वह प्यार नहीं. सिर्फ दोस्ती थी.’’ इस के बाद चंद्रशेखर के होंठों से बेबसी में शब्द निकले, ‘‘रूपा, जिस प्यार को तुम दोस्ती का नाम दे रही हो, इस से अच्छा है कि इसे बेनाम ही रहने दो. मैं देख रहा हूं तुम्हारा व्यवहार बदल रहा है.’’

चंद्रशेखर अभी कुछ और बोलने ही जा रहा था कि रूपा यह कहते हुए वहां से चली गई कि तुम्हें जो समझना है, समझते रहो. इतना मान कर चलो कि अब मैं तुम से कभी नहीं मिलूंगी.

उलझी हुई पहेली, जो सुलझ गई – भाग 2

इसी उधेड़बुन में वे नव्या के मायके पहुंचे. नव्या के मांबाप फिर मुकुल का नाम ले कर शोर मचाने लगे. राघव ने उन को समझाया.

‘‘देखिए हम मुलजिम को जरूर पकड़ेंगे लेकिन जल्दबाजी किसी निर्दोष को फंसा सकती है, इसलिए हमारा सहयोग कीजिए.’’

नव्या के पिता ये सुन कर शांत हुए. उन्होंने हर तरह से सहयोग देने की बात कही.

राघव ने पूछा, ‘‘नव्या का मुकुल के अलावा किसी से कोई विवाद था?’’

‘‘नहीं इंसपेक्टर साहब.’’ नव्या के पिता बोले, ‘‘उस की तो सब से दोस्ती थी, बैंक में भी सब उस से खुश रहते थे.’’

‘‘और विमल से उस का क्या रिश्ता था?’’ राघव ने उन के चेहरे पर गौर से देखते हुए सवाल किया. वे इस पर थोड़ा अचकचा गए.

‘‘व…वो…वो…दोस्ती थी उस से भी… मुकुल बेकार में शक किया करता था उन के संबंध पर.’’

राघव ने इस समय इस से ज्यादा कुछ पूछना ठीक नहीं समझा. वो वहां से निकल गए. अगले कुछ दिन इधरउधर हाथपैर मारते बीते. उन्होंने नव्या के बैंक जा कर उस के बारे में जानकारियां जुटाईं. सब ने साधारण बातें ही बताई. कोई नव्या और विमल के रिश्तों के बारे में कुछ कहने को तैयार नहीं था.

राघव ने नव्या के उस शाम बैंक से निकलते समय की सीसीटीवी फुटेज निकलवा कर देखी. वह अकेली ही अपनी कार में बैठती दिख रही थी. राघव की अन्य कर्मचारियों से तो बात हुई, लेकिन विमल से मुलाकात नहीं हो सकी, क्योंकि वह नव्या की मौत के बाद से ही छुट्टी पर चला गया था.

उन्होंने उस का पता निकलवाया और अपनी टीम के साथ उस के घर जा धमके. वह उन को देख कहने लगा, ‘‘इंसपेक्टर साहब, मैं खुद बहुत दुखी हूं नव्या के जाने से, पागल जैसा मन हो रहा मेरा, मुझे परेशान मत करिए.’’

विमल की हकीकत क्या थी?

‘‘हम भी आप के दुख का ही निवारण करने की कोशिश में हैं विमल बाबू.’’ राघव ने अपना काला चश्मा उतारते हुए कहा, ‘‘आप भी मदद करिए, हम दोषियों को जल्द से जल्द सलाखों के पीछे डालना चाहते हैं.’’

‘‘पूछिए, क्या जानना चाहते हैं आप.’’ वो सोफे पर निढाल होता बोला. सवालजवाब का दौर चलने लगा. विमल ने बताया कि उस ने उस दिन नव्या को औफिस के बाद अपने घर बुलाया था. लेकिन उस ने मना कर दिया कि पति से झगड़ा और बढ़ जाएगा. वह अपनी कार से निकल गई थी. उस ने अगले दिन किसी पारिवारिक कारण से औफिस न आने की बात की थी. हां, विमल ने भी ये नहीं स्वीकारा कि नव्या से उस की बहुत अच्छी दोस्ती से ज्यादा कोई नाता था.

‘‘ठीक है, विमल बाबू.’’ राघव ने उठते हुए कहा, ‘‘आप का धन्यवाद. फिर जरूरत होगी तो याद करेंगे… बस आप ये शहर छोड़ कर कहीं मत जाइएगा.’’

‘‘जी जरूर.’’

राघव की जीप वहां से चल दी. अब तक इस केस में कुछ भी ऐसा हाथ नहीं लग पाया था जिस से तसवीर साफ हो. उन्होंने अपने मुखबिरों के माध्यम से भी पता लगाना चाहा कि नव्या की हत्या के लिए क्या किसी लोकल गुंडे ने सुपारी ली थी. लेकिन ऐसा भी कुछ मालूम नहीं हो सका. किसी गैंग की भी ऐसी कोई सुपारी लेने की बात सामने नहीं आ पा रही थी.

शाम को राघव घर जाने के लिए निकलने ही वाले थे कि सिपाही ने एक लिफाफा ला कर दिया और बोला, ‘‘साब, ये अभी आया डाक से… लेकिन भेजने वाले का कोई नाम, पता नहीं लिखा.’’

राघव ने लिफाफे को खोला. उस में एक सीडी और चिट्ठी थी. उन्होंने उसे पढ़ना शुरू किया. उस में लिखा था, ‘‘इंसपेक्टर साहब, आप को नव्या के बैंक में जो सीसीटीवी फुटेज दिखाई गई, वो पूरी नहीं थी. विमल ने उस में पहले ही एडिटिंग करा दी थी. नव्या की मौत वाली शाम विमल उस के साथ उस की ही कार में निकला था. आप को इस बात का सबूत इस सीडी में मिल जाएगा.’’

चिट्ठी पढ़ते ही राघव की आंखों में चमक आ गई. उन्होंने जल्दी से उसे अपने लेपटौप पर लगाया. वाकई वीडियो में विमल उस शाम नव्या की कार में अंदर बैठता दिख रहा था. राघव को अपना काम काफी हद बनता लगा. वे सिपाहियों के साथ सीधे विमल के घर पहुंचे. देखा कि वह कहीं जाने के लिए पैकिंग कर रहा था. राघव पुलिसिया अंदाज में उस से बोले, ‘‘कहां चले विमल बाबू? आप को शहर से बाहर जाने को मना किया था न?’’

वो उन्हें वहां पा कर घबरा गया और हकलाने लगा.

‘‘म…मैं क…कहीं नहीं जा रहा. बस सामान सही कर रहा था.’’

‘‘इस की जरूरत अब नहीं पड़ेगी.’’ राघव ने फिर कहा, ‘‘चल थाने, वहीं सब सामान मिलेगा तुझे.’’

विमल कसमसाता रहा, खुद को निर्दोष बताता रहा लेकिन सिपाहियों ने उसे जीप में डाल लिया. लौकअप में राघव के थप्पड़ विमल को चीखने पर मजबूर कर रहे थे. वह किसी तरह बोला, ‘‘सर, मैं ने कुछ नहीं किया, हां मैं उस के साथ निकला जरूर था लेकिन रास्ते में उतर गया था, वो आगे चली गई थी.’’

‘‘तो हम से ये बात छिपाई क्यों?’’ राघव ने उसे कड़कदार 2 थप्पड़ और लगाते हुए पूछा.

‘‘म्म्म मैं घब…घबरा गया था साहब कि कहीं मेरा नाम शक के दायरे में न आ जाए.’’

राघव ने उस के सैंपल लैब में भिजवा दिए जिस से नव्या के गुप्तांगों और कपड़ों पर मिले वीर्य से उस का मिलान करा के जांच की जा सके. रिपोर्ट तीसरे दिन ही आ गई. सचमुच नव्या के जिस्म से जितने लोगों के वीर्य मिले थे, उन में एक विमल से मैच कर गया.

राघव ने मारमार के विमल की देह तोड़ दी. उन्होंने उस से पूछा, ‘‘बोल, बोल तूने नव्या को क्यों मारा?’’

विमल ने खोला भेद, लेकिन अधूरा

‘‘साब मैं ने कुछ नहीं किया.’’ वो जोरजोर से रोते हुए बोला, ‘‘हां मैं ने कार में उस के साथ जिस्मानी संबंध जरूर बनाए थे लेकिन उस को मारा नहीं… मैं सैक्स कर के उतर गया था उस की गाड़ी से.’’

‘‘स्साला.’’ राघव का गुस्सा बढ़ता जा रह था. वे उस पर गरजे, ‘‘रुकरुक के बातें बता रहा है. जैसेजैसे भेद खुलता जा रहा है वैसेवैसे रंग बदल रहा है. तू मुझ से करेगा होशियारी?’’

उन्होंने फिर से मुक्का ताना लेकिन विमल बेहोश होने लगा था. वे उसे वहीं छोड़ कर बाहर निकले.

‘‘इस को तब तक कुरसी से मत खोलना जब तक ये पूरी बात न बता दे.’’ शर्ट पहनतेपहनते उन्होंने सिपाही को आदेश दिया. वहां नव्या के मायके वाले भी आए हुए थे. विमल के बारे में जान कर उन्हें मुकुल पर लगाए अपने आरोपों पर बहुत पछतावा हो रहा था.

‘‘इस ने अपना जुर्म कबूल किया क्या इंसपेक्टर साहब?’’ नव्या के पिता ने जानना चाहा.

‘‘नहीं, अभी तक अपनी बेगुनाही का रोना रो रहा है. चालू चीज लगता है ये.’’ राघव ने लौकअप की ओर देख के उत्तर दिया. नव्या के मांबाप सीधे मुकुल के घर पहुंचे.

‘‘बेटा, हम को माफ कर देना, हम ने आप पर शक किया.’’ नव्या की मां उस से बोली. मुकुल ने धीरे से मुसकरा के सिर हिलाया. तब तक उस की मां चायपानी ले आई थी. कुछ दिन बीत गए. राघव ने विमल से सच जानने के लिए पूरा जोर लगा रखा था लेकिन वह यही दोहराता रहता कि वो निर्दोष है. उस के वकील के आ जाने से अब उस पर सख्ती करना भी मुश्किल लग रहा था.