आतंक के ग्लैमर में फंसा सैफुल्ला

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान जिस तरह से मध्य प्रदेश पुलिस की सूचना पर लखनऊ में आतंकी सैफुल्ला मारा गया, उसे राजनीतिक नफानुकसान से जोड़ कर देखना ठीक नहीं है. सैफुल्ला की कहानी से पता चलता है कि हद से अधिक धार्मिक दिखने वाले लोगों के पीछे कुछ न कुछ राज अवश्य हो सकता है. धर्म के नाम पर लोग दूसरों पर आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं. ऐसे में धर्म की आड़ में आतंक को फैलाना आसान हो गया है. अगर बच्चा आक्रामक लड़ाईझगड़े वाले वीडियो गेम्स और फिल्मों को देखने में रुचि ले रहा है तो घर वालों को सचेत हो जाना चाहिए. यह किसी बीमार मानसिकता की वजह से हो सकता है.

मातापिता बच्चों को पढ़ालिखा कर अपने बुढ़ापे का सहारा बनाना चाहते हैं. अगर बच्चे गलत राह पर चल पड़ते हैं तो यही कहा जाता है कि मातापिता ने सही शिक्षा नहीं दी. जबकि कोई मांबाप नहीं चाहता कि उस का बेटा गलत राह पर जाए. हालात और मजबूरियां सैफुल्ला जैसे युवाओं को आतंक के ग्लैमर से जोड़ देती हैं.

धर्म की शिक्षा इस में सब से बड़ा रोल अदा करती है. धर्म के नाम पर अगले जन्म, स्वर्ग और नरक का भ्रम किसी को भी गुमराह कर सकता है. सैफुल्ला आतंकवाद और धर्म के फेर में कुछ इस कदर उलझ गया था कि मौत ही उस से पीछा छुड़ा पाई. कानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार का सैफुल्ला भी अन्य युवाओं जैसा ही था.

सैफुल्ला का परिवार उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर की जाजमऊ कालोनी के मनोहरनगर में रहता था. उस के पिता सरताज कानपुर की एक टेनरी (चमड़े की फैक्ट्री) में नौकरी करते थे. उन के 2 बेटे खालिद और मुजाहिद भी यही काम करते थे. उन की एक बेटी भी थी. 4 बच्चों में सैफुल्ला तीसरे नंबर पर था.

सैफुल्ला के पिता सरताज 6 भाई हैं, जिन में नूर अहमद, ममनून, सरताज और मंसूर मनोहरनगर में ही रहते थे. बाकी 2 भाई नसीम और इकबाल तिवारीपुर में रहते है. सैफुल्ला बचपन से ही पढ़ने में अच्छा था. जाजमऊ के जेपीआरएन इंटरकालेज से उस ने इंटरमीडिएट तक की पढ़ाई की थी. इंटर में उस ने 80 प्रतिशत नंबर हासिल किए थे.

सन 2015 में उस ने मनोहरलाल डिग्री कालेज में बीकौम में दाखिला लिया. इसी बीच उस की मां सरताज बेगम का निधन हो गया तो वह पूरी तरह से आजाद हो गया. घरपरिवार के साथ उस के संबंध खत्म से हो गए. उसे एक लड़की से प्रेम हो गया, जिसे ले कर घर में लड़ाईझगड़ा होने लगा.

सैफुल्ला के पिता चाहते थे कि वह नौकरी करे, जिस से घरपरिवार को कुछ मदद मिल सके. पिता की बात का असर सैफुल्ला पर बिलकुल नहीं हो रहा था. जब तक वह पढ़ रहा था, घर वालों को कोई चिंता नहीं थी. लेकिन उस के पढ़ाई छोड़ते ही घर वाले उस से नौकरी करने के लिए कहने लगे थे. जबकि सैफुल्ला को पिता और भाइयों की तरह काम करना पसंद नहीं था.

वह कुछ अलग करना चाहता था. अब तक वह पूरी तरह से स्वच्छंद हो चुका था. सोशल मीडिया पर सक्रिय होने के साथ वह आतंकवाद से जुड़ने लगा था. फेसबुक और तमाम अन्य साइटों के जरिए आतंकवाद की खबरें, उस की विचारधारा को पढ़ता था.

यहीं से सैफुल्ला धर्म के कट्टरवाद से जुड़ने लगा. ऐसे में आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन के कारनामे उसे प्रेरित करने लगे. टीवी और इंटरनेट पर उसे वीडियो गेम्स खेलना पसंद था. इन में लड़ाईझगड़े और मारपीट वाले गेम्स उसे बहुत पसंद थे.शार्ट कौंबैट यानी नजदीकी लड़ाई वाले गेम्स उसे खास पसंद थे. वह यूट्यूब पर ऐसे गेम्स खूब देखता था. इस तरह की अमेरिकी फिल्में भी उसे खूब पसंद थीं. यूट्यूब के जरिए ही उस ने पिस्टल खोलना और जोड़ना सीखा.

कानपुर में रहते हुए सैफुल्ला कई लोगों से मिल चुका था, जो आतंकवाद को जेहाद और आजादी की लड़ाई से जोड़ कर देखते थे. वह आतंक फैलाने वालों की एक टीम तैयार करने के मिशन पर लग गया. फेसबुक पर तमाम तरह के पेज बना कर वह ऐसे युवाओं को खुद से जोड़ने लगा, जो आर्थिक रूप से कमजोर थे. सैफुल्ला ऐसे लोगों के मन में नफरत के भाव भी पैदा करने लगा था. उस का मकसद था युवाओं को खुद से जोड़ना और आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन की राह पर चलते हुए भारत में भी उसी तरह का संगठन खड़ा करना. युवाओं को वह सुविधाजनक लग्जरी लाइफ और मोटी कमाई का झांसा दे कर खुद से जोड़ने लगा था.

कानपुर में लोग सैफुल्ला का पहचानते थे, इसलिए इस तरह के काम के लिए उस का कानपुर से बाहर जाना जरूरी था. आखिर एक दिन वह घर छोड़ कर भाग गया. घर वालों ने भी उस के बारे में पता नहीं किया. उस ने इस के लिए उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को चुना. वहां मुसलिम आबादी भी ठीकठाक है और प्रदेश तथा शहरों से सीधा जुड़ा हुआ भी है. इन सब खूबियों के कारण लखनऊ उस के निशाने पर आ गया.

नवंबर 2016 में सैफुल्ला लखनऊ के काकोरी थाने की हाजी कालोनी में बादशाह खान का मकान 3 हजार रुपए प्रति महीने के किराए पर ले लिया. यह जगह शहर के ठाकुरगंज इलाके से पूरी तरह से सटी हुई है, जिस से वह शहर और गांव दोनों के बीच रह सकता था. यहां से कहीं भी भागना आसान था.

बादशाह खान का मकान सैफुल्ला को किराए पर पड़ोस में रहने वाले कयूम ने दिलाया था. वह मदरसा चलाता था. बादशाह खान दुबई में नौकरी करता था. उस की पत्नी आयशा और परिवार मलिहाबाद में रहता था. मकान को किराए पर लेते समय उस ने खुद को खुद्दार और कौम के प्रति वफादार बताया था.

सैफुल्ला ने कहा था कि वह मेहनत से अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ अपनी कौम के बच्चों को कंप्यूटर की शिक्षा देना चाहता है. अपने खर्च के बारे में उस ने बताया था कि वह कम फीस पर बच्चों को कंप्यूटर के जरिए आत्मनिर्भर बनाने का काम करता है.इसी से सैफुल्ला ने अपना खर्च चलाने की बात कही थी.

उस की दिनचर्या ऐसी थी कि कोई भी उस से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. अपनी दिनचर्या का पूरा चार्ट बना कर उस ने कमरे की दीवारों पर लगा रखा था. वह सुबह 4 बजे उठ जाता था खुद को फिट रखने के लिए. वह पांचों वक्त नमाज पढ़ता था. कुरआन के अनुवाद तफ्सीर पढ़ता था. वह पूरी तरह से धर्म में रचबस गया था. हजरत मोहम्मद साहब के वचनों हदीस पर अमल करता था. अपना खाना वह खुद पकाता था. दोपहर 3 बजे उस का लंच होता था. शरीयत से जुड़ी किताबें पढ़ता था. रात 10 बजे तक सो जाता था.

रमजान के दिनों में वह पूरी तरह से उस में डूब जाता था. वह बिना देखे कुरआन की हिब्ज पढ़ता था. वह खुद को पूरी तरह से मोहम्मद साहब के वचनों पर चलने वाला मानता था. उसे करीब से देखने वाला समझता था कि इस से अच्छा लड़का कोई दुनिया में नहीं हो सकता. हाजी कालोनी के जिस मकान में सैफुल्ला रहता था, उस में कुल 4 कमरे थे. मकान के दाएं हिस्से में महबूब नामक एक और किराएदार अपने परिवार के साथ रहता था. बाईं ओर के कमरे में महबूब का एक और साथी रहता था. इस के आगे दोनों के किचन थे. दाईं ओर का कमरा खाली पड़ा था और उस के आगे भी बाथरूम और किचन बने थे.

असल में बादशाह खान ने अपने इस मकान को कुछ इस तरह से बनवाया था कि कई परिवार एक साथ किराए पर रह सकें. कोई किसी से परेशान न हो, ऐसे में सब के रास्ते, स्टोररूम और बाथरूम अलगअलग थे. मकान खुली जगह पर था, इसलिए चोरीडकैती से बचने के लिए सुरक्षा के पूरे उपाय किए गए थे. सैफुल्ला ने किराए पर लेते समय इन खूबियों को ध्यान में रखा था और उसे यह जगह भा गई थी.

सैफुल्ला को यह जगह काफी मुफीद लगी थी. जैसे यह उसी के लिए ही तैयार की गई हो. वह समय पर किराया देता था. अपने आसपास वालों से वह कम ही बातचीत करता था. ज्यादा समय वह अपने कंप्यूटर पर देता था. इस में वह सब से ज्यादा यूट्यूब देखता था, जिस में आईएसआईएस से जुड़ी जानकारियों पर ज्यादा ध्यान देता था.

7 मार्च, 2017 को भोपाल-उज्जैन पैसेंजर रेलगाड़ी में बम धमाका हुआ. वहां पुलिस को बम धमाके से जुड़े कुछ परचे मिले, जिस में लिखा था, ‘हम भारत आ चुके हैं—आईएस’. यह संदेश पढ़ने के बाद भारत की सभी सुरक्षा एजेंसियां और पुलिस सक्रिय हो गई. ट्रेन में हुआ बम धमाका बहुत शक्तिशाली नहीं था, जिस से बहुत ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था.

पर यह संदेश सुरक्षा एजेंसियों और सरकार की नींद उड़ाने वाला था. पुलिस जांच में पता चला कि यह काम भारत में काम करने वाले किसी खुरासान ग्रुप का है, जो सीधे तौर पर आईएस की गतिविधियों से जुड़ा हुआ नहीं है, पर उस से प्रभावित हो कर उसी तरह के काम कर रहा है. यह खुरासान ग्रुप तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का एक हिस्सा है, जो आईएस से जुड़ा है.

मध्य प्रदेश पुलिस ने जब पकड़े गए 3 आतंकवादियों से पूछताछ की तो कानपुर की केडीए कालोनी में रहने वाले दानिश अख्तर उर्फ जफर, अलीगढ़ के इंदिरानगर निवासी सैयद मीर हुसैन हमजा और कानपुर के जाजमऊ के रहने वाले आतिश ने माना कि वे 3 साल से सैफुल्ला को जानते हैं. वह उन्हें वीडियो दिखा कर कहता था, ‘एक वे हैं और एक हम. कौम के लिए हमें भी कुछ करना होगा.’

उन्होंने बताया था कि सैफुल्ला का इरादा भारत में कई जगह बम विस्फोट करने का है. इस जानकारी के बाद पुलिस को सैफुल्ला की जानकारी और लोकेशन दोनों ही मिल गई थी. इस के बाद पुलिस ने दोपहर करीब ढाई बजे सैफुल्ला के घर पर दस्तक दी. लखनऊ की पुलिस पूरी तरह से अलर्ट थी. उस के साथ एटीएस के साथ एसटीएफ भी थी.

सैकड़ों की संख्या में पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों ने घर को घेर लिया था. आसपास रहने वालों को जब पता चला कि सैफुल्ला आतंकवादी है और मध्य प्रदेश में हुए बम विस्फोट में उस का हाथ है तो सभी दंग रह गए. सुरक्षा बलों ने पूरे 10 घंटे तक घर को घेरे रखा. वे सैफुल्ला को आत्मसमर्पण के लिए कहते रहे, पर वह नहीं माना.

घर के अंदर से सैफुल्ला पुलिस पर गोलियां चलाता रहा. ऐसे में रात करीब 2 बजे पुलिस ने लोहे के गेट को फाड़ कर उस पर गोलियां चलाईं. तब जा कर वह मरा. पुलिस को उस के कमरे के पास से .32 बोर की 8 पिस्तौलें, 630 जिंदा कारतूस, 45 ग्राम सोना और 4 सिमकार्ड मिले.

इस के साथ डेढ़ लाख रुपए नकद, एटीएम कार्ड, किताबें, काला झंडा, विदेशी मुद्रा रियाल, आतिफ के नाम का पैनकार्ड और यूपी78 सीपी 9704 नंबर की डिसकवर मोटरसाइकिल मिली. इस के अलावा बम बनाने का सामान, वाकीटाकी फोन के 2 सेट और अन्य सामग्री भी मिली.

पुलिस को उस के कमरे से 3 पासपोर्ट भी मिले, जो सैफुल्ला, दानिश और आतिफ के नाम के थे. आतिफ सऊदी अरब हो आया था. बाकी दोनों ने कोई यात्रा इन पासपोर्ट से नहीं की थी. सैफुल्ला का ड्राइविंग लाइसेंस और पासपोर्ट मनोहरनगर के पते पर ही बने थे, जहां उस का परिवार रहता था.

सैफुल्ला के आतंकी होने और पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे जाने की खबर जब उस के पिता सरताज अहमद को मिली, तब वह समझ पाए कि उन का बेटा क्या कर रहा था. पुलिस ने जब उन से शव लेने और उसे दफनाने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि सैफुल्ला ने ऐसा कोई काम नहीं किया कि उस का जनाजा निकले.

वह गद्दार था. उस के शव को ले कर वह अपना ईमान खराब नहीं करेंगे.  इस के बाद पुलिस ने सैफुल्ला को लखनऊ के ही ऐशबाग कब्रगाह में दफना दिया था.

सैफुल्ला की कहानी किसी भी ऐसे युवक के लिए सीख देने वाली हो सकती है कि आतंक की पाठशाला में पढ़ाई करना किस अंजाम तक पहुंचा सकता है. ऐसे शहरी या गांव के लोगों के लिए भी सीख देने वाली हो सकती है, जिन के आसपास रहने वाला इस तरह धार्मिक प्रवृत्ति का हो.

आतंकवाद का ग्लैमर दूर से देखने में अच्छा लग सकता है, पर उस का करीबी होना बदबूदार गंदगी की तरह होता है. धर्म के नाम पर दुकान चलाने वाले लोग मासूम युवाओं को गुमराह करते हैं. सोशल मीडिया का उपयोग करने वाले लोगों को प्रभावित करना आसान होता है.

ऐसे में जरूरत इस बात की है कि युवा और उन के घर वाले होशियार रहें, जिस से उन के घर में कोई सैफुल्ला न बन सके. बच्चे आतंकवादी नहीं होते, उन्हें धर्म पर काम करने वाले कट्टरपंथी लोग आतंक से जोड़ देते हैं. पैसे कमाने और बाहुबली बनने का शौक बच्चों को आतंक के राह पर ले जाता है.

कुछ इस तरह धरा गया दुर्गेश शर्मा

पिछले 15 सालों से दुर्गेश शर्मा और पटना पुलिस के बीच चूहे बिल्ली का खेल चल रहा था. पिछले दिनों उस की गिरफ्तारी के बाद पटना पुलिस ने जरूर चैन की सांस ली होगी.

22 जुलाई, 2017 को एसटीएफ ने दुर्गेश शर्मा को ‘राजेंद्रनगर न्यू तिनसुकिया ऐक्सप्रैस’ रेलगाड़ी में बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन के पास पकड़ा. उस समय उस की बीवी और बच्चे भी साथ थे. एसटीएफ ने जब नाम पूछा, तो दुर्गेश ने अपना नाम राजीव शर्मा बताया. उस ने रेलगाड़ी का टिकट भी राजीव शर्मा के नाम से रिजर्व करा रखा था. उस ने राजीव शर्मा के नाम का पैनकार्ड, आधारकार्ड और वोटर आईडी भी एसटीएफ को दिखाया. कुछ देर के लिए एसटीएफ की टीम भी चकरा गई.

टीम को लगा कि कहीं उस ने गलत आदमी पर तो हाथ नहीं डाल दिया, पर एसटीएफ के पास दुर्गेश शर्मा का फोटो था, जिस से उस की पहचान हो सकी. दुर्गेश शर्मा से पूछताछ के बाद पुलिस को कई सुराग और राज पता चले हैं. उस ने अपने तकरीबन 15 गुरगों के नाम पुलिस को बताए, जिन के दम पर वह रंगदारी वसूलता था.

16 जनवरी, 2016 में उस ने एसके पुरी थाने के राजापुर पुल के पास सोना कारोबारी रविकांत की हत्या कर दी थी.उस हत्या के बारे में दुर्गेश शर्मा ने कहा कि उस की हत्या गलती से हो गई थी. उस के गुरगे करमू राय ने शराब के नशे में रविकांत की हत्या कर दी थी. दुर्गेश शर्मा पटना के मैनपुरा, बोरिंग रोड, राजा बाजार, दीघा और पाटलीपुत्र कालौनी जैसे महल्लों के बड़े कारोबारियों से ले कर छोटे दुकानदारों तक से रंगदारी वसूलता था.

दुर्गेश शर्मा पटना हाईकोर्ट से फर्जी तरीके से जमानत भी ले चुका है. साल 2011 में फर्जी जमानत पर फरार होने के बाद दुर्गेश शर्मा ने सिलीगुड़ी को अपना ठिकाना बना लिया था. पटना में जीतू उपाध्याय दुर्गेश शर्मा का खासमखास गुरगा था और वही पटना में रंगदारी वसूली का काम किया करता था और नैट बैंकिंग के जरीए दुर्गेश शर्मा के खाते में रुपए ट्रांसफर कर देता था.

सिलीगुड़ी के अलावा दुर्गेश उर्फ राहुल उर्फ राजीव ने पुलिस से बचने के लिए पटना के बाहर कई शहरों में अपना ठिकाना बना रखा था. कोलकाता के साल्ट लेक इलाके में भी उस का ठिकाना था. झारखंड के धनबाद शहर में भी उस का मकान था. असम के तिनसुकिया शहर के सुबोचनी रोड पर सटू दास के मकान में वह किराएदार था. रांची, जमशेदपुर में भी उस के मकान होने का पता चला है.

पटना के बोरिंग रोड इलाके में बन रहे एक मौल में भी दुर्गेश शर्मा की हिस्सेदारी है. साथ ही, पटना के मैनपुरा इलाके और पश्चिमी पटना की कई कीमती जमीनों पर भी वह कब्जा करने की फिराक में था. दुर्गेश शर्मा शंकर राय की हत्या करने के लिए पटना आया था. उस के बाद उस ने समर्पण करने की सोची थी. दुर्गेश शर्मा और शंकर राय के बीच इलाके के दबदबे को ले कर टकराव चलता रहा है. इस में दोनों गुटों के कई लोग मारे जा चुके हैं.

पटना के कई थानों में उस के खिलाफ 32 मामले दर्ज हैं, जिन में से 20 संगीन हैं. साल 2015 में ठेकेदार संतोष की हत्या के मामले में पुलिस उसे ढूंढ़ रही थी. तकरीबन 10 साल पहले वह पटना के अपराधी सुलतान मियां का दायां हाथ हुआ करता था. वह सुलतान मियां गैंग का शार्प शूटर था. साल 2008 में उस ने सुलतान मियां से नाता तोड़ कर अपना अलग गैंग बना लिया.

साल 2015 में शंकर राय से सुपारी ले कर दुर्गेश शर्मा ने संतोष की हत्या की थी. काम हो जाने के बाद भी शंकर ने उसे रकम नहीं दी थी. उस हत्या के मामले में शंकर को जेल हो गई थी. उस रकम को ले कर दोनों के बीच तनाव काफी बढ़ चुका था.

पटना नगर निगम चुनाव के समय दुर्गेश शर्मा को पता चला कि शंकर की बीवी पटना नगर निगम के वार्ड नंबर-24 से चुनाव लड़ रही है. दुर्गेश को लगा कि अगर शंकर की बीवी चुनाव जीत गई, तो उस का राजनीतिक कद बढ़ जाएगा और वह उस पर भारी पड़ने लगेगा.शंकर की हत्या करने का उसे यही बेहतरीन मौका लगा. चुनाव प्रचार के दौरान वह शंकर को आसानी से मार सकता है. दुर्गेश पटना पहुंचा, पर शंकर की हत्या न कर सका.

दुर्गेश शर्मा पहली बार साल 2003 में पुलिस के चंगुल में फंसा था और साल 2006 में वह जमानत पर छूटा था. उस के बाद उस का खौफ इतना बढ़ गया था कि साल 2011 में राज्य सरकार ने उस की गिरफ्तारी पर 50 हजार रुपए का इनाम रखा. उस के बाद भी वह पिछले 6 सालों तक पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहा.

दुर्गेश की बीवी कविता ने पुलिस को बताया कि वह कामाख्या पूजा के लिए जा रही थी कि रास्ते में उस के पति को गिरफ्तार कर लिया गया. पूजा से लौटने के बाद दुर्गेश कोर्ट या पुलिस के सामने सरैंडर करने का मन बना चुका था.

रविकांत की हत्या

16 फरवरी को 45 साला रविकांत पौने 10 बजे अपनी दुकान न्यू सोनाली ज्वैलर्स पहुंचे. दुकान का ताला खुलवाने के बाद साफसफाई की गई. उस के बाद 9 बज कर, 55 मिनट पर रविकांत काउंटर पर बैठ गए. काउंटर पर बैठ कर वे बहीखाता देख रहे थे कि 10 बजे 3 लड़के दुकान में घुसे.एक लड़के ने रविकांत से कहा कि वे सोने की चेन और 2 लाख रुपए तुरंत निकाल दें, नहीं तो जान से मार देंगे.

रविकांत ने कहा कि बारबार रंगदारी देने की उन की हैसियत नहीं है. लड़के ने फिर धमकाया कि रुपया निकालो, नहीं तो बुरा अंजाम होगा. इसी बात को ले कर दोनों के बीच बहस होने लगी. तमतमाए लड़के ने 315 बोर के देशी कट्टे से रविकांत के सीने में कई गोलियां दाग दीं. रविकांत वहीं ढेर हो गए. रविकांत के करीबियों ने बताया कि पिछले 3 महीने से रविकांत से 10 लाख रुपए की रंगदारी मांगी जा रही थी.

अपराधी दुर्गेश शर्मा और मुनचुन गोप कई दिनों से रंगदारी मांग रहे थे.जब रविकांत ने इतनी बड़ी रकम देने में असमर्थता जताई, तो अपराधी सोने के गहनों की मांग करने लगे. एक बार रविकांत ने 36 ग्राम सोने की चेन का बना कर दी, पर इस के बाद भी रंगदारी की मांग जारी रही. रविकांत ने जब रंगदारी देने से मना किया, तो उन की हत्या कर दी गई. रविकांत की दिनदहाड़े हत्या में दुर्गेश शर्मा का नाम सामने आने के बाद भी पुलिस उसे दबोच न सकी. पुलिस उस के गुरगों को ही पकड़ सकी.

दुर्गेश शर्मा का करीबी पगला विक्रम उर्फ राजा समेत रंजीत उर्फ भोला, जितेंद्र कुमार और पप्पू कुमार को पकड़ लिया गया. ये लोग दुर्गेश शर्मा के इशारे पर बोरिंग रोड, राजापुर, मैनपुरा, मंदिरी और दानापुर इलाके में कारोबारियों और ठेकेदारों से रंगदारी वसूलते थे. रविकांत को गोली मारने वाले करमू राय तक पुलिस के हाथ नहीं पहुंच सके.

पगला विक्रम दुर्गेश शर्मा का दाहिना हाथ माना जाता है. मूल रूप से नालंदा का रहने वाला पगला विक्रम रामकृष्णा नगर इलाके में रहता है. राजापुर पुल के पास उस का अड्डा है. पिछले साल जब पगला विक्रम जेल गया, तो दुर्गेश शर्मा ही उस के घर का खर्च चलाता था.

जेल से बाहर आने के बाद पगला विक्रम उस के लिए खुल कर काम करने लगा. दुर्गेश शर्मा की गैरमौजूदगी में वही गिरोह को चलाता था. पिछले साल 12 फरवरी को मैनपुरा के राजकीय मध्य विद्यालय के पास पार्षद रह चुके रंतोष के भाई संतोष की हत्या में भी दुर्गेश शर्मा का नाम आया था. उस के कुछ दिन पहले ही राजापुर पुल के पास मधु सिंह की हत्या में भी उस का नाम उछला था.

छपरा जिले के गरखा थाने के फुलवरिया गांव के रहने वाले दुर्गेश शर्मा ने साल 2000 के आसपास पटना के मैनपुरा इलाके में अपना अड्डा बनाया था. उस के खिलाफ पहला केस 10 अक्तूबर, 2000 को बुद्धा कालोनी थाने में डकैती के लिए दर्ज किया गया था. शुरुआत में उस ने सुलतान मियां के शूटर के रूप में काम किया और सुलतान के गायब होने के बाद उस ने गिरोह की कमान थाम ली थी.

साल 2008 में उस ने आरा में बैंक डकैती की और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया था. उसे बेऊर जेल में बंद किया गया था, पर वह हाईकोर्ट से फर्जी जमानत और्डर पर बाहर निकला था, उस के बाद वह पुलिस के लिए दूर की कौड़ी हो गया. दुर्गेश शर्मा पिछले कई सालों से आरा में रह कर अपना गैंग चला रहा था. वह अकसर अपने गिरोह के लोगों से मिलने पटना और आरा के बीच नेउरा स्टेशन पर आता था. आखिरी बार वह फरवरी, 2015 में पटना आया था.

दुर्गेश शर्मा ने कोलकाता में अपना कारोबार फैला रखा है और वह मोबाइल टावर लगाने का काम कर रहा है. राजापुर पुल के पास वह शौपिंग कौंप्लैक्स बना रहा है. उस में संतोष हत्याकांड में नामजद पप्पू, बबलू, गिरीश और गुड्डू सिंह पार्टनर हैं. एसएसपी मनु महाराज ने बताया कि दुर्गेश शर्मा और उस के गिरोह के लोगों की जायदाद का पता कर उसे जब्त करने की कार्यवाही शुरू की गई है.

चंबल के बीहड़ों की आखिरी दस्यु जोड़ी

राजस्थान से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश तक फैले चंबल नदी के बीहड़ों में डकैत केदार गुर्जर का काफी आतंक था. उस ने अपनी पत्नी दस्यु सुंदरी पूजा के साथ ऐसा आतंक मचा रखा था कि लोग उन के नाम से कांपते थे. उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में कभी उस की तूती बोलती थी. दोनों धनी लोगों का अपहरण कर मोटी रकम फिरौती में वसूलते थे. इस मामले में दोनों काफी होशियार थे.वे पकड़ (अपहृत) को जंजीर से बांध कर ताला लगा कर अपने साथ जंगल में रखते थे. फिरौती मिलने के बाद ही वे उसे छोड़ते थे. जब तक पैसा नहीं मिल जाता, तब तक वे पकड़ को मेहमान की तरह रखते थे.

हालांकि अब पहले जैसे खूंखार डकैत नहीं रहे, जो लोगों को कतार में खड़ा कर गोलियों से भून देते थे. एक जमाना था, जब चंबल के बीहड़ में डाकुओं का बोलबाला था. डाकुओं का ऐसा आतंक था कि लोग उन के नाम से कांपते थे. ऐसे तमाम डाकू हुए, जिन की कहानियां आज भी लोग सुनाते हैं. कई महिलाएं भी बीहड़ों में कूद कर डकैत बनीं. इन्हें बाद में दस्यु सुंदरी कहा गया.

लेकिन अब समय बदल गया है. अपराध भले ही पहले से ज्यादा बढ़ गए हैं, लेकिन अपराधों और अपराधियों का ट्रेंड बदल गया है. अब पहले की तरह बंदूकों की नोक पर डकैती की वारदात यदाकदा ही सुनने को मिलती है. डकैतों की पीढ़ी भी अब आखिरी पड़ाव पर है. बात राजस्थान, मध्य प्रदेश या उत्तर प्रदेश की करें तो यहां के ज्यादातर डकैत गिरोहों का सफाया हो चुका है. डकैत सरगना जेल पहुंच चुके हैं या मुठभेड़ में अपनी जान गंवा चुके हैं.

समय के साथ अब डकैतों की कार्यप्रणाली बदल चुकी है. पहले की तरह अब डकैत फिल्मी स्टाइल में घोड़ों पर नहीं चलते. चंबल के बीहड़ों में भी अब घोड़ों के टाप नहीं सुनाई देते. वे भी वारदात को अंजाम देने के लिए वाहनों का उपयोग करने लगे हैं. डकैतों में मुठभेड़ें भी कम होती हैं. डकैत गिरोह खूनखराबा करने के बजाय पैसे पर विश्वास करते हैं. गिरोह के सदस्यों के पास आधुनिक हथियार होते हैं. एक यही बदलाव नहीं आया है. वे रहते भी जंगलों और बीहड़ों में हैं.

राजस्थान से ले कर मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश तक पसरी चंबल की घाटी भी अब अवैध खनन की वजह से सिमटती जा रही है. अपनी ही तरह के सामाजिक भौगोलिक कारणों से क्षेत्र को कुख्यात बनाने वाली वजहों में से एक सब से महत्त्वपूर्ण वजह यहां से बहने वाली चंबल नदी है.

मध्य प्रदेश की विंध्य की पहाडि़यों से निकलने वाली यह नदी राजस्थान के कोटा, धौलपुर आदि इलाकों को पार करते हुए मध्य प्रदेश के भिंड मुरैना इलाकों से बहती हुई उत्तर प्रदेश के इटावा जिले की ओर चली जाती है. पानी के कटाव से चंबल नदी के किनारेकिनारे सैकड़ों मील तक ऊंचे घुमावदार बीहड़ों की संरचना हो गई है. चंबल के ये बीहड़ कई दशकों से डकैतों के अभेद्य ठिकाने रहे हैं.

चंबल से जुड़े इलाकों में अभी भी कुछ डकैतों का आतंक है. राजस्थान के धौलपुर में भी अभी कुछ दस्यु गिरोह सक्रिय हैं. धौलपुर के एसपी राजेश सिंह ने इन दस्युओं के खिलाफ मुहिम चला रखी है, जिस की वजह से अधिकांश दस्यु पकड़े जा चुके हैं. फिर भी डकैतों का खात्मा अभी पूरी तरह से नहीं हो सका है.

एसपी राजेश सिंह 16 अप्रैल को देर रात तक काम कर रहे थे. हालांकि उस दिन वह औफिस से जल्दी ही घर आ गए थे. लेकिन घर आने के बाद भी वह सरकारी कामकाज में उलझे थे. रात 11 बजे के करीब उन के मोबाइल फोन की घंटी बजी तो उन्होंने स्क्रीन पर नंबर देखा. नंबर खास मुखबिर का था, इसलिए उन्होंने फोन रिसीव कर बिना कोई भूमिका बनाए पूछा, ‘‘बताओ, क्या खबर है?’’

‘‘सर, आज की सूचना धमाकेदार है.’’ दूसरी ओर से मुखबिर ने कहा.

‘‘अच्छा, ऐसी क्या सूचना है?’’ एसपी साहब ने दिलचस्पी लेते हुए पूछा.

‘‘सर, आप चाहें तो आप की कई महीनों की भागदौड़ कामयाब हो सकती है.’’ मुखबिर बोला.

‘‘वो कैसे?’’ एसपी साहब ने पूछा.

‘‘सर, डकैत केदार गुर्जर आज आप के इलाके में ही घूम रहा है.’’ मुखबिर ने धीमी आवाज में कहा.

केदार का नाम सुन कर एसपी साहब के चेहरे पर चमक आ गई. उन्होंने पूछा, ‘‘कहां है वो?’’

‘‘सर, वह चंदीलपुरा के आसपास जंगल में है. उस की दोस्त पूजा डकैत भी उस के साथ है.’’ मुखबिर ने कहा.

‘‘अगर सूचना पक्की है तो आज वह हमारे हाथों से बच नहीं सकता.’’ एसपी साहब ने कहा.

‘‘सर, सूचना सौ फीसदी सही है. फिर भी आप चाहें तो उस के मोबाइल फोन से उस की लोकेशन पता करा लें.’’ मुखबिर ने एसपी साहब को आश्वस्त करते हुए कहा.

‘‘ओके मैं पता कराता हूं.’’ एसपी साहब ने कहा.

डकैत केदार गुर्जर और दस्यु सुंदरी पूजा के बारे में मिली सूचना महत्त्वपूर्ण थी. राजेश सिंह ने तुरंत एडीशनल एसपी जसवंत सिह बालोत को फोन कर के साइबर सेल द्वारा केदार गुर्जर के मोबाइल फोन की लोकेशन पता कराने को कहा.

एडीशनल एसपी जसवंत सिंह बालोत ने साइबर सेल के माध्यम से डकैत केदार गुर्जर के मोबाइल फोन को सर्विलांस पर लगवाया तो पता चला कि वह चंदीलपुरा की घाटी के आसपास है. उन्होंने तुरंत यह सूचना एसपी राजेश सिंह को दे दी.

केदार गुर्जर की लोकेशन का पता चलते ही राजेश सिंह ने एडीशनल एसपी जसवंत सिंह बालोत को तुरंत पुलिस फोर्स के साथ जा कर डकैत केदार को घेरने को कहा. रात को ही अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक पुलिस टीम गठित की गई और श्री बालोत के नेतृत्व में वह पुलिस टीम डकैत केदार गुर्जर और दस्यु सुंदरी पूजा की तलाश में निकल गई.

पुलिस टीम जैसे ही चंदीलपुरा की घाटी में बाबू महाराज के मंदिर के पास पहुंची तो डकैतों ने पुलिस की तरफ गोलियां चलानी शुरू कर दीं. पुलिस और डकैतों के बीच रुकरुक कर गोलियां चलती रहीं.

आखिर सवेरा होने से पहले पुलिस टीम डकैत केदार गुर्जर और दस्यु सुंदरी पूजा गुर्जर को जीवित पकड़ने में सफल रही. उन के बाकी साथी अंधेरे में वहां से भाग निकले थे. पुलिस टीम ने दिन चढ़ने पर उन की तलाश में जंगल का चप्पाचप्पा छान मारा, लेकिन उन का कुछ पता नहीं चला.

पुलिस टीम डकैत केदार और पूजा गुर्जर को कड़ी सुरक्षा में धौलपुर ले आई. केदार गुर्जर से एक वनचेस्टर 11, 44 बोर की राइफल, 315 बोर का एक कट्टा और 22 जिंदा कारतूस बरामद हुए थे. दस्यु सुंदरी पूजा गुर्जर के पास से 315 बोर की एक राइफल, 3 जिंदा कारतूस व 3 खाली कारतूस बरामद किए गए थे. धौलपुर जिले के बसई डांग थाने में केदार और पूजा के खिलाफ भादंवि की धारा 307, 323, 332, 353, 34 और 3/25 आर्म्स एक्ट एवं 11 आरडीए एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया गया.

डकैत केदार एवं पूजा गुर्जर की गिरफ्तारी से राजस्थान ही नहीं, उत्तर प्रदेश पुलिस का भी एक बड़ा सिरदर्द खत्म हो गया. केदार गुर्जर के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, डकैती, अपहरण, डकैती की योजना बनाने, बलात्कार आदि के 29 मामले दर्ज हैं.

वहीं दस्यु सुंदरी पूजा गुर्जर के खिलाफ हत्या के प्रयास एवं डकैती की योजना बनाने के 3 मुकदमे दर्ज हैं. केदार गुर्जर की गिरफ्तारी पर राजस्थान के भरतपुर रेंज के आईजी ने 10 हजार रुपए और उत्तर प्रदेश के आगरा के डीआईजी ने 5 हजार रुपए एवं आगरा के एसएसपी ने 5 हजार रुपए का इनाम घोषित कर रखा था. दस्यु केदार एवं पूजा गुर्जर से की गई पूछताछ में जो कहानी सामने आई, वह इस प्रकार थी—

केदार धौलपुर जिले के बाड़ी थाना के गांव भोलापुरा का रहने वाला था. फेरन सिंह गुर्जर के बेटे केदार को लोग ठेकेदार के नाम से पुकारते थे. डकैतों के बीच भी वह केदार उर्फ ठेकेदार के नाम से ही जाना जाता था. वहीं पूजा मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के कैलारस थाने के गांव डोंगरपुर निवासी बहादुर सिंह गुर्जर की बेटी थी. अब वह केदार गुर्जर उर्फ ठेकेदार की पत्नी है.

माना जा रहा है कि चंबल के बीहड़ों में केदार एवं पूजा के बाद अब कोई ऐसा दस्यु जोड़ा नहीं बचा है, जो डकैती की वारदातों में लिप्त हो. जो डकैत बचे हैं, वे अकेले पुरुष हैं. अगर उन की शादी हुई तो पत्नी गांव में रहती है. चंबल के बीहड़ में अब किसी पुरुष डकैत के साथ कोई महिला दस्यु नहीं है.

यह विडंबना ही है कि केदार और पूजा की 2-2 बार शादी हुई है. केदार की पहली पत्नी से उसे कोई संतान नहीं हुई थी. वहीं पूजा की बचपन में उस समय शादी हो गई थी, जब वह 11-12 साल की थी. अक्तूबर, 2004 में रामबाबू गड़रिया ने भंवरपुरा गांव में कई लोगों को एक कतार में खड़ा कर गोलियों से भून दिया था. उन में पूजा का पति भी शामिल था.

पति की मौत के बाद पूजा ने ससुराल छोड़ दी और बीहड़ों में कूद गई. वह केदार गुर्जर के गिरोह में शामिल हो गई थी. कुछ दिनों बाद पूजा ने केदार से शादी कर ली थी. केदार ने ही पूजा को बंदूक चलाना सिखाया. शुरू में गिरोह में पूजा की भूमिका कोई खास नहीं थी, लेकिन सन 2007 के बाद से वह गिरोह के साथ पूरी तरह सक्रिय हो गई थी. वह अपहरण करने एवं वसूली से ले कर डकैती की योजना बनाने और पुलिस मुठभेड़ में केदार का कंधे से कंधा मिला कर साथ देने लगी थी.

करीब 2 साल पहले पुलिस ने पूजा को गिरफ्तार कर लिया था. तब वह लगभग 6 महीने तक धौलपुर की केंद्रीय जेल में बंद रही थी. बाद में जमानत मिलने पर वह वापस बीहड़ों में केदार के पास जा पहुंची थी. बीहड़ों में पूजा साड़ी बांध कर रहती थी, लेकिन जब वह गिरोह के साथ वारदात करने निकलती थी तो ब्रांडेड जींस, टीशर्ट या शर्ट तथा स्पोर्ट्स शूज पहनती थी.

केदार और पूजा ने राजस्थान के धौलपुर से ले कर उत्तर प्रदेश के आगरा एवं मध्य प्रदेश के मुरैना तक अपना कार्यक्षेत्र बना रखा था. केदार का गिरोह लंबे समय तक बीहड़ों में नहीं रहता था. लेकिन जब बीहड़ों में रहता था तो अपने विश्वस्त लोगों से राशन और सामान मंगवाता था. वह जंगल में ही खाना बनाते और खाते थे. बारिश के मौसम में तिरपाल लगा कर रहते थे. रात हो या दिन, बीहड़ में जहां भी गिरोह रुकता था, वहां 1-2 सदस्य बंदूक ले कर पहरा देते रहते थे.

बीचबीच में केदार एवं पूजा के साथ डकैत गिरोह के सदस्य तीर्थयात्रा पर भी जाते थे. ये लोग विश्वविख्यात पुष्कर मेले और अलवर जिले के भर्तृहरि मेले में कई बार जा चुके हैं. इस बीच ये अपनी वेशभूषा बदल लेते थे. केदार गुर्जर धोतीकुरता और पगड़ी बांध कर ठेठ देहाती बन जाता था तो पूजा जंफर और कुरती पहन कर ठेठ गूजरी बन जाती थी. लेकिन 1-2 हथियार ये अपने साथ रखते थे. बाकी हथियारों को अपने ठिकानों पर जंगल में छिपा देते थे. केदार और पूजा सामान्य ग्रामीण की तरह जयपुर और आगरा के ताजमहल आदि जगहों पर भी घूम चुके हैं.

डकैत केदार की आदत थी कि वह जंगल में जहां खाना खाता था, वहां से 1-2 किलोमीटर दूर जा कर पानी पीता था. रात में भी ये 1-2 बार अपना ठिकाना बदल लेते थे. इन की गिरफ्तारी से कुछ महीने पहले धौलपुर पुलिस की केदार और पूजा गिरोह से मुठभेड़ हुई थी. उस मुठभेड़ के बाद पुलिस ने इन के चंगुल से आगरा के एक ठेकेदार देवेंद्र ठाकुर को मुक्त कराया था. देवेंद्र का उत्तर प्रदेश के शमसाबाद से अपहरण किया गया था. वह शमसाबाद के पूर्व विधायक एवं व्यापारी डा. राजेंद्र सिंह का रिश्तेदार था.

देवेंद्र ठेकेदारी करता था.देवेंद्र के अपहरण के बाद केदार और पूजा के गिरोह ने उस के घर वालों से 50 लाख रुपए की फिरौती मांगी थी. बाद में 20 लाख रुपए में सौदा तय हो गया था. देवेंद्र के घर वाले 20 लाख रुपए ले कर आने वाले थे, इसी बीच पुलिस को सूचना मिल गई थी. पुलिस ने डकैतों की घेराबंदी कर ली. दोनों तरफ से गोलियां चलीं. मुठभेड़ के दौरान डकैत देवेंद्र को छोड़ कर भाग निकले थे.

देवेंद्र ने तब पुलिस को बताया था कि शमसाबाद से उस का एक कार में अपहरण किया गया था. रास्ते में उसे इंजेक्शन लगा कर बेहोश कर दिया गया था. जब होश आया तो वह मध्य प्रदेश के जंगलों में था. बाद में डकैत गिरोह उसे साथ ले कर इधरउधर घूमता रहा. गिरोह ने देवेंद्र को जंजीरों से बांध कर रखा था. जंजीर में ताला लगा रहता था.

केदार एवं पूजा की गिरफ्तारी से चंबल के बीहड़ों में आतंक के 2 साए भले ही कम हो गए हैं, लेकिन उन की दहशत अभी भी 3 राज्यों के कई जिलों में है. केदार की उम्र लगभग 60 साल है तो पूजा भी 40-45 साल के आसपास की है. दोनों को इस बात का दुख है कि उन की कोई औलाद नहीं है. 2 बार शादी करने के बाद भी कोई संतान न होने से केदार अब टूट सा गया है.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित 

आनंदपाल एनकाउंटर : सियासी मोहरे की मौत

समय बदल गया, लोकतंत्र के रूप में स्वतंत्र भारत के उदय होने के साथ ही सत्ता पर कब्जा पाने के लिए तिकड़मी नेताओं ने राजनीति की नई बिसात बिछा कर देश में छलकपट का खेल शुरू कर दिया था. फर्क सिर्फ इतना रहा कि सत्ता को हासिल करने के लिए छलकपट करने वाले चेहरे और कथानक बदल गए. आज की राजनीति के दौर में धार्मिक उन्माद भरना और अपराधियों का जातीयकरण कर के उन्हें राजनैतिक संरक्षण देना आज के नेताओं की राजनीति का प्रमुख हिस्सा बन गया है. देश में साफसुथरी राजनैतिक मूल्यों के आधार पर आज राजनीति करने वाले नेता कम ही रहे हैं.

राजनीति के शिखर पर पहुंचने की जल्दी में राजनीति का माफियाकरण हो गया है. देश में बिहार के धनबाद जिले से कोयला माफिया के रूप में बाहुबली नेताओं के राजनीति में आने की शुरुआत हुई थी, जो धीरेधीरे पूरे देश में फैल गई. उत्तर प्रदेश, बिहार सहित देश के अन्य राज्यों में भी बाहुबली अपराधियों ने चुनाव लड़ कर राजनीति में भागीदारी हासिल कर ली.

पहले जहां नेता अपराधियों का इस्तेमाल कर के चुनाव जीतते थे, अब अपराधी खुद ही बाहुबल, धनबल से चुनाव जीत कर सांसद और विधायक बनने लगे हैं. राजनेताओं द्वारा भष्मासुर अपराधी पैदा करने की रीति राजस्थान के नेताओं में कम ही रही है.

अन्य राज्यों की अपेक्षा शांत माने जाने वाले राजस्थान में भी इधर नेताओं ने अपना हित साधने के लिए अपनीअपनी जाति के अपराधियों को संरक्षण देना शुरू कर दिया है. राजस्थान की जाट जाति मूलरूप से खेतीकिसानी करने वाली जाति मानी जाती है, जबकि राजपूत शासक और सामंत रहे हैं, जिस की वजह से जाट जाति राजपूतों की दबंगई का शिकार बनती रही है.

आजादी के बाद जाट कांग्रेस के समर्थक बन गए थे, जबकि राजपूत जागीरदारी छिनने की वजह से कांग्रेस के घोर विरोधी रहे हैं. राजस्थान के शेखावाटी, मारवाड़ अंचल में कांग्रेस की सरकारों के साथ मिल कर जाटों ने अपनी राजनीति खूब चमकाई. समूचे शेखावाटी, मारवाड़ इलाके में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर जाट विधायक और सांसद का चुनाव जीतते रहे हैं.

यही वजह रही कि भाजपा ने कांग्रेस को शिकस्त देने के लिए राजपूत, बनिया और ब्राह्मणों को अपनी ओर खींचा. जाति का यह नया समीकरण भाजपा को जीत दिलाने में कामयाब भी रहा. इस में यूनुस खान के आ जाने से कुछ मुसलिमों का भी समर्थन मिल गया. यूनुस खान के विधानसभा क्षेत्र डीडवाना में मुसलिम, राजपूत और जाटों के निर्णायक वोट थे. इन में राजपूतों और मुसलिमों को जोड़ कर यूनुस खान चुनाव जीत कर विधायक बन गए. युनूस खान के विधानसभा क्षेत्र में रूपाराम डूडी जाटों के दबंग नेता रहे हैं. उन के समय में डीडवाना विधानसभा क्षेत्र में जाट जाति के अपराधियों का बोलबाला रहा.

जाटों की दबंगई खत्म करने और राजपूतों में अपना प्रभाव जमाने के लिए यूनुस खान को एक दबंग राजपूत की जरूरत थी. उसी बीच उन के इलाके में राजपूतों में आनंदपाल सिंह अपराधी के रूप में उभरा. अपराधी प्रवृत्ति के जीवनराम गोदारा को कांग्रेस के जाट नेताओं का खुला संरक्षण मिला था.

लेकिन यूनुस खान ने आनंदपाल सिंह के बल पर क्षेत्र के जाटों की दबंगई को खत्म कर के नागौर, चुरू और झुंझनू में राजपूत, मुसलिम, बनियों और ब्राह्मणों का गठजोड़ कर इन जिलों में भाजपा को स्थापित करने के लिए आनंदपाल सिंह से मिल कर दिनदहाड़े जीवनराम गोदारा की हत्या करा दी.

इस के बाद यूनुस खान ही नहीं, नागौर और चुरू जिलों के भाजपा के राजपूत नेता खुल कर आनंदपाल सिंह को राजनीतिक संरक्षण देने लगे. आनंदपाल की गुंडई की बदौलत मकराना की मार्बल खदानों पर कब्जे करने से ले कर जमीनों पर कब्जे करने के मामलों में यूनुस खान के परिवार वालों के नामों की धमक पूरे राजस्थान में सुनी जाने लगी. सन 2013 के विधानसभा चुनाव में आनंदपाल सिंह ने खुल कर यूनुस खान को चुनाव जिताने में मदद की. चूंकि यह कहानी आनंदपाल सिंह की है, इसलिए पहले उस के बारे में जान लेना जरूरी है.

बात 27 जून, 2006 की है. राजस्थान के जिला नागौर के कस्बा डीडवाना का बाजार खुला हुआ था. मानसून ने दस्तक दे दिया था. सुबह से हलकी बूंदाबांदी हो रही थी. दोपहर 2 बजे के करीब कस्बे की गोदारा मार्केट की दुकान ‘पाटीदार बूटहाउस’ पर 4 लोग बैठे चाय पी रहे थे. उसी समय संदिग्ध लगने वाली 2 गाडि़यां दुकान के सामने आ कर रुकीं. उन में से 6 लोग उतरे. कोई कुछ समझ पाता, उस से पहले ही उन्होंने हथियार निकाल कर गोलियां चलानी शुरू कर दीं.

उन 6 लोगों में 6 फुट लंबा एक दढि़यल नौजवान भी था. सब से पहले उसी ने अपनी 9 एमएम पिस्तौल निकाल कर चाय पी रहे उन 4 लोगों में से सामने बैठे हट्टेकट्टे आदमी के सीने पर गोली दागी थी.

गोली चलाने वाले उस दढि़यल नौजवान का नाम आनंदपाल सिंह था और जिस हट्टेकट्टे आदमी के सीने में उस ने गोली दागी थी, उस का नाम जीवनराम गोदारा था.

सन 1992 में देश में राम मंदिर आंदोलन के समय नागौर की लाडनूं तहसील के गांव सांवराद के रहने वाले पप्पू उर्फ आनंदपाल सिंह की शादी थी. वह रावणा राजपूत बिरादरी से था. राजस्थान में सामंती काल में राजपूत पुरुष और गैरराजपूत महिलाओं की संतान को रावणा राजपूत कहा जाता है. इसलिए राजपूत इस बिरादरी को हिकारत की नजरों से देखते हैं.

चूंकि पप्पू असली राजपूत नहीं था, इसलिए बारात निकलने से पहले ही गांव के असली राजपूतों ने चेतावनी दे रखी थी कि अगर दूल्हा घोड़ी पर चढ़ा तो अंजाम ठीक नहीं होगा. क्योंकि घोड़ी पर सिर्फ असली राजपूत ही चढ़ सकता है.

चूंकि पप्पू घोड़ी पर चढ़ कर ही बारात निकालना चाहता था, इसलिए उस ने अपने एक दोस्त को याद किया, जिस का नाम था जीवनराम गोदारा. उस समय वह डीडवाना के बांगड़ कालेज का छात्रनेता हुआ करता था. जीवनराम खुद बारात में पहुंचा और अपने रसूख का इस्तेमाल कर के पप्पू को घोड़ी पर चढ़ा कर शान से बारात निकाली.

राजपूतों का ऐतराज अपनी जगह रह गया. इस के बाद दोनों में गाढ़ी दोस्ती हो गई. अब यहां सवाल यह उठता है कि पप्पू उर्फ आनंदपाल ने अपने ऐसे दोस्त जीवनराम गोदारा को क्यों मारा? दरअसल, यह मदन सिंह राठौड़ की हत्या का बदला था.

कहा जाता है कि कुछ महीने पहले फौज के जवान मदन सिंह की हत्या जीवनराम गोदारा ने इसलिए कर दी थी, क्योंकि जीवनराम राह चलती लड़कियों को छेड़ता था, जिस का मदन सिंह ने विरोध किया था. हत्या का तरीका भी बड़ा भयानक था. सिर पर पत्थर की पटिया से मारमार कर मदन सिंह को खत्म किया गया था.

इस हत्या ने जातीय रूप ले लिया था और सारा मामला राजपूत बनाम जाट में तब्दील हो गया था. पप्पू ने राजपूतों के मान के लिए जीवनराम की हत्या कर बदला ले लिया था. उसी पप्पू को, जिसे जीवनराम ने घोड़ी चढ़ाया था, लोग आनंदपाल सिंह के नाम से जानने लगे थे. उस के बाद वही आनंदपाल राजस्थान के माफिया इतिहास में मिथक बन गया.

आनंदपाल सिंह ऐसे ही माफिया नहीं बना था. वह पढ़नेलिखने में ठीक था. उस ने बीएड किया था. उस के पिता हुकुम सिंह चाहते थे कि वह सरकारी स्कूल में अध्यापक हो जाए. उस की शादी भी हो गई थी.

घर वालों ने उसे लाडनूं में एक सीमेंट एजेंसी दिलवा दी थी. इस की वजह यह थी कि घर वाले चाहते थे कि प्रतियोगी परीक्षाओं के साथसाथ वह अपना खर्चा भी निकालता रहे.

लेकिन आनंदपाल सिंह राजनीति में जाना चाहता था. सन 2000 में जिला पंचायत के चुनाव हुए. उस ने पंचायत समिति का चुनाव लड़ा और जीत भी गया. अब पंचायत समिति के प्रधान का चुनाव होना था. आनंदपाल सिंह ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पर्चा भर दिया. उस के सामने था कांग्रेस के कद्दावर नेता हरजीराम बुरड़क का बेटा जगन्नाथ बुरड़क.

यह चुनाव आनंदपाल मात्र 2 वोटों से हार गया. लेकिन अनुभवी नेता रहे हरजीराम की समझ में आ गया कि यह नौजवान आगे चल कर उस के लिए खतरा बन सकता है. कांग्रेस सरकार में कृषि मंत्री रहे थे हरजीराम बुरड़क.

नवंबर, 2000 में पंचायत समिति की सहायक समितियों का चुनाव था. अब तक आनंदपाल और हरजीराम के बीच तकरार काफी बढ़ चुकी थी. कहा जाता है कि सबक सिखाने के लिए हरजीराम ने आनंदपाल के खिलाफ कई झूठे मुकदमे दर्ज करवा कर उसे गिरफ्तार करवा दिया.

तभी पुलिस ने आनंदपाल सिंह को ऐसा परेशान किया कि उस के कदम अपराध की दुनिया की ओर बढ़ गए. इस के बाद तो किसी की हत्या करना आनंदपाल के लिए खेल बन गया.

सीकर का श्री कल्याण कालेज स्थानीय राजनीति की पहली पाठशाला माना जाता है, जहां वामपंथी संगठन एसएफआई का दबदबा था. इस संगठन में जाटों की पकड़ काफी मजबूत थी. सन 2003 में जब वसुंधरा राजे के नेतृत्व में बीजेपी की सरकारी बनी तो यहां के छात्र नेता रह चुके कुछ नौजवान छात्र नेता राजनीतिक शह पा कर अपराध की डगर पर चल पड़े.

देखते ही देखते कई छात्र नेता शराब और भूमाफिया बन गए. ऐसे में एक नौजवान तेजी से उभरा, जिस का नाम था गोपाल फोगावट. गोपाल एसके कालेज में पढ़ते समय बीजेपी के छात्र संगठन एबीवीपी का कार्यकर्ता हुआ करता था. वह शहर के एसके हौस्पिटल में मेल नर्स भी था. उसी बीच सीपीएम के छात्र संगठन एसएफआई के कुछ लड़के गोपाल के करीब आ कर अवैध शराब की तस्करी में जुट गए. सीपीएम ने उन लड़कों को संगठन से बाहर निकाल दिया. उन में एक लड़का था राजू ठेहट. राजू का ही एक सहयोगी और दोस्त था बलबीर बानूड़ा. सन 2004 में राजू ने पैसे के लेनदेन को ले कर बलबीर के साले विजयपाल की हत्या कर दी. इस के बाद दोनों दोस्तों के बीच दुश्मनी हो गई.

राजू ठेहट को गोपाल फोगावट का संरक्षण मिला हुआ था. बलबीर बानूड़ा उस के सामने काफी कमजोर पड़ रहा था. तब उस ने बगल के जिले नागौर में अपनी धाक जमा रहे माफिया आनंदपाल सिंह से हाथ मिला लिया. अब बलबीर को उस मौके का इंतजार था, जब वह अपने साले की मौत का बदला ले सके. उन्हें यह मौका मिला 5 अप्रैल, 2006 को.

गोपाल फोगावट किसी शादी में शामिल होने के लिए अपने गांव तासर बड़ी जा रहा था. इस के लिए उस ने पहली बार सूट सिलवाया था. वह हौस्पिटल के पास ही स्थित सेवन स्टार टेलर्स की दुकान पर अपना सूट लेने पहुंचा.

जैसे ही गोपाल सूट का ट्रायल लेने के लिए ट्रायल रूम में घुसा, बलबीर बानूड़ा और उस के साथियों ने दुकान में घुस कर गोपाल को एक के बाद एक कर के 8 गोलियां मार दीं. गोलियां मार कर बलबीर बाहर निकल रहा था तो उसे लगा कि गोपाल फोगावट में अभी जान बाकी है. उस ने लौट कर 2 गोलियां उस के सिर में मारीं.

इस वारदात में आनंदपाल सिंह बलबीर के साथ था. धीरेधीरे आनंदपाल सिंह के गैंग ने शेखावाटी और मारवाड़ के बड़े हिस्से में शराब तस्करी और जमीन के अवैध कब्जे में अपनी धाक जमा ली. इस के बाद की कहानी में बस इतना ही कहा जा सकता है कि हमेशा एके47 ले कर चलने वाले इस गैंगस्टर को पकड़ने के लिए राजस्थान पुलिस को 3 हजार जवान तैनात करने पड़े. इन जवानों को खास किस्म की ट्रेनिंग भी दी गई थी. इसी के साथ उस पर 5 लाख का इनाम भी घोषित किया गया था.

वसुंधरा राजे जब पहली बार सत्ता में आई थीं, तब उन की छवि बाहरी नेता के रूप में थी. हालांकि उन की शादी राजस्थान के धौलपुर राजघराने में हुई थी. राजस्थान में राजपूतों की नेता के रूप में अपनी छवि बनाने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी पड़ी. आज राजपूत समुदाय वसुंधरा के पक्ष में खड़ा है. उन के सब से भरोसेमंद माने जाने वाले नेताओं में राजेंद्र सिंह राठौड़ और गजेंद्र सिंह खींवसर हैं. ये दोनों नेता राजपूत हैं.

आनंदपाल सिंह राजपूत नौजवानों में काफी लोकप्रिय था. क्योंकि जाटों के खिलाफ संघर्ष का वह प्रतीक बन चुका था. नागौर जिले के मुंडवा विधानसभा क्षेत्र के विधायक हनुमान बेनीवाल राज्य की मुख्यमंत्री के धुर विरोधी माने जाते हैं.

आनंदपाल की बदौलत यूनुस खान हनुमान बेनीवाल पर खासा नियंत्रण पाने में सफल रहे. यूनुस खान मंत्री के रूप में बीकानेर जेल में बंद आनंदपाल से निजी रूप से मिलने पहुंचे थे, जिस से राज्य की राजनीति में तीखी प्रतिक्रिया  हुई थी.

जेल में बंद खूंखार अपराधी आनंदपाल की सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिस बल की कटौती यूनुस खान के प्रभाव से ही की गई थी, जिस का फायदा उठा कर एक दिन पेशी के दौरान आनंदपाल सिंह पुलिस हिरासत से भाग निकला था.

राज्य की राजनीति में राजपूत जाति का संरक्षण आनंदपाल सिंह को मिल ही रहा था. इसी तरह राजू ठेहट गिरोह को गैरभाजपा दल के नेताओं का संरक्षण मिल रहा था. बीकानेर जेल में बंद रहने के दौरान राजू ठेहट गिरोह ने आनंदपाल की हत्या की कोशिश की थी, जिस में आनंदपाल तो बच गया था, लेकिन उस का एक साथी मारा गया था. फरारी के दौरान पुलिस मुठभेड़ में नागौर जिला पुलिस के जवान खुभानाराम को घायल कर आनंदपाल फिर पुलिस पकड़ से दूर हो गया था.

लेकिन आनंदपाल सिंह भागतेभागते थक गया तो उस ने अपने वकील के माध्यम से आत्मसमर्पण करने की कोशिश की. फरारी के दौरान अपने उपकारों के बदले आनंदपाल ने यूनुस खान से आत्मसमर्पण करवाने के लिए मदद मांगी. शायद यूनुस खान ने मदद करने से इनकार कर दिया तो आनंदपाल ने यूनुस खान को देख लेने की धमकी दे दी.

यूनुस खान आनंदपाल सिंह को अच्छी तरह जानते थे कि वह धमकी को अंजाम दे सकता है, इसलिए डरे हुए यूनुस खान राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से मिले और उन्हें अपनी दुविधा बताई. इस के बाद उन्होंने आनंदपाल सिंह की हत्या की पटकथा तैयार कर डाली.

यूनुस खान की शिकायत पर मुख्यमंत्री ने आनंदपाल का एनकाउंटर करने के लिए राज्य पुलिस के एनकाउंटर विशेषज्ञ एम.एन. दिनेश (आईजी पुलिस) को लक्ष्य दे कर एसओजी में भेज दिया. कहा जाता है कि आनंदपाल से डरे यूनुस खान मुख्यमंत्री के पास जा कर खूब रोए थे.

जिस आनंदपाल को पालपोस कर यूनुस खान ने इतना बड़ा किया था, जब वह उन पर भारी पड़ने लगा तो सत्ता के बल पर 24 जून, 2017 की रात पुलिस की मदद से उसे ठिकाने लगवा दिया.

आनंदपाल तो अपने अंजाम तक पहुंच गया, लेकिन उसे अपराधी बनाने वाले भ्रष्ट यूनुस खान सरीखे नेताओं का क्या होगा? आनंदपाल के एनकाउंटर के बाद राजस्थान में राजपूत जाति ने उसे जातीय अस्मिता से जोड़ लिया है. जबकि जाट उस की हत्या पर कई दिनों तक डीजे बजा कर खुशियां मनाते रहे.

आनंदपाल सिंह के घर वालों का कहना था कि भाजपा सरकार के गृहमंत्री चाहते थे कि आनंदपाल आत्मसमर्पण कर दे, लेकिन आनंदपाल के आत्मसमर्पण करने से यूनुस खान के तमाम राज खुल सकते थे. इसलिए आत्मसमर्पण करने को तैयार आनंदपाल को यूनुस खान के लिए मार डाला गया. आनंदपाल के मारे जाने से मंत्री यूनुस खान खुश हैं कि उन के राज अब कभी नहीं खुल पाएंगे.

यह एनकाउंटर चुरू जिले में हुआ, जो राजेंद्र राठौड़ का गृह जिला है. राजपूत बिरादरी में पैदा हुए रोष का शिकार राजेंद्र सिंह राठौड़ बन सकते हैं. राजपूतों का एक छोटा सा संगठन है श्री राजपूत करणी सेना. इस के कर्ताधर्ता हैं लोकेंद्र सिंह कालवी, जिन के पिता कल्याण सिंह कालवी राजपूतों के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री रहे हैं.

लोकेंद्र सिंह कालवी, उन के पिता कल्याण सिंह कालवी और करणी सेना तब चर्चा में आई थी, जब जयपुर में इस संगठन के लोगों ने फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली के साथ बदसलूकी की थी. यह गैरराजनीतिक संगठन लगातार कई सालों से आनंदपाल की रौबिनहुड की छवि गढ़ने में लगा था. आनंदपाल के एनकाउंटर को यह संगठन भुनाने में लगा है. राजस्थान विधानसभा चुनाव सन 2018 में होने वाले हैं. हो सकता है, इस का असर चुनाव पर पड़े.

यह भी हो सकता है कि इस घटना के बाद पश्चिमी राजस्थान में मदेरणा और मिर्धा परिवारों के सियासी पतन के बाद जाटों के नए नेता के रूप में उभर रहे हनुमान बेनीवाल फिर भाजपा में आ जाएं. सन 2009 तक वह बीजेपी में थे, लेकिन बाद में आनंदपाल की वजह से वह पार्टी छोड़ गए थे.

आनंदपाल के मामले को ले कर वह लगातार सरकार को घेरते रहे हैं. फिलहाल वह निर्दलीय विधायक हैं. पश्चिमी राजस्थान जाट बाहुल्य है. ऐसे में बेनीवाल किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए फायदेमंद हो सकते हैं.

आनंदपाल सिंह का भले ही अंत हो चुका है, पर याद करने वाले उसे अपनीअपनी तरह से याद करते रहेंगे. उस की मौत के बाद जो लोग उस के एनकाउंटर की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं, राजपूत हिम्मत सिंह की पत्नी ममता कंवर ने न्याय मांगते हुए उन पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं. हिम्मत सिंह की हत्या आनंदपाल ने ही की थी. ममता कंवर ने एक लिखित संदेश और वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किया है.

उन्होंने आनंदपाल सिंह का समर्थन कर रहे राजपूतों से पूछा है कि क्या कसूर था उन के पति राजपूत हिम्मत सिंह का, जिन की शादी हुए कुछ ही समय हुआ था और आनंदपाल सिंह ने उन्हें मार दिया था. यही नहीं, उन्होंने श्याम प्रताप सिंह रूवा, राजेंद्र सिंह राजपूत और आनंदपाल के एनकाउंटर में शामिल कमांडो सोहन सिंह तंवर पर चली गोलियों का हिसाब मांगा है.

उन का कहना है कि वह तो असली राजपूत हैं, जबकि आनंदपाल सिंह रावणा राजपूत था. क्या कारण था कि रावणा राजपूत होते हुए भी उस ने असली राजपूतों को मारा, फिर भी किसी राजपूत ने कभी जुबान नहीं खोली.

दरअसल, सन 2016 में जयपुर के विद्याधरनगर इलाके में अलंकार प्लाजा के पास खड़ी एक कार में हिम्मत सिंह राजपूत की कुछ हथियारबंद बदमाशों ने दिनदहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी थी. इस के बाद एसओजी ने 4 लोगों को गिरफ्तार किया था. गिरफ्तार किए गए सोहन सिंह उर्फ सोनू पावटा और अजीत पावटा नागौर के पावटा के रहने वाले थे.

पूछताछ में पता चला कि ये दोनों कुख्यात बदमाश आनंदपाल सिंह के सहयोगी थे. उन्होंने स्वीकार किया है कि आनंदपाल सिंह के कहने पर उन्होंने ही हिम्मत सिंह की हत्या की थी. दोनों के खिलाफ नागौर के कुचामनसिटी, डीडवाना, मुरलीपुरा और जोधपुर के चौपासनी थाने में हत्या, हत्या के प्रयास, लूट, अपहरण, मारपीट और अवैध हथियारों के करीब 15 मुकदमे दर्ज हैं.

आनंदपाल सिंह की मौत हो चुकी है. राजस्थान के राजपूतों ने इसे अपनी शान से जोड़ लिया है. यही वजह है कि वे उस का अंतिम संस्कार तब तक न करने पर अड़े हैं, जब तक उस के एनकाउंटर की सीबीआई जांच नहीं कराई जाएगी. वैसे इस एनकाउंटर से वसुंधरा सरकार को नुकसान हो सकता है.