विधवा से इश्क में मिली मौत – भाग 3

उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से 10 किलोमीटर दूर एक छोटा सा कस्बा है-सचेंडी. इसी कस्बे में चंद्रिका सिंह अपने परिवार के साथ रहते थे. उन के परिवार में पत्नी के अलावा एक बेटी आशा उर्फ बिट्टी तथा बेटा बदन सिंह था. चंद्रिका सिंह की कस्बे में प्लास्टिक के सामानों की दुकान थी. दुकान की कमाई से वह अपने परिवार का भरणपोषण करता था.

चंद्रिका सिंह की बेटी आशा बेहद खूबसूरत थी. जवान होने पर उस की सुंदरता में और भी निखार आ गया था. आशा ने हाईस्कूल की परीक्षा अर्मापुर कालेज से पास कर ली थी. वह आगे भी पढ़ना चाहती थी. लेकिन मांबाप ने उस की पढ़ाई बंद करा दी. उस के बाद वह मां के घरेलू काम में हाथ बंटाने लगी.

चंद्रिका सिंह को अब जवान बेटी के ब्याह की चिंता सताने लगी थी. वह उस के योग्य वर की खोज में जुट गए थे. वह अपनी लाडली बेटी का ब्याह उस घर में करना चाहते थे, जहां उसे किसी चीज का अभाव न हो और परिवार भी बड़ा न हो. काफी प्रयास के बाद उन की तलाश बाबू सिंह पर जा कर खत्म हुई.

बाबू सिंह कानपुर शहर में पनकी गंगागंज (भाग एक) की ईडब्लूएस कालोनी में रहता था. वह मूल निवासी तो औरैया के गांव धुवखरी का था, लेकिन सालों पहले कानपुर आ गया था. 3 भाइयों में वह सब से बड़ा था. कानुपर शहर में वह फेरी लगा कर चटाई व पायदान बेचता था. इस धंधे में उस की अच्छी कमाई थी. मातापिता गांव में रहते थे और खेतीबाड़ी से गुजारा करते थे.

चंद्रिका सिंह को बाबू सिंह पसंद आया तो उन्होंने आशा का विवाह उस के साथ कर दिया. शादी के बाद आशा बाबू सिंह की दुलहन बन कर जब ससुराल आई तो बाबू सिंह अपने भाग्य पर इतरा उठा.

शादी के बाद आशा पति के साथ पनकी गंगागंज कालोनी में रहने लगी. दोनों ने बड़े प्यार से जिंदगी की शुरुआत की. हंसीखुशी से 5 वर्ष कब बीत गए, दोनों में से किसी को पता ही नहीं चला. इन 5 सालों में आशा ने एक बेटे को जन्म दिया, जिस का नाम पंकज रखा. प्यार से पतिपत्नी उसे गोलू कह कर बुलाते थे. पंकज के जन्म से उन की खुशियां दोगुनी बढ़ गईं.

गोलू के जन्म के बाद जब घर खर्च बढ़ा तो आशा भी पति के धंधे में हाथ बंटाने लगी. बाबू सिंह जब फेरी पर चला जाता तो आशा घर के बाहर चटाईपायदान की दुकान सजा लेती.

शुरू में तो उस की बिक्री बहुत कम हुई, लेकिन धीरेधीरे उस की बिक्री होने लगी और कमाई भी होने लगी. इस तरह दोनों की कमाई से घर खर्च मजे से चलने लगा और चार पैसे बचने भी लगे.

समय धीरेधीरे बीतता रहा. समय के साथ पंकज बड़ा होता गया. आशा बेटे को पढ़ाना चाहती थी, लेकिन पंकज का मन पढ़ाई में कम आवारागर्दी में ज्यादा था. उस का स्वभाव भी जिद्दी था. उस की जिद के आगे मांबाप कमजोर पड़ जाते.

आशा उर्फ बिट्टी का जीवन हंसीखुशी से बीत रहा था. वह पति के साथ खुश भी थी. लेकिन उस की यह खुशी ज्यादा दिनों तक कायम न रह सकी. आशा पर कुदरत ने ऐसा कहर बरपाया कि उस के जीवन में ग्रहण लग गया और वह परेशान हो उठी.

हुआ यह कि एक रोज आशा के पति बाबू सिंह को तेज बुखार आया, जिस के बाद उस की मौत हो गई.

पति की आकस्मिक मौत से आशा टूट गई. क्योंकि वह 35 वर्ष की उम्र में ही विधवा हो गई थी.

पति की मौत के बाद आशा की आमदनी आधी रह गई थी. साथ ही घरगृहस्थी का बोझ भी उस के कंधों पर आ गया था. आमदनी बढ़ाने के लिए आशा अब बाजार में भी दुकान लगाने लगी थी. उस का बेटा पंकज उर्फ गोलू अब तक 15 साल का हो चुका था. वह भी मां के काम में हाथ बंटाने लगा था. इस तरह एक बार फिर आशा की जिंदगी पटरी पर आ गई थी.

इन्हीं दिनों आशा के घर दीपक सिंह का आनाजाना शुरू हुआ. दीपक सिंह पनकी गंगागंज (भाग एक) में अपनी मां तारावती व भाई दयानंद सिंह के साथ रहता था. दयानंद सिंह पनकी इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित एक जूता फैक्ट्री में काम करता था. उस ने अपने छोटे भाई दीपक सिंह को भी जूता फैक्ट्री में ही नौकरी दिलवा दी थी. 28 वर्षीय दीपक सिंह हट्टाकट्टा जवान था और ठाटबाट से रहता था. उस के पिता रामसिंह की मौत हो चुकी थी.

दीपक सिंह दबंग किस्म का था. आशा उसे भाव देती थी. आशा को जब भी कोई परेशानी होती, वह पप्पू को बताती थी. पप्पू उस की परेशानी दूर करने में मदद कर देता था. पप्पू की दबंगई के कारण आशा से कोई उलझने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था.

पप्पू ने अपनी दबंगई से पनकी बाजार में आशा को दुकान सजाने को जमीन भी कब्जा करा दी थी. उस के इस अहसान की आशा कायल थी. पप्पू से आशा उम्र में लगभग 10 वर्ष बड़ी थी.

दीपक सिंह जब भी खाली होता था, आशा के पास आ कर बैठ जाता था. उम्र में छोटा होने के कारण वह आशा को भाभी कहता था और देवर के रिश्ते से हंसीठिठोली भी कर लेता था. इसी हंसीमजाक ने दीपक सिंह के मन में आशा के प्रति प्रेम का बीज अंकुरित कर दिया और जब वह अपने पर काबू नहीं रख सका तो दोनों के बीच अवैध संबंध बन गए.

उस दिन के बाद से दीपक सिंह और आशा के बीच एक नया रिश्ता कायम हो गया. उन के बीच की सारी दूरियां भी खत्म हो गईं. चूंकि आशा अधिकांश समय घर में अकेली ही रहती थी. लिहाजा दीपक को मिलने में कोई दिक्कत नहीं होती थी.

जवान व बलिष्ठ भुजाओं वाले दीपक सिंह का साथ पा कर आशा के जीवन में बहार आ गई थी. उसे अब पति की कमी नहीं खलती थी. दीपक सिंह भी आशा के जिस्म की खुशबू से मदहोश था. उसे जब भी मौका मिलता था, वह उस के साथ मिलाप कर लेता था.

नीरा : क्या पिता को उनका पहला प्यार लौटा पाई काव्या

आज नीरा का मन सुबह से ही न जाने क्यों उदास था. कालेज  के गेट से बाहर निकलते ही कार से उतरते हुए एक व्यक्ति की ओर उस का ध्यान गया तो वह धक से रह गई. कार रोक कर उस ने अधेड़ उम्र के युवक को एक लंबे अरसे बाद देख कर पहचानने की कोशिश की. वही पुराना अंदाज, चेक की शर्ट, गौगल्स से झांकती हुई आंखें कुछ बयान कर रही थी. ‘कहीं ये उस का वहम तो नहीं’ ये सोचते हुए उस ने अपने मन को तसल्ली देने की कोशिश की. नहीं यह दीप तो नहीं हो सकता वह तो कनाडा में है.

वह यहां कैसे हो सकता है? कुछ पल के लिए तो अचानक ही आंखों से निकलती अविरल धारा ने अतीत के पन्नों को खोल कर रख दिया. उस ने रिवर्स करते हुए कार को वापस कालेज की ओर मोड़ा. कार पार्किंग में खड़ी करते ही मिसेज कपूर मिलते ही बोल पड़ी, ‘‘अरे नीरा तुम तो आज आंटी को होस्पीटल ले जाने वाली थी चैकअप के लिए.’’ ‘‘सौरी, डाक्टर का अपौयमैंट कल का है. मैं भूल गई थी.’’ ‘‘नीरा तुम काम का टैंशन आजकल कुछ ज्यादा ही लेने लगी हो. मेरी मानो तो कुछ दिन मां को ले कर हिल स्टेशन चली जाओ.’’ मिसेज कपूर ने नीरा को प्यार से डांटने के अंदाज से कहा.

‘‘ओ के मैडम. जो हुकुम मेरी आका,’’ कहते हुए नीरा ने व्हाइट कलर की कार की ओर नजर उठाई. तब तक दीप कालेज के गेट के अंदर आ चुका था. यह कपूर मैडम भी बातोंबातों में कभी इतना उलझा लेती हैं मन ही मन बुदबुदाती हुई नीरा वापस अपने फाइन आर्ट डिपार्टमैंट की ओर चली गई. देखा तो बरामदे में हाथ में फाइल लिए खड़ी लड़की ने हैलो मैडम कह कर हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए उस से कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी मुझे मैडम नीरा दास से मिलना है.’’

‘‘मैं ही नीरा दास हूं. फाइन आर्ट में ऐडमिशन लेना है क्या?’’ ‘‘अरे वाह, सही पकड़ा आप ने. पर मैम आप को कैसे पता चला कि मुझे फाइन आर्ट में ऐडमिशन चाहिए?’’ ‘‘बातें तो अच्छी कर लेती हो. मेरे पास कोई साइंस या कौमर्स का तो स्टूडैंट आएगा नहीं,’’ नीरा ने कमरे का ताला खोलते हुए कहा. तभी पीछेपीछे अंदर दीप भी आ गया और बेतकल्लुफ हो कर बिना किसी दुआसलाम कर आ कर कुरसी पर बैठ गया. काव्या को पापा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा.

पर चाह कर भी वह कुछ नहीं बोल पाई. मन ही मन सोचने लगी कि पापा की तो बाद में घर पहुंच कर क्लास लूंगी.  उस ने नीरा से कहा कि मैडम मैं फाइन आर्ट में ऐडमिशन लेना चाहती हूं. मैं उदयपुर से आई हूं, ‘‘अरे झीलों की नगरी से. ब्यूटीफुल प्लेस.’’ ‘‘आप भी गई हैं वहां पर.’’ ‘‘हां एक बार कालेज टूर पर गई थी न चाहते हुए भी अचानक उस के मुंह से निकल ही गया.’’ ‘‘अरे वाह तब तो मैं बहुत लकी हूं. आप को मेरा शहर पसंद है. मेरे पापा कनाडा में रहते थे पर अब जयपुर ही आ गए हैं पर मैं बचपन से ही अपने नानानानी के पास उदयपुर में रह रही हूं.’’

‘‘काव्या बेटा अपनी पूरी हिस्ट्री बाद में बता देना, पहले अपना फार्म तो  फिलअप कर दो,’’ दीप ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा. नीरा ने संभलते हुए कहा, ‘‘अरे आप बैठिए मैं फौर्म ले कर अभी आती हूं.’’ पास में ही पड़े हुए पानी की बोतल को मेज पर रखते हुए फोन में चाय का और्डर देते हुए नीरा ने काव्या से कहा कि पहले काउंटर नंबर 5 पर जा कर फीस जमा कर दो.

पापा के चश्मे से झांकती हुई आंखों से काव्या ने पल भर में ही जान लिया कि जरूर नीरा मैडम व पापा के बीच कोई पुराना रिश्ता है. ‘‘पापा आप ठीक तो हैं? काव्या ने पापा के चेहरे पर छलकती पसीने की बूंदों को देख कर कहा.’’ ‘‘डौंट वरी. आई एम फाइन,’’ दीप ने रूमाल से अपने चेहरे को पौंछते हुए कहा. तभी कैंटीन का वेटर चाय ला कर टेबल पर रख गया. ‘‘ओ के पापा. मैं काउंटर से जब तक फौर्म ले कर आती हूं,’’ कहते हुए काव्या बाहर निकल गई.

‘‘सौरी, काव्या कुछ ज्यादा ही बोलती है,’’ कहते हुए एक ही सांस में दीप पूरा गिलास पानी गटागट पी गया. कलफ लगी गुलाबी रंग की साड़ी, माथे पर छोटी सी बिंदी, होंठों पर गुलाबी रंग की हलकी सी लिपस्टिक, छोटा सा बालों का जूड़ा, कलाई में घड़ी सौम्यता व सादगी की वही पुरानी झलक. आज 20 वर्षों के बाद भी नीरा को मूक दर्शक की तरह निहारते हुए कुछ देर बाद दीप ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘नीरा घर में सब कैसे हैं?’’

‘‘तुम्हारे कनाडा जाने के बाद ही पापा का हार्ट फेल हो  गया. सदमे में मां की हालत बिगड़ती चली गई. बस जिंदगी जैसेतैसे गुजर रही है.’’ ‘‘अरे इतना कुछ हो गया और तुम ने खबर तक नहीं की… क्या मैं इतना पराया हो गया?’’ ‘‘अपने भी तो नहीं रहे. तुम्हारी शादी के बारे में तो मुझे पता चल गया था. फिर मेरे पास तुम्हारा कोई पताठिकाना भी तो नहीं था,’’ नीरा ने साड़ी के पल्लू से आसुंओं को छिपाने की कोशिश की.

‘‘तुम्हारी अपनी फैमिली?’’

‘‘मैं ने शादी नहीं की.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्या शादी के बिना इन्सान जी नहीं सकता?’’

‘‘अरे, मेरा ये मतलब नहीं था.’’

‘‘अब कूची और कैनवास ही मेरे हमसफर साथी हैं जिन में जब चाहे जिंदगी के मनचाहे रंग मैं भर सकती हूं.

बिना किसी रोकटोक के.’’ बात पूरी हो पाती इस से पहले काव्या हाथों में फौर्म ले कर आते ही चहकते हुई बोली, ‘‘मैडम ये रहा फौर्म. प्लीज आप जल्दी से फिलअप करवा दीजिए.’’

‘‘काव्या यहां बैठो मैं भरवा देती हूं. जब तक दीप तुम मेरी आर्ट गैलेरी देख सकते हो,’’

नीरा मैडम के मुंह से पापा का नाम सुन कर काव्या ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे आप एकदूसरे को जानते हैं क्या?’’

‘‘हां काव्या नीरा मेरी क्लासमेट रह चुकी हैं पूरे 3 साल तक राजस्थान यूनिवर्सिटी में.’

’ ‘‘वाउ… अरे कमाल है. आप ने तो कभी बताया ही नहीं कि जयपुर में भी आप कभी रह चुके हैं.’’

‘‘बेटा हमें जयपुर छोड़े तो 20-22 साल हो गए. कभी बताने का मौका ही नहीं मिला. एक के बाद एक परेशानियां जीवन में आती रही.’’

‘‘फौर्म में दीपक बजाज के बाद लेट जया बजाज लिखते ही नीरा ने काव्या के फार्म पर हाथ रखते हुए कहा कि तुम कहीं गलत तो नहीं हो. यह लेट क्यों लिखा है.’’

‘‘नहीं मैम मेरी मम्मी अब इस दुनिया में नहीं है.’’

‘‘ओह, आई एम वेरी सौरी.’’  ‘‘नीरा काव्या जब 2 साल की ही थी तब ही बिजनैस मीटिंग के लिए जाते  वक्त एक कार ऐक्सीडैंट में जया…’’ दीप ने रूंधे गले से कहा.

‘‘मम्मी की मौत के बाद नानानानी कनाडा छोड़ कर इंडिया आ गए तब से मैं उदयपुर में हूं. पापा से तो बस कभी साल में एकाध बार ही मिल पाती थी. पर अब हमेशा पापा के साथ ही रहूंगी.’’ काव्या की आंखों में डबडबाते आंसुओं को देख कर नीरा ने काव्या का हाथ पकड़ कर कहा,

‘‘सौरी मैं ने गलत टाइम पर यह बात की. चलो पहले यह फौर्म भर कर जल्दी से जमा करो आज लास्ट डेट है.’’

‘‘मैम प्लीज आप का मोबाइल नं. मिल जाएगा, कुछ जानकारी लेनी हो तो…’’

‘‘नो प्रौब्लम,’’ नीरा ने अपना विजिटिंग कार्ड काव्या को दे दिया.

फौर्म भर कर काव्या फौर्म जमा करने चली गई तब दीप ने अपना कार्ड देते हुए कहा कि अब मैं भी परमानेंटली फिर से जयपुर में ही आ गया हूं. कनाडा हमें रास नहीं आया.’’ ‘‘पहले जया फिर मम्मीपापा को खो देने के बाद वहां अब बचा ही क्या है? इन 20-22 सालों में मैं ने सब कुछ खो दिया है. सिवा पुरानी यादों के.’’

‘‘ओ के बाद में मिलते हैं.’’ घर आ कर नीरा की आंखों में पुरानी यादों की धुंधली तसवीरें ताजा होने लगी. न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकल गया मां आज दीप मिले थे.’’

‘‘कौन दीप, वही सेठ भंवर लालजी का बेटा.’’

‘‘हां मां.’’

‘‘अब यहां क्या करने आया है?’’

‘‘मां उस के साथ बहुत बड़ी ट्रैजडी हो गई. अंकलआंटी भी चल बसे और पत्नी भी. बेटी का ऐडमिशन कराने आए थे.’’

‘‘ऐसे खुदगर्ज इंसान के साथ ऐसा ही होना चाहिए.’’

‘‘मां ऐसा मत कहो. क्या पता कोई मजबूरी रही हो.’’ बेमन से ही डाइनिंग टेबल पर रखा खाना मां को परोसते हुए नीरा ने कहा, ‘‘मां आप खाना खा लीजिए. मुझे भूख नहीं है. दवा याद से ले लेना. आज मेरे सिर में दर्द है मैं जल्दी सोने जा रही हूं.’’

अपने कमरे में जा कर उस ने अलमारी से पुराना अलबम निकाला ब्लैक ऐंड व्हाइट फोटोज का रंग भी उस के जीवन की तरह धुंधला पड़ चुका था. उदयपुर में सहेलियों की बाड़ी में दीप के साथ की फोटो के अलावा एक नाटक हीररांझा की देख कर पुरानी यादें ताजा होती गईं.

उसी दौरान तो उस की दीप से दोस्ती गहरी होती गई पर बीए औनर्स पूरा होते ही दीप जल्दी आने की कह कर अपने पापा के अचानक बीमारी की खबर आते ही कनाडा चला गया. फिर लौट कर ही नहीं आया. हां कुछ दिनों तक कुछ पत्र जरूर आए पर बाद में वह भी बंद. बाद में दोस्तों से पता चला कि उस ने किसी बिजनैसमेन की बेटी से शादी कर ली है.

वह सोचने लगी उसे तो ऐसे खुदगर्ज इंसान दीप से बात ही नहीं करना चाहिए था ताकि उसे अपनी गलती का एहसास तो हो. पर मन कह रहा था नहीं दीप आज भी मैं तुम्हें नहीं भुला पाई हूं. तुम्हारे बिना पूरा जीवन मैं ने यादों के सहारे बिता दिया. पूरी रात आंखों में पुरानी यादों को तसवीरों को सहेजते देखते कब सवेरा हो गया उसे पता ही नहीं चला.  समय पंख लगा कर तेजी से बीत रहा था. न जाने क्यों न चाहते हुए भी क्लास में काव्या को देखते ही नीरा को उस में दीप की ही छवि नजर आती. उस की हंसी, बातचीत का पूरा अंदाज उसे दीप जैसा ही लगता. रविवार के दिन वह सुबह उठ कर जैसे ही लौन में चाय पीने बैठी ही थी कि बाहर हौर्न की आवाज सुनाई दी.

उस ने माली को आवाज दे कर कहा कि रामू काका देखना कौन है? गेट खोलते ही देखा तो वह चौंक पड़ी देखा. दीप और काव्या हाथों में गुलाब का गुलदस्ता ले कर आ रहे हैं.

‘‘अरे आप लोग यों अचानक.’’ ‘‘ढेर सारी शुभकामनाएं. हैप्पी बर्थडे.’’

‘‘थैंक्स, पर मैं तो कभी अपना बर्थडे सैलिब्रेट नहीं करती,’’ न चाहते हुए उस ने गुलाब के फूलों का बुके ले ही लिया.

‘‘क्या करूं बहुत दिनों से अपने मन की बात करना चाहता था. तुम से माफी मांगना चाहता था. आज रातभर काव्या ने मुझे सोने नहीं दिया.

हमारे कालेज टाइम से अलग होने तक की कहानी पूछती रही. मैं तुम्हारा गुनहगार हूं. मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही थी तुम्हारे घर आने की.’’

‘‘नीरा मैम, आप की मैं आज पूरी गलतफहमी दूर कर देती हूं. मेरे दादाजी के बिजनैस में घाटा लग जाने पर पापा को कनाडा अपनी बीमारी का बहाना बना कर बुला लिया और वहां अपने बिजनैस पार्टनर की बेटी मेरी मम्मी से जबरन ही शादी करवा दी. यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि पापा को सोचने का टाइम भी नहीं मिला. पापा की आंखों में पछतावे की लकीरें मैं कई सालों से महसूस कर रही हूं. वह मन के तार से आप से आज भी जुड़े हैं. आप से उन का दर्द का रिश्ता जरूर है. प्लीज आप उन्हें माफ कर दीजिए,’’ काव्या ने एक नया रिश्ता जोड़ने की गरज से अपनी बात कही.

नीरा वहां बैठी मौन मूक सी आकाश में शून्य को निहारती रही. काव्या व दीप को विदा कर उस ने चुपचाप अपनी कार निकाली. यों अचानक ही दीप व काव्या के आ जाने से उस के जीवन में एक भूचाल सा आ गया था.

दूसरे दिन से फिर वह ही रूटीन कालेज में क्लासेज, मीटिंग के साथ पैंटिंग प्रदर्शनियों की तैयारी में व्यस्तता. प्रदर्शनी में एक पूरी सीरीज काव्या की पैंटिंग्स की थी. बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, नारी सशक्तिकरण व सीनियर सिटीजन थीम पर. उस की उंगुलियों में सचमुच जादू था. काव्या की पैंटिंग के चर्चे पूरे कालेज में मशहूर होने लगे.

3 साल पलक झपकते ही कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला. इन 3 सालों में वह और दीप बमुश्किल 5-6 बार ही मिले होंगे पर फोन में अकसर बात हो जाती थी फिर वह चाहे काव्या की पढ़ाई को ही ले कर हो.

‘‘काव्या ने बीए फाइनल ईयर आर्ट में पूरे क्लास में टौप किया. काव्या ने पार्टी अपने घर में रखी. दोस्तों के चले जाने के बाद बातों ही बातों में उस ने आखिर अपने मन की बात कह ही दी. नीरा आंटी लगता है कि अब तक आप ने पापा को माफ कर दिया होगा. कुछ दिनों बाद मेरी शादी भी हो जाएगी और पापा तो एकदम अकेले ही रह जाएंगे. मेरे दादाजी की गलतियों की सजा पापा ने 20-22 सालों तक भुगत ली. फिर आप ने भी तो पूरा जीवन अकेले ही गुजार लिया.’’

‘‘जीवन के आखिरी दिनों में बुढ़ापे में एकदूजे के सहारे की जरूरत  होती है. चाहे वह एक पति के रूप में हो या दोस्त के रूप में हो या फिर साथी के रूप में. अगर मैं इस अधूरी कहानी के पन्नों को पूरा कर सकूं और एक कोरे कैनवास में चंद लकीरें रंगों की भर सकूं तो मैं समझूंगी कि मेरी एक बेटी होने का मैं ने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया,’’

काव्या की बातें सुन कर चाह कर भी नीरा कुछ बोल नहीं पाई. काव्या की बातों ने उसे सोचने को मजबूर कर दिया. अब तो धीरेधीरे कुछ ही दिनों में काव्या ने नीरा के मन को जीत लिया. नीरा के मन में भी काव्या के प्रति वात्सल्य, अपनेपन, प्यार का बीज प्रस्फुटित हो चुका था. चंचल व निश्चल मन की काव्या की जिद के आगे उसे आखिर झुकना ही पड़ा, अपना फैसला बदलना पड़ा. एक दिन कोर्ट में जा कर सिविल मैरिज फिर एक छोटी सी पार्टी के बाद अब वह मिस नीरा दास से मिसेज नीरा दास बजाज बन गई.

बुढ़ापे में नारी को एक पुरुष के सहारे की जरूरत होती है. न चाहते हुए भी उसे अपनी धारणा बदलनी पड़ी. उस के सूने मन के किसी कोने में एक बेटी की चाहत थी वह आज पूरी हो गई थी. काव्या के रूप में उसे एक प्यारी सी बेटी मिल गई. पुनर्मिलन की इस मधुर बेला में काव्या ने अटूट रिश्तों की डोर के बंधन में बांधते हुए विश्वास, प्रेम व त्याग की ज्योति जगमगा कर अपने पापा दीप व नीरा आंटी के रंग हीन सूने जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर कर दिया.

विधवा से इश्क में मिली मौत – भाग 2

पुलिस टीम को जब सफलता नहीं मिली तो एसएचओ विक्रम सिंह ने अपने खास मुखबिरों को लगा दिया. उन्होंने दीपक के खास दोस्तों पर भी निगाह रखने को कहा. पुलिस के मुखबिर शराब के ठेकों तथा चायपान की दुकानों पर सक्रिय हो गए. इन्हीं ठिकानों पर दीपक सिंह अपने यारदोस्तों के साथ उठताबैठता और खातापीता था.

19 जनवरी, 2023 की सुबह एसएचओ विक्रम सिंह थाने पहुंचे तो उन्हें एक मुखबिर इंतजार करता मिला. विक्रम सिंह उसे अच्छी तरह पहचानते थे, लिहाजा पूछ बैठे, ‘‘कोई खास बात?’’

मुखबिर ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो विक्रम सिंह उसे अलग कमरे में ले गए. एकांत में मुखबिर ने जो कुछ बताया, उसे सुन कर वह चौंक गए. फिर उन्होंने पूछा, ‘‘यह बात तुम्हें कैसे पता चली?’’

‘‘सरकार, मैं ने यह बात दीपक के दोस्तों के मुंह से सुनी है.’’ मुखबिर ने बताया.

‘‘ठीक है तुम जाओ. मैं देखता हूं. मगर होशियार रहना, किसी को इस की खबर न लगे. अगर कोई गड़बड़ हो तो मुझे खबर करना.’’ कह कर विक्रम सिंह ने उसे भेज दिया.

फिर विक्रम सिंह पुलिस टीम को साथ ले कर पनकी गंगागंज (भाग एक) जा पहुंचे. उन्होंने जीप एक मकान के सामने रुकवा दी. यह मकान विधवा आशा उर्फ बिट्टी का था. इस मकान में वह अपने बेटे पंकज उर्फ गोलू के साथ रहती थी. गोलू बाहर ही खड़ा था. एसएचओ ने उस से पूछा, ‘‘आशा कहां है?’’

‘‘मम्मी घर में हैं,’’ पंकज उर्फ गोलू ने जवाब दिया, ‘‘कोई खास बात है क्या साहब?’’

‘‘ब्लैकमेल के मामले में तुम्हें और आशा को थाने चलना पड़ेगा.’’ एसएचओ ने बहाना बनाया.

पंकज घर के अंदर गया और कुछ ही क्षणों में अपनी मां आशा को ले कर घर के बाहर आ गया. आशा के साथ उस का भाई बदन सिंह भी था. पुलिस टीम ने उन तीनों को जीप में बिठा लिया. फिर उन्हें थाने ला कर अपने कमरे में बिठाया. महिला कांस्टेबल रेनू और प्रीति को भी उन्होंने बुलवा लिया.

‘‘अब बताओ आशा, दीपक सिंह का कत्ल क्यों और कैसे हुआ?’’ एसएचओ ने सवाल दागा.

‘‘इस बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम,’’ आशा ने बिना डरे जवाब दिया.

‘‘ज्यादा चालाक मत बनो,’’ विक्रम सिंह ने उसे डपटा, ‘‘हमें सब पता चल गया है. अब तुम्हारी भलाई इसी में है कि सचसच बता दो, वरना तुम्हारी जुबान खुलवाने के लिए ये दोनों काफी हैं.’’ विक्रम सिंह ने कांस्टेबल प्रीति और रेनू की ओर इशारा किया.

‘‘मैं सच कह रही हूं साहब. मैं कुछ नहीं जानती. मुझे फंसाया जा रहा है.’’ आशा ने हाथ जोड़ते हुए कहा.

‘‘फिर झूठ,’’ विक्रम सिंह ने धमकाने के लिए बेंत तान लिया, ‘‘क्या तेरा दीपक से कोई ताल्लुकात नहीं था?’’

दीपक सिंह का नाम सुनते ही आशा का चेहरा जर्द पड़ गया. उस की आंखें भर आईं. वह भर्राए गले से बोली, ‘‘साहब, दीपक ने मेरा जीना दूभर कर दिया था. वह जिस्म तो नोचता ही था, ब्लैकमेलिंग कर रुपयों की मांग भी करता था. रुपया न देने पर समाज में बदनाम करने की धमकी देता था. उस ने मेरे बेटे का भी जीना दूभर कर दिया था. आजिज आ कर मैं ने भाई बदन सिंह और बेटे पंकज के साथ मिल कर उस की हत्या कर दी.’’

आशा उर्फ बिट्टी ने हत्या का जुर्म कुबूला तो फिर उस के बेटे पंकज उर्फ गोलू तथा भाई बदन सिंह ने भी दीपक सिंह की हत्या का जुर्म कुबूल कर लिया. बदन सिंह ने हत्या में प्रयुक्त खून सनी ईंट भी बरामद करा दी, जो उस ने झाडि़यों में छिपा दी थी. मोबाइल फोन तोड़ कर गहरे नाले में फेंक दिया था, जिसे पुलिस बरामद नहीं कर सकी.

आशा व बदन सिंह ने पुलिस को यह भी जानकारी दी कि दीपक की हत्या की जानकारी उस के दोस्तों को थी, क्योंकि उस के एक दोस्त शशांक से फोन करा कर ही उसे बुलाया गया था.

यह जानकारी मिलते ही पुलिस टीम ने मृतक दीपक के दोस्तों शशांक श्रीवास्तव, सत्येंद्र सिंह, देवेंद्र उर्फ जैकी तथा जितेंद्र उर्फ जीतू को भी गिरफ्तार कर लिया.

चूंकि आरोपियों ने हत्या का जुर्म कुबूल कर लिया था और आलाकत्ल भी बरामद करा दिया था, अत: मृतक के भाई दयानंद सिंह की तरफ से आशा उर्फ बिट्टी, पंकज उर्फ गोलू तथा बदन सिंह के खिलाफ धारा 302/120बी आईपीसी के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया.

एसएचओ विक्रम सिंह ने दीपक सिंह की हत्या का परदाफाश करने तथा हत्यारों को गिरफ्तार करने की जानकारी पुलिस अधिकारियों को दी तो डीसीपी (पश्चिम) विजय ढुल ने आननफानन में प्रैसवार्ता कर केस का खुलासा कर दिया.

पुलिस कमिश्नर वी.पी. जोगदंड ने हत्या का खुलासा करने वाली टीम को 50 हजार रुपए ईनाम देने की घोषणा की.

बहरहाल, पुलिस की जांच और आरोपियों के बयानों के आधार पर इश्क में अंधे एक ऐसे युवक की कहानी सामने आई, जिसे विधवा के प्यार में अपनी जान गंवानी पड़ी.

झगड़ा : आखिर क्यों बैठी थी उस दिन पंचायत

रात गहराने लगी थी और श्याम अभीअभी खेतों से लौटा ही था कि पंचायत के कारिंदे ने आ कर आवाज लगाई, ‘‘श्याम, अभी पंचायत बैठ रही?है. तुझे जितेंद्रजी ने बुलाया है.’’

अचानक क्या हो गया? पंचायत क्यों बैठ रही है? इस बारे में कारिंदे को कुछ पता नहीं था. श्याम ने जल्दीजल्दी बैलों को चारापानी दिया, हाथमुंह धोए, बदन पर चादर लपेटी और जूतियां पहन कर चल दिया.

इस बात को 2-3 घंटे बीत गए थे. अपने पापा को बारबार याद करते हुए सुशी सो गई थी. खाट पर सुशी की बगल में बैठी भारती बेताबी से श्याम के आने का इंतजार कर रही थी.

तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, तो भारती ने सांकल खोल दी. थके कदमों से श्याम घर में दाखिल हुआ.

भारती ने दरवाजे की सांकल चढ़ाई और एक ही सांस में श्याम से कई सवाल कर डाले, ‘‘क्या हुआ? क्यों बैठी थी पंचायत? क्यों बुलाया था तुम्हें?’’

‘‘मुझे जिस बात का डर था, वही हुआ,’’ श्याम ने खाट पर बैठते हुए कहा.

‘‘किस बात का डर…?’’ भारती ने परेशान लहजे में पूछा.

श्याम ने बुझी हुई नजरों से भारती की ओर देखा और बोला, ‘‘पेमा झगड़ा लेने आ गया है. मंगलगढ़ के खतरनाक गुंडे लाखा के गैंग के साथ वह बौर्डर पर डेरा डाले हुए है. उस ने 50,000 रुपए के झगड़े का पैगाम भेजा है.’’

‘‘लगता है, वह मुझे यहां भी चैन से नहीं रहने देगा… अगर मैं डूब मरती तो अच्छा होता,’’ बोलते हुए भारती रोंआसी हो उठी. उस ने खाट पर सोई सुशी को गले लगा लिया.

श्याम ने भारती के माथे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘नहीं भारती, ऐसी बातें क्यों करती हो… मैं हूं न तुम्हारे साथ.’’

‘‘फिर हमारे गांव की पंचायत ने क्या फैसला किया? क्या कहा जितेंद्रजी ने?’’ भारती ने पूछा.

‘‘सच का साथ कौन देता है आजकल… हमारी पंचायत भी उन्हीं के साथ है. जितेंद्रजी कहते हैं कि पेमा का झगड़ा लेने का हक तो बनता है…

‘‘उन्होंने मुझ से कहा कि या तो तू झगड़े की रकम चुका दे या फिर भारती को पेमा को सौंप दे, लेकिन…’’ इतना कहतेकहते श्याम रुक गया.

‘‘मैं तैयार हूं श्याम… मेरी वजह से तुम क्यों मुसीबत में फंसो…’’ भारती ने कहा.‘‘नहीं भारती… तुम्हें छोड़ने की बात तो मैं सोच भी नहीं सकता… रुपयों

के लिए अपने प्यार की बलि कभी नहीं दूंगा मैं…’’‘‘तो फिर क्या करोगे? 50,000 रुपए कहां से लाओगे?’’ भारती ने पूछा.

‘‘मैं अपना खेत बेच दूंगा,’’ श्याम ने सपाट लहजे में कहा.

‘‘खेत बेच दोगे तो खाओगे क्या… खेत ही तो हमारी रोजीरोटी है… वह भी छिन गई तो फिर हम क्या करेंगे?’’ भारती ने तड़प कर कहा.

यह सुन कर श्याम मुसकराया और प्यार से भारती की आंखों में देख कर बोला, ‘‘तुम मेरे साथ हो भारती तो मैं कुछ भी कर सकता हूं. मैं मेहनतमजदूरी करूंगा, लेकिन तुम्हें भूखा नहीं मरने दूंगा… आओ खाना खाएं, मुझे जोरों की भूख लगी है.’’

भारती उठी और खाना परोसने लगी. दोनों ने मिल कर खाना खाया, फिर चुपचाप बिस्तर बिछा कर लेट गए.

दिनभर के थकेहारे श्याम को थोड़ी ही देर में नींद आ गई, लेकिन भारती को नींद नहीं आई. वह बिस्तर पर बेचैन पड़ी रही. लेटेलेटे वह खयालों में खो गई.

तकरीबन 5 साल पहले भारती इस गांव से विदा हुई थी. वह अपने मांबाप की एकलौती औलाद थी. उन्होंने उसे लाड़प्यार से पालपोस कर बड़ा किया था. उस की शादी मंगलगढ़ के पेमा के साथ धूमधाम से की गई थी.

भारती के मातापिता ने उस के लिए अच्छा घरपरिवार देखा था ताकि वह सुखी रहे. लेकिन शादी के कुछ दिनों बाद ही उस की सारी खुशियां ढेर हो गई थीं, क्योंकि पेमा का चालचलन ठीक नहीं था. वह शराबी और जुआरी था. शराब और जुए को ले कर आएदिन दोनों में झगड़ा होने लगा था.

पेमा रात को दारू पी कर घर लौटता और भारती को मारतापीटता व गालियां बकता था. एक साल बाद जब सुशी पैदा हुई तो भारती ने सोचा

कि पेमा अब सुधर जाएगा. लेकिन न तो पेमा ने दारू पीना छोड़ा और न ही जुआ खेलना.

पेमा अपने पुरखों की जमीनजायदाद को दांव पर लगाने लगा. जब कभी भारती इस बात की खिलाफत करती तो वह उसे मारने दौड़ता.

इसी तरह 3 साल बीत गए. इस बीच भारती ने बहुत दुख झेले. पति के साथ कुदरत की मार ने भी उसे तोड़ दिया. इधर भारती के मांबाप गुजर गए और उधर पेमा ने उस की जिंदगी बरबाद कर दी. घर में खाने के लाले पड़ने लगे.

सुशी को बगल में दबाए भारती खेतों में मजदूरी करने लगी, लेकिन मौका पा कर वह उस की मेहनत की कमाई भी छीन ले जाता. वह आंसू बहाती रह जाती.

एक रात नशे की हालत में पेमा अपने साथ 4 आवारा गुंडों को ले कर घर आया और भारती को उन के साथ रात बिताने के लिए कहने लगा. यह सुन कर उस का पारा चढ़ गया. नफरत और गुस्से में वह फुफकार उठी और उस ने पेमा के मुंह पर थूक दिया.

पेमा गुस्से से आगबबूला हो उठा. लातें मारमार कर उस ने भारती को दरवाजे के बाहर फेंक दिया.

रोती हुई बच्ची को भारती ने कलेजे से लगाया और चल पड़ी. रात का समय था. चारों ओर अंधेरा था. न मांबाप, न कोई भाईबहन. वह जाती भी तो कहां जाती. अचानक उसे श्याम की याद आ गई.

बचपन से ही श्याम उसे चाहता था, लेकिन कभी जाहिर नहीं होने दिया था. वह बड़ी हो गई, उस की शादी हो गई, लेकिन उस ने मुंह नहीं खोला था.

श्याम का प्यार इतना सच्चा था कि वह किसी दूसरी औरत को अपने दिल में जगह नहीं दे सकता था. बरसों बाद भी जब वह बुरी हालत में सुशी को ले कर उस के दरवाजे पर पहुंची तो उस ने हंस कर उस के साथ पेमा की बेटी को भी अपना लिया था.

दूसरी तरफ पेमा ऐसा दरिंदा था, जिस ने उसे आधी रात में ही घर से बाहर निकाल दिया था. औरत को वह पैरों की जूती समझता था. आज वह उस की कीमत वसूलना चाहता है.

कितनी हैरत की बात है कि जुल्म करने वाले के साथ पूरी दुनिया है और एक मजबूर औरत को पनाह देने वाले के साथ कोई नहीं है. बीते दिनों के खयालों से भारती की आंखें भर आईं.

यादों में डूबी भारती ने करवट बदली और गहरी नींद में सोए हुए श्याम के नजदीक सरक गई. अपना सिर उस ने श्याम की बांह पर रख दिया और आंखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगी.

दूसरे दिन सुबह होते ही फिर पंचायत बैठ गई. चौपाल पर पूरा गांव जमा हो गया. सामने ऊंचे आसन पर गांव के मुखिया जितेंद्रजी बैठे थे. उन के इर्दगिर्द दूसरे पंच भी अपना आसन जमाए बैठे थे. मुखिया के सामने श्याम सिर झुकाए खड़ा था.

पंचायत की कार्यवाही शुरू करते हुए मुखिया जितेंद्रजी ने कहा, ‘‘बोल श्याम, अपनी सफाई में तू क्या कहना चाहता है?’’

‘‘मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है मुखियाजी… मैं ने ठुकराई हुई एक मजबूर औरत को पनाह दी है.’’

यह सुन कर एक पंच खड़ा हुआ और चिल्ला कर बोला, ‘‘तू ने पेमा की औरत को अपने घर में रख लिया है श्याम… तुझे झगड़ा देना ही पड़ेगा.’’

‘‘हां श्याम, यह हमारा रिवाज है… हमारे समाज का नियम भी है… मैं समाज के नियमों को नहीं तोड़ सकता,’’ जितेंद्रजी की ऊंची आवाज गूंजी तो सभा में सन्नाटा छा गया.

अचानक भारती भरी चौपाल में आई और बोली, ‘‘बड़े फख्र की बात है मुखियाजी कि आप समाज का नियम नहीं तोड़ सकते, लेकिन एक सीधेसादे व सच्चे इनसान को तोड़ सकते हैं…

‘‘आप सब लोग उसी की तरफदारी कर रहे हैं जो मुझे बाजार में बेच देना चाहता है… जिस ने मुझे और अपनी मासूम बच्ची को आधी रात को घर से धक्के दे कर भगा दिया था… और वह दरिंदा आज मेरी कीमत वसूल करने आ खड़ा हुआ है.

‘‘ले लीजिए हमारा खेत… छीन लीजिए हमारा सबकुछ… भर दीजिए उस भेडि़ए की झोली…’’ इतना कहतेकहते भारती जमीन पर बेसुध हो कर लुढ़क गई.

सभा में खामोशी छा गई. सभी की नजरें झुक गईं. अचानक जितेंद्रजी अपने आसन से उठ खड़े हुए और आगे बढ़े. भारती के नजदीक आ कर वह ठहर गए. उन्होंने भारती को उठा कर अपने गले लगा लिया.

दूसरे ही पल उन की आवाज गूंज उठी, ‘‘सब लोग अपनेअपने हथियार ले कर आ जाओ. आज हमारी बेटी पर मुसीबत आई है. लाखा को खबर कर दो कि वह तैयार हो जाए… हम आ रहे हैं.’’

जितेंद्रजी का आदेश पा कर नौजवान दौड़ पड़े. देखते ही देखते चौपाल पर हथियारों से लैस सैकड़ों लोग जमा हो गए. किसी के हाथ में बंदूक थी तो किसी के हाथ में बल्लम. कुछ के हाथों में तलवारें भी थीं.

जितेंद्रजी ने बंदूक उठाई और हवा में एक फायर कर दिया. बंदूक के धमाके से आसमान गूंज उठा. दूसरे ही पल जितेंद्रजी के साथ सभी लोग लाखा के डेरे की ओर बढ़ गए.

शराब के नशे में धुत्त लाखा व उस के साथियों को जब यह खबर मिली कि दलबल के साथ जितेंद्रजी लड़ने आ रहे हैं तो सब का नशा काफूर हो गया. सैकड़ों लोगों को अपनी ओर आते देख वे कांप गए. तलवारों की चमक व गोलियों की गूंज सुन कर उन के दिल दहल उठे.

यह नजारा देख पेमा के तो होश ही उड़ गए. लाखा के एक इशारे पर उस के सभी साथियों ने अपने अपने हथियार उठाए और भाग खड़े हुए.

गुरु की शिक्षा : बड़ी मामी से सब क्यों परेशान थे

सारे घर में कोलाहल मचा हुआ था, ‘‘अरे, छोटू, साथ वाला कमरा साफ कर दिया न?’’

‘‘अरे, सुमति, देख तो खाना वगैरह सब तैयार है.’’

‘‘अजी, आप क्यों ऐसे बैठे हैं, जल्दी कीजिए.’’

पूरे घर को पद्मा ने सिर पर उठा रखा था. बड़ी मामी जो आ रही थीं दिल्ली.

वैसे तो निर्मला, सुजीत बाबू की मामी थीं, इस नाते वह पद्मा की ममिया सास हुईं, परंतु बड़े से छोटे तक वह ‘बड़ी मामी’ के नाम से ही जानी जाती थीं. बड़ी मामी ने आज से करीब 8-9 वर्ष पहले दिल्ली छोड़ कर अपने गुरुभभूतेश्वर स्वामी के आश्रम में डेरा जमा लिया था. उन्होंने दिल्ली क्यों छोड़ी, यह बात किसी को मालूम नहीं थी. हां, बड़ी मामी स्वयं यही कहती थीं, ‘‘हम तो सब बंधन त्याग कर गुरुकी शरण में चले गए. वरना दिल्ली में कौन 6-7 लाख की कोठी को बस सवा 4 लाख में बेच देता.’’

जाने के बाद लगभग 4 साल तक बड़ी मामी ने किसी की कोई खोजखबर नहीं ली थी. पर एक दिन अचानक तार भेज कर बड़ी मामी आ धमकीं मामा सहित. बस, तब से हर साल दोनों चले आते थे. पद्मा पर उन की विशेष कृपादृष्टि थी. कम से कम पद्मा तो यही समझती थी.

उस दिन भी रात की गाड़ी से बड़ी मामी आ रही थीं. इसलिए सभी भागदौड़ कर रहे थे. रात को पद्मा और सुजीत बाबू दोनों उन्हें स्टेशन पर लेने गए. वैसे घर से स्टेशन अधिक दूर न था, फिर भी पद्मा जितनी जल्दी हो सका, घर से निकल गई.

पद्मा को गए अभी 15 मिनट ही हुए थे कि बड़ी जोर से घर की घंटी बजी.

‘‘छोटू, देखो तो,’’ सुमति बोली.

छोटू ने दरवाजा खोला. वह हैरानी से चिल्लाया, ‘‘बहूजी, बड़ी मामी.’’

समीर और सुमति फौरन दौड़े.

‘‘मामीजी आप मां कहां है?

‘‘तो क्या पद्मा मुझे लेने पहुंची है? मैं ने तो 5-7 मिनट इंतजार किया. फिर चली आई.’’

‘‘हां, दूसरों को सहनशीलता का पाठ पढ़ाती हैं. परंतु खुद…’’ समीर धीरे बोला, परंतु सुमति ने स्थिति संभाल ली.

थोड़ी देर में पद्मा और सुजीत बाबू भी हांफते हुए आ गए.

‘‘नमस्कार, मामाजी,’’

‘‘जुगजुग जिओ. देख री पद्मा, तेरे लिए घर के सारे मसाले ले आई हूं. हमें आश्रम में सस्ते मिलते हैं न.’’

पद्मा गद्गद हो गई,  ‘‘इतनी तकलीफ क्यों की, मामीजी.’’

‘‘अरी, तकलीफ कैसी? तुझे मुफ्त में थोड़े ही दूंगी. वैसे मैं तो दे दूं, पर हमारे गुरुजी कहते हैं, किसी से कुछ लेना नहीं चाहिए. क्यों बेकार तुम्हें ‘पाप’ का भागीदार बनाऊं. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी तो जैसे समर्थन के लिए तैयार थे. पद्मा का मुंह ही उतर गया.

पद्मा को छोड़ कर घर में कोई भी अन्य व्यक्ति मामी को पसंद नहीं करता था. बस, वह हमेशा अपने आश्रम की बातें करती थीं. कभी अपने गुरुकी तारीफों के पुल बांधने लगतीं परंतु उन की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर था. जितने दिन बड़ी मामी रहतीं, पूरे घर में कोहराम मचाए रखतीं. सभी भुनभुनाते रहते थे, सिर्फ पद्मा को छोड़ कर. उस पर तो बड़ी मामी के गुरुऔर आश्रम का भूत सवार था.

दूसरे दिन सुबह 5 बजे उठ कर बड़ी मामी ने जोरजोर से मंत्रोच्चारण शुरू कर दिया. सुमति को रेडियो सुनने का बहुत शौक था. उस ने देखा कि 7 बज रहे हैं. वैसे भी बड़ी मामी तो 5 बजे की उठी थीं, इसलिए उस ने रेडियो चालू कर दिया. पर बड़ी मामी का मुंह देखते ही बनता था. लाललाल आंखें ऐसी कि खा जाएंगी.

पद्मा ने देखा तो फौरन बहू को झिड़का, ‘‘बंद कर यह रेडियो, मामीजी पाठ कर रही हैं.’’

‘‘रहने दे, बहू. मेरा क्या, मैं तो बरामदे में पाठ कर लूंगी. किसी को तंग करने की शिक्षा हमारे गुरु ने नहीं दी है.’’

‘‘नहींनहीं, बड़ी मामी. चल री बहू, बंद कर दे.’’

रेडियो तो बंद हो गया पर सुमति का चेहरा उतर गया. दोपहर में छोटू ने रेडियो लगा दिया तो बड़ी मामी उसे खाने को दौड़ीं, ‘‘अरे मरे, नौकर है, और शौक तो देखो राजा भोज जैसे. चल, बंद कर इसे. मुझे सोना है.’’

छोटू बोला, ‘‘अच्छा, बड़ी मामी, फिर तुम्हारे गुरुका टेप चला दूं.’’

‘‘ठहर दुष्ट, मेरे गुरुजी के बारे में ऐसा बोलता है. आज तुझे न पिटवाया तो मेरा नाम बदल देना.’’

जब तक पद्मा को पूरी बात पता चले, छोटू खिसक चुका था.

‘‘सच बहूजी, अब तो 15 दिन तक रेडियो, टीवी सब बंद,’’ छोटू ने कहा.

‘‘हां रे,’’ सुमति ने गहरी सांस ली.

अगले दिन शाम को चाय पीते हुए बड़ी मामी बोल पड़ीं, ‘‘हमारे आश्रम में खानेपीने की बहुत मौज है. सब सामान मिलता है. समोसा, कचौरी, दालमोठ, सभी कुछ, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ सदा की भांति मामाजी ने उत्तर में सिर हिलाया.

पद्मा खिसिया गई, ‘‘बड़ी मामी, यहां भी तो सब मिलता है. जा छोटू, जरा रोशन की दुकान से 8 समोसे तो ले आ.’’

‘‘रहने दो, बहू, हम ने तो खूब खाया है अपने समय में. खुद खाया और सब को खिलाया. मजाल है, किसी को खाली चाय पिलाई हो.’’

‘‘तो मामीजी, हम ने भी तो बिस्कुट और बरफी रखी ही है,’’ सुमति ने कहा.

बस, बड़ी मामी तो सिंहनी सी गरजीं, ‘‘देखा, बहू.’’

पद्मा ने भी झट बहू को डांट दिया, ‘‘बहू, बड़ों से जबान नहीं लड़ाते. चल, मांग माफी.’’

‘‘रहने दे, बहू, हम तो अब इन बातों से दूर हो चुके हैं. सच, न किसी से दोस्ती, न किसी से बैर. क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी ने खूंटे से बंधे प्यादे की तरह सिर हिलाया.

‘‘बहू, शाम को जरा बाजार तो चलना. कुछ खरीदारी करनी है,’’ सुबह- सुबह मामी ने आदेश सुनाया.

‘‘आज शाम,’’ पद्मा चौंकी.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘आज मां को अपनी दवा लेने डाक्टर के पास जाना है,’’ समीर ने बताया.

‘‘मैं क्या जबरदस्ती कर रही हूं. वैसे हमारे गुरुजी ने तो परसेवा को परमधर्म बताया है.’’

‘‘हांहां, मामीजी, मैं चलूंगी. दवा फिर ले आऊंगी.’’

‘‘सोच ले, बहू, हमारा क्या है, हम तो गुरु  के आसरे चलते हैं,’’ टेढ़ी नजरों से समीर को देखती हुई मामी चली गईं.

समीर ने मां को समझाना चाहा, पर उस पर तो गुरुजी के वचनों का भूत सवार था. बोली, ‘‘ठीक ही तो है, बेटा. परसेवा परम धर्म है.’’

और शाम को पद्मा बाजार गई. पर लौटतेलौटते सवा 8 बजे गए. बड़ेबड़े 2 थैले पद्मा ने उठाए हुए थे और हांफ रही थी.

आते ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘सुनो जी, यहां आज बाजार लगा हुआ था. अच्छा किया न, चले गए. सामान काफी सस्ते में मिल गया है.’’

सारा सामान निकाल कर मामी एकदम उठीं और बोलीं, ‘‘हाय री, पद्मा, लिपस्टिक तो लाना भूल ही गए. अब कल चलेंगे.’’

‘‘मामीजी, आप और लिपस्टिक?’’ सुमति बोली.

‘‘अरे, हम तो इन बंधनों से मुक्त हो गए हैं, वरना कौन मैं इतनी बूढ़ी हो गई हूं. हमारे आश्रम में तो नातीपोती वाली भी लाललाल रंग की लिपस्टिक लगाती हैं. मैं तो फिर भी स्वाभाविक रंग लेती हूं. सच, क्या पड़ा है इन चोंचलों में. हमारे लिए तो गुरु ही सबकुछ हैं.’’

‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम,’ छोटू फुसफुसाया तो समीर और सुमति चाह कर भी हंसी न रोक सके. हालांकि बड़ी मामी ने छोटू की बात तो नहीं सुनी फिर भी उन्होंने भृकुटि तान लीं.

अगले दिन पद्मा की तबीयत खराब हो गई. इसलिए उठने में थोड़ी देर हो गई. उस ने देखा कि बड़ी मामी रसोई में चाय बना रही हैं.

‘‘मुझे उठा दिया होता, मामीजी,’’  पद्मा ने कहा.

‘‘नहींनहीं, तुम सो जाओ चैन से. हमारे गुरुजी ने इतना तो सिखाया ही है कि कोई काम न करना चाहे तो उस के साथ जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘नहींनहीं, मामीजी. ऐसी बात नहीं. आज जरा तबीयत ठीक नहीं थी,’’ पद्मा मिमियाई.

‘‘तो बहू, जा कर आराम कर न. हम किसी से कुछ आशा नहीं करते. यह हमारे गुरुजी की शिक्षा है.’’

उस दिन तो पद्मा के मन में आया कि कह दे ‘चूल्हे में जाओ तुम और तुम्हारे गुरुजी.’

दोपहर को खाते वक्त बड़ी मामी ने सुमति से पूछा, ‘‘क्यों सुमति, दही नहीं है क्या?’’

‘‘नहीं मामीजी. आज सुबह दूध अधिक नहीं मिला. इसलिए जमाया नहीं. नहीं तो चाय को कम पड़ जाता.’’

‘‘हमारे आश्रम में तो दूधघी की कोई कमी नहीं है. न भी हो तो हम कहीं न कहीं से जुगाड़ कर के मेहमानों को तो खिला ही देते हैं.’’

‘‘हां, अपनी और बात है. भई, हम न तो लालच करते हैं, न ही हमें जबान के चसके हैं. हमारे गुरुजी ने तो हमें रूखीसूखी में ही खुश रहना सिखाया है क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ रटारटाया उत्तर मिला.

‘‘रूखीसूखी?’’ सुमति ने मुंह बिगाड़ा, ‘‘2 सूखे साग, एक रसे वाली सब्जी, रोटी, दालभात, चटनी, पापड़ यह रूखीसूखी है?’’

शाम को बड़ी मामी ने फिर शोर मचाया, ‘‘हम ने तो सबकुछ छोड़ दिया है. अब लिपस्टिक लगानी थी. पर हमारे गुरुजी ने शिक्षा दी है, किसी की चीज मत इस्तेमाल करो. भले ही खुद कष्ट सहना पड़े.’’

‘‘लिपस्टिक न लगाने से कैसा कष्ट, मामीजी?’’ छोटू ने छेड़ा.

‘‘चल हट, ज्यादा जबान न लड़ाया कर,’’ बड़ी मामी ने उसे झिड़क दिया.

आखिर पद्मा को बड़ी मामी के साथ बाजार जाना ही पड़ा. लौटी तो बेहद थकी हुई थी और बड़ी मामी थीं कि अपना ही राग अलाप रही थीं, ‘‘जितना हो सके, दूसरों के लिए करना चाहिए. नहीं तो जीवन में रखा ही क्या है, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी के बोलने से पहले ही छोटू बोला और भाग गया.

एक दिन बैठेबैठे ही बड़ी मामी बोलीं, ‘‘जानती है, पद्मा, वहां अड़ोस- पड़ोस में मैं ने तेरी बहुत तारीफें कर रखी हैं. सब से कहती हूं, ‘बहू हो तो पद्मा जैसी. मेरा बड़ा खयाल रखती है. क्याक्या सामान नहीं ले कर रखती मेरे लिए.’ सच बहू, तू मेरी बहुत सेवा करती है.’’

पद्मा तो आत्मविभोर हो गई. कुछ कह पाती, उस से पहले ही बड़ी मामी फिर से बोल पड़ीं, ‘‘हां बहू, सुना है यहां काजू की बरफी बहुत अच्छी मिलती है. सोच रही थी, लेती जाऊं. वैसे हमें कोई लालसा नहीं है. पर अपनी पड़ोसिनों को भी तो दिखाऊंगी न कि तू ने क्या मिठाई भेजी है.’’

पद्मा तो ठंडी हो गई, ‘इस गरमी में, जबकि पीने को दूध तक नहीं है, इन्हें बरफी चाहिए, वह भी काजू वाली. 80 रुपए किलो से कम क्या होगी?’

अभी पद्मा इसी उधेड़बुन में थी कि बड़ी मामी ने फिर मुंह खोला, ‘‘बहू, अब किसी को कोई चीज दो तो खुले दिल से दो. यह क्या कि नाम को पकड़ा दी. यह पैसा कोई साथ थोड़े ही चलेगा. यही हमारे गुरुजी का कहना है. हम तो उन्हीं की बताई बातों पर चलते हैं.’’

पद्मा को लगा कि अगर वह जल्दी ही वहां से न खिसकी तो जाने बड़ी मामी और क्याक्या मांग बैठेंगी.

फिर बड़ी मामी ने नई बात छेड़ दी. ‘‘जानती है, बहू. हमारे गुरुजी कहते हैं कि जितना हो सके मन को संयम में रखो. खानपान की चीजों की ओर ध्यान कम दो. अब तू जाने, घर में सब के साथ मैं भी अंटसंट खा लेती हूं. पर मेरा अंतर्मन मुझे कोसता है, ‘छि:, खाने के लिए क्या मरना.’ इसलिए बहू, आज से हमारे लिए खाने की तकलीफ मत करना. बस, हमें तो रात में एक गिलास दूध, कुछ फल और हो सके तो थोड़ा मेवा दे दिया कर, आखिर क्या करना है भोगों में पड़ कर.’’

कहां तो पद्मा बड़ी मामी के गुण गाते न थकती थी, कहां अब वह पछता रही थी कि किस घड़ी में मैं ने यह बला अपने गले बांध ली थी.

बस, जैसेतैसे 20 दिन गुजरे, जब बड़ी मामी जाने लगीं तो सब खुश थे कि बला टलने को है. पर जातेजाते भी बड़ी मामी कह गईं, ‘‘बहू, अब कोई इतनी दूर से भाड़ा लगा कर आए और रखने वाले महीना भर भी न रखें तो क्या फायदा? हमारे गुरुजी तो कहते हैं, ‘घर आया मेहमान, भगवान समान’ पर अब वह बात कहां. हां, हमारे यहां कोई आए, तो हम तो उसे तब तक न छोड़ें जब तक वह खुद न जाने को चाहे.’’

यह सुन कर सुमति ने पद्मा की ओर देखा तो पद्मा कसमसा कर रह गई.

‘‘अच्छा बहू, इस बार आश्रम आना. तू ने तो देख रखा है, कैसा अच्छा वातावरण है. सत्संग सुनेगी तो तेरे भी दिमाग में गुरु के कुछ वचन पड़ेंगे, क्यों जी?’’

‘‘हां जी,’’ मामाजी का जवाब था.

बड़ी मामी को विदा करने के बाद सब हलकेफुलके हो कर घर लौटे. घर आ कर समीर ने पूछा, ‘‘क्यों मां, कब का टिकट कटा दूं?’’

‘‘कहां का?’’ पद्मा ने पूछा.

‘‘वहीं, तुम्हारे आश्रम का. बड़ी मामी न्योता जो दे गई हैं.’’

‘‘न बाबा, मैं तो भर पाई उस गुरु से और उस की शिष्या से. कान पकड़ लेना, जो दोबारा उन का जिक्र भी करूं. शिष्या ऐसी तो गुरु के कहने ही क्या. सच, आज तक मैं ऊपरी आवरण देखती रही. सुनीसुनाई बातों को ही सचाई माना. परंतु सच्ची शिक्षा है, अपने अच्छे काम. ये पोंगापंथी बातें नहीं.’’

‘‘सच कह रही हो, मां?’’ आश्चर्यचकित समीर ने पूछा.

‘‘और नहीं तो क्या, क्यों जी?’’

और समवेत स्वर सुनाई दिया, ‘‘हां जी.’’

रिश्ता : शमा के लिए आया रफीक का रिश्ता

शमा के लिए रफीक का रिश्ता आया. वह उसे पहले से जानती थी. वह ‘रेशमा आटो सर्विस’ में मेकैनिक था और अच्छी तनख्वाह पाता था. शमा की मां सईदा अपनी बेटी का रिश्ता लेने को तैयार थीं.

शमा बेहद हसीन और दिलकश लड़की थी. अपनी खूबसूरती के मुकाबले वह रफीक को बहुत मामूली इनसान समझती थी. इसलिए रफीक उसे दिल से नापसंद था.

दूसरी ओर शमा की सहेली नाजिमा हमेशा उस की तारीफ करते हुए उकसाया करती थी कि वह मौडलिंग करे, तो उस का रुतबा बढ़ेगा. साथ ही, अच्छी कमाई भी होगी.

एक दिन शमा ख्वाबों में खोई सड़क पर चली जा रही थी.

‘‘अरी ओ ड्रीमगर्ल…’’ पीछे से पुकारते हुए नाजिमा ने जब शमा के कंधे पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी.

‘‘किस के खयालों में चली जा रही हो तुम? तुझे रोका न होता, तो वह स्कूटर वाला जानबूझ कर तुझ पर स्कूटर चढ़ा देता. वह तेरा पीछा कर रहा था,’’ नाजिमा ने कहा.

शमा ने नाजिमा के होंठों पर चुप रहने के लिए उंगली रख दी. वह जानती थी कि ऐसा न करने पर नाजिमा बेकार की बातें करने लगेगी.

अपने होंठों पर से उंगली हटाते हुए नाजिमा बोली, ‘‘मालूम पड़ता है कि तेरा दिमाग सातवें आसमान में उड़ने लगा है. तेरी चमड़ी में जरा सफेदी आ गई, तो इतराने लगी.’’

‘‘बसबस, आते ही ऐसी बातें शुरू कर दीं. जबान पर लगाम रख. थोड़ा सुस्ता ले…’’

थोड़ा रुक कर शमा ने कहा, ‘‘चल, मेरे साथ चल.’’

‘‘अभी तो मैं तेरे साथ नहीं चल सकूंगी. थोड़ा रहम कर…’’

‘‘आज तुझे होटल में कौफी पिलाऊंगी और खाना भी खिलाऊंगी.’’

‘‘मेरी मां ने मेरे लिए जो पकवान बनाया होगा, उसे कौन खाएगा?’’

‘‘मैं हूं न,’’ शमा नाजिमा को जबरदस्ती घसीटते हुए पास के एक होटल में ले गई.

‘‘आज तू बड़ी खुश है? क्या तेरे चाहने वाले नौशाद की चिट्ठी आई है?’’ शमा ने पूछा.

यह सुन कर नाजिमा झेंप गई और बोली, ‘‘नहीं, साहिबा का फोटो और चिट्ठी आई है.’’

‘‘साहिबा…’’ शमा के मुंह से निकला.

साहिबा और शमा की कहानी एक ही थी. उस के भी ऊंचे खयालात थे. वह फिल्मी दुनिया की बुलंदियों पर पहुंचना चाहती थी.

साहिबा का रिश्ता उस की मरजी के खिलाफ एक आम शख्स से तय हो गया था, जो किसी दफ्तर में बड़ा बाबू था. उसे वह शख्स पसंद नहीं था.

कुछ महीने पहले साहिबा हीरोइन बनने की लालसा लिए मुंबई भाग गई थी, फिर उस की कोई खबर नहीं मिली थी. आज उस की एक चिट्ठी आई थी.

चिट्ठी की खबर सुनने के बाद शमा ने नाजिमा के सामने साहिबा के तमाम फोटो टेबिल पर रख दिए, जिन्हें वह बड़े ध्यान से देखने लगी. सोचने लगी, ‘फिल्म लाइन में एक औरत पर कितना सितम ढाया जाता है, उसे कितना नीचे गिरना पड़ता है.’

नाजिमा से रहा नहीं गया. वह गुस्से में बोल पड़ी, ‘‘इस बेहया लड़की को देखो… कैसेकैसे अलफाजों में अपनी बेइज्जती का डंका पीटा है. शर्म मानो माने ही नहीं रखती है. क्या यही फिल्म स्टार बनने का सही तरीका है? मैं तो समझती हूं कि उस ने ही तुम्हें झूठी बातों से भड़काया होगा.

‘‘देखो शमा, फिल्म लाइन में जो लड़की जाएगी, उसे पहले कीमत तो अदा करनी ही पड़ेगी.’’

‘‘फिल्मों में आजकल विदेशी रस्म के मुताबिक खुला बदन, किसिंग सीन वगैरह मामूली बात हो गई है.

‘‘कोई फिल्म गंदे सीन दिखाने पर ही आगे बढ़ेगी, वरना…’’ शमा बोली.

‘‘सच पूछो, तो साहिबा के फिल्मस्टार बनने से मुझे खुशी नहीं हुई, बल्कि मेरे दिल को सदमा पहुंचा है. ख्वाबों की दुनिया में उस ने अपनेआप को बेच कर जो इज्जत कमाई, वह तारीफ की बात नहीं है,’’ नाजिमा ने कहा.

बातोंबातों में उन दोनों ने 3-3 कप कौफी पी डाली, फिर टेबिल पर उन के लिए वेटर खाना सजाने लगा.

‘‘शमा, ऐसे फोटो ले जा कर तुम भी फिल्म वालों से मिलोगी, तो तुझे फौरन कबूल कर लेंगे. तू तो यों भी इतनी हसीन है…’’ हंस कर नाजिमा बोली.

‘‘आजकल मैं इसलिए ज्यादा परेशान हूं कि मां ने मेरी शादी रफीक से करने के लिए जीना मुश्किल कर दिया है. उन्हें डर है कि मैं भी मुंबई न भाग जाऊं.’’

‘‘अगर तुझे रफीक पसंद नहीं है, तो मना कर दे.’’

‘‘वही तो समस्या है. मां समझती हैं कि ऐसे कमाऊ लड़के जल्दी नहीं मिलते.’’

‘‘उस में कमी क्या है? मेहनत की कमाई करता है. तुझे प्यारदुलार और आराम मुहैया कराएगा. और क्या चाहिए तुझे?’’

‘‘तू भी मां की तरह बतियाने लगी कि मैं उस मेकैनिक रफीक से शादी कर लूं और अपने सारे अरमानों में आग लगा दूं.

‘‘रफीक जब घर में घुसे, तो उस के कपड़ों से पैट्रोल, मोबिल औयल और मिट्टी के तेल की महक सूंघने को मिले, जिस की गंध नाक में पहुंचते ही मेरा सिर फटने लगे. न बाबा न. मैं तो एक हसीन जिंदगी गुजारना चाहती हूं.’’

‘‘सच तो यह है कि तू टैलीविजन पर फिल्में देखदेख कर और फिल्मी मसाले पढ़पढ़ कर महलों के ख्वाब देखने लगी है, इसलिए तेरा दिमाग खराब होने लगा है. उन ख्वाबों से हट कर सोच. तेरी उम्र 24 से ऊपर जा रही है. हमारी बिरादरी में यह उम्र ज्यादा मानी जाती है. आगे पूछने वाला न मिलेगा, तो फिर…’’

इसी तरह की बातें होती रहीं. इस के बाद वे दोनों अपनेअपने घर चली गईं.

उस दिन शमा रात को ठीक से सो न सकी. वह बारबार रफीक, नाजिमा और साहिबा के बारे में सोचती रही.

रात के 3 बज रहे थे. शमा ने उठ कर आईने के सामने अपने शरीर को कई बार घुमाफिरा कर देखा, फिर कपड़े उतार कर अपने जिस्म पर निगाहें गड़ाईं और मुसकरा दी. फिर वह खुद से ही बोली, ‘मुझे साहिबा नहीं बनना पड़ेगा. मेरे इस खूबसूरत जिस्म और हुस्न को देखते ही फिल्म वाले खुश हो कर मुझे हीरोइन बना देंगे.’’

जब कोई गलत रास्ते पर जाने का इरादा बना लेता है, तो उस का दिमाग भी वैसा ही हो जाता है. उसे आगेपीछे कुछ सूझता ही नहीं है.

शमा ने सोचा कि अगर वह साहिबा से मिलने गई, तो वह उस की मदद जरूर करेगी. क्योंकि साहिबा भी उस की सहेली थी, जो आज नाम व पैसा कमा रही है.

लोग कहते हैं कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं. वे सच कहते हैं, लेकिन जब मुसीबत आती है, तो वही ढोल कानफाड़ू बन कर परेशान कर देते हैं.

शमा अच्छी तरह जानती थी कि उस की मां उसे मुंबई जाने की इजाजत नहीं देंगी, तो क्या उस के सपने केवल सपने बन कर रह जाएंगे? वह मुंबई जरूर जाएगी, चाहे इस के लिए उसे मां को छोड़ना पड़े.

शमा ने अपने बैंक खाते से रुपए निकाले, ट्रेन का रिजर्वेशन कराया और मां से बहाना कर के एक दिन मुंबई के लिए चली गई.

शमा ने साहिबा को फोन कर दिया था. साहिबा ने उसे दादर रेलवे स्टेशन पर मिलने को कहा और अपने घर ले चलने का भरोसा दिलाया.

जब ट्रेन मुंबई में दादर रेलवे स्टेशन पर पहुंची, उस समय मूसलाधार बारिश हो रही थी. बहुत से लोग स्टेशन पर बारिश के थमने का इंतजार कर रहे थे. प्लेटफार्म पर बैठने की थोड़ी सी जगह मिल गई.

शमा सोचने लगी, ‘घनघोर बारिश के चलते साहिबा कहीं रुक गई होगी.’

उसी बैंच पर एक औरत बैठी थी. शायद, उसे भी किसी के आने का इंतजार था.

शमा उस औरत को गौर से देखने लगी, जो उम्र में 40 साल से ज्यादा की लग रही थी. रंग गोरा, चेहरे पर दिलकशी थी. अच्छी सेहत और उस का सुडौल बदन बड़ा कशिश वाला लग रहा था.

शमा ने सोचा कि वह औरत जब इस उम्र में इतनी खूबसूरत लग रही है, तो जवानी की उम्र में उस पर बहुत से नौजवान फिदा होते रहे होंगे.

उस औरत ने मुड़ कर शमा को देखा और कहा, ‘‘बारिश अभी रुकने वाली नहीं है. कहां जाना है तुम्हें?’’

शमा ने जवाब दिया, ‘‘गोविंदनगर जाना था. कोई मुझे लेने आने वाली थी. शायद बारिश की वजह से वह रुक गई होगी.’’

‘‘जानती हो, गोविंदनगर इलाका इस दादर रेलवे स्टेशन से कितनी दूर है? वह मलाड़ इलाके में पड़ता है. यहां पहली बार आई हो क्या?’’

‘‘जी हां.’’

‘‘किस के यहां जाना है?’’

‘‘मेरी एक सहेली है साहिबा. हम दोनों एक ही कालेज में पढ़ती थीं. 2-3 साल पहले वह यहां आ कर बस गई. उस ने मुझे भी शहर देखने के लिए बुलाया था.’’

उस औरत ने शमा की ओर एक खास तरह की मुसकराहट से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम्हारे पास सामान तो बहुत कम है. क्या 1-2 दिन के लिए ही आई हो?’’

‘‘अभी कुछ नहीं कह सकती. साहिबा के आने पर ही बता सकूंगी.’’

‘‘कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने घर से बिना किसी को बताए यहां भाग कर आई हो? अकसर तुम्हारी उम्र की लड़कियों को मुंबई देखने का बड़ा शौक रहता है, इसलिए वे बिना इजाजत लिए इस नगरी की ओर दौड़ पड़ती हैं और यहां पहुंच कर गुमराह हो जाती हैं.’’ शमा के चेहरे की हकीकत उस औरत से छिप न सकी.

‘‘मुझे लगता है कि तुम भी भाग कर आई हो. मुमकिन है कि तुम्हें भी हीरोइन बनने का चसका लगा होगा, क्योंकि तुम्हारी जैसी हसीन लड़कियां बिना सोचे ही गलत रास्ते पर चल पड़ती हैं.’’

‘‘आप ने मुझे एक नजर में ताड़ लिया. लगता है कि आप लड़कियों को पहचानने में माहिर हैं,’’ कह कर शमा हंस दी.

‘‘ठीक कहा तुम ने…’’ कह कर वह औरत भी हंस दी, ‘‘मैं भी किसी जमाने में तुम्हारी उम्र की एक हसीन लड़की गिनी जाती थी. मैं भी मुंबई में उसी इरादे से आई थी, फिर वापस न लौट सकी.

‘‘मैं भी अपने घर से भाग कर आई थी. मुझ से पहले मेरी सहेली भी यहां आ कर बस चुकी थी और उसी के बुलावे पर मैं यहां आई थी, पर जो पेशा उस ने अपना रखा था, सुन कर मेरा दिल कांप उठा…

‘‘वह बड़ी बेगैरत जिंदगी जी रही थी. उस ने मुझे भी शामिल करना चाहा, तो मैं उस के दड़बे से भाग कर अपने घर जाना चाहती थी, लेकिन यहां के दलालों ने मुझे ऐसा वश में किया कि मैं यहीं की हो कर रह गई.

‘‘मुझे कालगर्ल बनना पड़ा. फिर कोठे तक पहुंचाया गया. मैं बेची गई, लेकिन वहां से भाग निकली. अब स्टेशनों पर बैठते ऐसे शख्स को ढूंढ़ती फिरती हूं, जो मेरी कद्र कर सके, लेकिन इस उम्र तक कोई ऐसा नहीं मिला, जिस का दामन पकड़ कर बाकी जिंदगी गुजार दूं,’’ बताते हुए उस औरत की आंखें नम हो गईं.

‘‘कहीं तुम्हारा भी वास्ता साहिबा से पड़ गया, तो जिंदगी नरक बन जाएगी. तुम ने यह नहीं बताया कि तुम्हारी सहेली करती क्या है?’’ उस औरत ने पूछा. शमा चुप्पी साध गई.

‘‘नहीं बताना चाहती, तो ठीक है?’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. वह हीरोइन बनने आई थी. अभी उस को किसी फिल्म में काम करने को नहीं मिला, पर आगे उम्मीद है.’’

‘‘फिर तो बड़ा लंबा सफर समझो. मुझे भी लोगों ने लालच दे कर बरगलाया था,’’ कह कर औरत अजीब तरह से हंसी, ‘‘तुम जिस का इंतजार कर रही हो, शायद वह तुम्हें लेने नहीं आएगी, क्योंकि जब अभी वह अपना पैर नहीं जमा सकी, तो तुम्हारी खूबसूरती के आगे लोग उसे पीछे छोड़ देंगे, जो वह बरदाश्त नहीं कर पाएगी.’’

दोनों को बातें करतेकरते 3 घंटे बीत गए. न तो बारिश रुकी, न शाम तक साहिबा उसे लेने आई. वे दोनों उठ कर एक रैस्टोरैंट में खाना खाने चली गईं.

शमा ने वहां खुल कर बताया कि उस की मां उस की शादी जिस से करना चाहती थीं, वह उसे पसंद नहीं करती. वह बहुत दूर के सपने देखने लगी और अपनी तकदीर आजमाने मुंबई चली आई.

‘‘शमा, बेहतर होगा कि तुम अपने घर लौट जाओ. तुम्हें वह आदमी पसंद नहीं, तो तुम किसी दूसरे से शादी कर के इज्जत की जिंदगी बिताओ, इसी में तुम्हारी भलाई है, वरना तुम्हारी इस खूबसूरत जवानी को मुंबई के गुंडे लूट कर दोजख में तुम्हें लावारिस फेंक देंगे, जहां तुम्हारी आवाज सुनने वाला कोई न होगा.’’

शमा उस औरत से प्रभावित हो कर उस के पैरों पर गिर पड़ी और वापस जाने की मंसा जाहिर की.

‘‘अगर तुम इस ग्लैमर की दुनिया में कदम न रखने का फैसला कर घर वापस जाने को राजी हो गई हो, तो मैं यही समझूंगी कि तुम एक जहीन लड़की थी, जो पाप के दलदल में उतरने से बच गई. मैं तुम्हारे वापसी टिकट का इंतजाम करा दूंगी,’’ उस औरत ने कहा.

शमा घर लौट कर अपनी बूढ़ी मां सईदा की बांहों में लिपट कर खूब रोई. आखिरकार शमा रफीक से शादी करने को राजी हो गई. मां ने भी शमा की शादी बड़े ही धूमधाम से करा दी. अब रफीक और शमा खुशहाल जिंदगी के सपने बुन रहे हैं. शमा भी पिछली बातें भूलने की कोशिश कर रही है.