दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में स्थित राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट एंड रिसर्च सेंटर में हर दिन की तरह उस दिन भी परचा बनवाने वालों की काफी भीड़ थी. इन में अधिकांश कैंसर मरीज के तीमारदार ही थे, इन के मरीज अंदर हाल में लगी बेंचों पर लेटे या बैठे हुए थे.
इस अस्पताल में कैंसर का इलाज कराने के लिए दिल्ली एनसीआर के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र और अन्य राज्यों के साथसाथ नेपाल, अफ्रीका तक से मरीज आते हैं. इसलिए यह अस्पताल काफी प्रसिद्ध हो गया है.
इस भीड़ में सुधा भी थी. जवानी उस पर अभी बरकरार थी. उस की शादी हुए मुश्किल से 3 साल ही हुए थे. पति सूरज हैंडसम एक युवक था, एक प्राइवेट कंपनी में क्लर्क की नौकरी करता था. तनख्वाह 12 हजार रुपए थी. पिता नहीं थे, मां थी.
पिता ने अपनी प्राइवेट नौकरी से दिल्ली के अमन विहार में 50 गज जगह खरीद कर अपना मकान बना लिया था. सुधा, उस का पति सूरज और सास दयावती इन 3 लोगों के लिए यह मकान काफी था. सास घर में रह कर सिलाई वगैरह कर के इतना कमा लेती थी कि घर का खर्च पूरा हो जाता था.
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सूरज की तनख्वाह से ऊपरी खर्च चलने के बाद थोड़ी बहुत बचत हो जाती थी, जिसे वह बैंक में जोड़ता था. एक प्रकार से घर में सुधा को किसी प्रकार की दिक्कत नहीं थी. हंसीखुशी से यह परिवार अपनी जिंदगी बसर कर रहा था.
अचानक एक दिन सूरज के पेट में भयंकर दर्द उठा. उसे सुधा एक प्राइवेट नर्सिंग होम में ले कर गई. दर्द का इंजेक्शन देने के बाद डाक्टर ने सुधा को पति का अल्ट्रासाउंड करवाने की राय दी.