सन 2018 वन्यजीवों और वन्यजीव अभयारण्यों के लिए खतरे के रूप में सामने आया. न तो जंगल सुरक्षित रहे  और न ही जंगली जानवर. पूरे साल दोनों पर संकट मंडराता रहा.

वन्यजीवों और वनों की सुरक्षा के लिए पूरे देश में राज्यों के जंगलात महकमों में लाखों कर्मचारियों की फौज है. हर साल तरहतरह की योजनाओं के नाम पर करोड़ों अरबों रुपए खर्च किए जाते हैं, फिर भी वन्यजीव महफूज नहीं हैं. वन्यजीव अभयारण्यों में शिकार की घटनाएं बढ़ रही हैं. वन्यजीवों की प्राकृतिक और अप्राकृतिक मौत के आंकड़ों में हर साल बढ़ोत्तरी हो रही है, लेकिन राज्य सरकारें और केंद्र सरकार ऐसी घटनाओं को नहीं रोक पा रही हैं.

देश के तमाम वन्यजीव अभयारण्यों पर शिकारियों की नजरें टिकी रहती हैं. मांसाहारी लोग अपने स्वाद के लिए वन्यजीवों का शिकार करते हैं, जबकि प्रोफेशनल शिकारी वन्यजीवों के अंगों की तस्करी के लिए काम करते हैं. वन्यजीवों के विभिन्न अंगों के अंतरराष्ट्रीय बाजार में महंगे दाम मिलते हैं.

वन्यजीव अंगों के सब से बड़े खरीदार चीन ने पिछले साल बाहर से वन्यजीव अंग मंगाने से रोक हटा दी थी. नतीजतन भारत और अन्य देशों में शिकार की घटनाएं तेजी से बढ़ गईं. बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण चीन ने फिर से वन्यजीव अंगों पर रोक लगा दी.

शेर, बाघों और तेंदुओं पर छाया संकट

पिछले साल गुजरात के गिर अभयारण्य में 25 से ज्यादा एशियाई शेरों की मौत सब से ज्यादा चर्चा का विषय रही. गिर के शेरों पर अभी खतरा टला नहीं है. दूसरी ओर राजस्थान के सरिस्का अभयारण्य में भी बाघों पर संकट मंडरा रहा है. सन 2004 में शिकारियों ने सरिस्का अभयारण्य में बाघों का पूरी तरह सफाया कर दिया था. वह भी इस तरह कि सरिस्का में एक भी बाघ नहीं बचा.

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