लोकनायक अस्पताल, दिल्ली के मैडिकल डायरेक्टर डा. सुरेश कुमार  का कहना है कि डाक्टर अपने अनुभव और अथक प्रयास से मरीज को मौत के मुंह से बाहर निकालने की पूरी कोशिश करते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि डाक्टर भी एक इंसान होता है. उस की नजर में हर जान कीमती होती है. वह चाहता है कि हर मरीज भलाचंगा हो कर अपने घर परिवार में जाए.

कभीकभी किसी मरीज को इमरजेंसी वार्ड में उस समय लाया जाता है, जब वह खून की उल्टियां कर रहा होता है या अंतिम सांसें ले रहा होता है. उस मरीज ने वर्षों से अल्कोहल का इस्तेमाल कर के अपना लीवर खराब कर लिया है. इलाज के दौरान उस की मौत हो जाती है तो परिजन डाक्टर को ही दोषी ठहराते हैं.

परिजन यह नहीं सोचते कि यदि उन्होंने अपने स्वजन (मरीज) को शुरू से ही नशा करने से रोका होता तो उस की असमय मौत नहीं होती. परिजन खुद की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर डाक्टर पर ब्लेम लगाते हैं. डब्ल्यूएचओ कहता है कि भारत में एक हजार लोगों के लिए एक डाक्टर होना चाहिए, लेकिन हमारे देश में इतने डाक्टर नहीं हैं. डाक्टरों की कमी की वजह से गांवों में उन की सेवाएं ज्यादा नहीं मिल पातीं, ऐसे में वहां झोलाछाप डाक्टर पनपते हैं. इन के पास न रजिस्ट्रैशन नंबर होता है, न ही कोई डिगरी.

ये वहां लोगों का इलाज करते हैं, उन्हें इंजेक्शन लगाते हैं, सर्जरी करते हैं और दवाइयां देते हैं. इस से रोगी की जान को खतरा हो सकता है. ऐसे झोलाछाप डाक्टर महानगरों में झुग्गीझोपड़ी का इलाका चुन कर वहां अपनी दुकान चलाते हैं. बोर्ड पर यह गलत सलत डिगरी लिख देते हैं.

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