आखिर जयदेव ततमा और अशोक को जिस बात का डर था, वही सब हुआ. विचारों के टकराव और अहं ने पति और पत्नी के बीच इतनी दूरियां बना दीं कि वे एकदूसरे की शक्ल देखने को तैयार नहीं थे. एक छत के नीचे रहते हुए वे एकदूसरे से पराए जैसा व्यवहार करने लगे. रोज ही घर में पतिपत्नी के बीच झगड़े होने लगे थे.
रोजरोज के झगड़े और कलह से घर की सुखशांति एकदम छिन गई थी. पतियों ने कलावती और मलावती को अपने जीवन से हमेशा के लिए आजाद कर दिया. बाद में दोनों का तलाक हो गया. पते की बात यह थी कि कलावती और मलावती दोनों की जिंदगी की कहानी समान घटनाओं से जुड़ी हुई थी. दुखसुख की जो भी घटनाएं घटती थीं, दोनों के जीवन में समान घटती थीं.
यह बात सच है कि दुनिया अपनों से ही हारी हुई होती है. अशोक भी बहनों की कर्मकथा से हार गया था. पर वह कर भी क्या सकता था. वह उन्हें घर से निकाल भी नहीं सकता था. सामाजिक लिहाज के मारे उस ने बहनों को अपना लिया और सिर छिपाने के लिए जगह दे दी. वे भाई के अहसानों तले दबी हुई थीं, लेकिन दोनों उस पर बोझ बन कर जीना नहीं चाहती थीं.
ऐसा नहीं था कि वे दोनों दुखी नहीं थीं. वे बहुत दुखी थीं. अपना दुख किस के साथ बांटें, समझ नहीं पा रही थीं. वे जी तो जरूर रही थीं, लेकिन एक जिंदा लाश बन कर, जिस का कोई वजूद नहीं होता. पति के त्यागे जाने से ज्यादा दुख उन्हें पिता की मौत का था.