3 महीने गुजरते देर कहां लगती है. हम्माद और दरखशां की शादी हो गई. दरखशां रुखसत हो कर पिया के घर आ गई. हम्माद के घर पहंचने पर साफिया बेगम और शहनाज ने उस का स्वागत किया. शहनाज और अन्य औरतें उसे सजा कर सुहाग के कमरे में ले गईं. शहनाज ने उसे बैड पर बैठा दिया. इस के बाद चुहलबाजी करती हुई चली गई.
काफी देर बाद कमरे का दरवाजा खुला. हम्माद अंदर आ कर उस के पास बैठ गया. दरखशां का घूंघट उलट कर बोला, ‘‘माशा अल्लाह, आंखें तो खोलिए.’’
हम्माद की इस आवाज में न बेताबी थी और न दीवानगी न जज्बों की लपक थी और न इंतजार की कशमकश. दरखशां ने पलकें उठाईं तो हम्माद का दिलकश चेहरा सामने था.
‘‘मैं खुशकिस्मत हूं कि तुम मेरी शरीके हयात बन गई हो.’’ हम्माद लापरवाही से बोला.
दरखशां के दिल में खौफ के बजाय अब एक बेनाम सी उदासी थी. वह रात हम्माद ने वादों के साथ बिताई. दरखशां अपने हुस्न के कसीदे सुनने की ख्वाहिशमंद थी, जबकि हम्माद ने संक्षिप्त सी बात कर के इस टौपिक को ही बंद कर दिया था. इस उपेक्षा से उस के दिल पर एक बोझ सा आ पड़ा, जैसे कुछ खो गया हो. एक नईनवेली दुलहन के लिए कुछ तो कहना चाहिए. वह अपना पोर पोर सजा कर इन्हीं के लिए तो आई थी. लेकिन जैसे वह जज्बों से बिलकुल खाली था.
शादी हुए काफी दिन गुजर गए. हम्माद उसे मायके भी ले जाता और घुमाने फिराने भी. होटल और रेस्त्रां में खिलातापिलाता भी, लेकिन कभी प्यार का इजहार नहीं करता था और न ही उस की खूबसूरती के कसीदे पढ़ता. वह एक प्रैक्टिकल सोच वाला इंसान था. अपने काम के प्रति बेहद ईमानदार.
हम्माद का घर बेहद खूबसूरत था. घर में एक नौकर नसीर तो था ही, साफसफाई के लिए एक नौकरानी भी रखी हुई थी. घर में कोई अधिक काम नहीं था, इसलिए दरखशां सारा दिन बौखलाई फिरती थी. जब उस का मन घबराता तो वह तेज आवाज में डैक चला कर गाने सुनती या फिर कंप्यूटर से दिल बहलाती.
हम्माद सुबह निकलता था तो रात को ही आता था. ऐसे में कभीकभी दरखशां को अपने मून और पिंकी की याद आती तो वह मारिया को फोन करती. मारिया उस की बात सुन कर बेसाख्ता हंसते हुए कहती, ‘‘अरे पगली, अब तू शादीशुदा है. मून और पिंकी की फिक्र छोड़, कल को तेरे अपने गुड्डे गुडि़यां आ जाएंगे, उन्हीं से खेलना.’’
ऊब कर दरखशां सास साफिया बेगम के पास बैठ जाती तो वह उसे किस्से कहानियां सुनातीं. वह उन की अच्छी तरह देखभाल करती थी, क्योंकि वह जोड़ों के दर्द की मरीज थीं.
हम्माद के आने का समय होता तो वह उसे जबरदस्ती तैयार होने को कहतीं. वह सोचती कि पत्थर दिल बेहिस डाक्टर साहब सारा दिन दवाइयों की गंध सूंघते रहते हैं. ऐसे में उस के सजसंवर कर रहने का उन पर क्या असर होगा. सच भी था, हम्माद को अपने पेशे से काफी लगाव था. घर आने पर वह दरखशां से भी ज्यादा बात नहीं करते थे. सिर्फ मतलब की बात करते, वरना खामोशी, किताबें या फिर कंप्यूटर.
साफिया बेगम की आवाज उस के कानों में पड़ी तो वह यादों से बाहर आ गई. वह साफिया बेगम के कमरे की ओर भागी. अब तक हम्माद सो गया था.
इसी तरह दिन बीत रहे थे. अचानक हम्माद की ड्यूटी रात में लगा दी गई थी. दरखशां ने आह सी भरी तो हम्माद ने कहा, ‘‘अरे भई, यह पेशा ही ऐसा है. कभी रात तो कभी दिन. असल काम तो मरीजों की सेवा करना है.’’
उसी बीच दरखशां मायके गई और कई दिनों बाद वापस आई. संयोग से उसी समय हम्माद भी घर आ गया. वह जूते के बंद खोलते हुए तल्खी से बोला, ‘‘तुम्हारा मन मायके में कुछ ज्यादा ही लगता है.’’
‘‘क्यों न लगे. अपने मांबाप को देखने भी नहीं जा सकती क्या?’’ दरखशां ने कहा.
हम्माद चुप रह गया. दरखशां जब भी मायके जाती, अपने मून और पिंकी को गले लगाती. अपनी अम्मी से खूब बातें करती. मायके से आने लगती तो खूब रोती. शादी हुए एक साल हो रहा था, लेकिन वह खुद को ससुराल में एडजस्ट नहीं कर पा रही थी. वह सोचती थी कि जब वह ससुराल आए तो हम्माद कहे कि तुम्हारे बगैर ये 2 दिन मैं ने कांटों पर गुजारे हैं. रात को तुम मेरे पहलू में नहीं होती तो मैं करवट बदलता रहता हूं. लेकिन उस के मुंह से कभी ऐसे वाक्य नहीं निकलते, जो दरखशां के मोहब्बत के तरसे दिल पर फव्वारा बन कर गिरते.
किचन का ज्यादातर काम दरखशां करती थी, नसीर उस के साथ लगा रहता था. साफिया उसे समझातीं, मगर वह नहीं मानती. दरखशां अब अच्छा खाना बनाने लगी थी. लेकिन हम्माद ने कभी उस के खाने की तारीफ नहीं की. ऐसे में दरखशां झुंझला जाती. साफिया उस की तारीफें करती तो दरखशां कमरे में आ कर रोती.
एक दिन दरखशां ने साफिया बेगम से हम्माद के ऐसे मिजाज के बारे में पूछा तो वह बोली, ‘‘अरे बेटा, ऐसी कोई बात नहीं है. जब से उस के अब्बू का इंतकाल हुआ है, तब से यह खामोश और तनहाई पसंद हो गया है. बस पढ़ाई में मगन रहा. लेकिन जब से तुम आई हो, इस में काफी बदलाव आया है.’’
कुछ दिनों बाद हम्माद को पास के एक कस्बे के अस्पताल का इंचार्ज बना कर भेज दिया गया. नया अस्पताल बना था. हम्माद को जूनियर डाक्टरों के साथ इंचार्ज बन कर जाना था.
2 दिनों बाद हम्माद वहां जाने के लिए तैयार था. जाते वक्त उस ने कहा, ‘‘मैं 15 दिनों बाद आऊंगा.’’
हम्माद के अंदाज में न तो उदासी थी और न ही कोई परेशानी. वह बाहर जाने में बड़ा संतुष्ट लग रहा था. अम्मी ने कहा, ‘‘बेटा, दुलहन को भी साथ ले जाते तो अच्छा रहता.’’
‘‘नहीं अम्मी, अभी मुमकिन नहीं है. पहले जगह वगैरह देख लूं. घर तो मिल जाएगा, लेकिन कैसा माहौल है, क्या सहूलियतें हैं, यह सब देखना पड़ेगा.’’
हम्माद की बात सुन कर दरखशां तिलमिला उठी. उस की आंखों में आंसू भर आए.
नई जगह होने की वजह से हम्माद को फुरसत नहीं मिलती थी. सहूलियतें भी काफी कम थीं. मरीजों का दिनरात तांता लगा रहता था. यह पिछड़ा इलाका था. हम्माद दिनभर काम में लगा रहता. रात को कमरे में आता तो दरखशां की याद दिल से लिपट जाती. उस का मासूम, भोलाभाला चेहरा और मंदमंद मुसकराहट उसे बेचैन कर देती.
हालांकि हम्माद रात की भी ड्यूटी करता था, मगर इतने दिनों के लिए वह पहली बार दरखशां से जुदा हुआ था. दरखशां की कमी और दूरी उसे परेशान कर रही थी.