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वली भाई चांदीवाला ने बाहर निकल कर हाथ की घड़ी पर नजर डाली. रात के 10 बज कर 17 मिनट हुए थे. बाहर ठंडी हवा चल रही थी और पहले सी गहमागहमी नहीं थी. वली भाई ने हाथ कमर पर बांध लिए और सिर झुका कर एक तरफ चल दिया. उस की कल्पना में एक बार फिर हाशिम खान और उस के गुंडों के खौफनाक चेहरे उभर आए. उसे यकीन था कि हाशिम खान का एकाध आदमी उस के दरवाजे के सामने टहल रहा होगा.

अचानक वली भाई को वो 3 हजार रुपए याद आ गए जिन्हें वह कोट की अंदरूनी जेब में रख कर भूल गया था. 3 हजार रुपए को याद करते ही उसे बेचैनी होने लगी. उस का जी चाहा कि वापस जुआखाने में चला जाए और 3 हजार रुपए के जरिए अपनी किस्मत आजमाए. वह बेअख्तियार वापस हो लिया. लेकिन उस ने किसी तरह अपनी उस इच्छा को दबाया और किसी होटल की तलाश में तेज तेज चलने लगा. हाशिम खान से बचने के लिए जरूरी था कि वो घर से बाहर रहे.

15 मिनट बाद वली भाई होटल दरबार के अंधेरे से स्वागतकक्ष में पहुंचा.

वैसे उसे स्वागतकक्ष कहना बहुत शर्म की बात थी. क्योंकि एक कोने में आलुओं और प्याज की बोरियां रखी थीं. उन के साथ ही घी के चंद खाली कनस्तर, कुछ टूटी हुई कुरसियां रखी थीं और एक कचरे का डिब्बा पड़ा था जो हड्डियों और रोटी के बचेखुचे टुकड़ों से भरा हुआ था. फिजा में उन चीजों की मिलीजुली बू फैली हुई थी, जो बहुत ही असहनीय थी. वली भाई ने काउंटर पर नजर डाली तो वहां उसे कुछ पुराने रजिस्टर रखे नजर आए. कुरसी पर बैठा एक आदमी काउंटर पर सिर रखे सो रहा था.

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