रात अंधेरी और सर्द थी. समंदर की तरफ से तेज हवा चल रही थी. वली भाई की सारी ताकत दीवार के साथ चिपके रहने में खत्म हो रही थी. वो नीचे देखने से बच रहा था और खुद को ये यकीन दिलाने की कोशिश कर रहा था कि कगर जमीन की सतह से कुछ ही फुट ऊंची है. उस की निगाहों के सामने कराची शहर की रोशनियां जगमगा रही थीं.
वह सोच रहा था कि इन रोशनियों की जगमगाहट में लाखों लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त होंगे. कोई सो रहा होगा, कोई तफरीह कर रहा होगा और कोई सट्टा खेल रहा होगा. उन लाखों लोगों को क्या मालूम कि सेठ वली भाई चांदीवाला जिंदगी और मौत के बीच लटक रहा था. हवा का कोई तेज झोंका उसे मौत के मुंह में धकेल सकता था.
जानी ने अपना खौफनाक चेहरा खिड़की से बाहर निकाला और कहा, ‘‘मालूम होता है कि तुम ने अपनी मौत का तरीका खुद ही चुन लिया है. चलो, अच्छा हुआ हमें तकलीफ नहीं करनी पड़ी.’’ ये कह कर उस ने सिर पीछे कर लिया और खिड़की बंद कर दी.
वली भाई ने आंखें बंद कर लीं और दोनों हाथ दीवार के साथ चिपका लिए. हालांकि वह एक खतरे से निकल गया था, लेकिन दूसरा खतरा भी मामूली नहीं था. क्षणभर बाद उस ने आंखें खोलीं और सूरतेहाल का जायजा लिया. कगर की चौड़ाई 7-8 इंच के लगभग मालूम होती थी. क्योंकि पैर सीधा करने से उस के बूट का किनारा बाहर निकल जाता था. दाईं तरफ खिड़की थी और बाईं तरफ इमारत का किनारा था. वह उस कगर पर चलता हुआ किनारे के दूसरी तरफ नहीं जा सकता था.