जीते को साथ ले कर हम उसी वक्त उस मकान पर गए, जहां उसे कैद रखा गया था. वह मकान वली खां के दोस्त शेरू का था. वहां वाकई एक कमरे की जाली टूटी हुई थी. वहां ऐसे सुबूत भी थे, जिस से साबित होता था कि उसे उसी जगह कैद कर के रखा गया था. वली खां और शेरू दोनों गायब थे.
मेरी हिदायत पर थानेदार बख्शी ने अपने स्टाफ से उन्हें तलाश करने को कहा. लेकिन कुछ किया जाता, इस से पहले ही शाम करीब 7 बजे वे दोनों खुद ही थाने आ गए. उन के साथ एक सरकारी अफसर भी था. उस ने बताया कि इन दोनों का भागने का कोई इरादा नहीं था. वे केवल डर की वजह से थाने नहीं आए थे.
मैं ने वली खां से कहा कि वह अपनी सफाई में कुछ कहना चाहता है तो कह दे. इस पर उस ने जेब से कुछ खत निकाल कर हमारे सामने रख दिए. वे खत क्या थे, गालियों का पुलिंदा था. उन में ऐसी ऐसी गालियां लिखी थीं जो मैं ने कभी नहीं सुनी थीं. खत लिखने वाले ने कोशिश की थी कि वली खां और उस की बीवी को जितना ज्यादा हो सके, जलील किया जाए.
वली खां ने रुआंसे हो कर कहा, ‘‘जनाब, कुछ खत तो बरदाश्त से बाहर थे, इसलिए मैं ने फाड़ कर फेंक दिए थे.’’
उन खतों को पढ़ कर किसी भी शरीफ आदमी का दिमाग घूम सकता था. वली खां ने बताया कि ये गंदगी उस के घर में 3 महीने से फेंकी जा रही है. उस का मानना था कि ये काम जीते के अलावा और कोई नहीं कर सकता.