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रात आधी से ज्यादा गुजर गई थी. इंस्पेक्टर अनिल कार्तिकेय आरामकुर्सी पर जरूर बैठे थे, किंतु उन की आंखों में नींद नहीं थी. त्रिलोचन की हिदायत के अनुसार उन्होंने रजत के कमरे के बाहर 2 सिपाहियों को पहरे पर लगा दिया था और स्वयं भी उस कमरे के दरवाजे पर निगाहें जमाए हुए थे. कमरे के अंदर जीरो पावर के बल्ब की रोशनी थी. कमरे में लेटे रजत और सुकुमार सो चुके थे.

अचानक ही कमरे के अंदर से किसी की चीख उभरी. अनिल उछल कर कमरे की ओर भागे. दोनों सिपाही भी हड़बड़ा कर अंदर की ओर दौड़े. एक सिपाही ने लाइट जला दी. अंदर लोमहर्षक दृश्य था. रजत सफेद चादर ओढ़े करवट के बल लेटा था, उस की पीठ में चाकू घुसा हुआ था.

‘‘रजत...’’ इंसपेक्टर की लगभग चीत्कार सी निकल गई.

‘‘मैं यहां हूं अंकल...’’ दूसरे पलंग से दबीदबी सी आवाज सुनाई दी. अनिल ने देखा चादर के नीचे दुबका रजत सहमी हुई आंखों से उन की ओर ही ताक रहा था.

‘‘माइ गौड, तो क्या यह सुकुमार है?’’ अनिल के मुंह से निकला.

तभी बाहर गोली चलने के साथ ही 2 आदमियों के दौड़ने की पदचाप सुनाई दी. त्रिलोचन हांफते हुए अंदर दाखिल हुए.

‘‘गजब हो गया चाचाजी,’’ अनिल की असहज आवाज उभरी, ‘‘किसी ने सुकुमार को...’’

‘‘सुकुमार को?’’ त्रिलोचन के मुंह से हैरत से निकला. वह सुकुमार की नब्ज टटोलते हुए बोले, ‘‘इंस्पेक्टर, जल्दी करो. इसे तुरंत अस्पताल पहुंचाना होगा.’’

आननफानन में सुकुमार को अस्पताल पहुंचा दिया गया. सुखनई के जंगल में भीड़ जमा थी. त्रिलोचन के साथ कुछ पुलिस वाले और एक क्रेन थी.

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