‘प्रभा, जल्दी से मेरी चाय दे दो...’
‘प्रभा, अगर मेरा नाश्ता तैयार है, तो लाओ...’
‘प्रभा, लंच बौक्स तैयार हुआ कि नहीं?’
जितने लोग उतनी ही फरमाइशें. सुबह से ही प्रभा के नाम आदेशों की लाइन लगनी शुरू हो जाती थी. वह खुशीखुशी सब की फरमाइश पूरी कर देती थी. उस ने भी जैसे अपने दो पैरों में दस पहिए लगा रखे हों. उस की सेवा से घर का हर सदस्य संतुष्ट था. वर्मा परिवार उस की सेवा और ईमानदारी को स्वीकार भी करता था.
प्रभा थी भी गुणों की खान. दूध सा गोरा और कमल सा चिकना बदन. कजरारे नैन, रसीले होंठ, पतली कमर, सुतवां नाक, काली नागिन जैसे काले लंबे बाल और ऊपर से खनकती हुई आवाज. उस की खूबसूरती उस के किसी फिल्म की हीरोइन होने का एहसास कराती थी.
मालकिन मिसेज वर्मा की बेटी ज्योति, जो प्रभा की हमउम्र थी, के पुराने, मगर मौडर्न डिजाइन के कपड़े जब वह पहन लेती थी, तो उस की खूबसूरती में और भी निखार आ जाता था.
मिसेज वर्मा का बेटा अविनाश तो उस पर लट्टू था. हमेशा उस के आसपास डोलते रहने की कोशिश करता रहता था. वह भी मन ही मन उसे चाहने लगी थी. अब तक दोनों में से किसी ने भी अपनेअपने मन की बात एकदूसरे से जाहिर नहीं की थी.
घर के दूसरे कामों के अलावा मिसेज वर्मा की बूढ़ी सास की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी भी प्रभा के कंधों पर ही थी. दरअसल, मिसेज वर्मा एक इंटर कालेज की प्रिंसिपल थीं. उन्हें सुबह के 9 बजे तक घर छोड़ देना पड़ता था. बड़ा बेटा अविनाश और बेटी ज्योति दोनों सुबह साढ़े 9 बजे तक अपनेअपने कालेज के लिए निकल जाते थे.