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उन दिनों मेरी ड्यूटी मोहल्ला उस्मानाबाद में थी. छोटीछोटी तंग गलियों और गंदे जरजर मकानों से घिरा यह मोहल्ला उन शरीफ लोगों का था, जो अपनी इज्जत का भरम रखने के लिए दरवाजों पर टाट या कपड़े के परदे टांग दिया करते थे. इस से पहले मेरी ड्यूटी कई अच्छे इलाकों में रही थी, इसलिए इस इलाके में मेरी कोई खास रुचि नहीं थी. सच कहूं तो मेरा सारा दिन बोरियत भरा गुजरता था.

डाक विभाग में आए मुझे अधिक समय नहीं हुआ था. उम्र भी 19-20 साल से अधिक नहीं थी. चूंकि खुदा ने शक्लसूरत भी अच्छी दी थी, इसलिए कई लड़कियां मेरी ओर आकर्षित हो जाती थीं. उम्र के उस नाजुक दौर में कभीकभी मेरा झुकाव भी लड़कियों की ओर हो जाया करता था.

अब्बा डाक विभाग में क्लर्क थे. मैं ने मैट्रिक कर लिया तो उन्होंने मुझे अपने विभाग में क्लर्क बनवाने की कोशिश की, लेकिन वहां कोई जगह खाली नहीं थी, इसलिए उन्होंने मुझे पोस्टमैन बनवा दिया था. मैं ने कभी किसी ऊंची नौकरी का सपना नहीं देखा था. न ही पढ़नेलिखने के मामले में तेज था.

मैं जानता था कि अब्बा जैसी ही कोई नौकरी करनी पड़ेगी, इसलिए मैं डाकिए की नौकरी पा कर संतुष्ट था. शुरू शुरू में तो मुझे अपना काम बहुत अच्छा लगा. विभाग की ओर से मुझे साइकिल नहीं मिली थी, इसलिए मैं पैदल ही डाक बांटता था. डाक देते वक्त मेरा दरवाजे पर दस्तक देने का एक खास अंदाज था. साथ ही मुझे आवाज भी लगानी पड़ती थी, ‘पोस्टमैन’.

फिर मुझे साइकिल मिल गई, जिस की खास घंटी मेरे आने की सूचना होती थी. कभी मैं किसी के लिए खुशी का समाचार लाता और कभी दुख का. कुछ लोग मेरा इंतजार बड़ी बेचैनी से करते और कुछ लोग डाक लेते हुए भी कसमसाते.

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