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सालों बाद जानीपहचानी गलियों से गुजरते हुए मुझे खुशी भी हो रही थी और अफरोज की याद भी आ रही थी. मैं सोच रहा था कि वह अपने अब्बू की एकलौती बेटी थी, इसलिए मलिक साहब का पुश्तैनी मकान उसी को मिला होगा. अगर उस ने और उस के पति ने मकान बेचा नहीं होगा तो संभवत: वह उसी मकान में रह रही होगी.

अगर ऐसा हुआ तो उस के दर्शन हो सकते थे. मैं उसे एक नजर देखना चाहता था, उस के पति को भी और शायद बच्चों को भी. लेकिन मेरे पास कोई बहाना नहीं था, उस मकान का दरवाजा खटखटाने का.

मैं सोच में डूबा आगे बढ़ रहा था. मोड़ से घूम कर जब मैं ने मकान नंबर 7 के सामने जा कर साइकिल की घंटी बजाई तो अंदर से अधेड़ उम्र की औरत ने चिक हटा कर बाहर झांका, तब तक मैं आगे बढ़ गया था. उस ने पीछे से आवाज दी, ‘‘ओ भैया डाकिए, कोई चिट्ठी है क्या मेरी?’’

मैं ने पीछे मुड़ कर देखा, खिचड़ी बालों और ढलती उम्र के बावजूद उसे पहचानने में मुझे जरा भी देर नहीं लगी. वह अफरोज ही थी, जो अपनी उम्र से 10-15 साल ज्यादा की लग रही थी. मैं लौट कर उस के पास आ गया. मेरे अंदर आंधियां सी चल रही थीं, दिल बैठा जा रहा था. मुझे जैसे अपनी आंखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था. मैं ने आह सी भरते हुए पूछा, ‘‘तुम अफरोज ही हो न?’’

‘‘हां, और तुम वही जो मेरे गुलाबी खत लाया करते थे?’’ उस ने आश्चर्य से पूछा, जैसे यकीन न हो रहा हो.

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