भला कोई अपनी उस बीवी से सच्ची मोहब्बत कर सकेगा, जब उसे पता चलेगा कि उस की यह बीवी शादी से पहले किसी दूसरे मर्द से मोहब्बत करती थी यह सच है कि अगर मेरे शौहर सुलतान अहमद मुझ से मेरी जान भी मांगते तो मैं देने में एक लमहे की भी देर न करती. उन का छोटे से छोटा काम भी मैं खुद किया करती थी, हालांकि घर में नौकरनौकरानियां भी थीं. इस में ताज्जुब की कोई बात नहीं थी. अकसर औरतें अपने पतियों की ताबेदारी में खुशी महसूस करती हैं. फिर भी उन्होंने कभी मेरे साथ मुसकरा कर बात नहीं की थी.
दूसरों के सामने तो वह मेरे साथ नरम पड़ जाते थे, मगर तनहाई में या बच्चों के सामने बिलकुल अजनबी से बन जाते थे. ऐसा भी नहीं था कि वह स्वभाव से ऐसे थे. दूसरों के लिए वह बहुत हंसमुख थे. खासतौर पर बच्चों पर तो जान छिड़कते थे. उन के बीच वह बेतकल्लुफ दोस्त बन जाते थे. उन की हर फरमाइश मुंह से निकलते ही पूरी किया करते, मगर मेरे लिए उन के पास सिवाय बेगानगी के और कुछ नहीं था. मुझे देखते ही सुलतान अहमद के चेहरे पर अजीब सी संजीदगी भरी सख्ती छा जाती. अगर वह बोल रहे होते तो मेरे आते ही खामोश हो जाते. हमारा बेडरूम साझा था, मगर वह वहां देर रात को आते थे. घर में उन का अधिक समय अपने स्टडी रूम में गुजरता था. वह कभी मेरे साथ शौपिंग के लिए नहीं गए.
सुलतान अहमद आला ओहदे पर लगे हुए थे. दफ्तर की तरफ से उन्हें मकान और गाड़ी मिली हुई थी. वह अपनी सारी तनख्वाह अपना खर्च निकाल कर मेरे हवाले कर देते थे और फिर पलट कर यह नहीं पूछते थे कि मैं ने क्या खर्च किया, कहां खर्च किया, क्यों खर्च किया और क्या बचाया. उन का यह रवैया मैं कोई 1-2 साल से नहीं, बल्कि पिछले 25 सालों से बरदाश्त कर रही थी. एक चौथाई सदी के इस अरसे में उन की तरफ से चाहत का एक भी फूल मेरे आंचल में नहीं डाला गया था. इस सितम के बावजूद वह मेरे सिर का ताज थे. उन की सेवा करना, उन के काम करना मेरी जिंदगी का अहमतरीन मकसद था. सुलतान अहमद भी इतनी बेरुखी के बावजूद अपना हर काम मुझ से ही करवाना पसंद करते थे.
सुबह 8 बजे तक वह और बच्चे घर से निकल जाते थे. उन के जाने के बाद मैं नौकरानी से सफाई करवाती. फिर बर्तन और कपड़े धोने वाली आ जाती. मगर मैं सिर्फ अपने और बच्चों के कपड़े धुलवाती. सुलतान अहमद के कपड़े मैं अपने हाथों से ही धोया करती थी. फिर मैं दोपहर के खाने की तैयारी में लग जाती. बच्चे 1 बजे तक स्कूलकालेज से आ जाते थे और सुलतान अहमद भी दोपहर का खाना घर में ही आ कर खाते थे. दफ्तर से आमतौर पर वह शाम 6 बजे तक आ जाते थे. फ्रेश हो कर लाउंज में बच्चों के पास बैठ जाते थे. इस दौरान वह उन के मनोविनोद और तालीमी सरगर्मियों के बारे में पूछते. चाय पीते और फिर अपने स्टडी रूम में चले जाते, जहां से वह रात के खाने के वक्त ही निकलते थे. खाने के बाद वह फिर स्टडीरूम में वापस चले जाते और लगभग 11, साढ़े 11 बजे बेडरूम में आते थे.
सुलतान अहमद आर्थिक मामलों में माहिर थे. वह आडिट और एकाउंट के विषय में खास अधिकार रखते थे. इस विषय पर उन की लिखी हुई किताबें बहुत मकबूल थीं. अपने स्टडी रूम में वह लिखनेपढ़ने का काम करते थे. इन सारी बातों से आप ने अंदाजा लगा लिया होगा कि उन के पास मेरे लिए एक लमहा भी नहीं था. यह मैं बता चुकी हूं कि सुलतान अहमद स्वभाव से ऐसे नहीं थे. तब मुझे इतनी लंबी और कड़ी सजा देने की वजह क्या हो सकती थी, यह बताने के लिए मुझे अपनी जिंदगी की किताब के उन पन्नों को खोलना पड़ेगा, जिन की बातें आज तक किसी पर जाहिर नहीं की थीं. हमारे समाज में जब कोई औलाद लगातार तीसरी लड़की होने के नाते इस दुनिया में आंख खोलती है तो आमतौर पर उसे इस जुर्म की सजा तकरीबन उस सारे अरसे भुगतनी पड़ती है, जब तक वह बाप के घर रहती है.
मगर मेरी खुशकिस्मती थी कि जब बेटे की जगह मैं इस दुनिया में आई तो सब ने बड़ी मोहब्बत से मेरा स्वागत किया. यह मेरी खूबसूरती का करिश्मा था. दादी अम्मा, जो मेरी पैदाइश से पहले उठतेबैठते अम्मी को बेटा पैदा करने की याद दिलाना भूलती नहीं थी, मुझे देख कर खुश हो गईं. उन का कहना था कि हमारी 7 पीढि़यों में कोई इतनी हसीन बच्ची पैदा नहीं हुई. मेरी पैदाइश के बाद भाइयों का जन्म शुरू हो गया. अब्बू तरक्की पर तरक्की करते गए. खुशहाली के सारे दरवाजे खुल गए. इस तरह मुझे पैदाइशी भाग्यशाली का दर्जा हासिल हो गया. होश संभालते ही मुझे जो पहला अहसास हुआ या फिर मेरे घर वालों ने अहसास दिलाया, वह यह था कि मैं बेहद खूबसूरत हूं.
स्कूल में दाखिले के समय मैं ने उस स्कूल में पढ़ने से साफ इनकार कर दिया, जहां मेरी दोनों बड़ी बहनें तालीम हासिल कर रही थीं. उस की बेरौनक इमारत, मामूली फर्नीचर और सादा लिबास लड़कियां मेरी पसंद से कतई मेल नहीं खाती थीं. मैं ने अम्मीअब्बू से साफ कह दिया कि मैं उस गंदेसंदे स्कूल में उन गंदीसंदी लड़कियों के साथ हरगिज नहीं पढूंगी. यह सुनते ही दोनों बहनों ने हंगामा खड़ा कर दिया कि क्या हम गंदीसंदी हैं? अम्मी ने भी मेरी बात का बुरा तो माना, लेकिन दरगुजर कर गईं. उन्होंने दोनों बहनों को भी समझा लिया.
‘‘तो क्या तुझे किसी अंगरेजी स्कूल में पढ़ाऊं?’’ उन्होंने दबेदबे लहजे में कहा.
‘‘मैं ने कह दिया कि मैं उस स्कूल में नहीं पढूंगी, बस.’’ मैं ने ठुनक कर कहा.
अब्बू ने मेरी हिमायत की. उन्होंने अम्मी से कहा, ‘‘ठीक तो कह रही है मेरी बेटी. वह स्कूल भला इस के लायक है?’’
‘‘तो फिर दाखिल करा दें किसी बढि़या स्कूल में और दें भारी भरकम फीस.’’ अम्मी भन्ना कर बोलीं.
अब्बू ने भागदौड़ कर के मेरा दाखिला शहर के एक आला इंगलिश मीडियम स्कूल में करा दिया. घर से दूर होने की वजह से मुझे गाड़ी लेने और छोड़ने आया करती थी. स्कूल में मैं ने चुनचुन कर खूबसूरत और नफासतपसंद लड़कियों को सहेली बनाया. टीचरें भी मुझे पसंद करती थीं, जिस का सब से बड़ा फायदा मुझे तालीम हासिल करने में हुआ. मैं अपनी क्लास की बेहतरीन स्टूडेंट्स में गिनी जाती थी.
मतलब यह कि चाहतों के हिंडोले में झूलती उम्र की मंजिलें तय करती रही. जब मैं छठी क्लास में थी, तब बड़ी आपा का रिश्ता तय हो गया. उन्हें मैट्रिक के बाद स्कूल से उठा लिया गया, क्योंकि हमारी बिरादरी में लड़कियों को इस से ज्यादा पढ़ाने का रिवाज नहीं था. हमारे खानदान में बिरादरी से बाहर शादी का भी रिवाज नहीं था. बड़ी आपा की शादी के बाद अम्मी ने फौरन ही छोटी आपा की रुखसती की तैयारी शुरू कर दी. वह बचपन से ही ताया अब्बा के बेटे से जोड़ दी गई थी. मेरे 8वीं पास करतेकरते दोनों बहनें विदा हो कर अपनेअपने घर की हो चुकी थीं.
मैट्रिक में आतेआते मुझ पर बहार आ गई. मैं ने ऐसा रूपरंग और कद निकाला कि मैट्रिक करते ही दरवाजे पर रिश्तों की लाइन लग गई. अम्मी का इरादा तो यही था कि मैट्रिक के बाद मुझे भी घर से रुखसत कर दिया जाए, लेकिन मैं अभी और आगे पढ़ना चाहती थी. इसलिए मैं ने अम्मी से छिप कर अब्बू से कालेज में दाखिले की जिद शुरू कर दी. पहले उन्होंने इनकार कर दिया, मगर फिर राजी हो गए. लेकिन यह बात खुलते ही अम्मी ने हंगामा खड़ा कर दिया. वह मेरे आगे पढ़ने के हक में नहीं थीं. अब्बू ने उन्हें किसी न किसी तरह राजी कर लिया. मैट्रिक में मेरी बहुत अच्छी पोजीशन आई थी, इसलिए बेहतरीन कालेज में दाखिले में कोई मुश्किल पेश नहीं आई. उस कालेज में ज्यादातर बड़े घरानों की लड़कियां पढ़ती थीं. मुझे उस माहौल में आ कर ऐसा महसूस हुआ, जैसे मैं किसी तालाब से निकल कर विशाल समुद्र में आ गई थी.
कालेज में अगरचे एक से बढ़ कर एक हसीन लड़कियां मौजूदी थीं, मगर उन की सुंदरता मेरे हुस्न के आगे फीकी पड़ गई. अलबत्ता उन की बेबाकियां और बातें मुझे दांतों तले अंगुली दबा लेने पर मजबूर कर देतीं. फिर मैं धीरेधीरे उन से घुलमिल गई. लड़कियां जब अपने चाहने वालों की दीवानगी के अंदाज बयान करतीं तो मैं उन के मुंह देखती रह जाती. यह हकीकत थी कि मेरी खूबसूरती के बावजूद किसी लड़के ने मुझे चाहत का पैगाम नहीं दिया था. कालेज में मेरा दूसरा साल था. मेरी क्लासफेलो नाजिया की सालगिरह थी और मैं उस जलसे में खासतौर पर तैयार हो कर गई थी. यही वजह थी कि वहां मौजूद हर निगाह कुछ क्षणों के लिए मुझ पर जम कर रह गई. नाजिया करोड़पति बाप की औलाद थी और उस दावत में आई हुई लड़कियां कीमती कपड़ों और बेशकीमती जेवरातों से जगमगा रही थीं.
फिर भी एक नौजवान की निगाहें बारबार मुझ पर ही टिक जाती थीं. लंबा कद, बर्जिशी जिस्म, हल्के घुंघराने बाल, सुर्खी मिली रंगत और चमकती आंखें. वह हाथ में कैमरा लिए तसवीरें खींच रहा था. मैं ने महसूस किया कि बारबार कैमरे की फ्लैश मुझ पर पड़ रही थी. उस की निगाहों की गर्मी मैं फासले से भी महसूस कर रही थी. मेरे होंठों पर एक गुरूरभरी मुसकराहट फैल गई. जल्दी ही परिचय का मौका भी आ गया. वह केक की प्लेट उठाए चला आया.
‘‘आप तो कुछ खा ही नहीं रही हैं मिस!’’ उस ने गहरी नजर से मेरा जायजा लिया.
‘‘गुल.’’ मैं ने कनफ्यूज हो कर अधूरा नाम बताया.
‘‘बहुत खूब. आप बिलकुल गुल (फूल) जैसी ही हैं. मुझे राहेल कहते हैं.’’ उस ने मेरी आंखों में झांकते हुए कहा.
उसी वक्त नाजिया वहां आ गई.
‘‘राहेल! तुम इस से मिले? मेरी बेस्टफ्रेंड गुलनार है.’’
‘‘मिल ही तो रहा हूं.’’ वह बोला और मैं ने अपने चेहरे पर रंग बिखरता हुआ महसूस किया.
फिर मुझे पता ही नहीं चला कि कब हम बेतकल्लुफी की सीमा में दाखिल हो गए. जाते समय उस ने चुपके से कागज की एक चिट मेरे हाथ में पकड़ा दी, जो मैं ने हथेली में दबा ली. घर पहुंचते ही धड़कते दिल के साथ वह चिट देखी. उस पर एक फोन नंबर लिखा था. उस रात नींद मेरी आंखों से गायब हो गई थी. नतीजे में सुबह कालेज न जा सकी. सारा दिन व्याकुल सी रही. रात हुई तो सब के सोने के बाद टेलीफोन उठा कर अपने कमरे में ले आई. कांपती अंगुलियों से चिट पर लिखा हुआ नंबर डायल किया. पहली ही घंटी पर रिसीवर उठा लिया गया.
‘‘हैलो!’’ मैं ने धीरे से कहा.
‘‘मुझे यकीन था कि आप फोन जरूर करेंगी.’’ दूसरी तरफ से आवाज आई. मेरे स्वाभिमान को धक्का सा लगा और मैं ने बात किए बिना फोन काट दिया. मगर अगली रात को फिर फोन करने से खुद को रोक न सकी, हालांकि कोई अंदर से मुझे खबरदार कर रहा था कि गुल यह खेल मत शुरू कर. मैं ने गोलमोल शब्दों में उसे अपने दिल की हालत कह सुनाई और उस ने अपनी बेताबियों का खुल कर इजहार किया. यह कच्ची उम्र की जुनूनी मोहब्बत थी, जो नफानुकसान के खयाल से बेपरवाह होती है. इसलिए जब उस ने मुझे कहीं बाहर मिलने को कहा तो मैं सोचेसमझे बिना तैयार हो गई.
उस ने तजवीज पेश की कि मैं कालेज से किसी बहाने छुट्टी ले कर बाहर आ जाऊं. फिर हम दोनों किसी रेस्त्रां में चलेंगे. मुझे एहसास ही नहीं था कि मैं एक अजनबी की मोहब्बत के नशे में डूब कर मांबाप की इज्जत को दांव पर लगा रही हूं. बस मुझे एक ही अहसास था कि शहजादों जैसी खूबसूरती रखने वाला शख्स मेरी मोहब्बत में गिरफ्तार है. साथ जीनेमरने की कसमों ने मुझे उस के जादू में जकड़ लिया था. पहली मुलाकात में, जो एक रेस्त्रां के फैमिली केबिन में हुई. उस ने वादा किया कि अपनी तालीम पूरी होते ही वह अपने वालिदैन को हमारे घर भेजेगा. उस के बाद मैं हर तीसरेचौथे रोज उस से इसी तरह बाहर मिलती रही.
अगरचे मैं बड़ी कामयाबी से इस सारे सिलसिले को घर वालों की नजरों से छिपाए हुए थी, मगर कुदरत ने माताओं को एक खूबी दे रखी है, जो उन्हें अपनी बेटियों की बदलती अवस्था से आगाह रखती है. शायद मेरी खुशी, गालों के दमकते हुए गुलाबों और आंखों में उतरे सपनों ने उन्हें सचेत कर दिया. वह अकसर टटोलती निगाहों से मुझे देखतीं. उन के शक की वजह से मैं राहेल से मिलनेजुलने में सावधानी बरतने लगी. मगर उस समय धमाका हो गया, जब मेरा फस्ट ईयर का नतीजा आया और मैं 4 परचों में फेल हो गई. अब्बू को भी पहली बार मुझ पर सख्त गुस्सा आया. वह आशा कर रहे थे कि मैं इस साल इंटर में कोई अच्छी पोजीशन हासिल करूंगी, क्योंकि न केवल मैं ने कालेज से छुट्टी ली थी, बल्कि घर में भी हर समय अपने कमरे में स्टडी में मगन रहती थी.
हकीकत यह थी कि मैं कालेज कम ही जाती थी. मेरा सारा समय राहेल के साथ घूमनेफिरने में गुजरता था. कमरे में घुसे रहने का कारण यह था कि वहां मैं सब से छिप कर अपने महबूब के तसव्वुर में गुम रह सकती थी. उस समय मेरा नशा हिरन हो गया, जब अब्बू ने मुझ से परचों में फेल होने की वजह पूछी थी. उन की चिंता उचित थी. जब मैं इतनी जहीन और पढ़ाकू थी तो मेरे 4 परचों में फेल हो जाने की क्या वजह थी? मैं ने बहाने तराश कर अब्बू को किसी हद तक नार्मल किया. वादा किया कि अगले सालाना इम्तिहान में पोजीशन ले कर दिखाऊंगी. मगर अम्मी किसी तौर पर रजामंद नहीं हुईं. उन्होंने फैसला सुना दिया कि मेरी पढ़ाई खत्म, कालेज जाना बंद. अब्बू ने अम्मी के फैसले के आगे हथियार डाल दिए.
तालीम की तो मुझे भी कोई खास परवाह नहीं थी, मगर कालेज जाना बंद होने की हालत में मेरे लिए राहेल से मुलाकात का रास्ता बंद हो जाता. टेलीफोन भी मेरी पहुंच से बाहर हो गया था. रात को सोने से पहले अम्मी टेलीफोन सेट अपने कमरे में ले जाती थीं. दिन में भी मुझे मौका नहीं मिलता था. मैं अपना हर तरीका इस्तेमाल कर के थक गई, अम्मी टस से मस नहीं हुईं. तब मैं ने अपना सब से ज्यादा परखा हुआ नुस्खा आजमाया और भूख हड़ताल कर दी. जब मैं ने लगातार 2 दिनों तक कुछ नहीं खाया तो अम्मी घबरा गईं. उन्होंने हर तरह से कोशिश की कि मैं अपनी भूखहड़ताल खत्म कर दूं, मगर मेरी एक ही रट थी कि जब तक मुझे कालेज जाने की इजाजत नहीं मिलेगी, मैं कुछ नहीं खाऊंगी, चाहे मेरी जान ही क्यों न निकल जाए. तीसरे दिन अम्मी ने मुझे बेदिली से इजाजत तो दे दी, मगर धमकी भी दी कि अगर उन्होंने मेरे बारे में ऐसीवैसी कोई बात सुनी तो वह मेरा गला घोंट देंगी और खुद भी जहर खा कर मर जाएंगी.
मैं ने उन की धमकी पर कोई ध्यान नहीं दिया. मैं तो राहेल से मिलने के तसव्वुर में जैसे पागल हुई जा रही थी. क्लासें शुरू होते ही मेरी और राहेल की मुलाकातें फिर शुरू हो गईं. इतने अरसे बाद उसे देख कर मैं जैसे दोबारा जी उठी थी. अब मैं बेधड़क उस के साथ शहर की तफरीहगाहों में चली जाती थी. खास तौर पर समुद्र तट हम दोनों की पसंदीदा जगह थी. उस के संग समुद्र की नरम रेत पर चलते हुए ऐसा लगता, जैसे मैं ने पूरी दुनिया जीत ली हो. उस दिन भी हमारा क्लफटन (कराची का मुंबई के जुहू जैसा स्थान) का प्रोग्राम था. मैं घर कह कर आई थी कि कालेज के बाद अपनी सहेली के यहां जाऊंगी. वहां से शाम तक घर वापस आऊंगी. राहेल कालेज से बाहर एक जगह पर अपनी गाड़ी लिए मेरे इंतजार में खड़ा था. वहां से हम दोनों क्लफटन पहुंच गए. छुट्टी का दिन न होने की वजह से वहां रश नहीं था.
राहेल कुछ ज्यादा ही खुशगवार मूड में था. वह रहरह कर जिस अंदाज में तारीफ कर रहा था, उस ने मुझे आसमान पर पहुंचा दिया था. हम समुद्र के किनारे टहलते रहे. उस की शरारतों में बेबाकी पाई जाती थी, मगर मैं ने बुरा नहीं माना. यों ही हंसतेखेलते वक्त गुजर गया और होश उस समय आया, जब सूरज डूबने के करीब था. खारे पानी और साहिल की रेत ने मेरा हुलिया बिगाड़ दिया था और मैं इस हुलिए में घर जा कर अम्मी के क्रोध को दावत नहीं देना चाहती थी. मगर मसला यह था कि मैं अपना हुलिया कहां ठीक करती? इस परेशानी का इजहार मैं ने राहेल से किया तो वह कहकहा लगा कर बोला, ‘‘बस इतनी सी बात? तुम्हें परेशान देख कर तो मेरी जान निकल जाती है. यहीं करीब ही मेरे एक दोस्त का कौटेज है. इत्तेफाक से उस की चाबी मेरे पास है. वहां साफ पानी होगा. तुम आराम से मुंहहाथ धो लेना. वैसे भी देर हो गई है. तुम्हें अब तक घर पहुंच जाना चाहिए था.’’
‘‘तुम याद कहां रहने देते हो?’’ मैं ने नाराजगी से कहा.
कौटेज छोटा सा था और बिलकुल खाली था. चौकीदार भी नहीं था, जबकि सुनसान साहिल पर चौकीदार रखना लाजिमी था.
‘‘इस कमरे से अटैच्ड बाथ है,’’ राहेल ने एक कमरे की तरफ इशारा किया. वह शानदार बेडरूम था. मैं बाथरूम में चली गई. साफ पानी से जल्दीजल्दी मुंहहाथ साफ किए. कंघी से सिर में फंसी रेत साफ की और एक हद तक कपड़े भी साफ किए. फिर मैं ने आईने में अपना जायजा लिया और बाहर जाने के लिए बाथरूम के दरवाजे का हैंडिल घुमाया, मगर वह टस से मस नहीं हुआ. मैं ने जोर लगाया. फिर भी कोई असर नहीं हुआ. अंदर जाते समय वह आसानी से घूम गया था. पहली बार मुझे किसी खतरे का अहसास हुआ, लेकिन मेरे दिल ने तसल्ली दी कि यह कोई फाल्ट है. मैं ने दरवाजा पीट कर राहेल को आवाज दी.
‘‘मैं यहीं हूं. शोर मत मचाओ.’’ उस की आवाज करीब से उभरी.
‘‘राहेल, यह दरवाजा बंद हो गया है. खुल नहीं रहा.’’ मैं ने रुआंसी हो कर कहा.
‘‘बंद नहीं हुआ, बल्कि मैं ने लौक कर दिया है.’’ वइ इत्मीनान से बोला तो मेरी जान निकल गई, ‘‘राहेल, प्लीज, मजाक बंद करो. मुझे पहले ही देर हो गई है.’’
‘‘देर तो तुम्हें हो ही चुकी है जानेमन और मजाक यह नहीं, वह था, जो मैं अब तक करता आया था.’’ उस के लहजे में व्यंग्य था.
‘‘दरवाजा खोलो. तुम मुझे यों कैद नहीं कर सकते.’’ मैं पूरी ताकत से चिल्लाई.
‘‘कैद तो तुम हो चुकी हो. अब जरा 2-4 रोज तो हमारे पास रहो.’’ उस ने कहकहा लगा कर कहा.
‘‘हमारे… हमारे से क्या मतलब?’’ मैं चौंकी.
‘‘भोली लड़की, मैं ने दोस्तों की दावत का इंतजाम किया है. तुम्हारे पास हुस्न का जो खजाना है, उस से तो कितने ही जरूरतमंद खुशहाल हो सकते हैं.’’ उस की हंसी में कमीनापन था.
‘‘बंद करो बकवास. कुत्ते! धोखेबाज!’’ मैं चीखी. फिर सिसकसिसक कर रोने लगी, ‘‘राहेल, तुम्हें क्या हो गया है? तुम मुझ से मोहब्बत करते हो. फिर भी मुझे यों रुसवा करना चाहते हो?’’
‘‘मोहब्बत,’’ उस ने फिर कहकहा लगाया, ‘‘यह किस चिडि़या का नाम है? जानेमन, हम तो हुस्नोंशबाब के पुजारी हैं. अब तुम जरा पुरसुकून हो जाओ. नहाधो कर हमारे स्वागत के लिए तैयार हो लो. मैं जा कर दोस्तों को खबर कर आऊं और सुनो, शोर मचाने से कुछ हासिल नहीं होगा. इस वीराने में तुम्हारी फरियाद सुनने कोई नहीं आएगा.’’
फिर उस के कदमों की और मोटरसाइकिल स्टार्ट होने की आवाज आई. मैं खुद को शिकारियों के घेरे में घिरी हुई हिरनी महसूस कर रही थी. यह बात अच्छी तरह मेरी समझ में आ गई थी कि वह अब तक मुझे बेवकूफ बना रहा था. वह मुनासिब मौके की तलाश में था, जो बेवकूफी में मैं ने उसे बख्श दिया था. जिंदगी में पहली बार मुझे अपनी किसी तमन्ना पर पछतावा महसूस हुआ था. मेरा दिल चाह रहा था कि जमीन फटे और मैं उस में समा जाऊं या मौत का फरिश्ता मुझे आ दबोचे, ताकि आने वाले हालात का सामना न करना पड़े. मगर दोनों बातें मुमकिन नहीं थीं. अपनी इज्जत खतरे में देख कर मेरे अंदर की औरत जाग उठी. मैं ने फैसला कर लिया कि अपनी इज्जत पर आंच नहीं आने दूंगी, चाहे मुझे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े. उस समय मुझे खुदा की याद आई.
मैं जानती थी कि उस के सिवा अब मुझे कोई नहीं बचा सकता था. मैं ने दिल की गहराइयों से गिड़गिड़ा कर अपनी हिफाजत की दुआ मांगी और उस कैद से रिहाई की सोचने लगी. बाथरूम खासा बड़ा था. उस में बाथटब भी था. एक तरफ वाशबेसिन था, जिस में आगे शीशा लगा हुआ था. उस के बराबर में एक रैक था, जिस पर शैम्पू और साबुन आदि रखे थे, मगर शेविंग का सामान नहीं था, वरना मैं ब्लेड से शायद अपना गला काट कर खुदकुशी कर लेती. इस बात का मुझे कैद करने वालों को भी अंदाजा था. इसलिए उन्होंने बाथरूम से हर वह चीज हटा दी थी, जिसे मैं रिहाई या खुदकुशी के लिए इस्तेमाल कर सकूं. रैक स्टील का बना हुआ था, मगर दीवार में इस तरह जुड़ा हुआ था कि उसे वहां से निकालना मेरे लिए मुमकिन नहीं था.
बाथरूम का दरवाजा ठोस लकड़ी का था और मेरे लिए उसे तोड़ना नामुमकिन था. तब मेरी निगाह रोशनदान पर गई. फर्श से लगभग 8 फुट ऊंचा वह रोशनदान इतना चौड़ा था कि उस में से आसानी से बाहर निकल सकती थी. उस में शीशे के 2 पट थे, जो सिटकिनी के सहारे बंद थे, मगर असल मसला उस तक पहुंचना था. यह मुमकिन नहीं था कि मैं उछल कर वहां तक पहुंच सकूं. कोई ऐसी चीज मुहैया नहीं थी, जिस के सहारे मैं ऊपर चढ़ सकती. वाशबेसिन और बाथटब, सब अपनी जगह पर फिट थे. फिर भी मैं ने उछल कर रोशनदान की मुंडेर पकड़ने की कोशिश की, मगर कुछ नाकाम कोशिशों के बाद मेरा हौसला जवाब दे गया और मैं फूटफूट कर रोने लगी. मुझे महसूस हुआ कि मैं खुद कुछ भी करूं, उस कैदखाने से नहीं निकल सकूंगी.
कुछ देर रोने के बाद मुझे अक्ल आ गई कि इस तरह आने वाली मुसीबत टल नहीं सकेगी. फिर मुझ पर जैसे जुनून छा गया. मैं ने रैक से साबुन और शैम्पू की बोतल आदि उठा कर फर्श पर दे मारी. रैक को कुछ जोरदार झटके दिए, मगर वह अपनी जगह जमा रहा. फिर बेसिन को झिंझोड़ा, मगर वह भी टस से मस नहीं हुआ. आखिर मैं ने टब को जोरदार ठोकर मारी और यह देख कर चौंक गई कि वह अपनी जगह से हिल कर रह गया. मैं ने उसे पकड़ कर झटके दिए. तब पता चला कि वह फर्श के साथ महज पाइप की मदद से जुड़ा हुआ था. पाइप शायद ढीला पड़ गया था. उस समय जाने कहां से मुझ में इतनी ताकत आ गई थी कि मैं ने उसे झटके दे कर आखिर फर्श से अलग कर दिया. सेरामिक्स का बना हुआ वह टब 3 फुट चौड़ा और 5 फुट लंबा था. बनावट में गोलाकार था. मैं उसे उस की जगह से सरकाने लगी.
अब मैं टब को लंबाई के रुख से दीवार के साथ लगाती तो खुद टब पर चढ़ना मेरे लिए मुमकिन न रहता और चौड़ाई के रुख से खड़ा करने की हालत में उस के स्लिप हो जाने का खतरा था. बहरहाल मैं ने टब दीवार से लगा कर खड़ा किया. सैंडिल उतारी और ऊपर चढ़ने लगी, मगर पहली ही कोशिश में टब स्लिप हो गया और मेरा घुटना दीवार से जा टकराया. वक्त रोने का नहीं था. अगर मौके के चंद लमहे मेरे हाथ से निकल जाते, तो दरिंदों से छुटकारा पाना नामुमकिन था. इस बार टब को कम तिरछा कर के दीवार से टिकाया और बड़ी सावधानी से धीरेधीरे कदम जमा कर ऊपर चढने लगी. बड़ी मुश्किल से अपने जख्मी घुटने के कंपन पर काबू पाया. खुदाखुदा कर के मेरा हाथ रोशनदान तक जा पहुंचा और उस की मुंडेर पर हाथ जमा कर मैं ने उस के पट खोले.
मेरी खुशकिस्मती थी कि रोशनदान की दूसरी तरफ खासा चौड़ा छज्जा था. मैं ने बाहर की मुंडेर पर अभी हाथ जमाया ही था कि ऐन उसी लमहे टब फिर स्लिप हो कर एक धमाके से गिरा. मुझे शदीद झटका लगा. एक लम्हे के लिए ऐसा महसूस हुआ, जैसे मेरी बांहें कंधों से उखड़ जाएंगी. मेरी पूरी कोशिश थी कि मुंडेर मेरे हाथ से न छूटने पाए. मुझे नहीं पता कि मैं कैसे रोशनदान से गुजर कर छज्जे तक पहुंची. छज्जे का हिस्सा कौटेज के अंदर ही था. इसलिए मैं उस पर से होती हुई पिछले हिस्से में आ गई. यह कौटेज से बाहर था. जमीन वहां से 10-11 फुट नीचे थी, मगर मैं ने हिम्मत की. पहले पांव नीचे लटकाए, फिर बाहों के बल पर छज्जे से लटक गई. मैं ने आंख बंद कर के छलांग लगा दी. खुशकिस्मती से और किसी चोट से महफूज रही.
अंधेरा पूरी तरह फैल चुका था और दूर कहींकहीं मकानों की रोशनियां झिलमिला रही थीं. मैं ने उठ कर कपड़े झाड़े. सैंडिल तो अंदर ही रह गई थी, मगर दुपट्टा मेरे पास था, जिसे मैं ने अच्छी तरह अपने गिर्द लपेटा और अंधाधुंध साहिल से कुछ दूर स्थित सड़क की तरफ भागी. मैं जल्दी से जल्दी उस कैदखाने से दूर निकल जाना चाहती थी. सड़क तक आतेआते कितने ही नुकीले कंकड़ों ने मेरे पांव छलनी कर दिए. कितनी ही बार मैं ठोकर खा कर गिरी. मुझे कुछ पता नहीं चला. अभी सड़क पर मैं ने कदम रखा ही था कि दाईं तरफ से एक तेज रोशनी मेरे करीब आ कर रुक गईं. फिर मैं ने आंसुओं से धुंधलाई हुई आंखों से एक शख्स को गाड़ी से उतर कर अपनी तरफ बढ़ते देखा. वह कोई मर्द था.
‘‘अंधी हैं आप? अभी मेरी गाड़ी के नीचे आ जातीं.’’ उस शख्स ने मेरे सामने आ कर गुस्से से कहा.
‘‘प्लीज, मुझे बचा लीजिए. मैं कुछ दरिंदों के चंगुल से निकल कर भागी हूं.’’ मैं ने रोते हुए कहा. वह गौर से मेरा जायजा ले रहा था.
‘‘रात को तनहा भटकने वाली लड़कियों के पीछे दरिंदे लग ही जाते हैं.’’ उस ने रुखाई से कहा. मैं फूटफूट कर रोने लगी.
वह शख्स बौखला गया, ‘‘मोहतरमा! खुदा के लिए चुप हो जाएं. अगर इस वक्त कोई यहां आ गया तो आप को यों रोती हुई और आप का हुलिया देख कर न जाने मेरे बारे में किस गलतफहमी में पड़ जाए.’’
तब मैं ने एक नजर खुद पर डाली. मेरे कपड़े कई जगह से फट गए थे. रेतमिट्टी से अटी हुई हालत बेहद खराब थी. मैं ने जल्दी से दुपट्टे को ठीक किया.
‘‘आप को कहां जाना है?’’ उस ने पूछा.
मैं ने बिना उस की ओर देखे उसे अपने इलाके का नाम बताया.
‘‘बैठिए.’’ उस ने एक गहरी सांस ले कर कहा.
‘‘मगर…’’ मैं ने कहना चाहा.
‘‘अगरमगर कुछ नहीं. आप को मुझ पर भरोसा करना होगा, वरना मैं चलता हूं. आप किसी भरोसे वाले का इंतजार करें.’’ वह कुछ गुस्से से बोला, ‘‘मुमकिन है कि पीछे से वही बदमाश आ जाएं, जिन से बच कर आप भागी हैं.’’
वह सही कह रहा था. मैं डर कर जल्दी से गाड़ी में बैठ गई. उस ने गाड़ी आगे बढ़ा दी. वह मेरे जानेपहचाने रास्ते पर सफर करती हुई मेरे इलाके में दाखिल हुई. मैं इशारे से उसे रास्ता बताती गई. मैं ने अपनी गली से कुछ पहले उतरना मुनासिब समझा. मेरे उतरते ही उस ने गाड़ी आगे बढ़ा दी. तब मुझे खयाल आया कि अपने मोहसिन का नाम तक नहीं पूछा, यहां तक कि उस का चेहरा तक ठीक से न देख सकी थी. खुदा ने मेरी इज्जत महफूज रखी थी, मगर मैं घर वालों की पूछताछ से किसी तरह नहीं बच सकती थी. उस समय रात के साढ़े 8 बज रहे थे और मैं कभी इतनी देर तक घर से गायब नहीं रही थी. बहरहाल, हिम्मत कर के घर की तरफ चल पड़ी. खुशकिस्मती से हमारी गली के सभी खंभों के बल्ब शरारती लड़कों ने तोड़ दिए थे. उस लमहे मुझे अंधेरा बहुत गनीमत लगा कि उस ने मेरे शिकस्ता वजूद को दूसरों की नजरों से आने से बचा लिया था.
अम्मी जैसे दरवाजे से लगी मेरे इंतजार में थीं. हल्की सी दस्तक के जवाब में फौरन दरवाजा खोल दिया. उन के चेहरे पर परेशानी जैसे जम कर रह गई थी. मुझे देखते ही उन की आंखों में खून उतर आया. इत्तेफाक से बाकी सब घर वाले टीवी लाउंज में बैठे प्रोग्राम देख रहे थे. मैं फौरी तौर पर अब्बू और भाइयों की नजरों में गिरने से बच गई थी. अम्मी एक शब्द बोले बगैर मुझे अंदर कमरे में ले गईं और दरवाजा बंद कर के दांत पीसती हुई धीरे से बोलीं, ‘‘कहां से आ रही है कमीनी?’’
जवाब में मैं ने हिचकियों के बीच पूरी कहानी सुनाई.
‘‘चुप कर जा जलील!’’ उन्होंने मुझे थप्पड़ मारते हुए कहा, ‘‘मैं ने तेरे बापभाइयों से यह बात छिपाई है. और तू टेसुवे बहा कर उन्हें बताने जा रही है. जा, दफा हो जा. अपना हुलिया ठीक कर.’’
मैं ने गुसलखाने में जा कर नहाया और साफसुथरा जोड़ा पहन लिया. रात सब के सोने के बाद अम्मी मरहम ले कर मुझे लगाने लगीं. तब मैं उन से लिपट कर रोने लगी. मैं ने माफी मांगी तो वह दबी आवाज में बोलीं, ‘‘बेटी, मां तो औलाद की बड़ी से बड़ी गलती माफ कर देती है. मगर तूने मेरा ऐतबार खो दिया है.’’
उन की बात तल्ख सही, लेकिन सच थी. मैं ने जान निसार करने वाले मांबाप की मोहब्बत को नजरअंदाज कर के और एक बेहद गंदे शख्स पर ऐतबार कर के उन्हें धोखा दिया था. मुझे पता था कि अम्मी अब मुझ पर ऐतबार नहीं करेंगी. इसलिए कालेज जाने का खयाल तो मैं दिल से निकाल ही चुकी थी. इस के अलावा भी मैं ने घर से निकलना बंद कर दिया था. राहेल के साथ संबंध उस दिन से खत्म हो गया था. मैं ने खुदा का शुक्र अदा किया कि राहेल के पास मेरा कोई खत या तसवीर नहीं थी, वरना उस जैसे कमीने का कोई भरोसा नहीं था कि वह मुझे ब्लैकमेल न करता. अब सारा दिन बोरियत से बचने के लिए मैं घर के कामों में खुद को व्यस्त रखने लगी. इस के अलावा कोर्स की किताबें मंगवा कर सेकेंड ईयर के इम्तिहान की तैयारी शुरू कर दी.
अम्मी मेरे इस बदलाव से बहुत खुश थीं. वह मुझे सारे घरेलू मामलों में माहिर करना चाहती थीं. हमेशा मुझे कुछ न कुछ सिखाने की केशिश करती रहतीं. मैं भी मेहनत कर रही थी. मैं ने इंटर का इम्तिहान आसानी से पास कर लिया. अम्मी मुझे इम्तिहान दिलाने ले जाया करती थीं. एक साल गुजरने के बावजूद अम्मी की बेऐतबारी पहले दिन की ही तरह कायम रही. उन की आंखों में लहराते शक के नाग जैसे हर लमहे मुझे डसते रहते थे. अब वह बड़ी सरगर्मी से मेरे लिए आए हुए रिश्तों की छानबीन में लगी थीं. मुझे मर्द के नाम से वहशत होती थी, मगर मैं अम्मी के आगे मजबूर थी. उन्हीं रिश्तों में सुलतान अहमद का रिश्ता भी था. वह हुकूमत में एक अच्छे ओहदे पर लगे हुए थे. खानदानी थे और हमारी बिरादरी से ताल्लुक रखते थे. मतलब यह कि वह हर दृष्टि से मेरे लिए मुनासिब थे. अम्मी ने अब्बू और बहनों की रजामंदी पा कर सुलतान अहमद के घर वालों को हां कर दी.
मेरी ससुराल वालों को शादी की जल्दी थी. अम्मी को भी कोई ऐतराज नहीं था. उन्होंने अच्छीखासी तैयारी पहले ही कर रखी थी. तारीख तय होते ही घर में चहलपहल शुरू हो गई. एक दिन बड़ी आपा ने मुझे एक लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘दूल्हे मियां की तसवीर देख ले. बाद में हम से कुछ न कहना.’’
मैं ने लिफाफा ले कर बेजारी से एक तरफ डाल दिया कि देख लूंगी. अब जब शादी में चंद रोज बाकी रह गए तो मुझे दूल्हे की तसवीर दिखाने का खयाल आ रहा था. अपनी इस बेकद्री पर मैं खून के आंसू बहा कर रह गई. कहां वह कि मेरी छोटी सी छोटी चीज भी मेरी मरजी के बगैर नहीं पसंद की जाती थी, कहां यह सितम कि जिंदगी भर का साथी बगैर मुझ से पूछे, मेरी मरजी जाने चुन लिया गया था. अपनी इस हद तक बेकद्री की सारी जिम्मेदारी भी मुझ पर आयद होती थी. आखिर मेरी जिंदगी में वह दिन भी आ गया, जिस की तमन्ना हर लड़की के दिल में अंगड़ाइयां लेती रहती हैं. मगर मैं उस दिन के हर सपने से पहले ही बेहिस हो चुकी थी. मेरे बेजान से जिस्म को एक मूरत की तरह सजा कर सुलतान अहमद के पहलू में ला बैठाया गया. इस से पहले अम्मी की बात मेरे दिल में फांस की तरह गड़ गई. उन्होंने कहा था कि मैं हमेशा अपने शौहर की वफादार बन कर रहूं.
सुलतान अहमद का घराना पौश कालोनी ‘सोसाइटी’ के एक बड़े से बंगले में रहता था. सुहाग का कमरा बड़ी खूबसूरती से सजाया गया था. उसी सजे हुए कमरे में उस शख्स का इंतजार कर रही थी, जिसे मेरा मालिक बना दिया गया था. दिल की धड़कनों में कोई सनसनी नहीं थी. फिर भी जैसे ही दरवाजे पर आहट हुई, मेरे अंदर जमी बर्फ पिघलने लगी. एक नई भावना अंगड़ाई ले कर जागने लगी, जो शायद निकाह के 2 बोलों का असर था. वह मेरे सामने बैठते हुए बोले, ‘‘क्या आप यकीन करेंगी कि मैं ने आप की तसवीर भी नहीं देखी है. यह सब मेरी बहनों की शरारत है. वे मुझे सरप्राइज देना चाहती थीं. उन का कहना था कि आप ख्वाबों की शहजादियों से भी ज्यादा हसीन हैं और यह मेरी खुशकिस्मती है कि आप मेरा नसीब हैं,’’ यह कहतेकहते वह मेरे करीब झुक आए, ‘‘क्यों न हम तसदीक कर लें. इसी बहाने मुंह दिखाई भी हो जाएगी.’’
उन्होंने अचानक घूंघट उलट दिया. मैं उन का चेहरा न देख सकी, मगर वह एक झटके से मुझ से दूर हो गए. थोड़ी देर तक वह बेचैनी से कमरे में टहलते रहे. फिर सर्द सी आवाज में बोले, ‘‘आप चाहें तो आराम फरमाएं.’’ यह कह कर उन्होंने तकिया उठाया और करीब पड़े सोफे पर लेट गए. मैं डे्रसिंग टेबल के आईने में जेवर उतारते हुए खुद को देख रही थी कि आखिर कहां कमी रह गई थी, जो वह अचानक यों मुझ से बेजार हो गए. जब मैं लिबास बदल कर पास आई तो वह लेटे थे. शायद सो गए थे. मगर मुझे अभी सारी रात अपनी बदनसीबी का मातम करना था.
उस दिन के बाद मैं ने कभी सुलतान अहमद के रवैये में अपने लिए मोहब्बत महसूस नहीं की. उन्होंने मेरे वे सभी हक अदा किए, जो एक पति पर लाजिम हो सकते हैं, सिवाय उस चाहत के, बीवी अपने पति से जिस की तलबगार होती है. मैं शायद सारी उम्र इस बात से बेखबर रहती कि सुलतान अहमद के इस रवैये की वजह क्या है, अगर उन को हार्टअटैक न होता. यह हमारी शादी की 22वीं सालगिरह थी. मेहमानों के रुखसत होने के बाद अचानक उन्होंने सीने में तकलीफ की शिकायत की और फिर देखते ही देखते उन की हालत बिगड़ती चली गई. उन को फौरी तौर पर अस्पताल ले जाया गया. वह दरम्याने दर्जे का हार्टअटैक था. तीसरे दिन डाक्टरों ने उन की हालत खतरे से बाहर करार दे कर उन्हें एक प्राइवेट कमरे में शिफ्ट कर दिया. इन 3 दिनों में मेरी हालत दीवानी जैसी हो गई थी. मैं हर लमहे उन के बेड से लगी रहती थी. इस सारे वक्त एक लमहे के लिए सो न सकी थी.
रात के किसी पहर उन्होंने पानी मांगा. मैं ने जल्दी से पानी गिलास में निकाल कर उन्हें दिया. उन्होंने पानी पी कर गिलास मुझे थमाया और बड़ी कमजोर सी आवाज में बोले, ‘‘गुल, मैं तुम से बहुत शर्मिंदा हूं.’’
‘‘यह आप क्या कह रहे हैं?’’ मैं ने उन के सीने पर हौले से हाथ रखा, ‘‘यह सब मेरा फर्ज है. आप की खिदमत तो मेरे लिए इबादत का दर्जा रखती है.’’ मेरा लहजा शिकायती हो गया.
‘‘मैं जानता हूं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘इसीलिए तो शर्मिंदा हूं. सारी उम्र तुम्हें सच्ची खुशी न दे सका. मेरी बात सुनो. कुछ कहो मत. यह हकीकत है कि मैं ने सारी उम्र तुम्हें सिवाय बेरुखी के और कुछ नहीं दिया, मगर मैं मजबूर था. जब से तुम्हें देखा, मैं एक आग में जल रहा था, जो मुझे अंदर ही अंदर भस्म किए जा रही थी.’’ कमजोर आवाज में बोलतेबोलते उन का लहजा जज्बाती हो गया, मगर उन्होंने जो कहा, उसे सुन कर मेरा वजूद जैसे भूडोल के घेरे में आ गया, ‘‘तुम्हें वह रात याद होगी, जब तुम भयभीत और उजड़ीउजड़ी सी दौड़ रही थीं और साहिली सड़़क पर एक गाड़ी के नीचे आतेआते बची थीं? फिर उस गाड़ी वाले ने तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचाया था.’’
‘‘मगर… मगर आप को यह सब कैसे पता चला?’’
‘‘इसलिए कि वह शख्स मैं ही था,’’ उन्होंने ठहरेठहरे लहजे में कहा, ‘‘जब मैं ने तुम्हें अपनी दुलहन के रूप में देखा तो मत पूछो, मुझ पर क्या गुजरी थी. वह खयाल बारबार मुझे किसी नाग की तरह डसने लगा था कि मेरी बीवी शादी से पहले किसी दूसरे मर्द से मोहब्बत करती थी. क्यों, मैं ठीक कह रहा हूं न?’’ उन्होंने मेरी आंखों में झांका और मेरी निगाहें झुक गईं. उन्होंने बात जारी रखी, ‘‘मगर मैं खुद को तसल्ली दे लिया करता था कि तुम ने उस का असली नफरत भरा रूप देख कर उसे अपने दिल से निकाल दिया होगा. फिर भी अपने दिल को न समझा सका. मैं तुम से मोहब्बत न कर सका.’’
बोलतेबोलते थक कर वह चुप हो गए. फिर शायद सो गए, मगर मुझे तकलीफों के एक नए भंवर में डाल दिया. उन्होंने मुझे वह सब याद दिला दिया, जो मैं भूल जाना चाहती थी. बेशक वह मेरे सब से बड़े मोहसिन थे. पहले उन्होंने मुझे उस रात घर पहुंचा कर रुसवाई से बचाया, फिर मुझ से शादी कर के मुझे इज्जत बख्शी. फिर भी वह सब ख्वाबख्वाब सा था.