सावन का महीना था. बरखा की रिमझिमरिमझिम फुहारें पड़ रही थीं. महेवा की धरती हरीभरी हो उठी थी. पेड़ों पर नएनए पत्ते उस हरियाली में एक नया उजास पैदा कर रहे थे. मंदमंद चलती पवन और आकाश में तैरती बादलों की घटाओं ने सिणली के तालाब के आसपास की सुंदरता चौगुनी कर दी थी. बादलों की गर्जना के साथ मोरों की पीऊपीऊ मन को मोह रही थी.
तालाब के किनारे के पेड़ों पर पड़े झूलों पर झूला झूलते हुए महिलाएं यानी तीजनियां समूह में सावन के गीत गा रही थीं. बीचबीच में उन की हंसी की खिलखिलाहट सिणाली के तालाब पर इत्र सी तैर रही थी. अचानक ही उन के झूले रुक गए और झूला झूल रही महिलाएं ‘बचाओ...बचाओ...’ चिल्लाने लगीं.
वातावरण में गीतों की जगह चीखपुकार गूंजने लगी. क्योंकि गीत गा रही तीजनियों को पाटण का सूबेदार हाथी खान अपने साथ ले जा रहा था. जब तक गांव वालों को इस बात की खबर लगती, तब तक हाथी खान उन महिलाओं को ले कर जा चुका था.
गांव के लोग हाथ मलते रह गए. उस समय महेवा के राजकुमार जगमाल अपनी रियासत से बाहर गए हुए थे. उन के अलावा और किसी में इतना साहस नहीं था कि वह हाथी खान का पीछा करता. हाथी खान के इस दुस्साहस से गांव वाले बहुत नाराज थे. यह 15वीं शताब्दी की बात है.
उस समय राजकुमार जगमाल के पिता रावल माला महेवा में तप कर रहे थे. यही रावल माला अपनी भक्तिमती पत्नी रूपांदे की संगति में रावल मल्लीनाथ कहलाए थे. आज उन्हीं के नाम पर यह प्रदेश मालानी कहलाता है. वह तपस्वी और संत के अलावा बड़े ही बलशाली योद्धा भी थे.